11.14 आत्मा एवं भूत
मार्क्सवादी ‘आत्माकी अपेक्षा प्रकृति या भूतको ही मूल मानते हैं। भौतिक चिन्त्य वस्तुसे भिन्न चिन्तन या विचार पृथक् नहीं किया जा सकता है। चेतना या विचार चाहे कितने ही सूक्ष्म क्यों न प्रतीत हों, परंतु हैं वे मस्तिष्ककी उपज ही। मस्तिष्क एक भौतिक दैहिक इन्द्रिय ही है। यह भौतिक जगत्का सर्वश्रेष्ठ इन्द्रिय है। मार्क्सके शब्दोंमें ‘पदार्थ मनसे उत्पन्न नहीं हुआ, किंतु मन पदार्थकी सर्वोत्कृष्ट सृष्टि है।’ लेनिनने कहा है कि ‘सृष्टि-ज्ञानका अर्थ है—पदार्थकी गति और उसकी चिन्तनशीलताका ज्ञान।’ इस तरह भौतिक पदार्थ या प्रकृति ही मूल है। विचार या चेतना उसका प्रतिबिम्ब है। व्यक्तिके विचार उसकी सामाजिक सत्ता या परिस्थितिसे स्वतन्त्र नहीं होते। कहा जाता है कि ‘एक दार्शनिक अपने युगका कीचड़ अपने पैरोंके साथ लिये जाता है। उसके दर्शनपर उसके समाजकी छाप अवश्य ही रहती है।’ लास्कीके शब्दोंमें ‘जो जैसा रहता है, वैसा ही सोचता है।’ एमिल वर्नसके शब्दोंमें ‘वस्तु अर्थात् वह वास्तविकता, जो अचेतन है, पहले थी। मन जो सचेतन है, बादमें आया। वस्तु अर्थात् बाह्य पदार्थ मनसे स्वतन्त्र है।’
यद्यपि पाश्चात्य आदर्शवादी दार्शनिकोंने मनस् या सर्वमनस् तत्त्वको ही मूल माना है। उसीसे अचेतनकी उत्पत्ति माना है। काण्ट, फिक्टे, हीगेल आदि इसी विचारके हैं। अद्वैतवादी वेदान्ती भी एक हदतक कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्वप्रपंच मनका विस्तार है। यह द्वैत मनोमात्र ही है—‘मनोमात्रमिदं द्वैतम्।’ मनके अमनीभाव होनेपर द्वैत कुछ भी नहीं रह जाता—‘मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते’ (माण्डूक्यकारिका ३।३१) बौद्धोंका क्षणिक विज्ञान ही बाह्य अर्थके आकारसे परिणत होता है। यह भी इन्हीं मतोंसे मिलता-जुलता मत है, तथापि क्षणिक विज्ञान या व्यावहारिक स्थायी मन या अन्त:करण तथा उसकी इच्छा-द्वेष, सुख-दु:ख आदि सब विकृतियोंकी स्थिति, गति, अपचिति (लय) जिस नित्य अखण्ड बोधसे भासित होती हैं, वह अनन्त सद्घन, चिद्घन, आनन्दघन ब्रह्मात्मा ही वेदान्तमतमें सर्वमूल है। मन भी उसी अखण्ड बोधका विवर्त्त है। अन्वय-व्यतिरेकसे जैसे मृत्तिकाके होनेपर ही मृद्विकार घटादि उपलब्ध होते हैं, मृत्तिकाके बिना वे उपलब्ध नहीं होते, जैसे जलके रहनेपर ही तरंगादि प्रतीत होते हैं, जलके बिना वे प्रतीत नहीं होते, वैसे ही मनके होनेपर ही बाह्य एवं आभ्यन्तर भौतिक दृश्यमात्र प्रतीत होते हैं, मनके बिना कुछ भी भासित नहीं होते हैं। इसी प्रकार सर्वान्तर्द्रष्टाका अस्तित्व ही सम्पूर्ण दृश्यके अस्तित्वका मूल है। अखण्ड बोधके बिना तो मन, अन्त:करण या विज्ञान भी भासित नहीं होते। अतएव मूल पदार्थ अखण्ड बोध सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है। मनसे भिन्न मस्तिष्क भी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। मनको श्रोत्र, त्वक्, चक्षु आदि दस बाह्य इन्द्रियोंसे भिन्न ग्यारहवीं आन्तर इन्द्रिय माननेमें भी कोई आपत्ति नहीं है। उसी मनमें बुद्धि, चित्त, मन, अहंकार—ये चार भेद होते हैं। उसमें इच्छा, द्वेष, सुख-दु:खादि गुण व्यक्त हुआ करते हैं। भले ही मस्तिष्कके तन्तुविशेषोंके निघर्षसे इसकी व्यंजना होती हो; परंतु यह मस्तिष्क एवं उसके तन्तु या तन्तुका निघर्षमात्र नहीं है। जैसे ठण्डे और गरम दो तार या दो तारोंका संघर्ष ही विद्युत् नहीं है, किंतु उनसे व्यक्त होनेवाली विद्युत् उनसे भिन्न स्वतन्त्र वस्तु है, वैसे ही मन इन मस्तिष्क, तन्तु एवं उनके निघर्षसे भिन्न वस्तु है। शुद्ध स्फुरण, अखण्ड बोध तो विचारोंसे भी भिन्न स्वतन्त्र वस्तु है।
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘विचारोंका जन्म बाह्यजगत्से ही होता है। फिर भी सभी विचार सत्य नहीं होते। वास्तविकताका ठोस अनुभव ही बतलाता है कि विचार सही है या नहीं। विचार करनेपर यह भी असंगत ही प्रतीत होता है। फिर भी वास्तविकताके जिस ठोस अनुभवसे ही विचारकी सत्यताका निश्चय होता है, वह अनुभव क्या है? क्या वह भी जड, बाह्य वस्तु है? अत: हर दृष्टिसे यह मानना पड़ेगा कि विचार हो या अनुभव, ठोस हो या पोला, किसी भी वस्तुका अस्तित्व निर्दोष अनुभव या विचारके बिना सिद्ध नहीं होता।’ इससे इतना ही कहा जा सकता है कि पूर्वानुभवका बाधक अनुभवान्तर होनेसे पूर्वानुभवको भ्रम समझा जाता है। बाधक अनुभव न होनेसे पूर्वानुभवको स्वत: ही सत्य माना जाता है। सर्वथा अपि अनुभवके बिना बाह्य पदार्थकी सत्ता ही सिद्ध नहीं होती है। साधारण विचार, साहित्य आदिपर अवश्य समाजकी छाप होती है। उसमें भी उच्च श्रेणीके विचारकों, लेखकोंके ग्रन्थोंमें उच्च सामाजिक स्थितियोंका अंकन होता है। निम्न विचारके ग्रन्थोंपर निम्नश्रेणीका ही प्रभाव अंकित होता है। इसी अंशमें लास्कीका कथन संगत है, परंतु प्रामाणिक दर्शनके लिये तो देश, काल, परिस्थितियोंके आवरणोंका भेदन करनेसे ही तत्त्वानुभूति होती है। बिना रंगीन चश्मा उतारे वस्तुका वास्तविक रूप-ज्ञान सर्वथा ही दुर्घट होता है।
देहके समान ही इन्द्रियाँ भी आत्मा नहीं है। यदि सम्मिलित होकर इन्द्रियाँ आत्मा हैं, तब तो एक इन्द्रिय नष्ट होनेपर आत्मनाश-प्रसंग होगा; क्योंकि एकके नष्ट होनेपर भी समस्तता विनष्ट हो गयी। यदि प्रत्येक इन्द्रियाँ आत्मा हैं, तो परस्पर विरुद्ध दिक्क्रिया होनेसे शरीर ही उन्मथित हो जायगा। ‘योऽहं चक्षुषा घटमद्राक्षं सोऽहं घटं त्वचा स्पृशामि’ ‘जिस मैंने चक्षुसे घट देखा था, वही मैं त्वक्से घटका स्पर्श करता हूँ’ इस अनुभवसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि नेत्र, श्रोत्र, त्वक्से काम लेनेवाला आत्मा इनसे भिन्न है। चक्षु यदि आत्मा है, तो वह स्पर्शका कर्ता क्यों नहीं हो सकता। त्वक् आत्मा है तो वह दर्शन-क्रियाका कर्ता क्यों नहीं हो सकता? अत: यहाँ कोई इन्द्रियोंसे भिन्न ही आत्मा है, जो कि दर्शन, घ्राण, स्पर्श, श्रवण आदि सभी क्रियाओंका कर्ता है, उसी एक आत्माकी विभिन्न क्रियाओंके कर्तारूपसे प्रसिद्धि है।
क्षणिक विज्ञान भी आत्मा नहीं; क्योंकि अनुभव एवं स्मृति का एक ही कर्ता होता है। अन्यद्वारा अनुभूतका अन्य स्मरण नहीं करता। मैंने उसे देखा था और मैं इसे देख रहा हूँ। इस तरह अनेक काल-सम्बन्धी आत्मा क्षणिक नहीं हो सकता है। पूर्वोत्तरदर्शी एक प्रत्ययी न हो तो स्मृति नहीं हो सकती है। ‘सोऽहं’ यह प्रत्यभिज्ञा भी स्थायी आत्माके बिना नहीं बन सकती। यदि स्मरण एवं अनुभवके कर्ता भिन्न हों तो मैंने देखा, अन्यने स्मरण किया, यह व्यवहार होना चाहिये। कुछ लोग कहते हैं कि सादृश्यके कारण एकताकी प्रतीति होती है। जैसे नदी-प्रवाह, दीप, केश आदिमें तत्सदृश होनेसे ‘त एवेमे केशा:; सैवेयं दीपकलिका’ वे ही ये बाल हैं, वही यह दीपशिखा है—यह प्रत्यभिज्ञा होती है, परंतु यह भी ठीक नहीं है। ‘तेनेदं सदृशम्’ यह उसके सदृश है, इस प्रकार सादृश्यग्रहणके लिये भी तो पूर्वकालवर्ती तत्का, वर्तमान-कालवर्ती इदंका तथा तदुत्तरवर्ती सादृश्यका ग्राहक एक स्थायी आत्मा हो, तभी सादृश्यबोध भी हो सकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि सादृश्यप्रत्यय भी स्वतन्त्र ही है, परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि ऐसी स्थितिमें ‘तेनेदं सदृशम्’ इत्यादि प्रतीति न होनी चाहिये। बाह्य विषयमें भले ही कभी सादृश्यमूलक-एकत्वका भ्रम भी हो, तथापि उपलब्धि या अनुभवितामें तो सन्देह ही नहीं होता। मैं वही हूँ या तत्सदृश अन्य हूँ, किंतु यहाँ तो स्पष्ट ही निश्चित प्रत्यभिज्ञान होता है, जो मैंने कल देखा था, वही मैं आज स्मरण कर रहा हूँ।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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