12. मार्क्स और आत्मा – 12.1 आत्मतत्त्व-विमर्श ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

12. मार्क्स और आत्मा

शास्त्र-संस्कारवर्जित जनसाधारण तथा भूतसंघातवादी चार्वाक और आधुनिक मार्क्सवादी जीवित देहको ही आत्मा कहते हैं; क्योंकि ‘मनुष्योऽहं जानामि’ मैं मनुष्य हूँ, जानता हूँ, इस रूपसे ही शरीर ही ‘अहं’ प्रत्ययका आलम्बन और ज्ञानके आश्रयरूपसे आत्मा प्रतीत होता है। दूसरे लोग इन्द्रियोंको ही आत्मा कहते हैं। उनके मतसे ‘चक्षु, श्रोत्रादि इन्द्रियोंके बिना रूपादि-ज्ञान नहीं होता, अत: वे ही आत्मा हैं।’ अन्य लोग ‘स्वप्नमें चक्षुरादि न होनेपर भी ज्ञान होता है, अत: ‘अहं’ प्रत्यय और विज्ञानका आश्रय होनेसे मनको ही आत्मा मानते हैं।’ विज्ञानवादी क्षणिक विज्ञानको और माध्यमिक शून्यको ही आत्मा कहता है। यहाँ जीवित देहको ही आत्मा माननेवाले मार्क्सवादियोंसे प्रश्न हो सकता है कि क्या भोक्तृत्व और चैतन्य व्यस्त (अर्थात् प्रत्येक) भूतोंका धर्म है अथवा समस्त (सम्मिलित) भूतोंका? पहले पक्षमें भी क्या सभी भूत समानकालमें ही भोक्ता हैं? यदि हाँ, तो स्वार्थके लिये प्रवृत्त सभी चैतन्य गुणयुक्त भूतोंका परस्पर अंगांगिभाव नहीं हो सकेगा, अंगांगिभाव बिना बने संघात नहीं बन सकता। लोकमें देखते ही हैं कि मुंज आदि तृणोंका अंगांगीभाव होनेसे रज्जुरूप संघात निष्पन्न होता है। यदि संघातके बिना ही पृथक्-पृथक् भूतोंका स्वतन्त्र भोक्तृत्व मान लिया जाय तो देहसे बाहर भी एक-एक भूतमें भी भोक्तृताकी उपलब्धि होनी चाहिये, जो कि अदृष्ट ही है। यदि व्यस्त भूतोंका समानकालमें ही भोक्तृत्व न होकर क्रमेण भोक्तृत्व हो तो भी संघातकी अनिष्पत्ति बनी ही रहेगी। यदि वर-विवाहादि न्यायसे जैसे प्रतिविवाहमें एक-एक पुरुष प्रधान और अन्य वरयात्रिक अप्रधान होते हैं, उसी तरह एक-एक भोगमें एक-एक भूत प्रधान होगा। दूसरे उसके गुणभूत होंगे, परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि जैसे एक-एक वरके लिये असाधारणरूपसे एक-एक कन्या भोग्य वस्तु है, वैसे ही भोग करनेवाले पृथिवी, जल, तेज, वायुके लिये एक-एक गन्ध, रस, रूप, स्पर्शादि भोग्यवस्तु व्यवस्थित नहीं हैं, अतएव पृथिवीमें रूप-रसादिकी भी उपलब्धि होती है। यदि किसी तरह व्यवस्था मान भी ली जाय कि तेजका रूप ही, वायुका स्पर्श ही, जलका रस ही भोग्य है तो भी एक कालमें शब्द-स्पर्शादि सभी विषयोंका सन्निधान होनेपर भोगमें क्रम अर्थात् अयौगपद्य उपपन्न नहीं हो सकेगा। जैसे एक ही मुहूर्तमें प्रत्येक भोग्य-कन्याके उपस्थित होनेपर वरोंका क्रम विवाह और गुण-प्रधानभावेन संघात नहीं बन सकता, अर्थात् भोग्यकी उपस्थितिमें भोक्ता क्रमकी अपेक्षा न करके ही भोगमें प्रवृत्त होगा। उसी तरह प्रत्येक भोक्ता भूत, भोग्य शब्दादिके उपस्थित होनेपर क्रमकी अपेक्षा न करके ही भोगमें संलग्न होगा। अत: इनका भी अंगांगी-भावरूपसे संघात नहीं बन सकेगा।
इसी तरह समस्त (सम्मिलित) भूतोंका भी भोक्तृत्व नहीं बन सकता; क्योंकि यदि प्रत्येक भूतोंमें चैतन्य नहीं है तो वह संघातमें भी नहीं हो सकता। अतएव संघातमें भी भोक्तृत्व नहीं बन सकता। यदि कहा जाय कि अग्निमें डाले हुए एक-एक तिल ज्वालाके जनक न होनेपर भी तिलसमूह ज्वालाका जनक होता है, उसी तरह भूतोंका समूह भी चैतन्यका जनक होगा, परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि संघातकी उत्पत्तिमें कोई स्पष्ट हेतु नहीं दिखायी देता। कारण, मार्क्सवादीके मतमें संघातात्मक शरीरसे भिन्न कोई चेतन पदार्थ है ही नहीं, जो कि प्रत्येक अचेतन भूतका चेतनात्मक संघात उत्पन्न कर सके। यदि भावी भोगको ही संघातका कारण कहा जाय तो वह भी ठीक नहीं, कारण यदि भोगको अप्रधान माना जाय तो परस्पर गुणप्रधानभावशून्य भूतोंका संघात कैसे बनेगा? अर्थात् गुणभूत भोगके द्वारा प्रधानभूत भूतोंका संघात सम्पादन असंगत है। यदि भोगको ही प्रधान माना जाय तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि भोग सर्वथा ही भोक्ताका शेष (अंग) हुआ करता है। कहा जा सकता है कि शेषी (अंगी) अर्थात् प्रधानभूत भोगके प्रति शेषभूत (अर्थात् अंगभूत) स्त्री-पुरुष शरीर भोक्ताओंका संहत (सम्मिलित) होना देखा गया है। पर यह भी ठीक नहीं; क्योंकि सिद्धान्तमें वहाँ भी स्त्री-पुरुष शरीरमें भोक्तृत्व सम्प्रतिपन्न नहीं, किंतु वहाँ शरीर-भिन्न दोनोंके भोक्ता आत्मा ही भोगके लिये दोनों शरीरोंको सम्मिलित करते हैं और ज्वालाके प्रति तिलोंकी संघातापत्तिका दृष्टान्त भी जडवादीके मतमें असिद्ध है; क्योंकि उसके मतमें संघात नामकी कोई चीज सिद्ध नहीं होती। वादी-प्रतिवादी उभयसम्मत होनेसे ही कोई दृष्टान्त किसी सिद्धान्तका साधक हो सकता है।
संघात क्या है? यह भी विचारणीय है। ‘जैसे अनेक वृक्षोंका एक देशमें आना ही उनका संघातभूत ‘वन’ कहा जाता है, वैसे ही भोग और भोक्ताका समानाधिकरणत्व अर्थात् एक देशस्थता संघात हैं’, यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इस तरह तो सर्वव्यापी सभी भूत सर्वत्र हैं। अतएव चैतन्य और भोग भी सार्वत्रिक ठहरेगा तथा शरीरमें ही भोगका निमय बाधित होगा। ‘उन भूतोंसे आरब्ध अवयवी संघात है’, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि यदि वह अवयवी चार भूतोंसे भिन्न है, तो उसे पाँचवाँ तत्त्व मानना होगा, जो भौतिकवादियोंको अस्वीकृत ही है। यदि अवयवी अवयवोंसे अभिन्न है, तब तो भूतमात्र ही होगा। भेद एवं अभेद दोनोंका होना असंगत ही है। यदि कहा जाय कि अवयवी अवयवोंके परतन्त्र है; अत: पंचमतत्त्वापत्ति नहीं होगी, तो यह भी ठीक नहीं; कारण, इस तरह जल आदि भी पृथ्वी आदिके परतन्त्र होनेसे जलादिमें भी स्वतन्त्र तत्त्वका व्यवहार होता है। फिर तो पृथिव्यादि भूतचतुष्टय तत्त्व हैं, यह सिद्धान्त बाधित हो गया। कुछ लोग कहते हैं कि ‘एकद्रव्य-बुद्धिका अवलम्बन योग्य होना ही संघात है। देहमें एकबुद्धि-अवलम्बन-योग्यता है ही’, परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि वस्तुत: अनेकोंमें एकत्वबुद्धि विभ्रम ही है। ‘एकार्थक्रियामें युगपत् (एक कालमें) अन्वय ही संघात है जैसे प्रमातृत्व आदि व्यवहाररूप एक कार्यके लिये पृथिव्यादि चारों भूतोंका अन्वय होता है।’ पर यह भी ठीक नहीं, कारण, ऐसा माननेपर वायुजन्य वेणुसंघर्षजनित काष्ठाश्रित वह्निसे संतप्त जलमें चारों भूतोंका समन्वय है ही, फिर उस जलमें भोक्तृत्व होना चाहिये, परंतु यह है नहीं। जो कहा जाता है कि ‘जैसे अग्निका लोह-पिण्डके साथ सम्बन्ध होता है, वैसे सम्बन्धको ही संघात कहा जाता है’, वह भी ठीक नहीं। कारण, शरीरमें वायुका सम्बन्ध उस प्रकारका न होनेसे शरीरमें भोक्तृत्व नहीं बन सकेगा। इसके अतिरिक्त वह्निव्याप्त लोहपिण्डमें उसके ही द्वारा उसमें जल शुष्क होता है और वायुका भी उसमें सम्पर्क रहता है। अत: उस लोहपिण्डमें ही भोक्तृत्व एवं चैतन्यका उपलम्भ होना चाहिये। यदि इन सब दोषोंके परिहारके लिये एक-एक भूतको भोक्ता माना जाय तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि सब भूतोंका शब्दादि विषय-सन्निधान होनेपर फिर किसका भोग या चैतन्य है? इसका निश्चय असम्भव होगा। अत: चारोंको भोक्ता मानना पड़ेगा और उनका संघात बन नहीं सकता, अत: संघातभावापन्न भूतोंको भोक्ता या चेतन माननेका पक्ष युक्तिहीन है।
कहा जाता है कि ‘शक्तिमद्‍द्रव्यान्तरकी कल्पनाकी अपेक्षा उन गोलकोंमें शक्तिमात्रकी कल्पनामें लाघव है’, परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि फिर तो आत्मामें ही क्रमयुक्त सर्वविज्ञानसामर्थ्य माननेमें अत्यन्त लाघव है। कुछ लोग ‘रूपादिकी उपलब्धि करणपूर्वक होनी चाहिये, कर्ताका व्यापार होनेसे छिदि क्रियाके तुल्य, अर्थात् जैसे कर्ता कुठारादि करणके द्वारा काष्ठछेदन करता है, उसी तरह आत्मा चक्षुरादि करणोंके द्वारा रूपादिकी उपलब्धि करता है’, इस अनुमानसे देहभिन्न इन्द्रियाँ सिद्ध करते हैं और यह भी कहा जाता है कि ‘वे इन्द्रियाँ भौतिक हैं। चक्षु तैजस है; क्योंकि तैजसरूपका ही ग्राहक है। श्रोत्र आकाशीय है; क्योंकि आकाशीय शब्दका ग्राहक है। मन शब्द-स्पर्शादि सभीका व्यंजक है, अत: वह पंचभूतोंका ही कार्य है। इस तरह इन्द्रियाँ भी भोक्ता नहीं हो सकतीं।’
बौद्धोंके अनुसार ‘दिखायी देनेवाले आँख, नाक, कान आदि गोलक ही इन्द्रियाँ हैं।’ ‘उन गोलकोंमें देखने-सुनने आदिकी शक्ति ही इन्द्रियाँ हैं’ यह मीमांसकोंका मत है। ‘गोलक-भिन्न द्रव्य ही इन्द्रियाँ हैं’ यह अन्य लोग मानते हैं। उनमें बौद्धमत इसलिये ठीक नहीं है कि कानरूपी गोलक न रहनेपर भी सर्पको शब्दका बोध होता है। वृक्षोंमें कोई गोलक नहीं होता, तो भी उन्हें शब्दादिका बोध होता है। यह आगमवेद्य है। आधुनिक वैज्ञानिकोंने भी उनका चेतन होना स्वीकार किया है। शास्त्रोंने भी उनकी हिंसा मना की है। उपर्युक्त दोषोंके कारण ही ‘गोलकोंकी शक्ति इन्द्रियाँ हैं’ यह पक्ष भी ठीक नहीं। कुछ लोग इन्द्रियोंको आहंकारिक एवं सर्वगत मानते हैं, अन्य मध्यम परिमाण ही मानते हैं। बौद्ध अप्राप्यकारी कहते हैं, अर्थात् विषय-देशपर बिना गये ही इन्द्रियाँ विषयोंका प्रकाशन करती हैं, परंतु दूरसे स्पर्श, रस, गन्धका उपलम्भ नहीं होता। अत: त्वक्, रसना, घ्राणको अप्राप्यकारी नहीं कहा जा सकता। चक्षु भी दूरदेश जाकर ही दूरस्थ वस्तुका ग्रहण करता है। तेज शीघ्र ही दूरगामी देखा जाता है। शब्द भी वीचि-तरंगन्यायसे श्रोत्र-देशपर आता है, तभी उसका ग्रहण होता है। रेडियो आदिद्वारा शब्दका विस्तार और अधिक हो जाता है। अत: श्रोत्र भी अप्राप्यकारी नहीं। मनको भी नैयायिक नित्य कहते हैं, परंतु वेदान्तमतमें उसकी उत्पत्ति मान्य है—‘तन्मनोऽसृजत्’ (ऐतरेय०) नैयायिक मनको अणु-परिमाण और वेदान्ती मध्यम-परिमाण कहते हैं। ‘मन, अन्त:करण, बुद्धि, अहंकार एक ही वस्तुकी अवस्थाएँ हैं, आत्मा इन सभी साधनोंके द्वारा भोगके लिये प्रवृत्त होता है। वह सर्वगत एवं कर्ता है, यह नैयायिकोंका मत है। वेदान्त-मतमें ‘आत्मा स्वप्रकाश है।’ निद्राकालमें सुखपूर्वक सोया, इस प्रकार सौषुप्त प्रत्यक्षानुभवके कारण ही प्रबुद्धको स्मरण होता है।’
आत्मा स्वप्रकाश है, क्योंकि स्वसत्तामें प्रकाशविहीन नहीं रहता, जैसे प्रदीप और ज्ञान। ये अपनी सत्तामें प्रकाशरहित नहीं होते, अतएव स्वप्रकाश हैं। इसी तरह आत्मा भी स्वसत्तामें प्रकाशशून्य नहीं होता, अत: स्वप्रकाश है। इसी तरह आत्मा प्रदीपके समान विषयका प्रकाशक एवं आलोकके तुल्य विषय प्रकाशका आश्रय है। इसलिये भी स्वप्रकाश है, इसी तरह ज्ञानके समान इन्द्रिय-गोचर न होकर अपरोक्ष होनेसे भी आत्मा स्वप्रकाश है। जैसे ज्ञान चक्षुरादिका विषय न होकर भी अपरोक्ष है, वैसे ही आत्मा भी। इसी तरह आत्मा धर्मी होते हुए भी अजन्य प्रकाश-गुणवाला है; क्योंकि वह प्रकाश-गुणवाला है जैसे आदित्य। अर्थात् जैसे आदित्य प्रकाश-गुणवाला होनेसे अजन्य प्रकाश-गुणवाला है, वैसे ही आत्मा भी प्रकाश-गुणवाला होनेसे अजन्य प्रकाश-गुणवाला है। यह बात दूसरी है कि आदित्यका प्रकाशरूपी प्रकाश है, आत्माका ज्ञानरूप नीरूप प्रकाश है। ‘अत्रायं पुरुष: स्वयं ज्योति:’ इत्यादि आगम भी आत्माको स्वप्रकाश कहते हैं। नैयायिक एवं पूर्वमीमांसक आत्माको कर्ता मानते हैं; किंतु सांख्य निरवयवमें परिस्पन्द एवं परिणामलक्षण क्रियाको असम्भव समझकर उसे असंग एवं अकर्ता ही कहते हैं। वैशेषिक, योगी, नैयायिक आदि भोक्ता जीवसे भिन्न सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् विश्वकर्ता ईश्वर मानते हैं।
जाग्रत‍्कालमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धादि विषयवेद्य हैं। उनमें गो-अश्वादिवत् परस्पर विचित्रताके कारण उनकी भिन्नता भी माननी चाहिये। उन शब्दादिका बोध या संवित् उनसे भिन्न है। वेद्य और वेदिताका भेद प्रसिद्ध ही है। प्रकाश्य, प्रकाशकका भेद भी लोकमें प्रसिद्ध है। रूप और उसके प्रकाशक सौरालोकमें भेद स्पष्ट ही है। इसी तरह वेद्य शब्दादि एवं आकाशादिसे उनका भासक बोध और अनुभव भिन्न है। जैसे शब्दादिकी परस्पर विचित्रता होनेसे भिन्नता है, उसी तरह उनके बोधोंमें विचित्रता नहीं है। अत: उनका भेद भी नहीं है। अतएव बोध-बोध सब एक ही है। अनुमान भी किया जा सकता है। विवादास्पद शब्दादि-बोध स्वाभाविकभेदशून्य हैं; क्योंकि उपाधिको बिना ग्रहण किये हुए उनका भेद गृहीत नहीं होता, जैसे आकाशमें घटादि उपाधिके बिना भेद नहीं गृहीत होता, अत: वह भी स्वाभाविक भेदशून्य है, तद्वत् प्रकृतमें भी समझना चाहिये।
संवित् होनेसे शब्दसंवित् स्पर्शसंवित‍्से भिन्न नहीं है, जैसे स्पर्शसंवित् अपनेसे भिन्न नहीं है। जैसे एक ही आकाशमें घटादि उपाधिके भेदसे भेद-व्यवहार हो जाता है, उसी तरह आकाशवत् व्यापक एक ही संवित‍्में शब्दादि विषयरूप उपाधिके भेदसे भेद-व्यवहार बन ही जायगा। उसी प्रकार स्वप्नमें भी विषयोंमें भेद और संवित‍्में अभेद है। स्वप्न और जागरमें भेद इतना ही है कि जागरमें विषय स्थिर है और स्वप्नमें अस्थिर। स्वप्न-जागर-अवस्थाएँ और उनके विषय भी विचित्रताके कारण पृथक्-पृथक् हो सकते हैं; परंतु दोनों अवस्थाओंके बोध एकरूप होनेसे अभिन्न ही हैं। इसी तरह सुषुप्ति-अवस्थाकी संवित् भी सुषुप्ति-अवस्थासे भिन्न हैं। सुषुप्ति और जाग्रदादि परस्पर विलक्षण होनेसे भिन्न हैं, परंतु उनकी संवित् एकरूप होनेसे परस्पर अभिन्न ही है। सोकर जगनेके पश्चात् सुप्तोत्थित प्राणीको सुषुप्ति-अवस्थाके अज्ञान या तमका स्मरण होता है, ‘मैं सुखपूर्वक सोता था और कुछ भी नहीं जानता था।’ प्रत्यक्ष-साधन विषयेन्द्रिय-सन्निकर्ष एवं अनुमान-साधन व्याप्ति-लिंगादि न होनेसे ऐसे ज्ञानको स्मृति ही मानना उचित है। स्मृति अनुभवपूर्वक ही होती है, अत: सुषुप्तिकालमें सुख एवं तमोरूप अज्ञानका अनुभव मानना उचित है। यह अज्ञान अन्धकारके तुल्य वस्तुतत्त्वको ढकनेवाला भावरूप है। इसीलिये इसके द्वारा ज्ञानरूप ब्रह्मका आवरण होता है। ‘अज्ञानेनावृतं ज्ञानम्’ (गीता ५।१५) यह ज्ञानाभाव नहीं है; क्योंकि ज्ञानाभाव जाननेके लिये उसके अनुयोगी (आधार) प्रतियोगी (ज्ञान)-का ज्ञान होना चाहिये। जैसे घटाभाव जाननेके लिये अनुयोगी (भूतलादि) और प्रतियोगी (घट)-का ज्ञान आवश्यक होता है, परंतु यहाँ यदि इसी तरह अनुयोगी-प्रतियोगीका ज्ञान हो, तब ज्ञानाभाव कैसा? और यदि उनका ज्ञान नहीं तो ज्ञानाभावका ज्ञान ही नहीं हो सकता। अत: भावरूप अज्ञान ही साक्षीके द्वारा प्रकाशित होता है। अज्ञानका उपलम्भ होनेसे ही तद्विरुद्ध ज्ञानका अभाव विदित हो जाता है। इसलिये इस अज्ञानको तम भी कहा जाता है। इसी तरह दिनों, पक्षों, मासों, वर्षों, युगों, कल्पों, अतीतों, अनागतोंमें भेद है, परंतु उनके बोधोंमें कोई भी भेद नहीं। एक अनन्त आकाशके तुल्य ही यह बोध भी अनन्त एवं एक ही है। अत: इसका न उदय होता है न अन्त; क्योंकि उस बोधका प्रागभाव या उत्पत्ति अथवा विनाश भी बोधके बिना सिद्ध नहीं होता। यदि प्रागभाव-साधक बोध है, तो बोधका प्रागभाव हो कैसे कहा जा सकता है? यदि बोध नहीं तो प्रागभाव सिद्ध ही कैसे होगा? बोधोंमें भेद नहीं होता, अत: अन्य बोधका प्रागभाव अन्य बोधसे सिद्ध होगा, यह भी नहीं कहा जा सकता।
इस तरह अत्यन्ताबाध्य होनेके कारण वही बोधस्वरूप भी है। यही संवित् आत्मस्वरूप भी है; क्योंकि नित्य होकर स्वप्रकाश है। जो नित्य स्वप्रकाश नहीं, वह आत्मा नहीं, जैसे घटादि। बोध नित्य एवं स्वप्रकाश है, अत: वही बोध, संवित्, अनुभव या ज्ञान आत्मा है। आत्मा परप्रेमास्पद है, अत: आनन्दस्वरूप भी है। संसारमें सर्वत्र ही प्रेम आत्माके लिये होता है, आत्मामें प्रेम अन्यके लिये नहीं होता। जैसे शर्कराके सम्बन्धसे अन्यत्र मिठास होती है, किंतु शर्करामें मिठास स्वत: होती है। उसी तरह आत्मामें प्रेम स्वत: होता है। अन्यत्र प्रेम आत्मसम्बन्धसे होता है। निद्रादि सब जिससे अनुभूत होते हैं, उस अनुभवका अपलाप नहीं किया जा सकता। अनुभूतिको अनुभाव्य माननेसे अनवस्था-दोष होता है, अत: अनुभूति-अनुभाव्य हुए बिना ही स्वप्रकाश है। ज्ञाता और ज्ञानका दूसरा ज्ञान न होनेसे वे ज्ञेय नहीं होते। असत् होनेसे उन्हें अज्ञेय नहीं कहा जा सकता। निद्रा आनन्दादि साक्षी होनेसे उसे असत् नहीं कहा जा सकता। गुडादि अपने सम्पर्कसे अन्यत्र चणक-चूर्णादिमें मधुरतादि समर्पण करते हैं, परंतु स्वयं गुड़ादिमें मधुरता अर्पण करनेवाले गुड़ादिकी अपेक्षा नहीं होती। इसी तरह आत्मामें वेद्यता, अनुभाव्यता न होनेपर भी बोधस्वरूप होनेमें कोई सन्देह नहीं। जैसे प्रकाश और तमके बिना यद्यपि आकाश उपलब्ध नहीं होता, तथापि निर्जगत् आकाश मान्य होता है। उसी तरह यद्यपि घटादिके बिना सत् या बोध उपलब्ध नहीं होता, फिर भी घटादि प्रपंचशून्य बोध या स्वप्रकाश सत् रहता ही है। तूष्णींभाव समाधिकालमें दृश्य विशेषणादिरहित शुद्ध सद्वस्तु उपलब्ध होती है, शून्य बुद्धि नहीं होती। इसलिये तूष्णींस्थितिमें शून्य नहीं कहा जा सकता। ‘उस समय सद‍्बुद्धि भी न होनेसे सत् भी नहीं रहता’, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि सद‍्बुद्धि होनेपर भी स्वप्रकाश होनेसे सत् सिद्ध होता है। निर्मनस्कताका साक्षी स्वप्रकाश होता ही है, जैसे मनकी चंचलता मिटनेपर साक्षी स्वच्छ होता है, उसी प्रकार मायाका विजृम्भण या विकास रुकनेपर स्वप्रकाश सत् भी स्फुट हो जाता है।
कुछ लोग आकाशादिसे भिन्न सत् नहीं मानते, परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि ‘आकाश: सद् घट: सत्’ इत्यादि व्यवहारोंमें जैसे घटादि शब्द एवं घटादि बुद्धि होती है, उसी तरह सत् शब्द एवं सद‍्बुद्धि होनेसे आकाश और सत्—दोनों ही पृथक् पदार्थ हैं। जैसे ‘मृद् घट:’ इस व्यवहारमें शब्द एवं बुद्धिके कारण ही मृत्तिका और घट दो पदार्थ सिद्ध होते हैं। उनमें मृद‍्बुद्धिके अनुवृत्त होनेसे और घट-शरावादि बुद्धिके व्यावृत्त होनेसे मृत्तिका कारण और घटादि कार्य समझे जाते हैं। उसी तरह सत् अनुवृत्त होनेसे कारण तथा आकाश घटादि व्यावृत्त होनेसे कार्य सिद्ध होते हैं। अधिक वृत्ति होनेसे सत् धर्मी है, अल्पवृत्ति होनेसे आकाशादि धर्म हैं। बुद्धिसे यदि आकाशसे सत‍्को पृथक् कर दें, तब तो आकाश असत् ही हो जाता है। जैसे जाति-व्यक्ति और देह-देहीका भेद होता है, वैसे ही आकाशादि प्रपंच एवं सत‍्का भी भेद सिद्ध होता है। सावधानी एवं एकाग्रतासे विचार करनेपर भेद-ज्ञान स्थिर हो जाता है। विवेचन करनेपर सत् शून्य अवकाशात्मक आकाश रह जाता है एवं निरवकाशात्मक सत् रह जाता है—
येनेक्षते शृणोतीदं जिघ्रति व्याकरोति च।
स्वाद्वस्वादू विजानाति तत्प्रज्ञानमुदीरितम्॥
(पंचदशी, महावाक्यविवेकप्र० १)
जिस नेत्रजन्यवृत्त्यवच्छिन्न चैतन्यसे पुरुष रूपको देखता है, श्रोत्रजन्य शब्दाकारवृत्त्यवच्छिन्न चैतन्यसे शब्द ग्रहण करता है, गन्धाकारवृत्तिव्यक्त चैतन्यसे गन्ध ग्रहण होता है, वही बोधस्वरूप चैतन्य प्रज्ञान है—‘न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते।’ (बृहदा० उप० ४।३।२३) द्रष्टाकी स्वरूपभूत दृष्टिका कभी भी विलोप नहीं होता।
जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिकी सभी वस्तुएँ अपने-अपने स्थानपर ही रहती हैं; किंतु द्रष्टा तीनों ही अवस्थामें रहता है। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिके प्रपंचका जो प्रकाशक भान है, वही ब्रह्म है। तीनों अवस्थाओंका भासक साक्षी भोग्य, भोक्ता और भोग—तीनोंसे ही विलक्षण होता है। वह चिन्मात्र ही है। चिदाभास एवं अहंका भी सुषुप्तिमें विलय होता है, उसका भी साक्षीसे ही प्रकाश होता है।
जैसे आकाशीय सूर्यद्वारा प्रकाशित घट-कुडॺादि दर्पणादित्यदीप्तिसे प्रकाशित होता है अर्थात् दर्पणप्रतिबिम्बित आदित्यद्वारा प्रकाशित होता है। यदि कुडॺपर अनेक दर्पणप्रतिबिम्बित आदित्यकी दीप्तियाँ प्रकट हों, तो उनके बीच-बीचमें स्वाभाविक निरुपाधिक आकाशीय आदित्यकी दीप्तियाँ परिलक्षित होती हैं और दर्पणजन्य विशेष प्रभावोंके न होनेपर भी वह सामान्य आदित्यप्रकाश रहता ही है। ठीक इसी तरह स्वप्रकाश बोध सामान्य चेतनद्वारा प्रकाशित देह भी बुद्धि-प्रतिबिम्बित चिदाभासके द्वारा प्रकाशित होता है। चिदाभासविशिष्ट बुद्धि-वृत्तियोंके बीच-बीचमें सामान्य-चेतन या शुद्ध नित्यबोध परिलक्षित होता है। बुद्धिवृत्तिप्रतिबिम्बित चिदाभासोंके बिना भी वह स्वप्रकाश बोध रहता ही है। घट-ज्ञानादि शब्दवाच्य चिदाभासविशिष्ट बुद्धिवृत्तियोंकी सन्धियों एवं सुषुप्तिमें उन बुद्धिवृत्तियोंके अभावका प्रकाशक नित्य-बोध रहता है। घटाकार-बुद्धिस्थ चित् घटमात्रका प्रकाश करती है, परंतु घटगत ज्ञातताका प्रबोध नित्य-चैतन्यसे ही होता है। घटाकार-बुद्धिके प्रथम ‘घटो मया न ज्ञात:’ इस प्रकार घटकी अज्ञातता भी व्यापक अखण्ड बोधसे ही गृहीत होती है। जैसे अज्ञातत्वेन घट ब्रह्मबोधित था, उसी तरह बुद्धि उत्पन्न होनेपर घट ज्ञातत्वेन भी ब्रह्म-चैतन्यसे ही प्रकाशित होता है। कोई भी घटादि विषय चित्प्रतिबिम्बयुक्त बुद्धिवृत्ति एवं अज्ञान दोनोंसे ही व्याप्त होते हैं। जब वह चिदाभासयुक्त वृत्तिसे व्याप्त होता है, तब ज्ञात कहलाता है, जब अज्ञानसे व्याप्त होता है, तब अज्ञात कहलाता है। अज्ञातरूपसे घटादि ब्रह्म अर्थात् व्यापक नित्य बोधसे प्रकाशित होता है। यह शंका हो सकती है कि ‘चिदाभासयुक्त वृत्तिसे ही घटका प्रकाश हो सकता है, फिर ब्रह्म-प्रकाशकी क्या आवश्यकता?’ परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि जैसे अज्ञानने घटमें अज्ञातता पैदा की है, उसी तरह चिदाभासके द्वारा घटमें ज्ञातता उत्पन्न होती है। कहा जा सकता है कि ‘ज्ञातता तो घटमें वृत्तिमात्रसे उत्पन्न हो सकती है,’ परंतु यह ठीक नहीं। चिदाभासहीन बुद्धिसे घटादिमें ज्ञातता उत्पन्न नहीं हो सकती; क्योंकि मृत्तिकादिके तुल्य चिदाभासरहित बुद्धि या वृत्ति जड ही है। अत: जैसे काली-पीली मिट्टीसे लिप्त घट ज्ञात नहीं कहा जा सकता, उसी तरह बुद्धिवृत्तिव्याप्त घट भी ज्ञात नहीं कहा जा सकता। अत: वृत्ति-व्याप्त घटमें चित्प्रतिबिम्बका उदय होनेसे ही घटमें ज्ञातताका व्यवहार बनता है। कहा जा सकता है कि आकाशीय सौरालोक-तुल्य सामान्य नित्य-बोधरूप ब्रह्मसे ही घटादिकी ज्ञातता बन सकती है, फिर दर्पणादित्यदीप्तिके तुल्य वृत्तिपर चित्प्रतिबिम्ब या चिदाभास क्यों माना जाय? परंतु यह कहना ठीक नहीं। कारण, नित्य बोधरूप ब्रह्म तो प्रमाण-प्रवृत्तिके पहले भी था ही। यहाँ तो प्रमाण-प्रवृत्तिके पश्चात् घटादिमें ज्ञातताका व्यवहार होता है, यह चिदाभासमूलक ही है। अत: वृत्तिपर व्यक्त चित्प्रतिबिम्ब घटमें ज्ञातता उत्पन्न करता है। वह ज्ञातता, अज्ञातताके तुल्य ही ब्रह्मसे भास्य होती है। बुद्धिवृत्ति, चिदाभास एवं घटादि सभी सामान्य सौरालोक-तुल्य नित्यबोधसे भासित होते हैं, फिर भी घटव्याप्त वृत्तिपर चिदाभासरूप फल होता है। अत: एक घटका ही स्फुरण होता है। घटादि विषयपर द्विगुणित चैतन्य व्यक्त होता है। जैसे कुडॺपर एक सामान्य सौरालोक फैला होता है, दूसरे दर्पणादित्यदीप्तिके फैलनेसे द्विगुणित प्रकाश हो जाता है, उसी तरह सामान्य नित्यबोधसे व्याप्त घटादिपर चित्प्रतिबिम्बयुक्त वृत्तिकी व्याप्ति होनेसे द्विगुणित चैतन्य हो जाता है। इसीलिये घटादिकी ज्ञातताका भासक ब्रह्म-चैतन्य माना जाता है। नैयायिक आदि उसे ही अनुव्यवसाय (ज्ञानविषय ज्ञान) कहते हैं। ‘घटोऽयम्’ यह घट है—नैयायिकोंके शब्दोंमें यह व्यवसायात्मक ज्ञान है, यह बुद्धिवृत्तिसे होता है। ‘मया घटो ज्ञात:’ मैंने घट जान लिया, यह अनुव्यवसायात्मक ज्ञान नित्य बोधरूप ब्रह्मसे होता है। इसी तरह अहंवृत्ति एवं काम-क्रोधादि वृत्तियोंमें चिदाभास, उसी तरह व्याप्त होकर रहता है, जैसे लोहपर अग्नि व्याप्त होती है। जैसे अग्नि-व्याप्त लोह केवल अपने-आपको ही प्रकाशता है, अन्यको नहीं, उसी तरह आभाससहित वृत्तियाँ अपनेको ही भासित करती हैं।
क्रमसे विच्छिन्नावच्छिन्न होकर वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधिमें सभी वृत्तियाँ लीन हो जाती हैं। सभी वृत्तियोंकी सन्धियाँ और अभाव जिस निर्विकार नित्य-बोधसे प्रकाशित होते हैं, उसे ही वेदान्तमतसे कूटस्थ शब्दसे कहा जाता है। जैसे बाहर वृत्ति-व्याप्त घटमें भासक चिदाभास और घटकी ज्ञातताका भासक ब्रह्मचैतन्य द्विगुण चैतन्य होता है, उसी तरह भीतर भी वृत्तियोंपर सन्धिकी अपेक्षा द्विगुण चैतन्य व्यक्त होता है। इसीलिये सन्धियोंकी अपेक्षा वृत्तियोंकी स्पष्टता अधिक होती है। भेद इतना अवश्य है कि बाहर घटादिमें ज्ञातता, अज्ञातता—दोनों ही रहती हैं, वैसे वृत्तियोंमें ज्ञातता, अज्ञातता—दोनों नहीं रहतीं। वृत्तियाँ स्वयं अपने-आपको ग्रहण नहीं करतीं, इसलिये ज्ञातता नहीं होती और वृत्तिके उत्पन्न होते ही वृत्तिगोचर अज्ञान नहीं रहता, अत: वृत्तियोंकी अज्ञातता भी नहीं होती। वृत्तिगोचर वृत्ति माननेसे अनवस्थादि दोष आते हैं। अत: वृत्तियाँ साक्षिभास्य कही जाती हैं। चित्प्रतिबिम्बरूप ज्ञानकी उत्पत्ति और विनाश प्रतीत होते हैं, अत: उसे विनश्वर कहा जाता है। अन्त:करण एवं तद‍्वृत्तियोंका साक्षी अखण्ड नित्यबोध निर्विकार होनेसे कूटस्थ कहलाता है। बुद्धिसे परिच्छिन्न कूटस्थ एवं चिदाभासयुक्त बुद्धिके मिश्रणसे ही जीव-व्यवहार होता है। बुद्धि स्वच्छ है, इसलिये उसपर चित्प्रतिबिम्ब होता है। प्रतिबिम्ब एवं बिम्बमें कुछ तुल्यता और कुछ विलक्षणता होती है, इसी तरह स्फूर्तिरूपतामें तुल्यता होनेपर भी संगिता विकारितारूप विलक्षणता भी बिम्बकी अपेक्षा प्रतिबिम्बमें रहती है।
कहा जा सकता है कि जैसे मृत्तिका रहनेपर ही घट रहता है, वैसे ही बुद्धिके रहनेपर ही चिदाभास रहता है, बुद्धिके न रहनेपर नहीं रहता। फिर उसे बुद्धिसे भिन्न क्यों माना जाय? यदि शास्त्र-प्रमाणसे देहके मरनेपर भी बुद्धिका अस्तित्व माना जा सकता है तो बुद्धिसे भिन्न चिदाभास भी शास्त्रोंसे सिद्ध होता ही है। बुद्धिकी विभिन्न वृत्तियों एवं अज्ञानके साक्षीरूपसे सर्वावभासक सर्वाधिष्ठान अखण्ड बोधरूप ब्रह्म सिद्ध होता है।
अखण्ड बोध-स्वरूप ब्रह्म ही अहंवृत्तिसे युक्त होकर कर्ता कहलाता है, इदंवृत्तियुक्त हो प्रपंचाकार प्रतीत होता है, वही आन्तर-बाह्य सभी विषयोंको साक्षीरूपसे प्रकाशित करता है। नृत्यशालास्थित दीप जैसे प्रभु, सभ्य एवं नर्तकी सभीको प्रकाशित करता है, उसी तरह साक्षी आत्मा ही अहंकार, बुद्धि एवं सभी विषयोंको प्रकाशित करता है। जैसे प्रभु, सभ्य आदिके न रहनेपर दीप सबके अभावका भी भासक होता है, उसी तरह अहंकार बुद्धिके सुषुप्ति दशामें रहनेपर भी साक्षी ही सबके अभावका भी प्रकाशन करता है। अखण्ड बोधरूप आत्मा नित्य ही स्वप्रकाशरूपसे विराजमान रहता है। उसीके प्रकाशसे प्रकाशित होकर बुद्धि आदि व्यावृत होती हैं। जैसे दीप स्वस्थानस्थित रहकर ही आन्तर-बाह्य सभी वस्तुओंको प्रकाशित करता है, उसी तरह कूटस्थसाक्षी आन्तर-बाह्य सभी विषयोंको प्रकाशित करता है। देहकी अपेक्षासे ही उसमें आन्तरत्व एवं बाह्यत्व प्रतीत होता है। अन्त:स्थ बुद्धि ही इन्द्रियोंके द्वारा बार-बार बाह्य विषयोंकी ओर जाती है। उसीकी चंचलतासे तद्भासक साक्षीमें भी चंचलता प्रतीत होती है। सर्वदेश, काल, वस्तु बुद्धिकृत ही हैं। सर्वभासक अखण्ड बोधकी दृष्टिसे कुछ भी नहीं है।
जैसे अग्निमें उष्णता एवं प्रकाश रहता है, वैसे ही आत्माका चैतन्य स्वभाव है। शब्दादि अचेतन होनेसे स्वत: सिद्ध नहीं हो सकते, किंतु शब्दाद्याकारवृत्तियोंसे ही उनकी सिद्धि होती है। वे वृत्तियाँ परस्पर भिन्न शब्दादि विषय विशेषणवाली होती हैं, अत: नीलपीताद्याकारवाली वृत्तियों या ज्ञानोंकी भी स्वत:सिद्धि नहीं हो सकती। जबतक नीलपीतादि बाह्याकार न होंगे, तबतक बाह्याकार-प्रत्यय उत्पन्न ही नहीं हो सकते। इस तरह प्रत्यय भी संहत होनेसे अचेतन ही ठहरते हैं। इस दृष्टिसे स्वरूपभिन्न ग्राहकसे ही प्रत्यय भी ग्राह्य होंगे। जो असंहत होकर चैतन्यात्मक है, वही स्वार्थ हो सकता है। अन्य संहत अचेतन वस्तु परार्थ ही होते हैं। नील-पीताद्याकार ज्ञानोंका उपलब्धा आत्मा विक्रियावान् है, ऐसा संशय होता है, परंतु इसका समाधान यह है कि परिणामी चित्तादि क्रमसे ही स्वविषयोंके ग्राहक होते हैं, परंतु कूटस्थ आत्मा अक्रमेण सभी प्रत्ययोंका उपलम्भ करता है। अतएव अपरिणामिता सिद्ध होती है। अशेषचित्त प्रकारकी उपलब्धि कूटस्थताका निश्चायक है। यदि कूटस्थ आत्मा परिणामी होता तो अशेष स्वविषयचित्त प्रचारका साक्षी न होता, जैसे चित्त किंवा इन्द्रियाँ अपने विषयोंके एक देशका ही उपलम्भ करते हैं, इस तरह आत्मा अपने विषयोंके एक देशका उपलम्भ नहीं करता; किंतु अशेष प्रत्ययोंकी उपलब्धि आत्मासे होती है, अत: वह अपरिणामी ही है।
कहा जा सकता है कि उपलब्धि धात्वर्थ क्रिया ही है, फिर उपलब्धिक्रियाका कर्ता विक्रियावान् ही है। उपपूर्वक लभ धातुसे कर्तामें तृच् प्रत्यय करनेपर उपलब्धा शब्द बनता है। धात्वर्थ सर्वत्र क्रिया ही होता है। क्रिया स्वयं उत्पत्ति-विनाशशील होती है, अत: उपलब्धि भी क्रिया ही है, अत: उत्पत्तिविनाश उसका भी मानना ही चाहिये, फिर वह नित्य कैसे कहा जा सकता है। इसका समाधान यह है कि ‘धात्वर्थ सर्वत्र क्रिया ही होता है और कर्ता ही प्रत्ययार्थ होता है, यह नियम सार्वत्रिक नहीं; क्योंकि ‘गडि वदनैकदेशे’ इस गडि धातुसे गण्ड बनता है, जो कि मुखैकदेश कपोलका ही बोधक है। इसी तरह ‘सविता प्रकाशते’ ‘सविता प्रकाशयति’ ‘सविता प्रकाशमान है या घटादिका प्रकाशक है,’ यहाँपर सविता किसी प्रकाश-क्रियाका कर्ता नहीं है; क्योंकि प्रकाश उसका स्वरूप ही है। उसके निर्विकार रहते हुए ही उसके सन्निधानमात्रसे अन्य वस्तुओंका प्रकाश होता है। बुद्धिजन्य वृत्तिरूप बौद्ध प्रत्यय ही क्रिया या विक्रिया है। वही धात्वर्थ है। आत्माकी स्वरूपभूत नित्य उपलब्धिमें विक्रियाका उपचार होता है। जैसा कि सूर्यके स्वरूपभूत प्रकाशमें भी विक्रियात्वका उपचार होता है।’
कहा जा सकता है कि ‘बुद्धि द्रव्य है, उसका परिणाम वृत्ति भी मृत्तिका-परिणाम घटादिके तुल्य द्रव्य ही है। उसे भी क्रिया नहीं कहा जा सकता, परंतु मृत्तिकादि अपने पूर्वरूपको तिरोहित करके घटादिके रूपमें परिणत होते हैं।’ पर यहाँ तो तृणजलूका (जोंक) एवं प्रकाशके तुल्य संकोच-विकासरूप ही क्रिया है। ऐसा परिणाम तो पारिणामिकी चेष्टारूप ही है। इसी तरह बुद्धिका पारिणाम ही वृत्ति है, वही क्रिया है। उस वृत्तिपर अभिव्यक्त बोध-प्रतिबिम्ब नित्य बोधरूप बिम्बके तुल्य ही होता है। इसीलिये चिच्छायापन्न वृत्तिके क्रिया होनेसे नित्यबोधमें भी क्रियात्वका आरोप होता है। लोकमें अर्थ-प्रकाश ही उपलब्धि-शब्दार्थ प्रसिद्ध है। वह अर्थ-प्रकाश अर्थका धर्म नहीं हो सकता; क्योंकि वह तो जड है, स्वत: स्फूर्तिरहित होना ही जडताका लक्षण है। अन्त:करणका भी धर्म प्रकाश नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वह तो प्रकाशकरण (असाधारण कारण) है, अत: वह भी चैतन्यरूप प्रकाशका आश्रय नहीं हो सकता। फिर भी स्वयं प्रकाशमान चैतन्य आत्मामें अहंरूपसे अन्त:करणका अध्यास होता है। वह कभी भी अप्रकाशित होकर नहीं रहता। वही आत्मचैतन्य व्याप्त अन्त:करण विषयवृत्तिको उत्पन्न करता हुआ उपलब्धा कहलाता है, वही कर्ता और प्रमाता भी कहलाता है। जैसे लोह-पिण्डमें दाहकत्व-प्रकाशकत्वका व्यवहार होता है, वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिये। अखण्ड बोधस्वरूप आत्माका आकाशवत् अविक्रिय होनेपर भी तादृक् अन्त:करणगत चिदाभासके अविवेकसे अन्त:करणके धर्मों एवं उसकी अवस्थाओंसे युक्त होकर प्रतीत होने लगता है। जैसे अग्नि निराकार होनेपर भी काष्ठोंपर प्रकट होती है, वैसे ही त्रिकोण-चतुष्कोण मोटा-पतला-सा प्रतीत होता है और अग्निका उत्पन्न होना, नष्ट होना भी उसी काष्ठादि उपाधिसे प्रतीत होता है। इसी तरह विकासी अन्त:करणमें कर्तृत्व होनेपर भी उपलब्धिमें उत्पद्यमानता नहीं होती। अत: उपलब्धिस्वरूप आत्मा निर्विकार कूटस्थ ही है।
कहा जा सकता है कि ‘जैसे छिदिक्रियासाध्य द्वैधीभावरूप फल विक्रिया है, उसी तरह उपलब्धिरूप फल भी साध्य ही है, अत: वह भी विक्रिया ही है।’ परंतु वस्तुत: स्वरूपसे उपलब्धि फल ही नहीं है, वृत्तिव्याप्त घटादि विषयोंपर व्यक्त चित्प्रतिबिम्ब ही फल है। नित्योपलब्धिस्वरूप आत्मामें उसीके अविवेकसे फलत्वका व्यपदेश होता है, अतएव यहाँ उपलब्धि एवं उपलब्धामें भेद नहीं है। उपलब्धि-स्वरूप ही आत्मा है। यह उपलब्धि नित्य है, विक्रिया नहीं है। विक्रियारूप उपलब्धि चैतन्यव्याप्त बुद्धिवृत्ति है। उससे अविवेकके कारण ही नित्योपलब्धिमें फलत्वका व्यवहार होता है। इसीलिये उपलब्धाभासावसान ही उपलब्धिका धात्वर्थ है। उसी नित्योपलब्धिस्वरूप आत्मामें जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों ही अवस्थावाला अन्त:करण भासित होता है। तीनों ही अवस्थाएँ आगन्तुक हैं। उपलब्धिस्वरूप आत्मा सर्वत्र अव्यभिचरितरूपसे विद्यमान रहता है। सुषुप्तिमें भी कुछ नहीं देखा, इस प्रकार सर्वाभावकी उपलब्धि होती ही है। जागरादिमें भी प्रमाता स्वत:सिद्ध होता है। वही स्वयं प्रमाणद्वारा प्रमेयोंको जानता है। प्रमाताका भी भासक अखण्डबोध आत्मा स्वत:सिद्ध है। लोह-जल आदिमें दाहकत्व-प्रकाशकत्व लानेके लिये अग्निकी अपेक्षा होती है, किंतु अग्निमें दाहकत्व-प्रकाशकत्व लानेके लिये अन्य अग्नि आदिकी अपेक्षा नहीं होती। वही स्वत:सिद्ध संवित् आत्मा है। वृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्य प्रमाण है, वृत्तिमदन्त:करण प्रतिबिम्बित चैतन्य प्रमाता है। प्रमेयप्रकाशकालमें वे दोनों ही प्रकाशित रहते हैं। उनका प्रकाशक कोई अन्य प्रमाता या प्रमाणान्तर माननेमें अनवस्था आदि दोष आते हैं, अत: स्वयंज्योति: आत्माको ही तीनोंका भासक मानना ठीक है।
कहा जा सकता है कि ‘संवित् या बोध प्रमाणके फलरूपसे ही प्रसिद्ध है, फिर वह नित्य कैसे हो सकता है?’ परंतु यह ठीक नहीं; कारण, वृत्तिप्रतिबिम्बित अवगति ही अनित्या है, वही प्रमा है, वही प्रमाणफल है, बिम्बभूत अवगति नित्य ही है। यदि अवगति नित्य है, तब तो प्रमाण-व्यापार व्यर्थ होगा और अनित्य है तो प्रमाण-व्यापार आवश्यक होगा, परंतु प्रमाताकी अवगति तो प्रमाण-निरपेक्ष स्वत:सिद्ध है ही। यदि प्रमाताको आत्मसिद्धिमें प्रमाणकी अपेक्षा हो तो किसे प्रमित्सा होगी, यह भी विचारणीय है। जिसे प्रमित्सा होती है, वही प्रमाता होता है। प्रमित्सा प्रमेयविषयक ही होती है, प्रमातृविषया नहीं। प्रमातृविषयक प्रमित्सा होनेसे अनवस्था-दोष भी होता है। प्रमाताकी प्रमित्सा अव्यवहित होनेसे प्रमातृविषया नहीं हो सकती। लोकमें प्रमाताकी इच्छा, स्मृति, प्रयत्न एवं प्रमाणजन्यके अनन्तर प्रमेय सिद्ध होता है। प्रमेय-विषया-अवगति अभीष्ट होती है। स्वयं प्रमाता अपनेसे या अन्य इच्छादिसे व्यवहित नहीं हो सकता। स्मृति भी स्मर्तव्यविषया होती है, स्मर्तृविषया स्मृति नहीं होती। इसी तरह इच्छा भी इष्टविषया होती है, इच्छावद्विषया इच्छा नहीं होती। यदि स्मृति एवं इच्छा स्मर्ता एवं इच्छावान‍्को विषय करें, तब इसमें भी अनवस्था दोष आयेगा। स्मृति, इच्छा, प्रयत्न एवं प्रमाण जन्मके अनन्तर ही स्मर्तव्य, इष्यमाण, प्रयतितव्य एवं प्रमेयका व्यवहार हो सकता है।
कहा जा सकता है कि ‘प्रमातृविषयक अवगति-उपपत्ति उपपन्न न होनेसे आत्मा अनवगत ही रहेगा’, परंतु यह कहना ठीक नहीं। अवगन्ताकी अवगति अवगन्तव्यविषयक होती है, अवगन्तृविषयक अवगति नहीं होती। यदि ऐसा होगा तो अनवस्था-प्रसंग होगा। आत्माकी अवगति स्वरूपभूत ही है अर्थात् अवगन्ताकी अवगति उत्पन्न नहीं होती। अग्निकी उष्णता और प्रकाशके तुल्य ही आत्माका स्वभाव ही अवगति है। ‘अत्रायं पुरुष: स्वयंज्योति:’ ‘आत्मैवास्य ज्योति:’ ‘एषोऽस्य परमो लोक:’ ‘न हि विज्ञातुर्विज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यते’ (बृहदा० उप० ४।३।३०) इत्यादि श्रुतियोंके अनुसार आत्माकी स्वरूपभूत ज्योति है। चैतन्यात्मज्योतिकी अवगति अनित्य है ही नहीं। असंहत, स्वप्रकाश एवं अपरार्थ ही आत्मा है। यदि आत्माकी अवगति अनित्य होगी तो उत्पत्तिसे प्रथम एवं प्रध्वंससे ऊर्ध्व उसका अभाव कहना पड़ेगा। फिर आत्माकी अपरार्थता आदि सभी बाधित होंगे। अवगति प्रमा है, वह स्मृति-इच्छादिपूर्विका अनित्या है, आत्मा स्वरूपभूत नित्य है। जैसे तिष्ठति शब्द अचलत्व-अर्थमें प्रयुक्त होता है, जंगम पदार्थ गतिपूर्वक अचल होते हैं; आकाश-पर्वतादि स्थावर पदार्थ सदा ही अचल रहते हैं, दोनोंमें ही तिष्ठति शब्दका प्रयोग होता है। ‘तिष्ठन्ति मनुष्या:, तिष्ठन्ति पर्वता:, तिष्ठत्याकाश:’ उसी तरह अनित्य अवगति एवं नित्य आत्मस्वरूप-अवगतिमें भी प्रमात्व-व्यवहार बन जाता है। फलस्वरूप प्रमामें कोई अन्तर नहीं। प्रमाण फल ही प्रमा है। वह प्रमातृगतचित्स्वरूप प्रकाश ही है। यद्यपि वृत्तिव्याप्त विषयस्थ चित्प्रतिबिम्ब ही फल है, तथापि ‘मयेदं विदितम्’ मैंने यह जाना, इस तरह प्रमाण-प्रमेयसम्बन्ध आत्मामें प्रतीत होता है, अत: प्रमातृगतचित्प्रकाशसे सम्बन्ध मानना ही पड़ता है। जड अन्त:करण यद्यपि व्यापारका आश्रय हो सकता है तथापि वह चित‍्का आश्रय नहीं हो सकता। चिदात्मा कूटस्थ होता है, अत: वह व्यापारका आश्रय नहीं हो सकता। इसीलिये वह प्रमाके प्रति कर्ता भी नहीं हो सकता और मुख्यवृत्तिसे जड-अजड कोई भी प्रमाता नहीं बन सकता। अत: परस्पराध्याससे ही आत्मा ही बाह्य-विषयका भी प्रमाता बनता है। फिर स्वात्मामें स्वयंप्रकाश होनेसे प्रमातामें कोई शंका ही नहीं। अतएव अनवगत होने या प्रमाणकी अपेक्षा रखनेकी कोई कल्पना ही नहीं हो सकती। अर्थात् कूटस्थ नित्य आत्मज्योतिमें ही अन्त:करणादि-उपाधिद्वारा औपाधिक ही प्रमातृत्व होते हैं।
प्रमाणसापेक्ष शब्दादि सभी अचेतन, संहत एवं अनात्मा हैं। अवगति स्वयं अन्यानपेक्ष स्वत:सिद्ध है, वही आत्मा है। उसमें भी सोपाधिक अवगति अनित्य है, निरुपाधिक नित्य है। यद्यपि कहा जा सकता है कि ‘मैं मनुष्य हूँ, जानता हूँ’ इस व्यवहारमें प्रत्यक्षादि प्रमाणकी अपेक्षा नहीं रहती है, तथापि मृति, सुषुप्ति आदिमें देहसिद्धिके लिये भी प्रमाणकी अपेक्षा होती ही है। उसकी भी अवगति कूटस्थ, स्वयंसिद्ध आत्मज्योति ही है। अवगतिसे भिन्न देहादि, ग्राह्य, ग्राहक, करणादिरूपसे भूत ही परिणत होते हैं। अवगति यद्यपि स्वयं नित्यसिद्ध है, तथापि प्रमाणजन्य प्रत्यक्षादि वृत्तिरूप प्रत्ययकी अनित्यतासे ही तदभिव्यक्त अवगतिमें भी अनित्यता एवं प्रमाणफलताका व्यवहार होता है। सभी वृत्तियाँ परस्पर व्यभिचरित होती हैं। बोध, स्फुरण उनमें एक रूपसे ही समान होता है, अत: वही स्फुरण, बोध या अवगति नित्य एकरस हैं। जैसे स्वप्नके नील-पीतादि प्रत्यय-भेद व्यभिचरित होनेसे असत्य हैं, अवगति ही सत्य है, वैसे ही सर्वत्र प्रत्ययोंमें भिन्नता होनेसे मिथ्यात्व है। बोधमात्र ही अभिन्न एवं एक है। उस अवगतिका अवगन्ता अन्य कोई नहीं है। वह स्वयं नित्य है। उसका हान या उपादान नहीं हो सकता। जैसे शब्दादि, लोष्ठादि ज्ञेय हैं, ज्ञाता नहीं, उसी तरह भूतपरिणाम देहादि भी ज्ञेय ही हैं, ज्ञाता नहीं। जो वस्तु स्वत: सत्तास्फूर्तिवाली नहीं है, वह जड है, उसे सत्तास्फूर्ति देनेवाला ही चेतन है। वही ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’ है। ज्ञाता आत्मा, ज्ञेय अनात्मा, इदमंश अनात्मा है, द्रष्टा अनिदमंश ही आत्मा है। अहमर्थमें भी दृश्य अहं इदमंश ही है, दृक् आत्मा ब्रह्म है। जैसे सौरालोकमें स्फटिकादि मणियोंपर जपाकुसुमादिकी रक्ताद्याकारता प्रतीत होती है, उसी तरह स्वप्रकाशबोधरूप आत्मप्रकाशमें ही बुद्धॺादिमें विषयाकारताकी प्रतीति होती है। जैसे सौरालोकसे ही स्फटिक एवं रक्ताद्याकारता दोनों ही भासित होती हैं, वैसे ही नित्य-बोधसे ही बुद्धॺादि एवं विषयाकारता दोनों ही भासित होती हैं।
बुद्धि होनेपर बुद्धॺारूढ़ पदार्थ दृश्य होते हैं। निद्राकालमें बुद्धि विलीन होनेपर दृश्य उपलब्ध नहीं होता, परंतु द्रष्टा तो सदा एक-सा ही रहता है। अविवेकसे बुद्धि सर्वसाक्षीका अभाव समझती है। विवेकसे स्वप्रकाश सर्वसाक्षीसे भिन्न बुद्धि अपने-आपको भी नहीं समझती। ब्रह्मादिस्थावरान्त प्राणी अखण्ड-बोधस्वरूप आत्माके पुर ही हैं, फिर भी वह आत्मा सर्वभासक भान सर्वभूतोंसे असंस्पृष्ट ही रहता है। जैसे निर्विकार आकाशको बालकलोग नील समझते हैं, वैसे ही सर्वभासक भान निष्प्रपंच होते हुए भी सप्रपंच-सा प्रतीत होता है। सर्वप्राणि-बुद्धियाँ भी उस अखण्डभानके पुर ही हैं। जो भी पदार्थ उत्पत्तिमान हैं और ज्ञान विक्षेप हैं, वह स्वप्नवत् ही हैं। नित्यनिर्विषय ज्ञान सर्वविनाशसाक्षी स्वतन्त्र ही है। ज्ञाताकी स्वरूपभूता ज्ञप्ति नित्य है, सुषुप्तिमें जो आत्मा शब्दादिको नहीं जानता, वह जानता हुआ ही नहीं जानता। अन्य ज्ञेय नहीं है, इसलिये नहीं जानता है, स्वरूपभूत ज्ञप्ति तो रहती है। विज्ञाताकी विज्ञातिका कभी भी विलोप नहीं होता—
‘यद्वै तन्न पश्यति पश्यन् वै तन्न पश्यति न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते।’ (बृहदा० उप० ४।३।२३)
जाग्रदादिकालकी जो घटादि-ज्ञप्ति होती है, वह तो भ्रान्ति ही है। फिर भी सभी बुद्धिवृत्तियाँ स्फुरणसे व्याप्त ही होती हैं, अत: सर्ववृत्तियोंकी उत्पत्ति, स्थिति, विनाशका साक्षीस्फुरण सर्वत्र एकरस ही रहता है। जागर, स्वप्नमें विषय, समकालमें सुप्ति, समाधि आदिमें विषयाभाव सभी कालमें स्फुरण रहता है, अत: वह शुद्ध है। शुद्ध दृशि ही अमर आत्मा है, जैसे दर्पणादिमें मुखका प्रतिबिम्ब होता है, तब दर्पणादिगत दोषोंका मुखमें आरोप किया जाता है, उसी तरह दृशिका अहंकारमें प्रतिबिम्ब होनेसे अहंकारगत दोषोंका दृशिमें आरोप किया जाता है। श्रुत्यादिसे विज्ञाति अर्थात् अनित्य विज्ञातिका विज्ञाता नित्यबोध नित्यदृशिस्वरूप आत्मा विदित होता है। उस दृशिस्वरूपमें ज्ञान-अज्ञान—दोनों ही कल्पित होते हैं। विज्ञातिका विज्ञाता शुद्ध विज्ञाता ही है, वह विज्ञेय नहीं होता। आत्मा अलुप्तदृक् है। अनित्य बुद्धिवृत्तिरूप दृष्टिके कारण इसमें जन्यताकी प्रतीति होती है। जैसे व्यंजक आलोक व्यंग्यकी आकारताको प्राप्त होता है, उसी तरह शुद्ध नित्य ज्ञानस्वरूप ज्ञाता स्वभास्य प्रत्ययोंके आकारका प्रतीत होता है। जैसे दीप बिना यत्नके ही उपस्थित विषयोंको एवं विषयाकारवृत्तियोंको भी प्रकाशित करता है, जैसे ज्योति अन्यका द्योतक होनेपर भी अपना प्रकाशक नहीं होता, वैसे ही ज्ञानस्वरूप आत्मा अन्यका भासक होनेपर भी आत्मभासक नहीं होता। जैसे अग्नि अपना दहन-प्रकाशन नहीं करता, वैसे ही आत्मा अपना प्रकाशन नहीं करता। फिर भी जैसे रविके स्वात्म-प्रकाशके लिये अन्य ज्योतिकी अपेक्षा नहीं होती, उसी तरह बोधस्वरूप आत्माको स्वात्मप्रकाशके लिये अन्यबोधकी अपेक्षा नहीं होती। जो जिसका स्वरूप होता है, उसे उसकी अपेक्षा नहीं होती। जैसे प्रकाश प्रकाशान्तरसे दृश्य नहीं होता, प्रकाशके समागमसे अप्रकाश स्वरूपकी व्यक्ति होती है, परंतु प्रकाशस्वरूप सूर्यकी व्यक्ति प्रकाश-समागमकी अपेक्षा नहीं रखती। जैसे प्राणी प्रकाशस्थ देहको सप्रकाश मानता है, उसी तरह चेतन द्रष्टासे प्रकाशित चित्तको सप्रकाश मानकर ‘अहं द्रष्टा’ ऐसा व्यवहार करने लगता है। प्राणी इसी तरह सभी दृश्य पदार्थोंके साथ अपना अभेद समझकर आत्माको तत्तद्दृश्यविशिष्ट मानने लगता है। जैसे स्वप्न और स्मृतिमें घटादिका आकार भासित होता है, अत: अनुभवावस्थामें घटाद्याकारका आभास माना जाता है। अत: स्वप्न, स्मृतिमें बाह्यार्थके बिना ही विषयाकारवृत्तिमदन्त:करण ही प्रतीत होता है। इसी तरह स्वप्नमें सिंहासनारूढ़ देह दृश्य होता है, द्रष्टा स्वयं वह नहीं है। उसी प्रकार जाग्रत‍्कालमें भी दृश्य देहसे द्रष्टा भिन्न ही है। जैसे मूर्ति आदिके साँचेमें डाला हुआ द्रवीभूत ताम्रादि साँचेके आकारका ही हो जाता है, जैसे व्यंजक-आलोक व्यंग्यके आकारका बन जाता है, उसी तरह सर्वार्थव्यंजक बुद्धि सर्वार्थाकार हो जाती है। अर्थाकार बुद्धि ही द्रष्टा अखण्डबोधरूप आत्मासे दृष्ट होती है। वही स्वप्नके दृशिस्वरूप आत्मासे दृश्य होती है। अखण्ड दृशिस्वरूप बोधसे ही सर्वदेहोंकी बुद्धियाँ भासित होती हैं। जैसे घटादि प्रकाश सम्पर्कसे ‘घट: प्रकाशते’ इस रूपसे प्रकाशके कर्ता होते हैं, वैसे ही सूर्यादि प्रकाश प्रकाशान्तर-सम्पर्कके बिना ही ‘सूर्य: प्रकाशते’ इस तरह सूर्य प्रकाशका कर्ता कहा जाता है। इसी तरह बुद्धॺादि अखण्डबोधके सम्पर्कसे प्रकाशित होते हैं, परंतु अखण्डबोध स्वत: ही प्रकाशित होता है। जैसे सूर्यमें सत्तामात्रसे प्रकाशकर्तृत्वका व्यवहार होता है, उसी तरह दृशिस्वरूप आत्मामें सन्निधानमात्रसे प्रकाशत्वका व्यवहार होता है। जैसे बिलसे निकलनेपर सूर्यकी सत्तामात्रसे सर्पादि भासित होते हैं, सूर्यमें किसी कर्तृत्वादि विकारकी आवश्यकता नहीं पड़ती, इसी तरह दृश्यके उपस्थित होनेपर दृशिस्वरूप आत्मासे दृश्यका प्रकाश होता है, एतदर्थ उसमें कर्तृत्वादि विकारकी अपेक्षा नहीं होती।
इसी प्रकार दाह्यका सन्निधान होनेपर उष्णस्वरूप अग्निमें दाहकत्वका व्यवहार होता है। इसी तरह प्रयत्न बिना भी बोधस्वरूप आत्मा ज्ञाता, बोद्धा आदि कहा जाता है। वस्तुत: आत्मा विदित-अविदित—दोनोंसे ही अन्य है। जैसे प्रकाशस्वरूप सूर्यमें दिन-रात नहीं होते, वैसे ही बोधस्वरूप आत्मामें बोध, अबोध नहीं होते। अतएव बौद्धों-जैसी इस अखण्डबोधमें स्वसंवेद्यता भी नहीं है। साथ ही बोधको शून्य भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जैसे घटादि दृश्य हैं, वैसे ही बुद्धि भी साक्षिभास्यरूपसे स्पष्ट प्रतीत होती है। जैसे घटादि विकल्प कार्य निर्विकल्प-कारणपूर्वक होते हैं, उसी तरह बुद्धि आदि सविकल्प सप्रकाश निर्विकल्प-प्रकाशपूर्वक होने ही चाहिये।
बौद्ध क्षणिक ज्ञानको ही आत्मा कहते हैं। जैसे दीपमें ‘स एवायं दीप:’, यह वही दीपक है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा (पहचान)-से सादृश्यमूलक एकत्वकी भ्रान्ति होती है। उसी तरह क्षणिक ज्ञानोंकी धारामें ही सादृश्यके कारण ‘स एवाहम्’ मैं वही हूँ, इस प्रकार एकत्वकी भ्रान्ति होती है। बाह्याकार भी क्षणिक ज्ञान ही है, परंतु यह सब कहना ठीक नहीं। कारण कि ज्ञेयकी उत्पत्तिके पहले उसका ज्ञान-सम्बन्ध कैसे होगा। ज्ञान उत्पन्न होते ही नष्ट होता है, तब उसका ज्ञेयके साथ सम्बन्ध कैसे होगा? ज्ञेयको प्रत्यक्षताका अनुभव होता है, फिर उसे अनुमेय माननेवाला पक्ष भी असंगत ही है। अनुभविता भी यदि क्षणिक ज्ञान ही है, तब स्मृति भी कैसे सम्पन्न होगी? अन्य अनुभूतका अन्य स्मरण कर नहीं सकता। यदि कोई स्थायी आत्मा हो, तभी ज्ञानसे संस्कार उत्पन्न हो, तभी स्मृति हो सकेगी। संस्कारका स्थायी आधार न होनेसे ही पूर्वापरकी तुल्यताका ग्रहण सम्भव नहीं होता। अत: सादृश्यमूलक एकत्वकी भ्रान्ति भी नहीं कही जा सकती। क्षणिक विज्ञान व्यक्तियोंसे अतिरिक्त विज्ञानसंतान कुछ भी नहीं होता। अत: संतानको लेकर भी एकत्व-व्यवहार उपपन्न नहीं हो सकता। यदि अत्यन्त भिन्नमें भी कार्य-कारणभाव सम्पन्न हो सके, तब तो जैसे दुग्धसे दधिकी अपेक्षा की जाती है, उसी तरह सिकतासे भी दधिकी अपेक्षा की जानी चाहिये; क्योंकि भिन्नता समान ही है।
सर्वसम्मतिसे एक स्वयं नामका पदार्थ है। जिसके सम्बन्धमें सभी कहते हैं—‘मैं स्वयं जा रहा हूँ, तुम स्वयं जाओ, वह स्वयं आ रहा है’ भले उसकी चेतनता, जडता, शून्यता आदिमें विवाद हो। उसी सम्पूर्ण भाव-अभावके अभिज्ञ सर्वसाक्षीको स्वयं पदार्थ मानना चाहिये। जिसके द्वारा सबका अभाव विदित होता है, उसे सत् ही कहना चाहिये। वही स्वयं निराकर्ताका भी स्वरूप है। सत्, असत् आदि सभी वादोंसे प्रथम ही साक्षी सिद्ध है। जैसे ज्योति:-स्वभाव आदित्यमें अप्रकाश नहीं कहा जा सकता। उसी प्रकार नित्य-बोधस्वरूप आत्मामें अज्ञान नहीं कहा जा सकता। जो समझते हैं कि आत्मगत ज्ञानसे ही आत्मगत इच्छादि विदित होते हैं, वह ठीक नहीं। जैसे अग्निगत उष्णता अग्निप्रकाशसे नहीं प्रकाशित होती। अत: साक्षीके द्वारा ही सुख-दु:खादि-वृत्तिका भान होता है। नैयायिकोंके मतानुसार सुख एवं ज्ञान दोनोंका एक कालमें आत्म-समवेत होना सम्भव न होगा; क्योंकि आत्ममन:संयोग दोनोंका ही हेतु है। एक असमवायीकारण एक ही आत्मगुणके प्रति हेतु होता है। सुखके असमवायीकारण आत्ममन:संयोगके नाशसे सुखका नाश होगा। संयोगान्तरसे जन्य ज्ञानद्वारा उसका ग्रहण कथमपि नहीं बन सकेगा। एक आत्ममन:संयोगसे युगपत् अनेक कार्योंकी उत्पत्ति मान्य नहीं होती, अत: ज्ञान और सुख दोनों युगपत् नहीं हो सकते। एक आश्रयवालोंका विषय-विषयिभाव नहीं बन सकता, इसलिये भी सुख ज्ञानग्राह्य नहीं हो सकता। यदि कहा जाय कि सुख-दु:खादि ज्ञानग्राह्य मत हों, तो यह भी ठीक नहीं; कारण, ‘सुखं मया ज्ञातम्’ ‘दु:खं मया ज्ञातम्’ इस रूपसे सुख-दु:खकी स्मृति सुख-दु:खके अनुभवको बोधित करती है। जो कहा जाता है कि ‘ज्ञान-विशिष्ट आत्मामें समवेत होनेसे सुखादिका भान होगा’, यह भी ठीक नहीं। कारण, एक कालमें आत्मा अनेक विशेष गुणोंका समवायी नहीं हो सकता। एक असमवायीकारण आत्ममन:संयोगसे एक ही कार्य उत्पन्न होनेका नियम मान्य है। यदि ज्ञान-विशिष्ट आत्म-समवेत होनेसे सुखादिका ग्रहण हो तब तो आत्मगत संख्या परिमाणादिका भी ग्रहण होना ही चाहिये। यदि कहा जाय कि ‘सुख, दु:ख, ज्ञानादिका आत्माके गुण या धर्म होनेसे आत्माद्वारा ही प्रकाशित होना ठीक है’, वह भी ठीक नहीं; कारण, नैयायिकोंका आत्मा प्रकाशस्वरूप नहीं है। फिर उससे सुखादिका प्रकाश कैसे होगा? नैयायिक आत्माको व्यापक और नित्य भी मानते हैं, अत: ज्ञान, सुखादि उसके विकार नहीं हो सकते। व्यापक, नित्यको विकारी कहना भी असंगत ही है। अत: आत्मा न तो ज्ञानादि गुणवाला ही सिद्ध होता है और न गुण-गुणीमें ग्राह्य-ग्राहकभाव ही बन सकता है। फिर सभी अनेक व्यापक आत्मामें आत्ममन:संयोग समान ही है। अत: एक आत्माके सुखादिसे सभी आत्माओंको सुखादिमान् कहना पड़ेगा। अदृष्टादि भी किस आत्मामें हैं, किसमें नहीं, इसका निर्णय अशक्य होगा। अत: सुख-दु:ख एवं वृत्तिरूप ज्ञानादि स्वप्रकाश व्यापक आत्मासे भास्य मानना ही युक्त है। वही आत्मा नित्य-बोध है। ज्ञानको ज्ञेय माननेसे अनवस्थित ज्ञानमाला अनिवार्य होगी। यह भी विचारणीय है कि विषय-प्रकाश-कालमें विषय-प्रकाशक ज्ञान भासमान होता है या नहीं, यदि नहीं तो विषय स्वयं भासित होता है या ज्ञानाधीन होकर भासित होता है, यह निर्णय नहीं हो सकेगा। अत: विषय-प्रकाश-कालमें ही प्रकाशक ज्ञानका भानस्वरूप ज्ञानान्तर मानना चाहिये। यदि वह ज्ञान भी भासमान नहीं है तो उसके द्वारा पूर्व ज्ञानका भान नहीं बनेगा। फिर उस ज्ञानके भानके लिये भी ज्ञानान्तर मानना पड़ेगा।
‘पूर्व-पूर्व ज्ञान उत्तरोत्तर ज्ञानसे भासित होंगे’, यह पक्ष भी सम्भव नहीं है; क्योंकि प्रथम ज्ञान उत्पन्न होनेके अनन्तर मनमें क्रिया उत्पन्न होगी, उससे विभाग होगा, तब पूर्व संयोग नाश होगा, पुन: दूसरा संयोग उत्पन्न होगा, तब ज्ञानान्तर उत्पन्न होगा। इस तरह बहुक्षणविलम्बसे जब उत्तर ज्ञान उत्पन्न होगा, तब पूर्वज्ञान रहेगा ही नहीं, फिर भी उसका भान कैसे होगा। यदि इन सब दोषोंसे बचनेके लिये एक ही आत्म-मन:-संयोगसे दो ज्ञान या अनेक ज्ञानकी उत्पत्ति मानी जाय, तब तो एक ही आत्ममन:संयोगसे युगपत् सन्निकृष्ट रूप, रस, गन्धादिका भी समकालमें ही ज्ञान होना चाहिये। संस्कार-उद‍्बोध होनेपर उसी समय स्मृतियाँ भी उत्पन्न होनी चाहिये, परंतु यह सब सिद्धान्तविरुद्ध होगा। नैयायिकोंके सिद्धान्तमें न तो अनुभव एवं स्मृतियोंकी समकालता मान्य है और न तो विशेष गुणोंकी समकालता ही मान्य है ‘युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्’ (न्यायदर्शन १।१।१६) एक कालमें अनेक ज्ञानोंका न उत्पन्न होना अणुपरिमाण मनके होनेमें लिंग है। इसलिये दीर्घशष्कुली (पापड़) खाते समय समकालमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धकी अनुभूतिको भी नैयायिक क्रमिक ही मानते हैं।
यदि ज्ञान या चैतन्य आत्माका स्वरूप-लक्षण माना जाय तो जैसे गन्धादि पृथ्वीका लक्षण है, वैसे ही ज्ञान आत्माका लक्षण हुआ, फिर तो जैसे गन्धादि पृथ्वी आदिका स्वरूप ही है, वैसे ही ज्ञान भी आत्माका स्वरूप ही ठहरता है। फिर ‘अनित्य ज्ञानवाला आत्मा है’, यह कथन व्यर्थ ही है। यदि ज्ञान आत्माका तटस्थ लक्षण है तो आत्माका स्वरूप लक्षण भी बतलाना चाहिये। पर वह चेतनातिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हो सकता। अत: देहादि-जड-विलक्षण ही आत्मा है, यह कहना पड़ेगा तथा च निर्विशेष चिद्‍रूप ही आत्मा हुआ। बोधस्वरूप आत्म-ज्योतिसे दीप्त होकर बुद्धि भ्रान्तिसे अपनेमें ही बोध मानती है। ‘अन्य साक्षी बोद्धा नहीं है, मैं ही बोद्धा हूँ’, यह बुद्धिका भ्रम ही है। बुद्धि आगन्तुक है; किंतु बोध तो सुषुप्तिमें बुद्धिके न रहनेपर भी रहता है। अत: अविवेकसे ही बुद्धिमें बोधरूपताकी भ्रान्ति होती है। स्वप्नके सभी वेद्य-प्रपंचको इसी बोधसे जाना जाता है; क्योंकि स्वप्नमें आदित्य, चन्द्र, चक्षु, वाक् आदि सभी ज्योतियाँ लुप्त होती हैं, मन स्वयं वेद्यरूपसे ही परिणत है। भासक ज्योति आत्मासे भिन्न होकर कुछ भी नहीं है। अतएव स्वप्नमें जिससे रूपदर्शन, शब्दश्रवण, वाग्व्यवहार होता है, वह चक्षु, श्रोत्र, मन एवं वाक् आदि आत्मज्योति ही है—‘सा श्रोतु: श्रुतिर्यया स्वप्ने शृणोति। सा वक्तुर्वक्तिर्यया स्वप्ने वदति।’
जैसे एक ही स्फटिक मणिमें नील, पीत, हरित उपाधिके भेदसे अनेक रूप परिलक्षित होते हैं, उसी तरह एक ही नित्य ज्ञान स्वप्नकल्पित शब्दादि अनेक उपाधिभेदसे श्रुति, मति, विज्ञाति आदि रूपमें प्रतीत होता है। इसी चिद्‍रूप ज्ञानका ही विकल्प जाग्रत् भी है। अज्ञानोपाधिक ज्ञानस्वरूप आत्मा बुद्धिकी कल्पना करता है। बुद्धिसे उपहित होकर बुद्धिस्थ अर्थका ही व्याकरण करता हुआ उनका प्रकाशक वही ज्ञानस्वरूप आत्मा सर्वव्यवहारभागी होता है। जैसे स्वप्नका व्यवहार, ठीक वैसा ही जाग्रत‍्का भी व्यवहार होता है। फिर भी शुद्धचित्तमें निर्विकल्प नित्यज्ञानका साक्षात्कार होता है। बाह्येन्द्रियोंसे विषयोपलम्भ जागर है। संस्कारवशात् निद्राकालमें प्रतीत प्रपंच-स्वप्न एक प्रकारकी स्मृति है। दोनोंहीका अभाव सुषुप्ति है। तीनोंका ही साक्षी नित्य ज्ञान है। सुषुप्तिका तम ही जागर, स्वप्नका बीज है। स्वात्म-प्रबोधसे बीज दग्ध होनेपर अनन्तज्ञान निष्प्रपंचरूपसे भासित होता है। जैसे अदृश्य भी राहु चन्द्रबिम्बपर उपरक्त होकर दृश्य होता है, जैसे जलमें चन्द्रादिका प्रतिबिम्ब लक्षित होता है, वैसे ही शुद्ध बुद्धिपर ही निर्विकल्प-बोध लक्षित होता है। जैसे जलमें भानुका बिम्ब एवं उष्णता प्रतीत होनेपर भी वह जलका धर्म नहीं, किंतु भानुका ही धर्म है, उसी प्रकार बुद्धिमें बोध लक्षित होनेपर भी बोध बुद्धिका धर्म नहीं है। जैसे जलका शैत्य एवं अप्रकाश धर्म निश्चित है, वैसे ही बुद्धिका भी जडत्व धर्म निश्चित है। अत: जैसे जलमें प्रतीत होते हुए भी उष्णता और प्रकाश भानुका ही धर्म है, वैसे ही बुद्धिमें स्फुरण या बोध प्रतीत होनेपर भी आत्माका ही स्वरूप है। चक्षुके द्वारा रूपाकारवृत्तिका अवभासन करता हुआ साक्षी अलुप्तदृक् रहता है। वही दृष्टिका द्रष्टा, श्रुतिका श्रोता है। केवल मानसी वृत्तिका भासन करता हुआ वही मतिका मन्ता कहा जाता है। वह विज्ञातिका विज्ञाता है। उसीके सम्बन्धमें श्रुतिने कहा है—
न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्ये:, न श्रुते: श्रोतारं शृणुया:, न मतेर्मन्तारं मन्वीथा:॥
‘मतिका मन्ता है’ यह कहनेपर भी उसमें मन्तृत्वादि विकार नहीं होते। बुद्धि आदिके ही व्यापारसे केवल तद्भासकमें मन्तृत्वादिकी प्रतीति होती है। सुषुप्तिमें भी ज्ञस्वरूप बना ही रहता है। केवल दृश्य न होनेसे विशेष दर्शनादिका अभाव रहता है। घटादि बाह्य वस्तु दृष्टिसे व्यवहित होता है, अत: परोक्ष है। आत्मा तो दृष्टिका भी आत्मा है, अत: आत्मा अपरोक्ष है। श्रुतिमें भी ब्रह्मात्माको साक्षात् अपरोक्ष कहा गया है—‘यत्साक्षादपरोक्षाद‍्ब्रह्म’ (बृहदा० उप० ३।४।१) जैसे दीपको स्वात्मप्रकाशमें दीपान्तरकी अपेक्षा नहीं होती, वैसे ही बोधस्वरूप आत्माको भी स्वात्म-प्रकाशमें बोधान्तरकी अपेक्षा नहीं है। उसी स्वयंज्योति उपलब्धिस्वरूप आत्माके सन्निधानसे साभास अन्त:करण ही आत्मा मालूम पड़ता है। स्वत:सिद्ध आत्मामें जाति, गुण, क्रिया आदि न होनेसे कोई भी शब्द उपाधिद्वारा ही उसमें पर्यवसित होते हैं। अहंकारादिमें आत्मचैतन्याभासका उदय होता है, अत: अहंकार आत्मशब्द वाच्य होता है। जैसे ‘उल्मुकं दहति’ ‘अयो दहति’ इत्यादि प्रयोगोंमें उल्मुक या लोहादिमें दाहकत्वका व्यवहार होता है, परंतु केवल उल्मुक या लोहादिमें दाहकत्वका व्यवहार नहीं बन सकता, अत: वह्निमें ही दाहकत्वका पर्यवसान होता है। उसी तरह ‘अहं जानामि’ इत्यादिरूपसे साभास अन्त:करण या अहंकारमें ज्ञातृत्व-आत्मत्वका व्यवहार होता है, परंतु अहंकार जड एवं प्रकाशके अधीन है। अत: ज्ञातृत्व-आत्मत्वका पर्यवसान नित्यबोधमें ही होता है। जैसे दर्पणादि उपाधिवशात् मुखसे अन्य मुखाभास दर्पणस्थ प्रतिबिम्ब होता है, फिर भी स्वरूपसे पृथक् नहीं होता; क्योंकि बिम्बकी चेष्टा बिना प्रतिबिम्बमें चेष्टा नहीं होती। आभाससे मुख भी अन्य होता है; क्योंकि वह आदर्शानुविधायी नहीं होता। ग्रीवास्थ मुख दर्पणादिकी अपेक्षा करके ही स्फुटित होता है। मुखाभासके तुल्य अहंकार आत्माभास है। वैसे ही आत्मा और आत्माभास-बुद्धिमें चैतन्याभास होता है। आत्मामें चैतन्यरूपता होती है। तभी वेदादिशास्त्र ब्रह्मतत्त्वका ज्ञानशब्दसे प्रतिपादन करते हैं। चैतन्याभासयुक्त बुद्धि ज्ञानशब्दका वाच्य है। शुद्ध चैतन्य ज्ञानशब्दका तात्पर्यार्थ है। प्रकाशस्वभाव वस्तु जिसमें प्रतिबिम्बित होती है, उसके प्रकाशोदयका हेतु होती है। जैसे जलमें प्रतिबिम्बित सूर्य जल-प्रकाशका हेतु होता है, वैसे बुद्धिमें प्रतिबिम्बित चैतन्य बुद्धिमें चित्प्रकाशके उदयका हेतु होता है। उसी चिदाभासयुक्त बुद्धिमें ज्ञानादि शब्दोंका प्रयोग होता है। लक्षणोंसे शुद्ध चैतन्यका बोध होता है।
कहा जा सकता है कि ‘करोति, गच्छति’ इत्यादि स्थानोंमें प्रकृत्यर्थ क्रिया एवं प्रत्ययार्थ कर्तृत्व—दोनोंका ही आश्रय एक ही है। कहीं भी क्रिया और कर्तृत्वकी भिन्नाश्रयता नहीं होती, परंतु ‘जानाति’ में भिन्नाश्रयता क्यों? इसपर वेदान्तियोंका कहना है कि बुद्धिगत आत्माभास (चिदाभास) ‘तिङ्’ प्रत्ययका अर्थ है और ‘ज्ञा’ धातुरूप प्रकृतिका अर्थ वृत्तिरूपा क्रिया बुद्धिमें रहती है। बुद्धि एवं चिदाभासके अन्योन्य अविवेकसे ‘जानाति’ का प्रयोग होता है। इस दृष्टिसे चिदाभासव्याप्त सक्रिय बुद्धिके साथ आत्माका ऐक्याध्यास होनेसे ही ‘आत्मा जानाति’ यह व्यवहार होता है। इस तरह साभास साधिष्ठान बुद्धिमें ही प्रत्ययार्थ कर्तृत्व एवं प्रकृत्यर्थ वृत्ति—दोनों ही बन जाते हैं। बुद्धिमें चित्प्रकाशरूप बोध नहीं होता। बोधस्वरूप आत्मामें क्रिया नहीं बनती है। इसीलिये दोनोंमेंसे किसी एकमें ‘जानाति’ व्यवहार नहीं बन सकता। अत: बुद्धि एवं बोधस्वरूप आत्माके आरोपित ऐक्यमें ही ‘जानाति’ व्यवहार होता है। वही प्रकृत्यर्थ क्रिया और प्रत्ययार्थ दोनोंका ही आश्रय है। ‘ज्ञप्तिर्ज्ञानम्’ इस प्रकार भाव-व्युत्पत्तिसे भी ज्ञानशब्द आत्मामें नहीं प्रयुक्त हो सकता; क्योंकि नित्य आत्मा भाव अर्थात् धात्वर्थ सामान्य भी नहीं हो सकता; नित्य निर्विकार आत्मामें किसी प्रकारकी विक्रिया नहीं हो सकती। इस तरह ‘ज्ञायतेऽनेन’ इस कारण व्युत्पत्तिसे ज्ञानशब्द आत्मामें संगत नहीं है। इस व्युत्पत्तिसे तो बुद्धि ही ज्ञान-शब्दार्थ ठहरती है। यदि आत्मा ज्ञानका करण होगा, तब कर्ता उससे कोई अन्य ढूँढ़ना पड़ेगा; जो कि असम्भव है। अतएव चिदाभास और चिदात्माके अन्योन्याध्याससे ही ज्ञातृत्व-व्यवहार आत्मामें सम्भव होता है। बुद्धिके कर्तृत्वका आत्मामें अध्यास करके आत्मामें ज्ञातृत्व होता है। आत्माका अचैतन्यबुद्धिमें अध्यास करनेसे बुद्धिमें ज्ञत्वका व्यवहार होता है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है और वही ज्योतियोंका भी ज्योति कहा जाता है। अत: बुद्धि एवं चक्षुरादिसे भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता—
‘तद्देवा ज्योतिषां ज्योतिरायुर्होपासतेऽमृतम्।’
(बृहदा० ४।४।१६)
‘अन्त: पुरुषे ज्योति:।’
(छान्दो० ३।१३।७)
जैसे तत्त्वज्ञान बिना अविवेकी देहको ही आत्मा मानता है, वैसे ही अविवेकी बुद्धिको ही ज्ञानकर्ता कहता है। चिदाभासयुक्त बुद्धिवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, यही देखकर ज्ञानकी उत्पत्तिका व्यवहार होता है। जैसे प्रतिबिम्ब दर्पणानुविधायी होता है, वैसे ही चिदाभास भी बुद्धिधर्मका अनुविधायी होता है। चिदाभाससे दीपित बुद्धिवृत्तियाँ विषयग्राहिका उसी तरह होती हैं, जैसे उल्मुकका दाहकत्व-व्यवहार। वे ग्राहिका वृत्तियाँ स्वयं भासित होती हैं, इसीलिये बौद्धोंने प्रत्ययोंके भासक साक्षीका अपलाप किया है, तथापि उनका आत्मा भासयुक्तबुद्धि प्रत्ययोंके भाव एवं अभाव जिस साक्षीसे विदित होते हैं, वह साक्षी ही उनकी उत्पत्ति-विनाशको जानता है। साक्षीके रहनेपर भी चिदाभास आवश्यक है; क्योंकि वस्तु-स्फुरणके लिये वृत्तिव्याप्त वस्तुपर चिदाभास आवश्यक है। केवल साक्षीद्वारा यदि वस्तुका प्रकाश होता हो, तब तो वृत्तिके समान ही काष्ठ-पाषाणादिका भी स्फुरण होना चाहिये। प्रकाशस्वरूप आत्माके सम्बन्धसे ही अचेतनबुद्धि चेतन-सी प्रतीत होती है। फिर तो उसकी वृत्तियाँ भी चेतन-सी ही प्रतीत होती हैं। जैसे तप्त लौहपिण्डसे निकलनेवाले विस्फुलिंग भी अग्निवत् प्रतीत होते हैं। वृत्ति-तदभाव, आभास तथा आभासाभावका ग्राहक तादृक् प्रत्यय नहीं हो सकता। अत: अत्यन्त विविक्त साक्षीसे ही वे भासित होते हैं। फिर भी जैसे लौहपिण्डमें अग्निकी संक्रान्ति होती है, वैसे बुद्धिमें चित‍्की विकाररूप संक्रान्ति नहीं होती। दर्पणमें प्रतिबिम्बके तुल्य ही बुद्धिमें चित‍्की संक्रान्ति होती है।
जैसे लौहपिण्ड अग्न्याभास होता है, उसी तरह बुद्धि चेतनाभास प्रतीत होती है। चित्त ही चेतन है, यह वैसे ही असंगत है, जैसे देहको चेतन कहना। इसी तरह चक्षुरादिमें चेतनत्व कहना भ्रममूलक है। अहंकारसहित बुध्यारूढ़ सभी वस्तु साक्षीसे ही भासित होते हैं। इसलिये अखण्डबोधरूप साक्षी सर्वावभासक कहलाता है। सुषुप्तिमें ‘नाद्राक्षम्’ इस रूपसे प्रत्ययका ही निषेध है, फिर भी भावरूप अज्ञान एवं प्रत्ययाभावका बोध तो रहता ही है। प्रमातृ-प्रमाण-प्रमेयादिरूप विशेष ग्राह्य नहीं अनुभूत होता। किंतु भाव-अभावका साक्षी चिद्‍रूप आत्मा एकरस है।
शास्त्रोंके अनुसार प्रत्यय स्पष्ट ही उत्पत्ति-विनाशशील एवं कूटस्थ चैतन्यस्वरूप अलुप्तदृक् है। प्रत्यगात्मा-नित्यज्योतिमें ही अहंका पर्यवसान है। अनुभवके आधारपर ही सब कुछ सिद्ध होता है। आत्मा अनुभवस्वरूप है। प्रत्यय और प्रत्ययी अन्त:करण—दोनों ही जड हैं। नित्य चैतन्यसे ही इन सबका भान होता है। जैसे सेनाका जय राजामें आरोपित होता है, उसी तरह प्रमाणफल कूटस्थ साक्षीमें आरोपित होता है। अविकृत चिदात्माका अन्त:करणमें प्रतिबिम्ब होता है। वह प्रतिबिम्ब ही स्वोपाधिबुद्धिके व्यापारद्वारा प्रमाता बनता है। आभास भी परिणाम नहीं है, किंतु जैसे रज्जुके अज्ञानसे सर्पभ्रम होता है, जैसे दर्पणमें मुखाभासत्वकी प्रतीति होती है, उसी तरह बुद्धिमें आत्माभासत्वकी प्रतीति होती है। प्रत्यय और दृष्टिका भेद स्वप्नमें प्रसिद्ध ही है। वहाँ विषयाकाराकारित प्रत्ययका साक्षी आत्मा ही है। जिस चिद्‍रूप आत्माके आभाससे विषयाकार-प्रत्यय विदित होता है, वही आत्मा है। प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय—तीनोंका भासक साक्षी ही ब्रह्म है—‘त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रय:।’ (श्रीमद्भा० २।१०।१) सम्यग्ज्ञान, संशयज्ञान, भ्रान्तिज्ञानमें अवगति और बोध-आत्मा एक ही ढंगका है। इन ज्ञानोंमें भेद केवल प्रत्ययोंका ही है। पुष्पादि उपाधिके वशसे स्फटिकादिमें भेद प्रतीत होता है, उसी तरह प्रत्ययरूप उपाधिके भेदसे अखण्डबोधमें भेद प्रतीत होता है। जाग्रत‍्काल, स्वप्नकालके प्रत्ययोंका स्फुरण नित्य-अपरोक्षभाव साक्षी आत्मासे ही होता है। जैसे प्रदीपसे घटादिका प्रकाश होता है, परंतु प्रदीपका भी प्रकाश द्रष्टासे ही होता है—
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति,
(कठोप० २।२।१५)
अत्रायं पुरुष: स्वयंज्योतिर्भवति।
(छान्दोग्योप०)
अन्य निषेधसे भी सर्वनिषेध साक्षी चेतन आत्मा प्रसिद्ध होता है। ‘अज्ञासिषमिदं मां च’ मैंने इसे और अपने आपको जाना, इस प्रकारकी स्मृति प्रमाता, प्रमाण, प्रमेयके स्मरणके तीनोंका ही प्रकाश निश्चित होता है।
एक प्रमाणज्ञानमें ग्राहक और ग्राह्य दोनोंका स्फुरण नहीं हो सकता। अत: बोधस्वरूप साक्षीसे ही स्फुरण होना उपपन्न होता है। बौद्ध कर्ता कर्म-विहीन प्रत्ययका स्वमहिमासे प्रकाश है ऐसा मानते हैं, परंतु फिर तो अनुभविताकी अपेक्षा ही न रहेगी। वैसी अनुभवितामें ही अनुभव इष्ट होता है। इसके अतिरिक्त अनुभविता भी तो अनुभव ही है। बुद्धि ही भ्रान्तिसे पुरुषोंको ग्राह्य-ग्राहक-भेदवान् होकर प्रतीत होती है। जिसके मतमें अनुभूति क्रिया है, वही कारक भी है। यदि इसका सत्त्व एवं क्षणिकत्व मान्य है तो दृष्टबलात् सकर्तृक भी मानना ठीक है। वस्तुतस्तु ग्राह्य नीलपीतादि वस्तु और वस्तु-प्रत्यय भासक साक्षी मान्य है, जैसे रूपादि ग्राह्य हैं, उनके ग्राहक दीपादि हैं, उसी तरह प्रत्यय भी ग्राह्य है, अत: उसका ग्राहक साक्षी मान्य होना चाहिये। व्यंजक होनेसे अवभासक अवभास्यसे अन्य होता है। जैसे घटादिका प्रकाशक दीपक होता है, उसी तरह प्रत्यय ग्राह्य है, उसका भी ग्राहक साक्षी पृथक् है। द्रष्टा और दृश्यका आध्यासिक ही सम्बन्ध होता है। जैसे घटादिपर आलोककी व्याप्ति होती है, वैसे ही घटादिपर बुद्धि-व्याप्त होती है। जैसे आलोकस्थ घट आलोकारूढ़ कहा जाता है, वैसे ही बुद्धिस्थ घट बुद्धॺारूढ़ कहा जाता है। बुद्धिव्याप्त घटादिपर चित‍्प्रतिबिम्ब होता है, उसीसे घटादि प्रकाश होता है।
कार्यकारणसंघातरूप प्राणीका जाग्रत‍्कालमें बैठना, चलना, काम करना आदि व्यवहार, आदित्य, चन्द्रमा, अग्निरूप ज्योति या प्रकाशके द्वारा सम्पन्न होता है। यहाँ सर्वत्र कार्यकारणावयवसंघातव्यतिरिक्त आदित्यादि ज्योतिसे ही व्यवहार चलता है। इसी तरह मेघाच्छन्न अमावस्याकी रात्रिमें जहाँ कोई भी ज्योति नहीं होती, अपना हाथ भी नहीं भासित होता, वहाँ भी दूरस्थ श्वान तथा गर्दभ आदिके शब्दको सुनकर मनसे निश्चित करके उसी शब्दके सहारे प्राणी वहाँतक पहुँच जाता है। ऐसे ही गन्धके सहारे भी जिधरसे गन्ध आती है, उधर प्राणी पहुँच जाता है। यहाँ सर्वत्र देहादि-संघातभिन्न ज्योतिसे ही व्यवहार होता है। ठीक इसी तरह स्वप्न एवं सुषुप्तिकालमें स्वाप्निक वस्तुओं तथा निद्रामें सौषुप्त अज्ञान एवं सुखका प्रकाश भी किसी संघातव्यतिरिक्त संघातप्रकाशक ज्योतिसे ही मानना उचित है। स्वप्नके बन्धु-संगम, देशान्तरगमनादि व्यवहार देहादि-संघातव्यतिरिक्त देहादिभासक आत्मज्योतिसे मानना उचित है। स्वप्नादि व्यवहार भी संघातव्यतिरिक्त ज्योति:पूर्वक है। व्यवहार होनेसे जाग्रत्-व्यवहारके तुल्य जैसे जाग्रत् का व्यवहार देहातिरिक्त आदित्यादि ज्योतिर्मूलक हैं, वैसे ही स्वाप्निक व्यवहारको भी देहादिभिन्न ज्योतिर्मूलक मानना चाहिये।
स्वप्नव्यवहारमें आदित्यादि ज्योतियोंका सम्बन्ध सम्भव ही नहीं। अत: कोई अन्त:स्थ आदित्यादि ज्योतिसे विलक्षण अभौतिक आत्मज्योति मानना उचित है। उसीसे स्वप्नका व्यवहार सम्भव हो सकता है। आदित्यादि ज्योति चक्षुरादिसे उपलब्ध होती है, परंतु स्वप्न-व्यवहारका हेतुभूत कोई बाह्यज्योति चक्षुरादिसे उपलब्ध नहीं होती, परंतु ज्योतिका कार्य-व्यवहार स्पष्ट उपलब्ध होता है। अत: संघातभिन्न अदृश्य अन्त:स्थ आदित्यादि विलक्षण अभौतिक ज्योति मानना आवश्यक है। इस सम्बन्धमें यह अनुमान है कि ‘विमतं अन्त:स्थमतीन्द्रियत्वाद् व्यतिरेकेणादित्यादिवत्।’ विवादास्पद स्वप्नादिव्यवहार-हेतु ज्योति अन्त:स्थ है। अतीन्द्रिय या अदृश्य होनेसे जो अदृश्य नहीं, वह अन्त:स्थ नहीं, जैसे आदित्यादि।
इस सम्बन्धमें भौतिकवादीका कहना है कि ‘उपकार्योपकारकभाव सजातीयमें ही देखा जाता है। जाग्रत्-व्यवहार कारक-हेतुभूत आदित्यादि ज्योति देहादिके समान भौतिक ही है। उसी तरह स्वाप्निकव्यवहारके हेतुभूत संघात-व्यतिरिक्त ज्योतिको भी संघातके समान भौतिक ही होना चाहिये। जैसे आदित्यादि उपकारक उपक्रियमाण देहादि-संघातके सजातीय होते हैं, वैसे ही स्वाप्निक-व्यवहार हेतुभूत उपकारक ज्योतिको भी उपक्रियमाणका सजातीय ही होना चाहिये। अत: जैसे आदित्यादि उपकारक ज्योति भौतिक हैं, वैसे ही स्वाप्निक व्यवहारका उपकारक ज्योति भी भौतिक ही होना चाहिये।’
‘जो कहा जाता है कि ‘अतीन्द्रिय एवं अदृश्य होनेसे वह ज्योति अभौतिक है’, यह भी ठीक नहीं; क्योंकि चक्षुरादि इन्द्रिय-ज्योति भी अतीन्द्रिय तथा अदृश्य है। तो भी वे जैसे अभौतिक नहीं, भौतिक ही हैं; उसी तरह उस ज्योतिको भी भौतिक ही होना चाहिये। इसके अतिरिक्त देहादिसंघातके रहनेपर ही चैतन्यरूप अन्त:स्थज्योति रहती है। देहादिके न रहनेपर नहीं रहती। अत: उसे देहादिका ही धर्म मानना उचित है। जैसे रूपादि संघातके रहनेपर ही उपलब्ध होते हैं, अत: वे देहादिके ही धर्म हैं, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिये—‘विमतं चैतन्यं शरीरधर्मस्तद्भावभावित्वाद् रूपादिवत्। विमतं ज्योति: सङ्घाताद्भिन्नं तद्भासकत्वादादित्यादिवत्।’ विवादास्पद-चैतन्य संघातसे भिन्न है, संघातके भासक होनेसे आदित्यादिके तुल्य यह सामान्यत: दृष्ट-अनुमान व्यभिचारी होनेसे स्वयं अप्रमाण है; क्योंकि भौतिकवादीके मतानुसार देहका भासक होनेपर भी चक्षु देहसे भिन्न नहीं है, उसी तरह चैतन्य भी देहका भासक होनेपर भी देहसे भिन्न न होकर उससे अभिन्न उसका धर्म ही है। अनुमानके द्वारा प्रत्यक्षका बाध भी नहीं होता। मैं मनुष्य हूँ, मैं देखता, सुनता और जानता हूँ, इस प्रकार प्रत्यक्ष ही देहादि-संघातमें द्रष्टृत्व, ज्ञातृत्वादि विदित होता है। फिर प्रत्यक्षके विरुद्ध अनुमान कैसे आदरणीय हो सकता है?’
‘कहा जा सकता है कि ‘यदि देह ही आत्मा है और वही द्रष्टा, ज्ञाता आदि है तो अविकल रहनेपर भी वह क्यों कभी द्रष्टा, ज्ञाता होता है, कभी नहीं होता?’ किंतु यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि जो वस्तु जिस तरह प्रमाण-सिद्ध हो, उसको वैसी मानना उचित है। खद्योतमें प्रकाश, अप्रकाश दोनों ही देखा जाता है, अत: दोनों ही मान्य हैं। उसमें किसी कारणान्तरकी कल्पना नहीं की जाती। अग्निकी उष्णता, जलकी शीतलता जैसे स्वाभाविक है, वैसे ही देहमें कभी ज्ञातृत्व, द्रष्टृत्वादि होना, कभी न होना स्वाभाविक ही है। यदि प्राणियोंके धर्माधर्मके कारण औष्ण्य, शैत्यादि माना जायगा, तब तो अनवस्था-दोष होगा।’
भौतिकवादीका उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है, कारण कि स्वप्न एवं स्मृतिके आधारपर यही सिद्ध होता है कि देहादि-संघातसे भिन्न अभौतिक आत्मा ही द्रष्टा होता है, देहादि नहीं। यह नियम है कि जाग्रत्-कालमें दृष्टका ही स्वप्नमें दर्शन होता है, इस तरह जाग्रत् और स्वप्नका द्रष्टा एक ही होता है। किंतु स्वप्नमें अनेक वस्तुओंका दर्शन होता, वहाँ देह या नेत्रादि नहीं होते। देहादि निर्व्यापार तथा नेत्र निमीलित ही रहते हैं। अत: स्वप्नके प्रपंचका द्रष्टा देह नहीं है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि अन्य दृष्टका स्वप्न-द्रष्टा अन्य नहीं होता, अत: जो स्वप्नका द्रष्टा है, वही जाग्रत‍्का भी द्रष्टा है। यदि स्वप्नका द्रष्टा देहसे भिन्न सिद्ध हो गया तो जाग्रत‍्का द्रष्टा भी देहसे भिन्न ही मानना उचित है। जब कभी किसी प्राणीके नेत्र नष्ट हो जाते हैं तो वह अन्धावस्थामें भी पूर्वदृष्ट पदार्थोंको स्वप्नमें देखता है। स्पष्ट है कि स्वप्नोंके पदार्थोंका द्रष्टा देह नहीं है; क्योंकि देहमें नेत्र हैं ही नहीं। तात्कालिक नवीन देह यह नवीन नेत्र उत्पन्न होते हैं, उनसे स्वाप्निक पदार्थ दीखते हैं, यह कल्पना या संस्कारकी कल्पना भी भौतिकवादमें असंगत ही है।
जिसने चक्षुके बिना भी स्वप्नमें पूर्वदृष्टका दर्शन किया, चक्षु रहनेपर भी उसीको प्रबोधकालमें द्रष्टा मानना उचित है। कहा जाता है कि स्वप्नमें पूर्वदृष्टके दर्शनका ही नियम नहीं; क्योंकि जन्मान्धोंको भी कभी-कभी स्वप्नमें विविधरूपोंके दर्शन होते हैं, परंतु यह ठीक नहीं, कारण कि जन्मान्धोंको भी जन्मान्तरानुभूतका कभी स्वप्नमें दर्शन मानना उचित है, यही जन्मान्तरमें प्रमाण भी है। अत: स्वप्नमें पूर्वदृष्टका ही दर्शन होता है, यह नियम स्थिर है।
इसी तरह स्मर्ता और द्रष्टाके भी एकत्वका नियम है। जो द्रष्टा होता है, वही स्मर्ता होता है। यह देखा जाता है कि आँख मींचकर मनुष्य पूर्वदृष्टको स्मरण करता हुआ पूर्वदृष्टके समान ही देखता है। यहाँ भी जो नेत्र मींचनेपर पूर्वदृष्टको देख सकता है, खुले नेत्र रहनेपर भी उसीको द्रष्टा मानना उचित है। साथ ही यह भी देखा जाता है कि मृत देहमें किसी प्रकारकी विकलता दृष्टिगोचर न होनेपर भी दर्शनादि क्रियाएँ नहीं होतीं। अत: मानना पड़ेगा कि जिसके न रहनेपर देहमें दर्शन आदि क्रियाएँ नहीं हो सकतीं, जिसके रहनेपर दर्शन आदि क्रियाएँ होती हैं, वही द्रष्टा है, देह नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि ‘चक्षुरादि इन्द्रियाँ ही दर्शनादि क्रियाओंकी कर्ता हैं’, किंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जो मैंने देखा है, वही मैं स्पर्श कर रहा हूँ, इस प्रत्यभिज्ञाके अनुसार मालूम पड़ता है कि दर्शन तथा स्पर्शन क्रियाका कर्ता एक ही है। पर चक्षु स्पर्श नहीं कर सकता, त्वक् दर्शन नहीं कर सकता, अत: यही मानना ठीक है कि इन्द्रियोंसे भिन्न आत्मा ही चक्षुरादि विभिन्न इन्द्रियोंसे देखने-सुननेवाला है। कुछ लोग कहते हैं कि मन ही द्रष्टा, श्रोता, मन्ता आदि है, किंतु यह भी ठीक नहीं। मन भी रूपादिके तुल्य विषय ही है, फिर वह द्रष्टा नहीं हो सकता। अत: आदित्यादिके समान अन्त:स्थ ज्योति-संघातसे अतिरिक्त है।
कहा जाता है कि ‘वह ज्योति कार्य-करण-संघातका सजातीय ही होना चाहिये; क्योंकि जैसे आदित्यादिज्योति सजातीयके ही उपकारक होते हैं, उसी तरह अन्तर-ज्योति भी सजातीयके ही उपकारक होनेसे उपकार्य भौतिक प्रपंचके समान भौतिक ही होना चाहिये’, परंतु यह ठीक नहीं है। कारण कि उपकार्योपकारकभाव सजातीयमें होनेका कोई नियम नहीं है। पार्थिव ईंधनसे—तृण-काष्ठादिसे, अग्निका प्रज्वलनरूप उपकार होता है, यहाँ अग्निका काष्ठादिसे कोई साजात्य नहीं है और यह भी नहीं कहा जा सकता कि पार्थिव तृणादिसे प्रज्वलनोपकार देखा गया है, अत: पार्थिवत्वादि जातीयसे ही अग्निका उपकार हो; क्योंकि वैद्युत अग्नि एवं जाठर अग्निका उपकार जलसे ही होता है। इस दृष्टिसे उपकार्योपकारकभावमें सजातीयता-असजातीयताका कोई नियम नहीं है। अनेक बार देखा जाता है कि स्थावरों तथा पशु आदिकोंसे मनुष्योंका उपकार होता है।
जो कहा जाता है कि ‘अदृश्यत्व अतीन्द्रियत्वके कारण कार्य-करण-संघातका भासक तथा उपकारक ज्योतिको अभौतिक नहीं कहा जा सकता; क्योंकि चक्षुरादि अतीन्द्रिय एवं अदृश्य होनेपर अभौतिक नहीं, किंतु भौतिक ही हैं। इसी तरह कार्य-करण-संघातकी भासक ज्योतिको संघातका ही धर्म मानना उचित है।’ किंतु वह ठीक नहीं है; क्योंकि चक्षुरादिकरणभिन्नत्वे सति अतीन्द्रियत्वहेतुसे ही संघातभासक ज्योतिकी अभौतिकता सिद्ध होती है। अर्थात् जो चक्षुरादि करणसे भिन्न होकर अतीन्द्रिय है, वह भासक होनेसे संघातसे विलक्षण तथा अभौतिक ज्योति है। अतीन्द्रियत्व-हेतुके चक्षुरादिमें अनैकान्तिक होनेके कारण अनुमान दूषित नहीं कहा जा सकता; क्योंकि चक्षुरादि करणभिन्नता चक्षुरादिमें नहीं हो सकती। अत: चक्षुरादिभिन्नताविशिष्ट अतीन्द्रियतारूप हेतु चक्षुरादि इन्द्रियोंमें नहीं जायगा। अत: अनुमान निर्दोष ही है। कार्य-करण-संघातका भासक तथा व्यवहारका हेतुभूत ज्योति ही चक्षुरादिसे भिन्न तथा अतीन्द्रिय होनेसे अभौतिक एवं संघातव्यतिरिक्त सिद्ध होती है। चक्षुरादि इस प्रकारके नहीं हैं।
इसी तरह तद्भावभावित्व भी असिद्ध ही है; क्योंकि मृत देहके रहनेपर भी चैतन्यका उपलम्भ नहीं होता। इसपर भी कुछ लोगोंका कहना है कि ‘भले ही मृतदेहमें चैतन्यका उपलम्भ न हो, फिर भी जब कभी चैतन्यका उपलम्भ होता है, देहमें ही उपलम्भ होता है। भले ही कभी मृत्तिका रहनेपर भी घट न रहे, तथापि जब कभी घट होता है, मृत्तिकाके रहनेपर ही होता है।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं। इससे देह और चैतन्यका धर्म-धर्मीभाव या अभेद नहीं सिद्ध होता। ज्यादा-से-ज्यादा इससे इतना ही सिद्ध होता है कि धूमव्यापक वह्निकी तरह भूत चैतन्यका व्यापक है। जैसे जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, उसी तरह जहाँ-जहाँ चैतन्य होता है, वहाँ-वहाँ भूत होता है, परंतु यहाँ भी जहाँ-जहाँ वह्नॺभाव है वहाँ-वहाँ धूमाभाव है, यहाँके समान व्यतिरेक व्याप्ति नहीं निश्चित होती है; क्योंकि चैतन्य आकाशकी तरह व्यापक होनेसे वह केवलान्वयी है, अत: उसका व्यतिरेक नहीं कहा जा सकता। देहसे अतिरिक्त स्थलमें चैतन्य उपलब्ध न होनेपर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ‘वह नहीं है।’ अभिव्यंजक न होनेसे भी अनुपलब्धि कही जा सकती है। जैसे गो व्यक्तिरूप अभिव्यंजक होनेसे व्यापक गोत्वजातिकी अभिव्यक्ति न होनेपर भी अनुपलब्धि उत्पन्न हो जाती है।
वस्तुत: गोपाल-कुटीरमें, हुक्‍कामें अग्नि बुझ जानेपर भी धूम रहता है। अत: अग्नि एवं धूमकी अभिन्नता या धर्म-धर्मीभाव भी असंगत ही है। वस्तुत: ‘तद्भावे तद्भाव:, तदुपलब्धौ उपलब्धि:।’ तद्भावमें तद्भाव एवं तदुपलब्धिमें तदुपलब्धि होनेसे ही तदभिन्नता होती है। मृत्तिकाके भावमें ही घटादिका भाव होता है। मृत्तिकाके उपलम्भमें ही घटादिका उपलम्भ होता है। इसलिये मृत्तिकासे घटादिकी अभिन्नता सिद्ध होती है। अग्निके न रहनेपर भी गोपाल-कुटीर या हुक्‍कामें धूम रहता है, अग्निके उपलम्भ बिना भी धूमका उपलम्भ होता है। अत: अग्निसे धूमकी भिन्नता ही है। ठीक इस नियमकी कसौटीपर भूत तथा चैतन्यकी अभिन्नता ठीक नहीं उतरती। भूत रहनेपर भी चैतन्य नहीं रहता और भूतके उपलम्भमें चैतन्यका उपलम्भ नहीं होता है।
अग्निकी जल तथा पार्थिव काष्ठादिसे अन्यत्र उपलब्धि न होनेपर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अग्नि, जल या काष्ठादिका ही धर्म है, किंतु सर्वसम्मतिसे अग्नि स्वतन्त्र वस्तु है, जल-काष्ठादिका धर्म नहीं। उसी तरह देह, दिल, दिमाग आदि नित्य-सिद्ध व्यापक चैतन्यके अभिव्यंजक हैं, अत: उनके बिना चैतन्यका उपलम्भ नहीं। फिर चैतन्य देहादिका धर्म नहीं, किंतु वह उनसे भिन्न स्वतन्त्र ही है। सामान्यत: दृष्टानुमानसे ही प्राणियोंकी भोजन-पानादि प्रवृत्ति होती है। यदि उसकी मान्यता न होगी, तब तो अभुक्त अपीत भोजनादिमें प्रवृत्ति ही नहीं होगी। खद्योत आदिमें पक्षके संकोच-विकाससे प्रकाश-अप्रकाश उपपन्न है। किंतु यदि देहका द्रष्टृत्व धर्म है, तो कभी उसके उपलम्भ, कभी उसके अनुपलम्भकी व्यवस्था नहीं उपपन्न हो सकेगी। भूत रहनेपर भी चैतन्य नहीं रहता और भूतके उपलम्भमें भी चैतन्यका उपलम्भ नहीं होता। अत: भूत एवं चैतन्यका न अभेद ही सिद्ध होता है, न धर्म-धर्मी-भाव ही सिद्ध होता है।
‘तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्’ (कठ० २।२।१५), ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्’, (बृहदा० २।४।१४) ‘यत्साक्षादपरोक्षाद्’ (बृहदा० ३।४।१) इत्यादि श्रुतियोंसे ज्ञात होता है कि व्यष्टि-समष्टि, स्थूल-सूक्ष्म कार्य-कारणात्मक, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डावलि-स्वरूप अखिलप्रपंचके भानके पहले ही भासित होनेवाले अखिल निगमागमादि सच्छास्त्रोंके महातात्पर्यविषय अवेद्य होते हुए भी अपरोक्ष होनेके कारण स्वप्रकाशरूप होनेसे भगवान् साक्षात् अपरोक्ष ही हैं। प्रमाता भी प्रमेयकी अवगतिके लिये ही प्रमाणकी अपेक्षा करता है, अपनी अवगतिके लिये नहीं। यदि कहा जाय कि ‘एकहीको कर्म और कर्ता मानना विरुद्ध है, अत: प्रमाताकी अवगतिके लिये भी अन्य प्रमाताकी अपेक्षा है’ तो यह ठीक नहीं। ऐसा माननेपर उस प्रमाताकी अवगतिके लिये किसी अन्य प्रमाताकी तथा उसकी अवगतिके लिये किसी दूसरे प्रमाताकी अपेक्षा होगी और इस तरह अनवस्था-दोष प्रसक्त होगा। साथ ही उसमें भ्रान्ति, संशय और अज्ञान भी नहीं दिखायी पड़ते हैं। जिसके अनुग्रहसे मातृ, मान और मेयका यथार्थ अवभास होता है, वह मातृ-मनकी अपेक्षा किये बिना संशय आदिका अविषय होकर साक्षात् अपरोक्ष हो तो क्या आश्चर्य? फिर भी अनादि, अनिर्वाच्य, अचिन्त्य, महामहिमशालिनी भगवच्छक्तिभूत मायासे प्रत्यक्चैतन्याभिन्न, सजातीय-विजातीय-स्वगतभेदशून्य, अद्वय आनन्दका अस्तित्व भी जब तिरोहित हो गया है, तब स्वप्रकाशता आदिका तो कहना ही क्या? क्योंकि प्रत्यक्ष आदिसे स्फुरद्‍रूपप्रपंच ही सर्वत्र दिखायी पड़ रहा है। मायाके सम्बन्धमें श्रीमद्भागवतमें बतलाया गया कि अर्थके बिना प्रतीत होती हुई भी जो आत्मामें प्रतीत नहीं होती, उसे ही आत्माकी माया समझना चाहिये—‘ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि। तद् विद्यादात्मनो मायाम्’ (श्रीमद्भा० २।९।३३)।
अनधिगत अबाधित अर्थकी ज्ञप्तिस्वरूप प्रमाकी उत्पत्तिके लिये उसके कारणभूत प्रमाणोंकी अपेक्षा हुआ करती है; क्योंकि प्रमाणोंके अधीन ही प्रमेयकी सिद्धि हुआ करती है। प्रत्यक्षमात्र प्रमाण माननेवाले चार्वाक और तदनुयायी अनात्माभिमुख साम्यवादी, समाजवादी आदि आधुनिक लोग आम्रसम्बन्धी बीजसे अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा, पल्लव, पुष्प, फल और रसरूप परिणामकी तरह मस्तिष्क, मन, बुद्धि आदिकी तरह आत्माका भी परिणाम मानते हुए पृथिव्यादि चार भूतोंके अतिरिक्त तत्त्व तथा अर्थ, कामके अतिरिक्त पुरुषार्थ और प्रत्यक्षातिरिक्त प्रमाण नहीं मानते। इनमें कोई देहको, कोई चक्षुरादि इन्द्रियों और कोई प्राणको ही आत्मा मानते हैं।
प्रतिपत्ति (बोध)-का फल संशय, विपर्यय तथा अज्ञानकी निवृत्ति है। प्रतिपादयिता (वक्ता) प्रतिपित्सित (ज्ञातव्य) पदार्थकी प्रतिपिपादयिषा (प्रतिपादनेच्छा)-से वाणीका प्रयोग किया करता है। अनुमान एवं वाक्यको प्रमाण न माननेवाले लोग परस्परके संशय, भ्रान्ति, अज्ञानको किस तरह जान सकेंगे, किस तरह उन्हें दूर करनेका प्रयत्न कर सकेंगे और किस तरह परप्रतिपित्सितको जाने बिना प्रेक्षावान् व्यक्ति अप्रतिपित्सित अर्थका उपदेश कर सकेंगे? अत: अनुमान प्रमाण माने बिना ‘अनुमान प्रमाण नहीं है’ यह वचन-प्रयोग भी अनुपपन्न है। साथ ही परप्रत्यक्षमें अनधिगत अबाधित तथा अनुमानमें उसका अभाव भी बिना अनुमान-प्रमाण माने कैसे जाना जा सकता है? पशु-पक्षी भी मोदकादिका ग्रास हाथमें लिये हुए पुरुषोंको देखकर उधर प्रवृत्त होते तथा दण्डादि देखकर अनिष्टकारणताका अनुमानकर उस ओरसे निवृत्त होते देखे जाते हैं।
आत्मा इदंकारके आस्पद देह-इन्द्रिय, मन और विषयोंसे पृथक् ‘मैं’ इस तरह असंदिग्ध अविपर्यस्तरूपसे अपरोक्ष अनुभवसिद्ध ही है; क्योंकि ‘मैं हूँ या नहीं हूँ’ अथवा ‘नहीं हूँ’ ऐसे संशयका अनुभव नहीं होता। ‘मैं स्थूल हूँ, कृश हूँ, बोलता हूँ, जाता हूँ’, इत्यादि देहधर्मका सामानाधिकरण्य देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि अहंप्रत्यय देहविषयक होता है। यदि ऐसा ही मान लें तो बाल्य, यौवनादिका भेद होनेपर भी अहंप्रत्यालम्बनकी ‘मैं वही हूँ, जो बाल्य-यौवन आदिमें था’ ऐसी प्रत्यभिज्ञा न हो सकेगी, किंतु वैसी प्रत्यभिज्ञा होती है। अत: व्यावृत्त अनेक पुष्पोंमें अनुवृत्त एक सूत्रके समान बाल-युवा आदि अनेक व्यावृत्त शरीरोंमें अनुवृत्त एक अहंकारास्पद उन शरीरादिसे भिन्न आत्मवस्तु मानना अनिवार्य है।
समस्त-व्यस्त बाह्य पृथ्वी आदि भूतोंमें चैतन्यका उपलम्भ न होनेके कारण चैतन्यको भूतोंका धर्म भी नहीं कहा जा सकता। यदि कहा जाय कि ‘मद्याकारसे परिणत यवादिकणोंके अनुभूयमान मादक शक्तिके समान देहाकारसे परिणत भूतोंका ही धर्म चैतन्य शक्ति है’ तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि देहके रहनेपर भी मृतावस्थामें चैतन्यका उपलम्भ नहीं होता। संयोगादिके समान जबतक देह रहता है, तबतक चैतन्य रहता है—यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि चैतन्यको तब रूपादिके समान विशेष गुण मानना पड़ेगा और ऐसा माननेपर यावद्देहभावित्वेन चैतन्यकी उपपत्ति संगत नहीं हो सकती; क्योंकि भूत जैसे रूपरहित नहीं होता; वैसे ही देहको कभी चैतन्यरहित होकर नहीं रहना चाहिये, यही बात इच्छादिके सम्बन्धमें समझ लेनी चाहिये। मृतावस्थामें प्राणचेष्टादि नहीं दिखायी पड़ते, अत: यह भी मान लेना चाहिये कि उक्त देहधर्म आत्माके अधिष्ठानसे ही व्यक्त होते हैं। रूप आदि देहसम्बन्धी धर्मोंके अन्य व्यक्तिद्वारा प्रत्यक्ष होनेपर भी ज्ञान, इच्छा आदि आत्मधर्म अन्यसे प्रत्यक्ष नहीं किये जाते, अपितु वे स्वप्रत्यक्ष ही हुआ करते हैं।
यदि समुदायभूत अवयवीको चेतयिता कहें तो एक भी अवयवके कट जानेपर अवयवी-समुदाय ही कट जायगा और इस तरह प्रेतत्वापत्ति होगी। इसे इष्टापत्ति भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अवयव कट जानेपर भी अवयवीमें चैतन्य उपलब्ध होता है। यदि प्रत्येक अवयवको चेतयिता मानें तो बहुतोंका अन्योन्याभिमुख होकर रहना सदा सम्भव नहीं है। उन परस्पराभिमुखोंका स्वातन्त्र्य मानने या परस्पर प्रतिबद्ध सामर्थ्यवालोंका स्वातन्त्र्य अथवा विरुद्धदिशाकी ओर क्रिया करनेमें अभिमुखका स्वातन्त्र्य मानने किंवा परस्परका स्वातन्त्र्य परस्परसे प्रतिबद्ध माननेपर या तो शरीर नष्ट हो जायगा या निष्क्रिय हो जायगा।
देहके रहनेपर जीवित दशामें ज्ञान, इच्छा आदिके रहनेपर भी देहाभावदशामें उनकी सत्ता नहीं रहती, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनकी अनुपलब्धि होनेसे उनके असत्त्वका निर्णय नहीं किया जा सकता; क्योंकि विद्यमान रहनेपर भी व्यंजकके अभावमें उपलब्धि न होना सम्भव है। विभु (व्यापक) होनेके कारण जाति सर्वत्र विद्यमान रहनेपर भी व्यंजक व्यक्तिके अभावमें जैसे उसका उपलम्भ नहीं हुआ करता, वैसे ही व्यंजक देहके न रहनेपर चैतन्यका अनुपलम्भ उपपन्न हो सकता है अथवा जैसे काष्ठ आदि अग्निके व्यंजक हैं, अत: उनके रहनेपर ही अग्निकी अभिव्यक्ति होती है, तथापि यह नहीं कहा जा सकता है कि काष्ठके अभावमें अग्निका अभाव होता है अथवा काष्ठ तथा अग्निका धर्म-धर्मिभाव है। धर्म-धर्मिभावका निर्णय अन्वय-व्यतिरेक—दोनोंसे होता है, केवल अन्वयसे नहीं। यदि केवल अन्वयसे धर्म-धर्मिभावकी कल्पना करें, तो सबको आकाशका धर्म मानना पड़ेगा। यहाँ व्यतिरेक संदिग्ध है। देहान्तरसंचारसे आत्मामें उसके धर्मका अनुवर्तन सम्भव है, अत: उसके असत्त्वका निर्णय नहीं किया जा सकता।
फिर दूसरी बात यह है कि भूतचतुष्टयके अतिरिक्त ईश्वर यदि न माना जाय तो विलक्षण देह, इन्द्रिय आदिरूपसे भूतोंकी संहति कैसे संगत हो सकती है? अचेतन प्रकृति परमाणु या विद्युत्कणोंमेंसे किसीको विविधविचित्रतायुक्त विश्वका रचयिता नहीं कहा जा सकता। यदि उन्हें विश्वनिर्माता मानें तो आज भी वायुयान, बम आदि विविध वस्तुओंको भी अचेतननिर्मित मान लेना पड़ेगा। अदृष्ट या स्वभावको भी विश्वरचयिता नहीं कहा जा सकता; क्योंकि केवल प्रत्यक्षप्रमाणसे उनकी सिद्धि ही नहीं की जा सकती। यदि कार्यवैचित्र्यकी अन्यथा-अनुपपत्तिसे कारणवैचित्र्यकी कल्पना की जाय, तब तो कर्मवैचित्र्य और अकृताभ्यागम-कृतविप्रणाश आदिसे नित्य, सर्वनियामक आत्मा भी मान ही लेना होगा।
चार्वाकलोग भूतचतुष्टयकी अपेक्षा और किसी तत्त्वका अस्तित्व नहीं मानते, अतएव रूपादि या चैतन्यादिको अन्यका परिणाम-भेद नहीं कहा जा सकता, अपितु उन्हें भूतपरिणामभेद ही कहना पड़ेगा। तथा च भूतधर्म रूपादि जड होनेके कारण जैसे विषय हैं, विषयी नहीं, वैसे ही भूतधर्म जड होनेके कारण चैतन्यको भी विषय मानना पड़ेगा, विषयी नहीं। यदि कहा जाय कि भूतधर्म होनेपर भी किन्हींका विषयित्व भी मान्य है, तो यह उचित नहीं; क्योंकि अपने-आपमें वृत्तिरूप विरोध होगा, जैसा कि अभी कहा गया।
लोकायतिक पृथिव्यादि चार भूतोंके अतिरिक्त अन्य किसी तत्त्वका अस्तित्व अंगीकार नहीं करते। भूत-भौतिक पदार्थोंके अनुभवको यदि चैतन्य वस्तु कहा जाय, तो वे विषय हैं, अत: अपने-आपमें क्रियाविरोधके कारण चैतन्यको उनका धर्म कहना उचित नहीं है। अग्नि दाहक होनेपर भी अपने-आपको नहीं जला सकता, सुशिक्षित भी नट अपने स्कन्धपर नहीं चढ़ सकता। इसी प्रकार चैतन्य यदि भूत-भौतिकधर्म हो, तो वह भूत-भौतिकोंको विषय नहीं कर सकता। रूप आदि अपने और दूसरेके रूपको विषय नहीं कर सकते, किंतु बाह्य, आध्यात्मिक भूत-भौतिकोंको चैतन्य विषय करता है। यदि भूतादिविषयक चैतन्यरूप उपलब्धिका अस्तित्व मान लिया जाता है, तो भूतव्यतिरिक्त पदार्थका अस्तित्व भी मान लेना पड़ेगा। तथा च उपलब्धिस्वरूप आत्मा देहादिसे अतिरिक्त सिद्ध हो जाता है। ‘मैंने उसे देखा था’ जिस प्रकार अवस्थान्तरमें भी उपलब्धारूपसे प्रत्यभिज्ञान होने और स्मृति आदि उत्पन्न होनेके कारण उस स्वरूपात्माकी एकरूपता स्पष्ट है, अत: उसको नित्य माननेमें कोई आपत्ति नहीं। इस प्रकार दीपक आदिके रहनेपर यद्यपि उपलब्धि होती है, उसके अभावमें नहीं, तथापि उपलब्धिको जैसे दीपकका धर्म नहीं कहा जाता, वैसे ही देहके रहनेपर उपलब्धि होती है, उसके न रहनेपर नहीं, फिर भी उपलब्धिको देहका धर्म नहीं कहा जा सकता। दीपककी तरह केवल उपकरणमात्र मान लेनेसे भी देहका उपयोग उपपन्न हो जाता है। स्वप्नावस्थामें इस देहके निश्चेष्ट पड़े रहनेपर भी अनेक प्रकारकी उपलब्धियोंका होना अनुभव सिद्ध है, अत: यह स्पष्ट है कि चैतन्य भूत-भौतिकोंका धर्म नहीं है।
‘एतेभ्यो भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति’ इत्यादिके अनुसार यह नहीं कहा जा सकता कि देहादिसे व्यतिरिक्त होता हुआ भी आत्मा उन देहादिकोंके साथ ही उत्पन्न होता है और उनके साथ ही विनष्ट हो जाता है। जन्मान्तरीय अदृष्टको माने बिना न तो देहादिका वैलक्षण्य उपपन्न हो सकता है और न प्राक्तन संस्कारोंके अभावमें शिशुकी स्तन्यपानमें प्रवृत्ति ही बन सकती है। अत: देहादिसे अतिरिक्त नित्य आत्मा मानना अनिवार्य है।
इन्द्रियोंको आत्मा माननेवालोंके पक्षमें भी बहुत चेतन माननेवालोंके पक्षमें बतलाये दोष उपस्थित होते हैं। ‘मैं देखता हूँ, सुनता हूँ, स्वाद लेता हूँ, सूँघता हूँ, स्पर्श करता हूँ, इच्छा करता हूँ’ इत्यादि रूपसे एक आत्मविषयक अनुभव होनेके कारण देखने, सुनने, सूँघने, स्पर्श आदि करनेवालोंको परस्पर भिन्न नहीं कहा जा सकता। यदि भिन्न कहें, तो उनका विरोध ध्रुव है। अत: मन तथा इन्द्रियोंकी अन्तर्बाह्यकरणता ही है, कर्तृत्व नहीं; क्योंकि ‘कुठारसे छेदन करता हूँ, घोड़ेसे लाँघता हूँ’ इत्यादिके समान ‘आँखसे देखता हूँ, कानसे सुनता हूँ’ इत्यादि व्यवहार दृष्टिगोचर होते हैं। चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रिय और मन, बुद्धि, अतीन्द्रिय होनेके कारण प्रत्यक्ष नहीं है। उपलभ्यमान नेत्र आदिको इन्द्रिय नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वे स्वयं इन्द्रिय नहीं, अपितु उनके गोलक हैं। इसलिये गोलकका उपघात न होनेपर भी इन्द्रियका उपघात होनेसे विषयका ग्रहण नहीं होता। दहनकर्ता होता हुआ भी अग्नि जैसे अपना दहन नहीं करता, अपितु काष्ठ आदिका ही दहन करता है, वैसे ही इन्द्रियाँ भी स्ववृत्तिविरोधके कारण अपने अवगममें अक्षम होती हैं। देखना, सुनना, सूँघना, चलना, सोचना, जानना आदि क्रिया होनेसे करणपूर्वक होते हैं, इत्यादि अनुमानसे इन इन्द्रियोंका ज्ञान होता है। युगपद् ज्ञानानुत्पत्तिरूप लिंगसे मन आदि भी उसी प्रकार अनुमानगम्य हैं, अत: बिना अनुमान-प्रमाण माने कैसे इन्द्रियादिकी सिद्धि हो सकती है और इन्द्रियादिकी सिद्धि हुए बिना इन्द्रियात्मवाद कैसे सिद्ध हो सकता है? बल्कि अचेतनोंकी प्रवृत्ति चेतनाधिष्ठित हुआ करती है, जैसे रथ आदिकी प्रवृत्ति अश्व, सारथी आदि चेतनोंसे अधिष्ठित होती है। इस वैज्ञानिकयुगमें भी स्वयंचालित विभिन्न यन्त्रोंमें संयोजक और प्रथमप्रवर्तक चेतन ही अपेक्षित हुआ करता है। इसे चाहे स्वभाव कहा जाय, किंतु इससे कुछ अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि स्वभावको यदि असत् कहें तो वह कार्यकरणक्षम नहीं हो सकता। यदि सत् हो तो भी यदि वह अचेतन है तो उसकी भी वही स्थिति रहेगी। यदि स्वभाव चेतन है, तब तो नाममात्रका ही भेद हुआ।
देहादिसंघात संघात होनेके कारण शय्या, प्रासाद आदिके समान परार्थ होता है। शय्या आदि पदार्थ जैसे अपनेसे विलक्षण किसी देवदत्त आदिके लिये होते हैं, वैसे ही देहादिसंघात भी अपनेसे विलक्षण आत्माके लिये ही हैं। देहादिसंघात जबकि अचेतन अनेकात्मक, अनित्य, दु:खरूप और अपूर्ण होते हैं, तब उनसे विलक्षण चेतन एक, असंहत, नित्य, पूर्ण, आनन्दरूप आत्मा सिद्ध होता है। साथ ही अचेतनोंकी प्रवृत्ति अचेतनके लिये नहीं, अपितु इष्टप्राप्ति तथा अनिष्टपरिहारके इच्छुक किसी चेतनके लिये ही होती है, यह मानना पड़ेगा। किसी भी अचेतन पदार्थमें न तो इष्टप्राप्ति तथा अनिष्ट-परिहारकी इच्छा दिखायी पड़ती है, न इष्ट-अनिष्ट, सुख-दु:खकी प्राप्ति और परिहार ही।
वैनाशिक बौद्ध (शून्यवादी) तीन प्रकारके होते हैं—(१) सर्वसत्तावादी, (२) विज्ञानमात्र सत्तावादी (३) और सर्वशून्यवादी। इनमें सर्वसत्तावादियोंके सिद्धान्तमें खरस्वभाव पार्थिव परमाणुओंका संघात पृथिवी, स्नेहस्वभाव जलीय परमाणुओंका संघात जल, उष्णस्वभाव परमाणुओंका संघात तेज (अग्नि) और गतिस्वभाव वायवीय परमाणुओंका संघात वायु ये चार बाह्य पदार्थ हैं। इन्हें भूत भौतिकशब्दसे कहा जाता है। इसी प्रकार रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा और संस्कार ये पंचस्कन्ध अन्तर पदार्थ हैं। विषयसहित इन्द्रियाँ रूपस्कन्ध, विषयोंका ज्ञान विज्ञानस्कन्ध, सुख-दु:खानुभव वेदनास्कन्ध, सविकल्पज्ञान संज्ञास्कन्ध और राग-द्वेषादि क्लेश संस्कारस्कन्ध हैं। इन्हें चित्त-चैत्तिक कहा जाता है। इन्हीं पाँच स्कन्धोंका संघात ही आत्मा है।
यद्यपि बौद्धोंका परम तात्पर्य शून्यवादमें ही है, तथापि हीन, मध्यम और उच्च आदि बुद्धिभेदसे इनके तीन भेद हो जाते हैं। यह बात बोधिचित्तविवरणमें स्पष्ट की गयी है—
देशना लोकनाथानां सत्त्वाशयवशानुगा।
भिद्यते बहुधा लोके उपायैर्विविधै: पुन:॥ १॥
गम्भीरोत्तानभेदेन क्वचिच्चोभयलक्षणा।
भिन्नापि देशनाभिन्ना शून्यताद्वयलक्षणा॥ २॥
बुद्धोंके उपदेश शिष्योंके अभिप्रायके ही अनुसार होते हैं। जैसे-जैसे शिष्य बढ़ते हैं, व्याख्या भी बढ़ती जाती है। कहीं अत्यन्त गम्भीर, कहीं उत्तान इस तरहका उपदेश होता है, परंतु सबका तात्पर्य सर्वशून्यमें ही होता है।
इस तरह बाह्यभूत भौतिक और आध्यात्मिक चित्तचैत्तिक समुदाय ही वैभाषिक और सौत्रान्तिक बौद्धोंके मतमें आत्मा है। बाह्यार्थको केवल अनुमेय मानकर प्रत्यक्ष न माननेवाले बौद्ध—‘सौत्रान्तिक’ कहे जाते हैं। किंतु आन्तर विज्ञानके समान ही बाह्यार्थको भी प्रत्यक्ष सिद्ध माननेवाले बौद्धको वैभाषिक कहते हैं। इससे अतिरिक्त नित्यचेतन आत्मा नहीं है।
विचार करनेपर इन भूतभौतिकों चित्तचैत्तिकोंका समुदाय नहीं बन सकता। कारण इनमें समुदाय अचेतन है। चेतन (ज्ञानवान्) कुलालादि ही मृत्तिका, चक्र, चीवर आदि कारण कलाप एकत्रित कर समुदायी घटका निर्माता देखा गया है। मृत्तिका, चक्र, चीवर आदिके संचालक चेतन कुलालादिके न रहनेपर अचेतन मृत्तिका-दण्डादि स्वयं व्यापारवान् होकर घटकी रचना नहीं कर सकते। चेतनके न रहनेपर अचेतन तुरी-वेमा आदि कपड़ा स्वयं नहीं बुन लेते। इसलिये कार्योत्पादन क्षमतावाली सामग्री एकत्रित होनेपर ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। कार्योत्पादनक्षम सामग्रीका एकत्रीकरण चेतन विचाराधीन है। यदि कहा जाय कि चित्त ही चेतन है और इन्द्रियादि विषय सम्पर्क होनेपर स्वयं प्रदीप्त होकर यथायोग्य आवश्यकतानुसार कारण-चक्रको प्रकाशित करता हुआ अचेतन करणोंद्वारा कार्य सम्पादन करता है तो यह भी ठीक नहीं, कारण-समुदाय सिद्धिके बाद ही चित्तका अभिज्वलन सिद्ध होगा और चित्त अभिज्वलनके बाद समुदाय-सिद्धि होगी। इस प्रकार यहाँ इतरेतराश्रय दोष दुष्परिहर हो जायगा।
पहले जन्मकी चिन्ताभिदीप्ति उत्तरकालिक समुदायका संघटन करती है—यह भी कहना ठीक नहीं; क्योंकि संघटनके समयसे चित्तकी दीप्ति बहुत पहले ही बीत चुकी, अत: वह उत्तरकालिक संघटनकी क्षमता नहीं रख सकती। कारण विन्यास-विशेषका जानकार ही कर्ता होता है। अन्वय-व्यतिरेकके बिना विन्यास-विशेष जाना नहीं जा सकता। अनवस्थायी क्षणिक चेतन अन्वय-व्यतिरेकका विज्ञाता हो नहीं सकता। भूतभौतिक-चित्त-चैत्तिक समुदायसे अतिरिक्त स्थिर संहन्ता चेतन इस सिद्धान्तमें मान्य नहीं है। यदि माना जाय कि परस्परानपेक्ष असंनिहित कारण चेतन संनिधापयिताके बिना ही कार्योत्पादन करेंगे, तो फिर सदा ही कार्यप्रसक्ति बनी रहेगी, परंतु ऐसा है नहीं।
यदि कहा जाय कि अलंकारास्पद आलयविज्ञान ही पूर्वापरका अनुसन्धान करनेवाला है, वही प्रतिष्ठाता (संनिहित करनेवाला) हो जायगा, तो यह भी ठीक नहीं। कारण यदि आलय-विज्ञान एक और नित्य माना जाय तो वह नामान्तरसे आत्मा ही सिद्ध होगा और यदि वह क्षणिक विज्ञान रहा तो पूर्वोक्त दोष तदवस्थ रहेंगे। यदि कहें कि आलय-विज्ञान नहीं, किंतु उसका संतान (परम्परा) कारणोंका सन्निधापयिता होगा, तो वह भी उपेक्षणीय है; क्योंकि संतान यदि विज्ञानसे अभिन्न है तो क्षणिक होनेके कारण पूर्वोक्त दोष दुरुद्धर ही है, यदि भिन्न है तो नित्य-विज्ञान आत्मा ही सिद्ध हो गया तथा सभी पदार्थोंकी क्षणिकता माननेके कारण समुदायियोंकी प्रवृत्ति बन नहीं सकती। प्रवृत्तिके प्रथम क्षणमें तथा प्रवृत्तिक्षणमें समुदायी रहें, तभी उनकी प्रवृत्ति हो सकती है। क्षणिक होनेके कारण वे दो क्षण टिक नहीं सकते। भिन्नकालमें उनकी स्थिति मानी जाय तो आधाराधेयभाव नहीं बन सकता।
इस तरह समुदायकी सिद्धि नहीं हो सकती और समुदायसिद्धि न होनेपर तदाश्रित लोकयात्रा भी न बन सकेगी। इन्हीं दुरुद्धर दोषोंके कारण आजकल बौद्धलोग एक नित्य कूटस्थ आत्मा माननेकी बात करने लगे हैं तथा क्षणिकता अनित्यताको ही मान लेते हैं।
फिर भी बौद्धोंका कहना है कि यद्यपि बौद्धमतमें कोई स्थिरभोक्ता या प्रशासिता चेतन सामग्री संघटन करनेवाला मान्य नहीं है, फिर भी अविद्यादि ही आपसमें एक-दूसरेके कारण होते हैं, अत: लोकयात्रा बन जाती है। लोकयात्रा उपपन्न हो जानेपर फिर और कुछ भी अपेक्षित नहीं है।
यहाँ संक्षेपमें बौद्धप्रक्रिया समझ लेनी आवश्यक है, बुद्धने प्रतीत्य-समुत्पादका वर्णन किया है। प्रतीत्य-समुत्पादके सूचक बुद्धसूत्र हैं—‘उप्पादावा तथागतानम्, अनुप्पादावा तथागतानं ठिताव सा धातु धम्मद्वितता धम्मनियामकता इदप्पच्चयता इति रेवो भिक्खवे परिच्च समुप्पादोति संयुत’ (कल्पतरु २।१।२६)।
भामतीकार, कल्पतरुकार आदिकोंने इन सूत्रोंकी स्पष्ट व्याख्या की है। सूत्रोंका संस्कृतरूप यह है—
‘उत्पादाद्वा तथागतानामनुत्पादाद्वा स्थितैवैषा धर्माणां धर्मता। धर्मस्थितिता धर्मनियामकता प्रतीत्य समुत्पादानुलोमता॥’
सार यह है कि प्रत्येक कार्यमें दो प्रकारसे कारण-सम्बन्ध होता है, हेतूपनिबन्ध एवं प्रत्ययोपनिबन्ध। प्रथम एकैककारण सम्बन्ध होता है, दूसरा कारणसमुदाय सम्बन्ध होता है। एक बीजरूपी हेतुका अंकुररूपी कार्यसे सम्बन्ध हेतूपनिबन्ध है। पृथिवी, जल, तेज, वायु आदि अनेक कारणोंका अंकुरसे सम्बन्ध प्रत्ययोपनिबन्ध है। ‘हेतुं हेतुं प्रत्यन्ते इति प्रत्यया हेत्वन्तराणि’ मुख्य हेतुके प्रति सम्मिलित होनेवाले सहकारि कारण समूह प्रत्यय है ‘प्रत्यया: सन्त्यस्मिन्निति प्रत्यय:’ अनेक प्रत्यय (कारण) जिस समवायमें हों, वह प्रत्यय हेतुसमुदायका बोधक होता है।
‘इदं प्रत्ययफलम्—इदं कार्यं प्रत्ययस्य कारणसमुदायमात्रस्य फलं न चेतनस्य कस्यचिदित्यर्थ:।’
अर्थात् कार्य इतरसहकारियोंसे सम्मिलित मुख्य हेतुरूप प्रत्ययका फल है। सारांश यह है कि अनेक सहकारी कारणोंसे युक्त मुख्य हेतु ही कार्यमात्रका कारण है। कोई चेतन या ईश्वर कारण नहीं है। हेतूपनिबन्धका सूचक है—‘उत्पादाद्वा तथागतानामित्यादि।’
‘तथागतानां बुद्धानां मते धर्माणां कार्याणां कारणानाञ्च या धर्मता कार्यकारणभावरूपा एषा उत्पादाद्वा अनुत्पादाद्वा स्थिता धत्ते इति धर्म: कारणम्, ध्रियते धर्म: कार्यं यस्मिन्सति यदुत्पद्यते असति च नोत्पद्यते तत्तस्य कारणं कार्यञ्च न क्वचित्कार्यसिद्धये चेतनोऽपेक्ष्यते।’
अर्थात् बुद्धोंके मतमें कार्य एवं कारणोंकी कार्यकारणभावरूप धर्मता उत्पाद एवं अनुत्पादके अन्वय-व्यतिरेकसे सिद्ध है। जिसके न रहनेपर जो नहीं उत्पन्न होता है, वही कारण और कार्य है। जो उत्पन्न होता है, वह कार्य है, जिसके रहनेपर ही उत्पन्न होता है, वही कारण है। धारण करनेवाला धर्म कारण है, ध्रियमाण धर्म कार्य है।
इस प्रकार यहाँ उत्पादाद्वा अनुत्पादाद्वा इन पदोंका अन्वय-व्यतिरेक अर्थ हुआ। धर्मस्थितिता कार्यता है; क्योंकि कार्यरूप धर्मकी ही कारणको अतिक्रमण किये बिना काल विशेषमें स्थिति होती है। स्थिति शब्दसे स्वार्थमें ही तल प्रत्यय होनेसे स्थिति अर्थमें स्थितिताका प्रयोग है। धर्मनियामकता कारणता है। धर्म अर्थात् कारण कार्यके प्रति नियामक है।
यदि कहा जाय कि इस प्रकारका कार्यकारणभाव बिना चेतनके नहीं हो सकता है, तो इसका समाधान है कि ‘प्रतीत्य समुत्पादानुलोकता कारणे सति तत्प्रतीत्य प्राप्य समुत्पादानुलोमता प्रतीत्य समुत्पादानुसारिता या सैव धर्मता सा चोत्पादा सा नु व्यादात्मा धर्माणां स्थिता। न चेतन: कश्चिदुपलभ्यते।’
अर्थात् कारणके रहनेपर कारणको प्राप्त करके कार्य समुत्पादका अनुसरण करनेवाली धर्मता होती है। अन्वय-व्यतिरेकानुसारिणी कारण एवं कार्यमें स्थित है। यह प्रतीत्य समुत्पाद दो कारणोंसे सिद्ध होता है। हेतूपनिबन्धसे तथा प्रत्ययोपनिबन्धसे। एक मुख्य कारणसे सम्बन्धित हेतूपनिबन्ध होता है, अनेक सहकारी कारणोंसे सम्बन्धित प्रत्ययसमवाय सम्बन्धित प्रत्ययोपनिबन्ध है। उनके भी दो भेद हैं। (१) बाह्य और (२) आध्यात्मिक।
(१) बाह्य—बीजसे अंकुर, अंकुरसे पत्र, पत्रसे काण्ड, काण्डसे नाल, नालसे गर्भ, गर्भसे शूक, शूकसे पुष्प और पुष्पसे फल होता है। इसमें बीजको ज्ञान नहीं होता कि मैं अंकुरको उत्पन्न कर रहा हूँ। इसी तरह अंकुर पत्र और पुष्प आदिको भी ज्ञान नहीं होता कि मैं अपनेसे पश्चात् उत्पन्न होनेवालोंको उत्पन्न कर रहा हूँ। इसी प्रकार अंकुर-पुष्प-फलादिको भी यह ज्ञान नहीं होता कि मुझे बीजने उत्पन्न किया है। यह बाह्य हेतूपनिबन्धका उदाहरण है।
छ: धातुओंके समवायसे ही बीजसे अंकुर हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसमें पृथिवी धातु बीजका संग्रह करती है। जिससे अंकुर कठिन हो जाता है, जलधातु स्नेह एवं तेजधातु परिपाक करता है। वायुधातु बीजसे अंकुरको ऊपर फेंकता है और आकाश धातु बीजका अवयव अलग करता है। ऋतु भी बीजका परिपाक करता है। अविकल छ: धातुओंके समुदायसे ही बीज अंकुररूपमें परिणत होता है। इनमें न तो पृथिवी धातुको यह ज्ञान रहता है कि हमने बीजका संग्रह-कृत्य किया है और न तो ऋतुको ही ज्ञान होता है कि हमने बीजका परिणाम किया है। साथ ही अंकुरको भी यह ज्ञान नहीं होता कि मुझे इन धातुओंने बनाया है। यह बाह्य प्रत्ययोपनिबन्धका उदाहरण है।
(२) आध्यात्मिक—इसी तरह अविद्यासे संस्कार, संस्कारसे जन्म तथा जन्मसे जरा और मृत्यु होती है। अविद्याको ज्ञान नहीं होता कि मैंने संस्कारको बनाया है और न संस्कारको ही ज्ञान होता है कि मुझे अविद्याने बनाया है। यह आध्यात्मिक हेतूपनिबन्धका उदाहरण है।
इसी तरह पृथिवीसे तेज, वायु, आकाश और विज्ञानधातुओंके समवायसे शरीर बनता है। पृथिवी धातुसे शरीरकी कठिनता और जलसे शरीरका स्नेह होता है। तेजधातु भुक्त-पीतका परिपाक करता है, वायुधातु श्वास-प्रश्वासादि करता है, आकाश शरीरके भीतर अवकाश प्रदान करता है। विज्ञानधातु पंचज्ञानेन्द्रिययुक्त मनोविज्ञानको उत्पन्न करता है। यह आध्यात्मिक प्रत्ययोपनिबन्धका उदाहरण है।
इन छ: धातुओंकी जो पिण्ड-संज्ञा, पुद‍्गल-संज्ञा (परमाणुसंज्ञा) मनुष्य-संज्ञा, अहंकार-संज्ञा, ममकार-संज्ञा यह अविद्या है। यही अविद्या संसारका (अनर्थ सामग्रीका) मूल कारण है। अविद्याजन्य राग-द्वेष-मोहात्मक संस्कार विषयोंमें प्रवृत्ति कराते हैं। वस्तु-विषयज्ञान ही विज्ञान है। इन सबको एक प्रकारसे नामरूप कह सकते हैं। शरीरकी कलल बुद‍्बुद आदि अवस्था और नामरूप मिश्रित इन्द्रियाँ षडायतन कही जाती हैं। नामरूप इन्द्रियोंका सम्बन्ध ही स्पर्श है। स्पर्शसे सुख-दु:खादि वेदना होती है। वेदनाके अनन्तर मुझे सुखप्राप्तिके लिये यह कार्य फिर करना चाहिये, ऐसा निश्चय तृष्णा है।
उसमें वाणी शरीरकी चेष्टा है, उसका नाम उपादान है। उसमें धर्माधर्म होते हैं। उसका नाम भव है, उसीसे जन्म होता है। जन्मसे ही जरा-मृत्यु होती है, उससे अन्तर्दाह शोक होता है, शोकसे विलाप, दु:ख और दौर्मनस्य होता है। यह परस्परहेतुक अविद्यादि सार्वजनिक अनुभवसिद्ध हैं। इनका अपलाप नहीं किया जा सकता। ये जन्मादिहेतुक अविद्यादि और अविद्यादिहेतुक जन्मादि चक्र घटीयन्त्रके समान निरन्तर चलता रहता है तथा यह सार्वजनिक अनुभवसिद्ध है। अत: इनका अपलाप भी नहीं हो सकता; क्योंकि इनसे संघातका अर्थत: आक्षेप हो जायगा।
इस तरह बौद्धमतके अनुसार कोई अनुपपत्ति नहीं, परंतु बौद्धोंका यह कथन भी ठीक नहीं, कारण प्रत्ययोपनिबन्धमें नाना कारणोंका समवधान आवश्यक है। बिना किसी चेतनके अनेक कारणोंका एकत्र होना नहीं बन सकता।
यदि कहा जाय अन्त्यक्षणप्राप्त क्षित्यादि अंकुरका उत्पादन करते हैं, उनका उपसर्पण स्वभाव है, इसलिये समवधान भी हो जायगा तो फिर किसानको कृषि करनेकी क्या आवश्यकता है?
भण्डारमें रखे बीज अंकुरित हो जायँगे और सारा कार्य बिना चेतनका ही हो जायगा, किंतु ऐसा होता नहीं। इसलिये बिना कर्ताके संघातका बनना असम्भव है। जो कहते हैं कि अविद्यासे संघातका अर्थात् आक्षेप हो जायगा, इसका क्या तात्पर्य है? यदि यह तात्पर्य है कि अविद्यादि बिना संघात टिक नहीं सकते—इसलिये उन्हें संघातकी अपेक्षा है; फिर तो संघातका निमित्त बतलाना चाहिये।
यदि यह अभिप्राय हो कि अविद्यादि ही संघातके निमित्त हो जायँगे तो संघातके ही सहारे टिकनेवाले संघातके निमित कैसे होंगे। यदि ऐसा माना जाय कि संसारमें प्रवाहरूपसे संघात चले आ रहे हैं और उनके सहारे ही अविद्यादि रहते हैं, तो फिर यह प्रश्न होगा कि एक संघातसे जो दूसरा संघात उत्पन्न होता है, वह नियमत: उसके सदृश ही होता है अथवा अनियमित विसदृश?
यदि नियमत: सदृश होता है और मनुष्यपुद‍्गल (मनुष्यपरमाणु) कभी देवयोनि या तिर्यग्योनि नहीं बन सकती, यदि नियम नहीं है तो मनुष्यपुद‍्गल कभी क्षणमें हाथी बनकर क्षणमें सिंह और क्षणमें पुन: देवता एवं क्षणमें फिर मनुष्य बन सकता है, परंतु ऐसा नहीं होता—यह दोनों ही प्रकार लोकसिद्ध न्याय-विरुद्ध है।
दूसरी बात यह है कि सुगत सिद्धान्तमें संघातका भोक्ता स्थिरजीव तो कोई होता नहीं, फिर तो भोग भोगके लिये, मोक्ष मोक्षके लिये होगा। किसी दूसरे पुरुषसे प्रार्थनीय पुरुषार्थ नहीं होगा। यदि भोग और मोक्ष दूसरेसे प्रार्थनीय माने जायँ तो भोग-मोक्षकालमें उनकी स्थिति रहनी चाहिये। फिर तो क्षण-भंगुवादका सिद्धान्त ही भंग हो जायगा। अत: अविद्यामें भले ही परस्पर कार्य-कारणभाव हों, परंतु उनसे संघातसिद्धि नहीं हो सकती।
सार यह है कि भले ही हेतूपनिबद्ध कार्य अन्यान्यपेक्ष केवल मुख्य हेतुके अधीन उत्पन्न होनेवाला होनेसे कथंचित् उत्पन्न हो जाय (यद्यपि चेतनाधिष्ठित ही बीजसे अंकुर उत्पन्न होता है, जैसे कुलालाधिष्ठित मृत्तिकासे घट) फिर भी पंचस्कन्धसमुदाय तो प्रत्ययोपनिबद्ध है, वह एक हेतुमात्रके अधीन उत्पन्न नहीं होता है, किंतु उसमें नाना हेतुओंका समवधान अपेक्षित होता है। चेतनके बिना नाना हेतुओंका एकत्रीकरण नहीं हो सकता।
बीजसे अंकुरोत्पत्ति भी धरणी-अनिल-जलादि सहकारी सापेक्ष होनेसे प्रत्ययोपनिबद्ध ही है, अत: वह पक्ष कुक्षिमें निक्षिप्त है। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि चेतनानधिष्ठित बीजसे अंकुरोत्पत्तिके समान चेतनानधिष्ठित अचेतन अविद्या आदिसे उत्तरोत्तर कार्य उत्पन्न होंगे; क्योंकि बीजसे अंकुरोत्पत्ति भी पक्षकोटिमें ही है। वहाँ भी चेतनानधिष्ठितत्व सिषाधयिषित है, वह दृष्टान्त नहीं हो सकता।
कुम्भकाराधिष्ठित मृत्तिकासे घटोत्पत्ति होती है, यह दृष्टान्त निर्विवाद तथा वादि-प्रतिवादि उभयसम्मत है, परंतु चेतनानधिष्ठित बीजसे अंकुरकी उत्पत्ति तो विवादास्पद एवं संदिग्ध है। इसीलिये वह संदिग्ध साध्यवान् होनेसे पक्ष है, दृष्टान्त नहीं हो सकता।
यदि पक्षको लेकर व्यभिचारका उद्भावन किया जाय तो अनुमानका उच्छेद हो जायगा। ऐसी स्थितिमें पर्वत पक्षमें ही धूमका वह्नि व्यभिचार दिखाया जा सकता है। इस तरह अधिष्ठातारूप अर्थात् अनेक कारणोंके संनिधायक रूपसे एक सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् चेतन कारणका मानना बौद्धोंके लिये अनिवार्य होगा।
यद्यपि बौद्ध कहते हैं कि अनपेक्षित बीज एवं क्षित्यादि अन्त्यक्षणको प्राप्त होकर अंकुरका आरम्भ करते हैं। उपसर्पण प्रत्ययवशसे परस्पर समवधान होता है। यह नहीं कहा जा सकता कि एक ही कारणसे कार्यसिद्धि हो सकती है। यदि एक कारणसे कार्यसिद्धि हो जाय तो अन्य कारणोंकी अपेक्षा ही क्या रह जायगी। अत: करणचक्रके अनन्तर ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। अत: एक कारण कार्योत्पत्तिका साधक नहीं।
जडकारण स्वयं प्रेक्षावान् नहीं होते, अत: वे यह नहीं सोच सकते कि हममेंसे एक भी कार्य सम्पन्न कर सकता है, फिर हम सबके सन्निधानसे क्या लाभ, किंतु उपसर्पण प्रत्ययवशात् उनमें परस्पर सन्निधान उत्पन्न होता है। वे न तो असन्निहित रह सकते, न अनुत्पादक रह सकते हैं। उन अनपेक्ष कारणोंको प्राप्त करके कार्य भी न उत्पन्न होनेमें असमर्थ ही रहता है। स्वमहिमासे सब कारण कार्योंका उत्पादन करते हुए भी नाना कार्योंका उत्पादन नहीं कर सकते। एक ही कार्यकी उत्पत्तिमें उनका सामर्थ्य होता है। बीजके द्वारा अंकुरजननमें ही मृत्तिका जलादिकी सहकारिता होती है। अत: उनके द्वारा भी उस अंकुरकी ही उत्पत्ति होती है। कारणभेदसे कार्यभेद आवश्यक नहीं; क्योंकि सामग्री एक होनेसे ही कार्य एक होता है।
परंतु बौद्धोंका यह कथन असंगत है; क्योंकि यदि अन्त्यक्षणप्राप्त कारण स्वयं कार्यजननमें अनपेक्ष ही रहते हैं, अर्थात् किसीकी अपेक्षा नहीं रखते हैं तो इसी क्रमसे पूर्व-पूर्वके कारण भी स्वकर्मजननमें अनपेक्ष ही रहेंगे।
कुसूलमें अंकुरजननोपयोगी बीजसंताननिर्वर्तक बीजक्षण और भक्षणादि उपयोगी बीजक्षण भी है। यद्यपि इस सम्बन्धमें यह विरोधी अनुमान नहीं किया जा सकता है कि कुसूलगत विगतबीजक्षण (अर्थात् अंकुरोपजननोपयोगी बीज-संताननिर्वर्तकबीजक्षण) अनपेक्ष होकर बीजक्षणका जनन नहीं करता। कुसूलस्थ होनेके कारण ‘जैसे तत्कालोद‍्धृतभक्षित बीजक्षण अनपेक्ष होकर बीजक्षण नहीं जनन करता है,’ परंतु इस अनुमानमें अंकुरोपयोगि संतानानन्त:पातित्व उपाधि है। अनपेक्ष बीजक्षणाजनकत्वरूप साध्य तत्काल भक्षित बीजक्षणमें है। उसमें अंकुरोपयोगि सन्तानानन्त:पातित्व है, कुसूलस्थत्वरूप साधन अंकुरोपयोगि संताननिर्वर्तक बीजक्षणमें है, परंतु वहाँ उपाधि नहीं है, अपितु अंकुरोत्पादनोपयोगि संतानानन्त:पातित्व ही है।
अत: कुसूलस्थताकी समानता होनेपर भी जिस कुसूलस्थ बीजको स्वकार्यक्षण परम्परासे अंकुरोत्पत्ति समर्थ बीजक्षण जनन करता है, वह बीजक्षण स्वकार्यजननमें अनपेक्ष ही रहेगा। फिर इसी तरह तदनन्तरानन्तरवर्ती सभी बीजक्षण अनपेक्ष ही रहेंगे, फिर तो कुसूलनिहित बीजोंसे ही किसान कृतकार्य हो जायगा, पुन: दु:खबहुल कृषिकार्य करनेकी उसे क्या आवश्यकता?
क्योंकि जिस बीजक्षणको स्वक्षण परम्परासे अंकुर उत्पन्न करता है, उसकी क्षण-परम्परा अनपेक्ष कुसूलमें ही अंकुरादि सम्पादन कर देगी, जब यह सर्वथा निरपेक्ष है तो उसे देशकालकी अपेक्षा ही क्यों होगी?
इसीलिये यह मानना आवश्यक है कि—अन्त्य मध्य या पूर्व क्षण स्वकार्यजननमें परस्पर सापेक्ष ही रहते हैं। तदर्थ कारणोंका समवधान (एकत्रीकरण) आवश्यक है। वह प्रेक्षावान् चेतन ही हो सकता है।
बौद्ध कहता है कि अविद्यादिके द्वारा ही संघातका आक्षेप होगा। यहाँपर उससे प्रश्न होता है कि आक्षेपका क्या अर्थ है? उत्पादन या ज्ञापन! पहला पक्ष ठीक नहीं, क्योंकि कारण स्वयं अनुपपन्न होकर कार्यका उत्पादन नहीं कर सकता, किंतु वह स्वसामर्थ्यसे ही कार्यका जनन करता है, अत: दूसरा ही पक्ष कहना पड़ेगा कि कारण संघातका आक्षेप करते हैं अर्थात् ज्ञापन करते हैं। तथा च ज्ञापित संघातका उत्पादक तो अन्य ही होना चाहिये। ज्ञापक ही उत्पादक नहीं होता।
यदि वैशेषिकोंके स्थिर पक्षमें स्थिर भोक्ता आत्माके रहनेपर भी अधिष्ठाता चेतनके बिना संघातोत्पादन नहीं हो सकता तो फिर क्षणिकवादमें संघात कैसे बन सकेगा? भोक्ताका भोग भी कभी संघातका कल्पक हो सकता है, परंतु क्षणिक विज्ञान आदि तो भोक्ता भी नहीं हो सकते।
प्रत्ययोपनिबन्ध-पक्षमें अनेक कारण-उपकार्योपकारक भावसे अवस्थित होकर ही कार्यजनन करेंगे, यह बौद्धोंको मानना पड़ेगा, परंतु क्षणिक पक्षमें उपकार्योपकारकभाव हो ही नहीं सकता। कारण इस पक्षमें कोई स्थिर भाव मान्य नहीं है, जो उपकारका आस्पद बने।
क्षण इतना सूक्ष्म एवं अभेद्य होता है कि क्षणिक-पदार्थमें उपकारकता या उपकार्यता कुछ बन ही नहीं सकती। यदि कालभेद मानकर उपकार्योपकारकभावका उपपादन किया जाय तो अनेक कालावस्थायी होनेसे फिर वही क्षणभंगु-भंग होगा।
बौद्ध कहते हैं कि यदि प्रत्ययोपनिबन्धन प्रतीत्य समुत्पाद माना जाय तो भले ही अधिष्ठाता चेतनकी अपेक्षा हो; परंतु हेतूपनिबन्धन प्रतीत्य समुत्पादमें तो अधिष्ठाताकी कोई आवश्यकता नहीं है। तथा च अविद्यादि ही संघातके निमित्त होंगे। हेतुस्वभावसे ही कार्य-सम्पादन कर देंगे। परंतु उनका यह भी कथन विचारसह नहीं है; क्योंकि संघातके ही आधारपर सिद्ध होनेवाले अविद्यादि उसी संघातके निमित्त कैसे बन सकेंगे?
इसके अतिरिक्त हेतूपनिबन्ध कार्यमें भी चेतनाधिष्ठित ही अचेतन कारण कार्योत्पादक होता है। यह घटोत्पत्तिके उदाहरणसे कहा जा चुका है।
बौद्ध कहता है कि प्रत्ययोपनिबन्ध पक्षमें अस्थिरके भाव सदा संहत ही उत्पन्न होते हैं, संहत ही नष्ट होते हैं, यह नहीं कि वे इतस्तत: बिखरे रहते हैं और किसीके द्वारा संहत किये जाते हैं। इस प्रकार समवघाटकचेतन अधिष्ठाताकी कोई आवश्यकता नहीं है, परंतु उसका यह भी कथन युक्तिसह नहीं है, अत: यहाँ भी प्रश्न होता है कि—संघात संतानमें रहनेवाले धर्माधर्मरूपी संस्कार संतान सुख-दु:खको पैदा करते हुए किसी आगन्तुक हेतुकी अपेक्षा करके सुख-दु:ख पैदा करेंगे या निरपेक्ष ही।
यदि आगन्तुक हेतुकी अपेक्षा बिना किये ही सुख-दु:ख पैदा करें तो सदा ही उन्हें सुख-दु:ख जनन करना चाहिये; क्योंकि जो समर्थ एवं निरपेक्ष है, उसके कार्यजननमें विलम्ब क्यों होगा। यदि किसी आगन्तुक हेतुकी अपेक्षा करेगा, तब तो आगन्तुक हेतुका उपस्थापक कोई प्रज्ञावान् चेतन मानना आवश्यक हो जायगा। साथ ही यदि संघातके सदृश ही संघातान्तर उत्पन्न होंगे तो सदा ही मनुष्य-संघात मनुष्य-संघात ही होगा। फिर कर्मानुसार अनेक योनियोंमें जन्म लेनेकी बात खण्डित होगी।
यदि विसदृश संघातकी उत्पत्ति मान्य होगी तो क्षणमें हस्ती, क्षणमें अश्व होना चाहिये। इत्यादि दोष अनिवार्य होंगे। अविद्यादि उत्पत्तिके निमित्त भी नहीं बन सकते हैं; क्योंकि क्षणभंगुवादमें उत्तर क्षणके उत्पद्यमान होनेपर पूर्व-क्षण नष्ट हो जाता है।
वैशेषिक तो विनाश कारणके सन्निधानसे विनाश मानता है। इसके विपरीत बौद्ध अकारण ही विनाश मानता है। इस स्थितिमें—पूर्वोत्तर क्षणका कार्यभाव कारण कथमपि नहीं बन सकता; क्योंकि विरुध्यमान या विरुद्ध पूर्वक्षण स्वयं अभावग्रस्त होगा। अत: वह उत्तर क्षणका हेतु नहीं हो सकता। कार्योत्पादके प्राक‍्कालमें कारणकी सत्ता सार्थक होती है। कार्यकालमें कारणकी सत्ताका कोई उपयोग नहीं होता; क्योंकि कार्यकालमें तो कार्य निष्पन्न ही होता है। भावभूत पूर्वक्षण उत्तर क्षणका हेतु हो तब तो क्षणद्वयसम्बन्ध होनेसे क्षणिकता ही न रहेगी।
लोकमें कोई भी भाव सत्तावान् होकर पुन: व्यापृत होकर कार्य-सम्पादन करता है। इससे अनेक क्षण सम्बन्ध होनेसे स्थिरता ही सिद्ध होती है।
बौद्ध कहता है कि—भाव ही उसका व्यापार है, जैसा कि कहा है कि—भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैष चोच्यते।
‘अर्थात् पदार्थोंकी जो उत्पत्ति होती है, वही उनकी क्रिया, कारक तथा कारण है, परंतु पदार्थोंमें इस प्रकारकी व्यापारवत्ता भले ही बन जाय तथापि वह कारण नहीं हो सकता; क्योंकि लोकमें देखा जाता है कि मृत्तिकाकार्य घटादि मृत्तिकासे एवं सुवर्णका कार्य कटक-कुण्डलादि सुवर्णसे समन्वित होते हैं। यदि कार्यके समय कारण न रहे तो कार्यमें मृत्तिका सुवर्णादिकी प्रतीति कैसे बन सकती है? यदि कार्य-क्षणमें कारणकी सत्ता मानी जाती है तो भी क्षणिकत्वकी हानि होगी।’
बौद्ध कहते हैं कि कार्यमें कारणका तादात्म्य नहीं होता, किंतु सादृश्य होता है, परंतु कार्यमें जब कारणके किसी रूपका अनुगम हो, तभी सादृश्य भी हो सकता है। यदि किसी अनुगमका रूप मान लिया जाय, तब तो वही अनुगत रूप ही कारण है, फिर तो उसके साथ कार्यका तादात्म्य (अभेद) मानना ही ठीक है। ऐसी स्थितिमें भी क्षणिकत्वकी हानि अपरिहार्य ही है।
यदि हेतुस्वभावका कार्यमें अनुगमन होनेपर भी कार्यकारणभाव स्वीकार किया जायगा, तब सर्वत्र कार्यकारणभाव ही प्रसक्त रहेगा, फिर तन्तु-घटका भी कार्यक्षणभाव मानना पड़ेगा।
बौद्धोंके सिद्धान्तमें ‘तद्भावे तद्भाव:’ आदि अन्वय-व्यतिरेकद्वारा कार्यकारण भावका नियम माना जाता है। तथा च तन्तु-घटका कार्य-कारणभाव नहीं होगा; क्योंकि उनका अन्वय-व्यतिरेक नहीं है। किंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि अन्वय-व्यतिरेक ग्रह एक क्षणमें नहीं हो सकता, उसके लिये वस्तुको अनेक क्षणस्थायी मानना पड़ेगा। यदि कार्य-कारण संतानों या सामान्योंका कार्यकारणभाव मानें और उन संतानोंको स्थायी मानें तो यह भी ठीक नहीं। कारण-व्यक्तियोंमें ही कार्य-कारणभाव होता है, संतानों या सामान्योंमें नहीं। यदि उनमें भी कार्य-कारणभाव माना जाय और उन कारणभूत संतानों या सामान्योंको स्थायी माना जाय तो भी क्षणिकत्वकी हानि हुई ही।
बौद्धोंसे यह भी प्रश्न होता है कि उत्पाद और विनाश वस्तुस्वरूप ही हैं या वस्तुके अस्वान्तर अथवा वस्तुसे भिन्न वस्त्वन्तर हैं?
यदि वस्तुके स्वरूप ही हैं तो वस्तु और उत्पाद-विनाश परस्पर पर्याय हो जायँगे। यह लोकविरुद्ध है। उत्पाद-विनाश और वस्तुको कोई पर्यायवाचक नहीं मानता।
यदि कोई विशेषता वस्तुकी अपेक्षा उत्पादनिरोधमें है, तब तो कहना पड़ेगा कि मध्यवर्त्ति वस्तुकी उत्पाद और निरोध आदिम एवं अन्तिम अवस्था है। तब फिर आद्य, मध्य तथा अन्त्यक्षण सम्बन्धी होनेके कारण वस्तुमें स्थिरता हो जायगी, फिर क्षणिकत्व समाप्त हो जायगा।
यदि उत्पाद-निरोध—अश्वमहिषके तुल्य वस्तुसे अत्यन्त भिन्न माने जायँ तो वस्तुके उत्पाद-विनाशसे रहित होनेके कारण उसकी शाश्वतता सिद्ध हो जायगी। यदि वस्तुका दर्शन उत्पाद एवं वस्तुका अदर्शन विरोध माना जाय तो भी दर्शनादर्शन तो पुरुषके धर्म होंगे, वस्तुधर्म नहीं, इस प्रकार भी वस्तु तो शाश्वत ही ठहरेगी, इस प्रकार विवेचन करनेपर क्षणिकत्ववादमें अविद्यादि हेतूपनिबन्धदृष्टिसे भी उत्पत्ति-निमित्त नहीं हो सकते।
यदि बिना हेतुके ही कार्योत्पत्ति मानी जाय तो बौद्धकी प्रतिज्ञा-हानि होगी; क्योंकि—
‘चतुर्विधान् हेतून् प्रतीत्य चित्तचैत्ता उत्पद्यन्ते’ अर्थात् चतुर्विध हेतुओंको प्राप्त करके चित्त-चैत्त उत्पन्न होते हैं। नीलाभास चित्तमें नीलालम्बन-प्रत्ययसे नीलाकारता समनन्तर-प्रत्ययरूप पूर्व विज्ञानसे बोधरूपता, चक्षुरूप अधिपतिप्रत्ययसे रूपग्रहणका नियम और आलोकरूप सहकारी प्रत्ययसे स्पष्टार्थता होती है। चित्त-चैत्तोंकी उत्पत्तिमें इस प्रकार चतुर्विध हेतुओंकी प्राप्ति मानी जाती है। सुखादि चैत्तोंमें भी इसी प्रकारका कार्यकारणभाव माना जाना चाहिये, परंतु वहाँ विज्ञानसे अतिरिक्त दूसरे अन्य तीन कारणोंकी सिद्धि नहीं होती। यदि निर्हेतुक उत्पत्ति मानी जायगी, तब तो कोई प्रतिबन्ध न होनेके कारण सभी वस्तु सर्वत्र उत्पन्न होती रहेगी।
बौद्ध यह भी कहते हैं कि उत्तरक्षणकी उत्पत्तितक पूर्वक्षण अवस्थित रहता है। पर ऐसा माननेसे हेतुफल दोनोंका यौगपद्य (समकालत्व) होगा। उत्पत्ति उत्पद्यमानसे अभिन्न होती है तथा च एक क्षण दूसरे क्षणतक रह गया, फिर तो क्षणिक कैसे? ऐसी स्थितिमें सभी पदार्थ संस्कृत एवं क्षणिक हैं यह बौद्धोंकी प्रतिज्ञा भंग हो जायगी। बौद्ध यह भी कहते हैं कि प्रतिसंख्यानिरोध, अप्रतिसंख्यानिरोध और आकाश—इन तीनोंसे अन्य जो कुछ भी है, वह सब बुद्धि बौद्ध है, संस्कृत है, क्षणिक है। यह तीनों अवस्तु स्वभाव (निरुपाख्य) है। बुद्धिपूर्वक भावोंका विनाश प्रतिसंख्या-निरोध तद्विपरीत अप्रतिसंख्यानिरोध होता है एवं आवरणभावमात्र आकाश है। आकाशपर विचार आगे किया जायगा। ये दोनों निरोध सर्वथा असम्भव हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि ये दोनों निरोध संतानके होंगे या भावरूप संतानोंके?
पहला पक्ष ठीक नहीं। कारण, सभी संतानोंमें संतानियोंका अविच्छिन्न कार्यकारणभाव विद्यमान ही है, फिर संतानविच्छेद कैसे होगा? दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि किसी भी भावका निरन्वय नाश नहीं होता, सभी अवस्थाओंमें प्रत्यभिज्ञाबलसे अन्वयीकारणका अविच्छेद ही रहता है। घट, कपाल, कपालिका, चूर्ण, रज आदि सर्वत्र मूल कारण मृत्तिका अन्वित ही रहती है। जहाँ अन्वयीकी पहचान नहीं होती, वहाँ भी अन्यत्रकी तरह अनुमान किया जा सकता है। अत: दोनों ही निरोध असम्भव है।
अभिप्राय यह है कि भावप्रतीपा ‘वाधिका’ बुद्धि प्रतिसंख्या कहलाती है, उसके द्वारा निरोध ही प्रतिसंख्यानिरोध है। सत‍्को असत् बनानेकी बुद्धि ही भावप्रतीप बुद्धि है। तत्कृतनिरोध प्रतिसंख्यानिरोध है। उससे भिन्न निरोधको अप्रतिसंख्यानिरोध कहते हैं, परंतु यहाँ विचार यह करना है कि यह निरोध संतानका होगा या संतानीक्षणका। संताननिरोध तो हो नहीं सकता; क्योंकि हेतुफलभावसे व्यवस्थित संतानी ही उपकव्यय धर्मवाले होते हैं, संतान नहीं। अत: उसका निरोध असम्भव है। अन्तिम संतानीके निरोधसे ही संताननिरोध हो सकता है। पर क्या वह अन्तिम संतानी किसी कार्यका आरम्भ करता है या नहीं। यदि आरम्भ करता है तो उसमें अन्तिमत्व ही कहाँ रहा? तथा च संतान-विच्छेद भी नहीं हुआ, यदि वह कार्यका आरम्भक नहीं होता, तब वह अन्त्य तो हो सकता है, परंतु वह तो अर्थ-क्रियाकारितारहित होनेसे असत् ही ठहरेगा। अर्थ-क्रियाकारिता ही बौद्धोंकी सत्ता है।
इस तरह जब कार्यानारम्भक अन्त्यक्षण अर्थक्रियाशून्य होनेसे असत् है, तब उसका जनक भी असत‍्का जनक होनेसे असत् ही होगा। इसी क्रमसे सभी संतानी और संतान असत् ही ठहरेंगे, ऐसी स्थितिमें प्रति संख्यासे किसका विनाश होगा?
बौद्ध कहते हैं कि सजातीय संतानियोंका कार्यकारण-भाव ही संतान है, केवल कार्यकारण-भाव ही संतान नहीं, तथा च विशुद्ध जातीयक्षण (यहाँ क्षय शब्दका क्षणवर्ती पदार्थरूप अर्थ विवक्षित है)-की उत्पत्ति होनेपर सजातीय हेतुक्षणभावकी निवृत्ति हो जाती है। इस तरह सजातीय कार्यानारम्भक होनेसे संतानका अन्तिम क्षण अन्त्य भी है। विशुद्ध विजातीय क्षणका आरम्भक होने तथा अर्थक्रियाशून्य न होनेसे असत् भी नहीं हुआ, परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि इस तरह तो रूपविज्ञानके प्रवाहमें रसादिविज्ञानकी उत्पत्तिसे भी संतानोच्छेद समझा जायगा। कारण कि यहाँ भी विजातीय क्षणका आरम्भ हुआ है।
यदि कहा जाय कि रूपविज्ञान रसविज्ञानका सजातीय ही है तो विजातीयोंमें भी कुछ-कुछ सारूप्य रहता ही है। अन्तत: सत्तारूपसे तो साजात्य रहेगा ही, जिससे कहीं भी संतानोच्छेद सम्भव नहीं। संतानी ज्ञानोंका सादृश्यतुल्य जातीय विषयत्व ही है। विषयोंकी तुल्यजातीयता क्या रूपत्व आदि अपरजातिसे माना जाय? या सत्ता सामान्यरूप परजातिसे माना जाय? पहली बात ठीक नहीं; क्योंकि संतानके अनुवर्तमान रहनेपर भी रूपज्ञान संतानके विरत होनेके पश्चात् रसज्ञान उदित होगा, इसके बाद संतानोच्छेदका प्रसंग होगा।
यदि परजातिसे विषयोंकी तुल्यजातीयता मानें तो सोपप्लव संतानके उपरम होने तथा विशुद्ध संतानोदयमें भी संतानोच्छेद नहीं होगा; क्योंकि परजातीयसत्तामात्रको लेकर सोपप्लव ज्ञान संतान और विशुद्ध ज्ञान संतानमें सादृश्य है ही। यदि कहा जाय कि विषय विशेषोपरागकृतसादृश्य नहीं विवक्षित है, अत: रूपज्ञानप्रवाहमें रसज्ञान उत्पत्ति मात्रसे संतानोच्छेदप्रसंग न होगा, सत्तासामान्यकृतसादृश्य भी नहीं विवक्षित है, अत: सोपप्लव चित्तसंतान उपरम होनेपर मुक्तिदशामें निरुपप्लव चित्तसंतानके उदय होनेपर पूर्वसंतानोच्छेदका भी प्रसंग न होगा। किंतु यहाँ विषयोपप्लवकृतसादृश्य ही विवक्षित है। तथा च निरुपप्लवज्ञान संतानोदय होनेपर सजातीय कार्य-कारणभावरूप संतानावच्छिन्न हो जाता है। फिर भी निरन्वय नाश कहीं भी सम्भव नहीं है, यह दोष यहाँ भी है ही।
क्षणिकवादमें पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है, फिर उसका प्रतिसंख्या निरोध क्या होगा? उसमें पुरुष-प्रयत्नकी तो अपेक्षा ही नहीं है। पहले तो उत्पन्न होते ही सर्वपदार्थ ज्ञात नहीं हो जाते हैं। कितने ही पदार्थ तो जीवनभर अज्ञात ही रहते हैं। कितने ही अबतक भी जाने नहीं जा सके हैं। अस्तु,
उत्पन्न पदार्थका ज्ञान, फिर उसको नष्ट करनेकी बुद्धि, फिर इच्छा, फिर कृत्तिद्वारा विनाश आदि करनेमें अनेक क्षण आवश्यक होते हैं। तबतक क्षणिक पदार्थ नष्ट ही हो जायगा, पुन: प्रतिसंख्या प्रतिरोध कैसे होगा? साथ ही निरन्वय नाश नहीं होता है। अवश्य ही उसमें कारणांश अन्वित रहता है। अत: निरुपाख्य निरोध नहीं हो सकता। नष्ट पदार्थ भी अन्वयीरूपसे उपाख्येय ही होता है। जो अन्वयीरूप होता है, उसका ही परमार्थ सद्भाव होता है। अवस्थाविशेष ही उत्पन्न-विनष्ट होनेवाली होती है। अवस्थाएँ सभी अनिर्वचनीय हैं; उनका स्वत: परमार्थसत्त्व ही नहीं होता। अन्वयीरूप ही उनका तत्त्व है; क्योंकि वही सर्वत्र प्रत्यभिज्ञात होता है और उसका विनाश नहीं होता। इस तरह अवस्थाओंके भी तत्त्वका अविनाश होनेसे अवस्थाओंका निरन्वय नाश नहीं होता; क्योंकि उनके तत्त्व अन्वयीका सर्वत्र ही अविच्छेद है। घट, कपाल, चूर्ण, रज, सबमें मृत्तिका ही अन्वयी है।
कहा जा सकता है कि ‘मृत्पिण्ड:, मृद्घट:, मृत्कपाल:’ आदिरूप पिण्डघटादि मृत्तिकाका अन्वय दृष्ट होता है, अत: घटादिमें मृत्तिकाका अन्वय भले ही माना जाय; किंतु तत्पाषाणतलपर निपतित होकर नष्ट होनेवाले जलबिन्दुका तो कोई भी अन्वयीरूप उपलब्ध नहीं होता है, फिर उसका निरन्वय नाश माननेमें क्या आपत्ति है, परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि अस्पष्ट प्रत्यभिज्ञा वहाँ भी सम्भव है। अर्थात् वहाँ भी जलबिन्दु तेजके द्वारा बादल बनानेके लिये मार्तण्डमण्डलमें पहुँचा दिया जाता है। मृत्तिकादि अन्वयीका अविच्छेद देखकर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि इसी तरह तप्त लौहपिण्ड या अग्निनिक्षिप्त जलबिन्दु भी तेजोभावापन्न होकर मेघादिभावको प्राप्त हो जाता है, इसके अतिरिक्त तोयत्व-जलत्व सामान्य तो बिन्दुके नष्ट होनेपर भी सिन्धुमें अन्वित रहता ही है, फिर निरन्वय नाश कैसे कहा जा सकता है?
अतएव वाचस्पतिमिश्रका भामतीमें कहना है कि—
उदबिन्दौ च सिन्धौ च तोयभावो न भिद्यते।
विनष्टेऽपि ततो बिन्दावस्ति तस्यान्वयोऽम्बुधौ॥
बौद्ध अविद्यादिनिरोधको प्रतिसंख्यानिरोध मानते हैं, इस सम्बन्धमें प्रश्न होता है कि यह निरोध साधनसहित सम्यग्ज्ञानसे होता है या स्वत:। यदि प्रथम पक्ष मान्य है तो निर्हेतुक विनाश स्वीकारका सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। यदि निरोध स्वत: मानें तो क्षणिक नैरात्म्यादि भावनादिरूप मार्गोपदेश, धर्मदर्शनादि प्रवर्तन, साधनाभ्यासादि व्यर्थ ही होंगे।
इसी तरह आकाशको भी निरुपाख्य नहीं कहा जा सकता। वेदादिशास्त्रोंसे आकाशकी उत्पत्ति और वस्तुत्व ज्ञात होता है। शब्दगुणके द्वारा उसका अनुमान भी हो सकता है। जैसे गन्धादिगुण पृथिवी आदिके आश्रित रहते हैं, वैसे ही शब्द आकाशके।
‘शब्द गुण है, जातिमान् होकर स्पर्शरहित होकर बाह्य एक इन्द्रियसे ग्राह्य होनेके कारण गन्धके समान’ इस अनुमानके आधारपर सिद्ध होता है कि शब्द गुण है। सामान्यविशेषतया समवायमें शब्दका अन्तर्भाव नहीं है; क्योंकि वे जातिहीन होते हैं। किंतु शब्दके शब्दत्व जाति होनेसे वह जातिमान् है। हेतुका वायुमें व्यभिचार नहीं है। वायु स्पर्शवान् है और यह स्पर्शरहित है। हेतुका दिक‍्काल आदिसे व्यभिचार नहीं है; क्योंकि वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है। इन्द्रियग्राह्य द्रव्यमें व्यभिचार नहीं है; क्योंकि हेतुमें एकेन्द्रियग्राह्यत्व विशेषण है, ऐसा हेतु शब्दमें ही है। इन्द्रियग्राह्य द्रव्यमें नहीं, गन्धत्वजातिमें भी व्यभिचार नहीं है, यत: यह जातिमान् है और गन्धत्वादि जातिहीन है।
गुणत्वसिद्धिके बाद यह भी विचार ठीक है कि शब्द किस द्रव्यका गुण है। वह आत्माका गुण नहीं हो सकता। कारण बाह्येन्द्रिय ग्राह्य है। आत्मगुण इच्छादि बाह्येन्द्रिय ग्राह्य नहीं होते। वह मनका भी गुण नहीं है; क्योंकि मनके भी गुण प्रत्यक्ष नहीं होते। यद्यपि वेदान्तमतमें सुखादि मनके ही गुण होते हैं, तथापि वे साक्षिग्राह्य हैं इन्द्रियग्राह्य नहीं। शब्द पृथिव्यादिका भी गुण नहीं है; क्योंकि गन्धादिके साथ शब्द नियत साहचर्य उपलब्ध नहीं होता।
गन्धादिके समान असाधारण इन्द्रियग्राह्य शब्दगुण जिस द्रव्यके आश्रित है, वह पंचभूत आकाश ही मान्य होना चाहिये।
बौद्ध कहते हैं कि आवरणाभाव आकाश है, परंतु उनका यह कथन ठीक नहीं। एक पक्षीके भी उड़ते समय आवरण हो ही जायगा, फिर उड़नेकी इच्छा रखनेवाले दूसरे पक्षीको अवकाश नहीं होना चाहिये। यदि कहा जाय कि जहाँ आवरण नहीं होगा, वहाँ दूसरा पक्षी उड़ेगा? तो यह भी ठीक नहीं, यत: आवरणाभावको जिससे विशेषित किया जायगा, वह वस्तुभूत ही रहेगा। अत: आवरणाभावमात्र आवश्यक नहीं।
सार यह है कि निषेध्यके निषेधाधिकरणका निरूपण किये बिना निषेधका निरूपण हो ही नहीं सकता। इसलिये आवरणाभावाधिकरण वस्तु ही आकाश है। साथ ही आकाश वस्तु नहीं है, यह सिद्धान्त बौद्धके स्वसिद्धान्तके विरुद्ध है। ‘पृथिवी भगव: किं सन्नि:श्रया’ वे इस प्रकारके प्रश्न प्रतिवचन-प्रवाहमें ‘वायु: किं सन्नि:श्रय:’ इस प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है ‘वायुराकाशसन्निश्रय:।’ अर्थात् वायुका क्या आश्रय है, इस प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है कि वायुका आकाश आश्रय है। इस प्रकार आकाशको अवस्तु मानना अभ्युपगमविरुद्ध होगा।
इसके साथ ही बौद्ध कहते हैं अपि च निरोधद्वयमाकाशं च त्रयमप्येतन्निरुपाख्यमवस्तु नित्यं च अर्थात् दोनों निरोध और आकाश— ये तीनों निरुपाख्य अवस्तु एवं नित्य हैं। यह बात परस्परविरुद्ध है। जो अवस्तु है, उसमें नित्यता या अनित्यता कुछ भी नहीं हो सकती। नित्यत्वादि धर्म वस्तुके आश्रित होते हैं। जहाँ धर्म-धर्मिभाव होता है, वहाँ निरुपाख्यता हो ही नहीं सकती।
बौद्ध सब वस्तुको क्षणिक मानता हुआ उपलब्धाको भी क्षणिक ही मानता है, परंतु यदि उपलब्धा भी क्षणिक हो तो अनुभवसे उत्पन्न होनेवाली स्मृति कैसे बन सकेगी; क्योंकि वह तो तभी बन सकती है, जब कि उपलब्धि और स्मृतिका कर्ता एक ही हो। अतएव पुरुषान्तरसे अनुभूत विषयमें पुरुषान्तरको स्मृति नहीं होती है। अनुभव करनेवालेको ही अनुभूतकी स्मृति होती है।
जबतक पूर्वोत्तरदर्शी एक आधार न हो, तबतक ‘मैंने उसको देखा, अब इसे देख रहा हूँ’ यह व्यवहार नहीं बन सकता। कथंचित् समान-संततिमें कार्यकारणभावसे स्मृति बन भी जाय तो भी यह प्रत्यभिज्ञा तो उपलब्धाके अस्थिर होनेपर बन ही नहीं सकती। दर्शन-स्मरणके एक कर्ता होनेपर ही प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यय होता है ‘उसे देखा, इसे देख रहा हूँ’ यदि यहाँ दर्शन-स्मरणका कर्ता भिन्न-भिन्न हों तो ‘देखा अन्यने और स्मरण मैं कर रहा हूँ’ ऐसा प्रत्यय होना चाहिये, परंतु ऐसा अनुभव किसीको भी नहीं होता। जहाँ ऐसा प्रत्यय होता है, वहाँ कर्ता अवश्य ही भिन्न-भिन्न होते हैं। ‘मैं स्मरण कर रहा हूँ, अमुकने देखा है।’ ‘अहं स्मरामि, असावद्राक्षीत्।’
बौद्ध भी दर्शन-स्मरणका एक ही कर्ता समझता है, परंतु जैसे अग्निको अनुष्ण और अप्रकाश नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार दर्शन-स्मरण-कर्ता आत्माको भिन्न नहीं कहा जा सकता। जब उपलब्धामें भिन्नकारणके दर्शन-स्मरणका सम्बन्ध हुआ तो सुतरां क्षणिकत्वकी हानि अपरिहार्य हो जाती है। जन्ममें मरणतककी उत्तरोत्तर प्रतिपत्तियोंकी एककर्तृकता देखता हुआ भी वैनाशिक आत्माको किस प्रकार क्षणिक कह सकता है?
यदि कहा जाय कि सादृश्यके कारण उपलब्धामें एकताकी प्रतीति होती है, तो यह भी ठीक नहीं, कारण ‘तेनेदं सदृशम्’ ‘उसके यह तुल्य है’ इस प्रकारकी सादृश्यबुद्धि तभी हो सकती है, जब भिन्नकालवर्ती दो वस्तुका ग्राहक एक हो, यदि पूर्वोत्तर क्षण और सादृश्यका ग्राहक एक स्थिर आत्मा है तो एककी अनेक-क्षणवर्तिता सिद्ध हो गयी, फिर क्षणिकत्व-प्रतिज्ञा भंग ही हो गयी।
बौद्ध कहता है कि ‘तेनेदं सदृशम्’ यह स्वतन्त्र ही एक विकल्प-प्रत्यय है। विकल्प स्वाकारको ही बाह्यरूपसे निश्चित करता है, वह तत्त्वत: पूर्वापरक्षण तथा उसके सादृश्यका ग्रहण नहीं करता। अत: पूर्वोत्तरक्षणग्रहण निमित्तक ‘तेनेदं सदृशम्’ यह प्रत्यय नहीं है। इस प्रत्ययसे स्थिर आत्मा नहीं सिद्ध होता, परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि ‘तेन, इदं’ इन दोनों पदोंका उपादान होनेके कारण इसे पूर्वोत्तर क्षणग्रहणनिरपेक्ष प्रत्यय नहीं कहा जा सकता। सादृश्य-ज्ञान स्वतन्त्र-ज्ञान होता तो ‘सदृशम्’ इस ढंगसे उल्लेख होना चाहिये था। ‘तेन इदं सदृशम्’ इस प्रकारका उल्लेख तथा वाक्यका प्रयोग नहीं होना चाहिये।
यदि बौद्ध नानापदार्थ सम्पृक्त वाक्यार्थबोधक ‘तेनेदं सदृशम्’ इस विकल्पकी प्रथा या प्रतीति मानता है, तो फिर कैसे कह सकता है कि उसमें ‘तेनेदं सदृशम्’ ये नाना पदार्थ नहीं भासित होते हैं। ऐसा कहना तो अपने संवेदनके ही विरुद्ध है. इसके सिवा यदि उसके यह सदृश है, यह एक विकल्प ज्ञान हो तो इसमें ‘तेन इदम्’ इत्यादि नाना आकार नहीं हो सकते थे; क्योंकि एकका नानात्व व्याहत होता है। जब ज्ञानसे अतिरिक्त आकार नहीं है तो आकार नानात्व-ज्ञान नानात्व ही ठहरेगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि जितने आकार हैं, उतने ही ज्ञान हैं; क्योंकि तब तो प्रत्येक आकारमें ज्ञानकी समाप्ति होगी और वे सभी परस्पर वार्तानभिज्ञ होंगे, फिर नाना, यह व्यवहार भी न होगा; क्योंकि जब एक ज्ञानसे नाना पदार्थोंकी प्रतीति होती है, तभी नाना यह उल्लेख होता है। इसीलिये ज्ञानसे भिन्न अर्थ मानना चाहिये। तथा च ‘तेन इदं’ इत्यादि नाना आकारवाले ज्ञानकी उपपत्ति स्थायी एक आत्मा माननेसे ही सम्भव है।
बौद्ध कहता है कि ज्ञानमें अर्थाकार कल्पित है, अर्थ बाह्य नहीं है और प्रतीतिमात्र भी नहीं है। तथा च उसी कल्पित आकारभेदसे व्यवहार भी उपपन्न होगा। पर यहाँ यह प्रश्न होगा कि वह कल्पित अर्थ ज्ञानसे अभिन्न है या भिन्न।
तीसरा पक्ष अनिर्वाच्यताका है वह बौद्धको मान्य ही नहीं। यदि भिन्न है तो जैसे ज्ञानसे भिन्न दूसरा ज्ञान अकल्पित होता है, वैसे ही ज्ञानसे भिन्न अर्थाकार भी अकल्पित ही होगा। यदि आकारोंका ज्ञानसे अभेद माना जाय तो उसके समान ही ‘तेन इदम्’ इत्यादि पदार्थोंका भी परस्पर अभेद ही हो जायगा; क्योंकि ज्ञानसे अभिन्न आकारोंका परस्पर भी अभेद ही होता है, तथा च इतरेतररूपसे प्रसिद्ध पदार्थोंका और ज्ञानसे ज्ञेयके प्रसिद्ध भेदका भी अपलाप हो जायगा। यदि लोकप्रसिद्ध पदार्थोंको परीक्षक स्वीकार न करेंगे तो स्वपक्ष-साधन परपक्षदूषणके निरूपण करनेपर भी वे किसीकी बुद्धिमें आरूढ़ न होंगे। अत: जो लोकसिद्ध हो, वही कहना चाहिये, अन्यथा कथन अनर्गल प्रलाप ही समझा जायगा।
एक ही अधिकरणमें परस्पर विरुद्ध दो प्रकारके धर्मोंका अभ्युपगम करनेसे ही विवाद होता है। तभी कोई स्वपक्षका साधन तथा अन्य पक्षको दूषित करता है। यदि विकल्पोंके विषय लोकप्रसिद्ध बाह्य पदार्थ न हों तो यह सब नहीं बन सकता। यदि विकल्पमें भासित होनेवाले नित्यत्व-अनित्यत्वादि ज्ञानाकार ही हैं और ज्ञान भी ‘इदं नित्यम्, इदमनित्यम्’ इस प्रकारसे दो हैं तो एक आश्रय न होनेसे विवाद ही न उठेगा। आत्मा नित्य है और बुद्धि अनित्य, इस तरह कहनेवालोंमें कभी कोई विवाद ही नहीं होता। यदि कोई अनित्य शब्दका लोकप्रसिद्ध अर्थ छोड़कर विभु अर्थ माने, विभुत्व अर्थमें ही अनित्य शब्दका प्रयोग आत्मामें करे और अन्य कोई लौकिकार्थ नित्यशब्दका आत्मामें प्रयोग करे तो उनका आपसमें विवाद नहीं हो सकता है। अत: जिसे परपक्षखण्डन एवं स्वपक्षकी स्थापना करनी है, उसे विकल्पोंका लोकप्रसिद्ध अर्थ एवं बाह्य आलम्बन मानना चाहिये।
यह प्रासंगिक विज्ञानवाद खण्डन आ गया है, परंतु वैभाषिक तथा सौत्रान्तिक बाह्यार्थ मानते हैं।
उनके अनुसार यद्यपि बाह्यार्थ क्षणिक एवं निर्विकल्पज्ञानमें भासित होता है, सविकल्पक प्रत्यय तो विकल्परूप है। वही सादृश्यादिरूपसे भासित होता है, अत: बाह्यार्थवादमें विप्रतिपत्ति आदि व्यवहार बन जायगा। तथा च विकल्पोंके विषय ग्राह्य एवं अवसेयरूपसे दो प्रकारके होते हैं। ज्ञानका स्वाकार तो ग्राह्य होता है और बाह्यविषय अवसेय होते हैं। उसी अवसेयरूप विषयको लेकर पक्ष-प्रतिपक्ष-परिग्रह आदि सम्पन्न हो जायँगे, तथापि यह पक्ष भी ठीक नहीं है? क्योंकि यहाँ भी विचारणीय यह है कि विकल्प विषयकी अवसेयता क्या है। यदि ग्राह्यता ही है तो विषयकी द्विविधता नहीं हुई। यदि वह अन्य है तो क्या है?
यदि कहा जाय कि ज्ञानमें उसका स्वाकार ही प्रतिभासित होता है, तथापि उसी बाह्यार्थरहित भासमान ज्ञानमें बाह्यार्थ अध्यवसायसे बाह्यार्थ घटादिमें प्रवृत्ति होती है, अत: भासमान ज्ञानमें बाह्यार्थका आरोप ही विषयकी अवसेयता है, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि यहाँ भी विचारणीय है कि विकल्पाकारका अर्थाध्यवसाय क्या है अर्थात् आन्तर अनभिधेय ज्ञानाकारका तद्विपरीत बाह्याकाररूपसे अध्यवसाय क्या है? तद्‍रूपसे निष्पादन है या सम्बन्ध या उसके आकारसे आरोपण। पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि अन्यका अन्यरूपसे निष्पादन असम्भव है। हजारों शिल्पी भी मिलकर घटको पट नहीं बना सकते, फिर आन्तर ज्ञानाकारका बाह्यरूपमें सम्पादन कैसे होगा। निष्पादनके समान ही आन्तरका बाह्यसे सम्बन्ध या संयोजन भी नहीं हो सकता। यदि ऐसा हो भी तो बाह्य अर्थ है, इस व्यवहारके विपरीत बाह्य आन्तरसे जुड़ा है, यह व्यवहार होना चाहिये। आरोपपक्षमें भी यह विचारणीय है कि गृह्यमाण बाह्यमें आन्तर ज्ञानाकारका आरोप है या अगृह्यमाणमें। यदि गृह्यमाणमें तो भी क्या विकल्पात्मक ज्ञानसे गृह्यमाणमें या उसी समय उत्पन्न अविकल्पक ज्ञानसे गृह्यमाणमें? यहाँ भी यह प्रश्न उठता है कि उसमें भी गृह्यमाण बाह्य क्या है स्वलक्षण है या सामान्यरूप है?
विकल्प-प्रत्ययसे स्वलक्षण (जात्यादिरहित स्वरूपमात्र) ग्राह्य होता है, यह इसलिये ठीक नहीं कि विकल्प-प्रत्यय तो अभिलापसंसर्ग योग्यको ही विषय करता है, जिसके साथ शब्दका शक्तिग्रह हो ही नहीं सकता, ऐसे देशकालाननुगत स्वलक्षणको वह विषय नहीं कर सकता। इसीलिये कहा गया है कि—
अशक्यसमयो ह्यात्मा सुखादीनामनन्यभाक्।
तेषामत: स्वसंवित्तिर्नाभिजल्पानुषङ्गिणी॥
अर्थात् विकल्प-प्रत्यय शब्द संसर्ग ग्रह योग्य जाति विशिष्ट वस्तुको ही विषय करता है; क्योंकि शब्दका शक्तिग्रह सामान्यके ही साथ सम्भव है; स्वलक्षणके साथ नहीं; क्योंकि देशकालाननुगत होनेसे स्वलक्षण अनन्त होता है। अत: उसमें संगतिग्रह सम्भव नहीं। सुखादि क्षणिक भावोंका स्वरूप अननुगत होनेके कारण संगतिग्रहके अयोग्य है। अर्थात् उसमें शब्दका शक्तिग्रह नहीं हो सकता। अत: उनकी असाधारणाकार विषया स्वसंवित्ति अभिजल्पानुषंगिणी नहीं होती, किंतु निर्विकल्पक ही होती है।
पहले कही हुई रीतिसे जैसे सविकल्प प्रत्ययसे स्वलक्षण-बाह्य नहीं गृहीत हो सकता, वैसे ही सामान्यात्मक बाह्य भी नहीं गृहीत हो सकता; क्योंकि व्यक्तिग्रह बिना जातिरूप-सामान्यका ग्रहण सम्भव है। यदि विकल्पसे अगृहीत तत्समय समुद‍्भूत निर्विकल्प प्रत्ययसे गृह्यमाण बाह्य पदार्थमें विकल्प-प्रत्यय स्वाकार आरोपित करेगा, ऐसा कहें तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि जैसे रजतज्ञानमें भासित होनेवाले पुरोवर्तीमें रजतज्ञान रजतका आरोप नहीं कर सकता, किंतु ‘इदं रजतम्’ इस रूपसे रजतज्ञानमें भासित पुरोवर्तीमें ही रजतका आरोप करता है, उसी तरह निर्विकल्प प्रत्यय भासित होनेपर भी बाह्य पदार्थ यदि विकल्प-प्रत्ययमें भासित नहीं होता तो उसमें वह स्वाकारका आरोप नहीं कर सकता। अर्थात् विकल्पसे अगृहीत एवं विकल्प समयोद‍्भूत अविकल्पसे गृहीत बाह्यमें विकल्प साकारका आरोप नहीं कर सकता। यदि बाह्य गृह्यमाण नहीं है तो अधिष्ठानके ग्रहण बिना आरोप्यमात्र प्रतीत हो सकता है, किंतु आरोप नहीं हो सकता। इस तरह अधिष्ठानका प्रतिभास असम्भव होनेसे बाह्यमें ज्ञानस्वरूपका आरोप नहीं हो सकता है। इसी तरह आरोप्यका स्फुरण भी असम्भव होनेसे आरोप नहीं बन सकेगा।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि क्या यह विकल्प जब स्वसंवेदन सत्-विकल्पको बाह्यरूपसे आरोपण करता है, तब पहले वस्तु सत्-स्वाकारको ग्रहण करके पश्चात् आरोप करता है अथवा जिस समय स्वाकार ग्रहण करता है, उसी समय आरोपण भी करता है?
बौद्धमतमें ज्ञान क्षणिक है, क्रमरहित है, फिर उसमें क्रमवर्ती ग्रहण और आरोपण कैसे सम्भव हो सकता है। इसलिये दूसरा पक्ष ही सम्भव है कि जिस समय ही अर्थशून्य आकारका ग्रहण करता है, उसी समय स्वसंवेदन-स्वाकारको बाह्य अर्थरूपमें आरोपण करता है, परंतु यह भी असंगत है; क्योंकि विकल्पका अपना स्वाकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होनेसे अत्यन्त विशद है, बाह्य अर्थ आरोप्यमाण होनेसे अविशद है। अत: आरोप्य बाह्यको विशद स्वाकारसे भिन्न ही होना चाहिये। अत: विकल्पका स्वाकार ही बाह्यरूपमें आरोपित है, यह पक्ष नहीं बन सकता, अर्थात् जब समकालमें ही स्वाकारग्रहण एवं बाह्यत्वेन आरोपण माना जाय तो सोचना होगा कि यहाँ आरोप क्या है। स्वाकार और बाह्यका ऐक्य-स्फुरण ही आरोप है अथवा—अख्यातिमतके समान विवेकाग्रहमात्र आरोप है। पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि स्वाकार-स्वप्रकाश बाह्य परप्रकाश है। अत: उनका भेदावभास स्फुट है, फिर ऐक्यस्फुरण किस तरह सम्भव है। अत: बाह्यको ज्ञानाकारसे भिन्न ही होना चाहिये। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं; भेदाग्रहमात्रको भी समारोप नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वैशद्य अवैशद्यरूपसे उनका भेद स्पष्ट ही है।
यदि कहा जाय कि बाह्य अगृह्यमाण है तो भी गृह्यमाण आन्तर स्वलक्षणसे उसका भेद अगृहीत है, इसीलिये बाह्यमें प्रवृत्ति होती है। फिर तो यह भी कहा जा सकता है कि त्रैलोक्यसे ही ज्ञानके स्वाकारका भेदाग्रहण होनेसे जहाँ कहीं भी प्रवृत्ति हो जायगी। इस तरह परमार्थ ज्ञानाकारका बाह्य वस्तुरूपसे आरोप असम्भव ही है। इसी तरह वासनापरिप्रापित-कल्पित ज्ञानाकारका बाह्यरूपमें आरोप होता है, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वह भी स्वप्रकाशज्ञानरूप है। अत: उसका भी बाह्यसे भेद प्रसिद्ध ही है।
इस तरह आन्तर एवं बाह्य स्थिर पदार्थोंको बिना स्वीकार किये कोई भी व्यवहार नहीं बन सकता। फलत: सादृश्यमूलक भी प्रत्यभिज्ञा आदि व्यवहार नहीं बन सकते; क्योंकि उनमें ‘तेनेदं सदृशम्’ सादृश्यका ऐसा आकार होता है और ‘तदेवेदम्’ यह वही है, ऐसा प्रत्यभिज्ञाका व्यवहार होता है। यद्यपि यहाँ कहा जाता है कि जैसे दीपज्वाला या नदीप्रवाह आदिमें सादृश्यबुद्धि न होनेपर भी सादृश्यके कारण ही ‘सैवेयं धारा, सैवेयं ज्वाला’ यह वही धारा है, यह वही ज्वाला है इत्यादिरूपसे प्रत्यभिज्ञा (पहचान) होती है। वैसे ही विज्ञानधारामें भी सादृश्यके कारण ही ‘सोऽहम्’ इत्यादिरूपसे प्रत्यभिज्ञा बन जायगी, परंतु यह ठीक नहीं, कारण, कदाचित् बाह्य वस्तुमें विनम्रके कारण यह उसके सदृश अन्य है या वही है, इस प्रकार सन्देह हो भी जाय, परंतु स्वप्रकाश-संवेदनरूप आत्मामें ‘मैं वही हूँ या तत्सदृश अन्य हूँ’ इस प्रकारका संशय सर्वथा असम्भव है। जिसे मैंने कल देखा था, वही मैं आज स्मरण कर रहा हूँ, यहाँ निश्चित ही आत्माकी एकता प्रत्यभिज्ञात होती है। जो अपनेको पहचाननेके लिये अपने आपको विशिष्ट प्रकारके चिह्नसे अंकित करता है, जनसाधारण भी उसकी बुद्धिपर तरस खाते हैं।
बौद्ध स्थिर-अन्वित कारण नहीं मानते, सुतरां उनके यहाँ अभावसे ही भावोत्पत्तिका प्रसंग आ जाता है। क्षणिक कारणवादी बौद्धसे यह प्रश्न होता है कि वह कारण सापेक्ष है या निरपेक्ष? पहले पक्षकी असंगति पीछे कही जा चुकी, दूसरा पक्ष भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि निरपेक्ष क्षणिक बीजादिसे यदि अंकुरादि उत्पन्न हो, तब तो किसान आदिका प्रयत्न व्यर्थ ही होगा।
क्षणिक कारणोंमें उपकार भी सम्भव नहीं होता। निरपेक्षताका निषेध होनेसे सापेक्षता ही आयगी; क्योंकि कोई प्रकारान्तर सम्भव नहीं। अस्थिर भावसे भावकी उत्पत्ति हो नहीं सकती, इसलिये क्षणवादमें अर्थत:—अभावसे ही भावकी उत्पत्तिका प्रसंग होता है। बौद्ध स्पष्टरूपसे अभावसे भावकी उत्पत्ति सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं। ‘नानुपमृद्य प्रादुर्भावात्’ बीजका उपमर्द (विनाश) हुए बिना अंकुरकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती। किंतु विनष्ट बीजसे ही अंकुरकी उत्पत्ति होती है। विनष्ट क्षीरसे दधि एवं विनष्ट मृत्पिण्डसे घटादिकी उत्पत्ति होती है। यदि कूटस्थ स्थिर कारणसे कार्यकी उत्पत्ति हो तो अविशेषात् सभीसे सबकी उत्पत्ति होनी चाहिये। अत: अभावसे ही भावकी उत्पत्ति होती है, इस पक्षका खण्डन करते हुए भगवान् व्यासने कहा है ‘नासतोऽदृष्टत्वात्’ अर्थात् अभावसे भावकी उत्पत्ति नहीं होती। यदि अभावसे भावकी उत्पत्ति हो तो अभावत्वाविशेषात् कारणविशेषसे कार्यविशेषकी उत्पत्तिका सिद्धान्त व्यर्थ होगा। उपमृदित बीजोंके अभावमें और शशविषाणादिमें यदि नि:स्वभावता समान ही है तो भेद क्या है? फिर क्या कारण है कि बीजसे ही अंकुर उत्पन्न हो, क्षीरसे ही दधि हो। यदि निर्विशेष अभावसे कार्य उत्पन्न होता तो शशविषाण आदिसे भी अंकुरादिकी उत्पत्ति होनी चाहिये। पर ऐसा देखा नहीं जाता। यदि कमलादिमें नीलत्वादिके तुल्य अभावमें कोई विशेष माना जाय तो कमलादिके ही तुल्य अभाव भी भाव ही ठहरेगा। इस प्रकार अभाव किसी भावकी उत्पत्तिका कारण नहीं सिद्ध होता।
बौद्धोंके अभावकारणवादका सार यह है कि यदि कूटस्थ कारणका कार्योत्पादन स्वभाव है, तब तो जितना कार्य करता है, उसे सहसा एक क्षणमें ही सब कार्य उत्पन्न कर देना चाहिये; क्योंकि समर्थ कालक्षेप नहीं कर सकता है। यदि कहा जाय कि समर्थ भी क्रमयुक्त सहकारियोंकी अपेक्षासे ही क्रमेण कार्य उत्पन्न करता है तो वह भी ठीक नहीं; क्योंकि यहाँ प्रश्न होगा कि क्या सहकारीमूलकारणमें किसी उपकारका आधान करते हैं या नहीं। यदि नहीं तो अनुपकारक सहकारियोंकी अपेक्षा ही क्यों होगी। यदि आधान करते हैं तो वह उपकार मूल कारणोंसे भिन्न होता है या अभिन्न?
यदि अभिन्न तो यह सिद्ध हुआ कि सहकारियोंद्वारा अहित उपकार मूलकारणसे अभिन्न है, अर्थात् मूलकारणरूप ही है। इस तरह सहकारियोंद्वारा उत्पन्न उपकारस्वरूप मूलकारण तटस्थ कैसे रह सकता है। उच्छूनता या उपमर्द आदि ही सहकारियोंद्वारा किया उपकार है। यदि सहकारिकृत उपकार कारणसे भिन्न है तो यह भी मानना पड़ेगा कि उपकारके होनेपर कार्य होता है, उसके न होनेपर कार्य नहीं होता। भले ही कूटस्थ विद्यमान रहे, तब तो उपकार ही कार्यकारी सिद्ध होता है। कूटस्थ कारण कार्यकारी सिद्ध नहीं होता। इसीलिये कहा गया है कि—
वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चर्मण्येव तयो: फलम्।
चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्य: खतुल्यश्चेदसत्फलम्॥
अर्थात् वर्षा एवं आतपका प्रभाव चर्ममें होता है, आकाशमें नहीं। यदि कारण चर्मके तुल्य है तो उसे विकारी और अनित्य मानना ही पड़ेगा। यदि आकाशके तुल्य है, तब कार्यकारी ही नहीं होगा। यदि अकिंचत्कर कूटस्थ कारणसे कार्य उत्पन्न हो, तब तो सभीसे सबकी उत्पत्ति होनी चाहिये, परंतु बौद्धोंका यह कथन बिना विचारे ही अच्छा जँचता है, विचार करनेपर सर्वथा नि:सार है। अभावसे भावोत्पत्तिके सम्बन्धमें दूषण कहे जा चुके हैं। वस्तुत: स्थिर कारण ही सहकारीके समवधानसे क्रमेण कार्यकारी होता है। स्थिरमें ही उपकार हो सकता है। क्षणिकमें न उपकार ही होता, न उसका ज्ञान ही हो सकता है।
यदि क्षणिक पदार्थोंमें उपकार्योपकार्य भाव माना जाय तो प्रश्न होगा कि वह क्षणिक पदार्थ अन्यकृत उपकारका आश्रय होता है या नहीं? पहला पक्ष असम्भव है; क्योंकि जो वस्तु पहले अनुपकृत होकर पीछे उपकारसे सम्बन्धित हो, वही उपकृतरूपसे जानी जा सकती है। उपकृत पदार्थ एवं उसका ज्ञाता दोनों ही स्थायी हो, तभी वस्तुमें उपकृतत्व एवं ज्ञाताको उसका ज्ञान हो सकता है। यदि प्रथम अनुपकृतत्वका ज्ञान न हो तो उपकार वस्तुका स्वाभाविक धर्म समझा जा सकता है। सहकारियोंद्वारा कारणमें उपकार होता है, किंतु वह उपकार मूल-कारणसे न भिन्न होता है, न अभिन्न, किंतु अनिर्वाच्य होता है। इसीलिये उससे उत्पन्न कार्य भी अनिर्वाच्य ही होता है। इसीलिये अनिर्वाच्य मायोपहित कूटस्थ ब्रह्म विश्वका कारण माना जाता है।
घट मृत्तिकासे भिन्न नहीं है; क्योंकि अन्वयव्यतिरेकसे मृत्तिकासे भिन्न घटका उपलम्भ नहीं होता। अभिन्न भी नहीं है; क्योंकि मृत्तिकासे जलानयनादि कार्य नहीं होता, घटसे ही होता है, अत: वह अनिर्वाच्य ही है। फिर भी स्थिरको अकारण नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अनिर्वचनीय शक्तिविशिष्ट मृत्तिकादि उपादानरूपसे स्थिर ही कारण होता है। उसीसे अनिर्वचनीय कार्य उत्पन्न होता है। इसीलिये श्रुति भी कारणको ही सत्य और कार्यको मिथ्या कहती है (वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्) जैसे रज्जु-सर्पभ्रममें स्थिर रज्जु उपादान है, वैसे ही स्थिर कारण ही कार्यका उपादान होता है। जो लोग सर्वतो विलक्षण स्वलक्षणको ही सत् मानते हैं, उनके यहाँ यह विचारणीय है कि क्यों बीज जातियोंसे अंकुर जातियोंकी ही उत्पत्ति होती है। क्रमेलक (उष्ट्र) जातियोंकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती? जैसे बीजसे बीजान्तर विलक्षण है, वैसे ही क्रमेलक (उष्ट्र) भी विलक्षण है, विलक्षणतामें कोई भेद नहीं है। बीजत्व, अंकुरत्व, सामान्य जाति भी परमार्थ सत् नहीं है। इसीलिये इनका कार्य-कारण-भाव भी परमार्थ नहीं है। अतएव काल्पनिक स्वलक्षण बीजजातीय उपादानसे काल्पनिक ही अंकुरजातीय कार्यकी उत्पत्तिका नियम है यह मानना पड़ेगा।
बौद्धसे यहाँ प्रश्न हो सकता है कि व्यक्तियोंका ही कार्य-कारणभाव होता है या सामान्य (जाति)-का भी अथवा सामान्योपहित व्यक्तियोंका? यदि व्यक्तियोंका कार्य-कारणभाव हो तो व्यक्ति अनन्त होते हैं, सबका ज्ञान असम्भव है। उनमें कार्य-कारणभावकी व्याप्ति गृहीत नहीं हो सकती। फिर कार्यहेतुक अनुमान ही लुप्त हो जायगा; क्योंकि अनुमान सदा ही सामान्योपाधिमें प्रवृत्त होता है। यदि सामान्योंका ही कार्य-कारणभाव मानें तो भी प्रश्न होगा कि बीजत्व, अंकुरत्व आदि सामान्य वस्तु सत् हैं कि असत्? पहला पक्ष बौद्धको मान्य नहीं है, साथ ही वस्तुओंका कार्य-कारणभाव भी विरुद्ध है; क्योंकि बौद्ध अर्थक्रियाकारिताको ही सत्य मानता है, फिर जो कारण है, वह असत् कैसा?
यदि अवस्तुभूत सामान्यसे उपहित सत् स्वलक्षण वस्तुका कार्य-कारणभाव माना जाय तो जैसे काल्पनिक बीजत्व सामान्योपहित स्वलक्षण बीजसे अकुंरत्व जातीयकी उत्पत्ति मानी जा सकती है, उसी तरह अनिर्वचनीय शक्ति उपहित कूटस्थ कारणसे अनिर्वचनीय कार्यकी उत्पत्ति होनेमें कोई भी आपत्ति नहीं हो सकती।
इसी तरह काल्पनिक उपकारसे काल्पनिक कार्यकी उत्पत्ति वेदान्त सिद्धान्तमें उपपन्न होती है। यदि अभावसे भावकी उत्पत्ति मानी जाय तो सभी कार्योंको अभावान्वित होना चाहिये, परंतु ऐसा देखा नहीं जाता। सभी कार्य अपने भावरूपसे अन्वित ही देखे जाते हैं। मृत्तिकासे अन्वित घटादिभाव मृत्तिकाके ही विकार माने जाते हैं, तन्तुविकार नहीं। उसी प्रकार भावान्वित विकारोंको भी अभावका विकार नहीं माना जा सकता। यह कहना संगत नहीं है कि स्वरूपोपमर्द बिना किसी कार्यकी उत्पत्ति ही नहीं होती। अत: कूटस्थ किसी कार्यका कारण नहीं हो सकता। इसलिये अभावसे भावकी उत्पत्तिका सिद्धान्त ही ठीक है; क्योंकि स्थिर स्वभाववाले एकरूपसे प्रत्यभिज्ञात सुवर्णादि ही कटकादिके कारण देखे जाते हैं। उपमर्द तो पूर्व अवस्थाका होता है। उपमृदित पूर्वावस्था उत्तरावस्थाका कारण नहीं है। किंतु अनुपमृदित अन्वयी बीजावयव ही अंकुरादिके कारण होते हैं। कारणमें युगपत् अनेक अवस्था नहीं रह सकती। इसीलिये अंकुरावस्थाको लानेके लिये बीजावस्थाको हटना पड़ता है। घटावस्था लानेमें पिण्डावस्थाको भी हटना पड़ता है। अतएव बीजावस्था या पिण्डावस्था अंकुरादिके कारण नहीं है। किंतु बीजादिके अवयव ही कारण हैं। अतएव उन्हींका कार्यमें अन्वय है, अवस्थाका अन्वय नहीं। शशविषाणादि असत‍्से उत्पत्ति नहीं होती। सुवर्णादि सत‍्से ही उत्पत्ति होती देखी जाती है, अत: अभावसे भावोत्पत्तिका सिद्धान्त सर्वथा असंगत है।
यदि अभावसे भावकी उत्पत्ति हो तो प्रयत्नहीन लोगोंकी भी अभीष्टसिद्धिमें कठिनाई नहीं होनी चाहिये; क्योंकि अभावरूपी साधन तो सबको सुलभ है। कृषकको बिना प्रयत्न ही व्रीहि-यवादिकी प्राप्ति होनी चाहिये। कुलालको भी प्रयत्न बिना ही घटादिकी निष्पत्ति होनी चाहिये। तन्तुवायके प्रयत्न बिना ही वस्त्रकी प्राप्ति होनी चाहिये। शिल्पियोंके प्रयत्न बिना ही विविध प्रकारके यन्त्रोंका निर्माण हो जाना चाहिये। स्वर्ग-अपवर्गके लिये भी किसीको कोई चेष्टा करनेकी आवश्यकता नहीं होनी चाहिये। पर यह सब संगत नहीं।
विज्ञानवादी योगाचारका कहना है कि बाह्यार्थवादमें बुद्धका तात्पर्य नहीं था। कुछ शिष्योंका बाह्यार्थमें अभिनिवेश देखकर ही उन्होंने पंचस्कन्धका निरूपण किया है। वस्तुत: विज्ञानमात्र एक ही स्कन्ध बुद्धको अभीष्ट था। कहा जा सकता है कि प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और प्रमिति—ये चार प्रकारके तत्त्व होते हैं। इनमेंसे एकके अभावमें भी तत्त्वका व्यवस्थापन नहीं बन सकता। अत: विज्ञानमात्रको तत्त्वसिद्ध करनेके लिये प्रमात्रादितत्त्वचतुष्टय मानना ही पड़ेगा। फिर जब चार वस्तुएँ माननी ही पड़ीं तो विज्ञानमात्र वस्तु है, यह कैसे कहा जा सकता है, परंतु विज्ञानवादीका कथन है कि यद्यपि विज्ञानरूप अनुभवसे भिन्न अनुभाव्य, अनुभविता एवं अनुभवन कुछ भी नहीं है, तथापि बुद्धिकल्पितरूपसे विज्ञानमें प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और प्रमिति आदिका व्यवहार बन जाता है। असत्य आकारयुक्त विज्ञानका स्वरूप प्रमेय है। प्रमेय प्रकाशन एवं प्रमाण फल है। प्रकाशनशक्ति ही प्रमाण है।
बाह्यार्थवादमें भी बुद्धॺारोहके बिना प्रमाणादि व्यवहार नहीं बन सकता। यदि प्रमाण और फलके भिन्न अधिकरण हों तो प्रमाण फलभाव हो ही नहीं सकता। इसलिये खदिरगोचर परशु व्यापार होनेसे भी पलाशमें द्वैधीभाव (टुकड़ा) नहीं होता। जिसमें व्यापार होता है, उसीमें फल होता है। उसी तरह प्रमाण (करण) और प्रमिति फल दोनोंका एक ही अधिकरण होनेपर ही करण फलभाव हो सकता है। यद्यपि परशु स्वावयवोंमें समवेत है और द्वैधीभाव खदिरमें समवेत है तथापि व्यापाराविष्ट करणीभूत परशु-संयोग सम्बन्धसे खदिरमें रहता है और द्वैधीभाव भी खदिरमें है ही। इस तरह करणफलका एकाधिकरण्य सामानाधिकरण्य ही है, इसी तरह एक ज्ञानमें ही प्रमाणफलभाव मानना ठीक है।
अब यहाँ विचार करना होगा कि ज्ञानमें प्रमाण और फल कैसे सम्भव होंगे। जैसे कुण्डमें बदर (बेर)-की अवस्थिति होती है, उसी तरह क्या ज्ञानमें प्रमाण और फलका अवस्थान हो सकता है? कहना होगा कि ज्ञान असंयोगी वस्तु है, अत: उसमें संयोग-सम्बन्धसे प्रमाण और फल नहीं रह सकते, किंतु तादात्म्य या अभेद सम्बन्धसे ही ज्ञानमें उनकी स्थिति कहनी पड़ेगी। यदि वस्तुत: प्रमाण और फल ज्ञानसे भिन्न हों तो उनका ज्ञानके साथ एकता या तादात्म्य असम्भव ही है। अत: ज्ञानमें ही कल्पित प्रमाण फलभाव मानना ठीक है। यदि प्रमाण और फल दोनों ही ज्ञानके अंश हों, तभी प्रमाण और फल ज्ञानस्थ हो सकते हैं, परंतु ज्ञान स्वलक्षण (सर्वविशेषरहित) अनंश होता है, अत: उसमें वस्तु सत्प्रमाण और फल नहीं रह सकते, वही ज्ञान अज्ञान व्यावृत्ति या अज्ञानापोहरूपसे फल है, वही अशक्ति व्यावृत्तिरूप आत्मस्वरूप अनात्म बाह्यार्थ प्रकाश शक्तिरूपसे प्रमाण है। ज्ञानका ही बाह्याकार बाह्य घटादि पदार्थ है। वैभाषिकोंके यहाँ बाह्य अर्थ प्रत्यक्ष होता है और सौत्रान्तिकोंके यहाँ ज्ञानगत आकारके वैचित्त्यसे बाह्यार्थका अनुमान होता है। ज्ञानमें जो बाह्य नीलादि सारूप्य भासमान होता है, वह अनीलाकारका अपोहरूप ही है, वही बाह्यार्थका व्यवस्थापन करता है, जैसे कि प्रतिबिम्ब बिम्बका व्यवस्थापन करता है। इस दृष्टिसे ज्ञान ही बाह्यार्थ व्यवस्थापक होनेके कारण प्रमाण है। अज्ञान (अर्थात् ज्ञानभिन्न अन्य)-की व्यावृत्तिरूपसे ज्ञानत्व सामान्य ही प्रमाण फल है; क्योंकि वह व्यवस्थाप्य है।
इस मतमें भी प्रमेय परमार्थत: भिन्न है, यही बात सौत्रान्तिकके यहाँ प्रसिद्ध है—‘नहि वित्तिसत्तैव तद्वेदनायुक्ता, तस्या: सर्वत्राविशेषात्। तान् तु सारूप्यमाविशत्, स्वरूपं यद्घटयेत्।’ अर्थात् ज्ञानकी सत्ता ही अर्थकी वेदना नहीं हो सकती; क्योंकि वित्ति (ज्ञान) सत्ता तो सभी अर्थोंमें समान है। ज्ञानमात्र सर्व ज्ञेय साधारण है, अत: उस वित्तिमें प्रविष्ट होकर स्वसारूप्यघटित करनेवाला अर्थात् ज्ञानको स्वाकारसे आकारित करनेवाला बाह्यार्थ होना चाहिये। वही अपने रूपसे वित्तिको सरूप बनाता हुआ वित्तिको सविषय बनाता है, परंतु विज्ञानवादके अनुसार वस्तुत: सर्व व्यवहार पूर्वोक्त रीतिसे ज्ञानमें ही हो सकता है, ज्ञानभिन्न बाह्यार्थ नहीं हो सकता; क्योंकि बाह्यार्थ असम्भव है। यहाँ यह विचारणीय है कि क्या बाह्यार्थ घटादि परमाणुरूप ही हैं या परमाणुसमूह? परमाणुघटादि प्रत्ययके आलम्बन नहीं हो सकते; क्योंकि व्यवहारमें एक और स्थूल घटाद्याकाराभास ज्ञान होता है, परम सूक्ष्म परमाण्वाभास ज्ञान नहीं होता। अन्याभास ज्ञान अन्यको विषय नहीं कर सकता। अत: एक घटाद्याभास ज्ञान अनेक परम सूक्ष्म परमाणुओंको विषय नहीं कर सकता। यदि ऐसा नहीं मानें तो घटाभास ज्ञानके सर्वगोचर होनेसे सर्वज्ञतापत्ति हो जायगी। इसलिये एक-एक परमाणु घटादि प्रत्ययका परिच्छेद्य नहीं हो सकता है। परमाणुसमूह भी घटादि प्रत्यय परिच्छेद्य नहीं बन सकते; क्योंकि समूहका समूहियोंसे भिन्न या अभिन्नरूपसे निरूपण नहीं हो सकता। अभिन्न कहें तो पूर्वोक्त दोष ही होगा, भिन्न कहें तो समूहियोंके पृथक् हो जानेपर भी उसकी सत्ता रहनी चाहिये, भिन्न होनेपर भी दोनों किसी सम्बन्धसे सम्बन्धित हैं या नहीं? यदि है तो कौन सम्बन्ध है। समवाय सम्बन्ध कहें तो वह समवायियोंसे सम्बन्धित हैं या नहीं? यदि नहीं तो वह स्वयं असम्बद्ध दूसरोंको कैसे सम्बन्धित करेगा। यदि स्वयं सम्बन्धान्तरसे सम्बन्धित है तो वह सम्बन्ध सम्बन्धान्तर सापेक्ष होगा, इस तरह अनवस्था प्रसंग होगा।
यह भी विचारणीय है कि घटादिगत स्थूलत्वादि प्रतिभासमान ज्ञानका धर्म है अथवा प्रतिभासकालमें प्रतिभासित अर्थका। यदि पहली बात मान्य है तो ज्ञान स्वांशका ही अवलम्बन करता है। अत: ज्ञानभिन्न अर्थ नहीं है, यह पक्ष स्वीकृत हो गया, यदि कहा जाय कि रूपपरमाणु ही निरन्तर (मिलकर) एक विज्ञानके विषय होकर स्थूलरूपसे भासित होते हैं, ऐसा माननेमें भ्रान्तिको भी कोई स्थान नहीं। वे परमाणु नहीं हैं यह तो नहीं कहा जा सकता। इसी तरह वे सम्मिलित नहीं हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक विज्ञानोपारोही (एक विज्ञानके विषय) नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता, अत: भले ही नीलत्वादिके तुल्य स्थूलत्व परमाणुका धर्म न हो; क्योंकि नीलत्वादिकी तरह वह प्रत्येक परमाणुमें नहीं, परंतु प्रतिभासदशापन्न परमाणुओंका स्थूलत्वादि बहुत्वादिके समान सांवृत्तिक (मायिक) धर्म हो सकता है।
ग्रहेऽनेकस्य चैकेन किञ्चिद्‍रूपं हि गृह्यते।
साम्प्रतं प्रतिभासस्थं तदेकात्मन्यसम्भवात्॥ १॥
न च तद्दर्शनं भ्रान्तं नानावस्तुग्रहाद्यत:।
सांवृतं ग्रहणं नान्यत् न च वस्तुग्रहो भ्रम:॥ २॥
अर्थात् एक ज्ञानसे अनेक परमाणुओंका ग्रहण होनेपर सांवृत स्थूलरूप भासित होता है। विशकलित परमाणुतत्त्वको स्थूल बुद्धि ढक देती है, इसीलिये वह सांवृति है, एक-एक परमाणुओंमें स्थूल बुद्धि असम्भव है, इस तरह स्थूल दर्शनको भ्रान्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि नाना वस्तु परमाणु उसके विषयमें हैं ही। जो भिन्न बुद्धिसे गृहीत होते हैं, वे ही मिलित होकर एक बुद्धिगृहीत होकर स्थूलत्वाकारसे प्रतिभासित होते हैं।
विज्ञानवादी बाह्यार्थवादीके इस पक्षका भी खण्डन करता है और कहता है कि परमाणुओंमें नैरन्तर्यकी प्रतीति भ्रान्ति ही है; क्योंकि रूप परमाणु गन्ध, रस, स्पर्श, परमाणुओंसे व्यवहित ही हैं, अव्यवहित (निरन्तर) नहीं, जैसे दूरसे देखनेपर व्यवधानयुक्त अनेक वृक्षोंमें भी एक सघन वन प्रत्यय होता है। उसी तरह सान्तर व्यवहित परमाणुओंसे स्थूल प्रत्यय भ्रान्ति ही है। इस घटादि प्रत्यय ‘पीत: शंख:’ इस ज्ञानके तुल्य भ्रान्ति ही है। अत: परमाणु घटादि प्रत्ययके विषय नहीं हो सकते।
कुछ लोगोंका कहना है कि स्थूल प्रत्यय स्वलक्षणविषयक है, अत: निर्विकल्पक प्रत्यय होनेसे भ्रान्त नहीं है।
सविकल्प प्रत्यय अवस्तुभूत सामान्यविषयक होनेसे भ्रान्त होता है, परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि यद्यपि ‘स्थूलम्’ यह ज्ञान व्यक्ति ज्ञान है, व्यक्तिमें सम्बन्ध ग्राह्य होनेसे वह शब्द वाच्य भी नहीं है तो भी पूर्वोक्त युक्तिसे स्थूल प्रत्यय भ्रान्त है। अत: वह प्रत्यय नहीं ‘कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्’ यही प्रत्यक्षका लक्षण है। अभिलापादि कल्पनारहित कल्पना पाठ होनेपर भी वह अभ्रान्त नहीं है। इस तरह यदि परमाणुसमूह घटादि परमाणुओंसे अभिन्न है तो परमाणु स्वरूप ही होनेसे वे घटाद्याभास प्रत्ययके गोचर नहीं हो सकते। यदि भेद है तो गवाश्वादिके समान अत्यन्त विलक्षण होनेसे उनमें तादात्म्य नहीं बन सकता। समवायसम्बन्ध भी निराकृत ही है। इसी तरह जाति-गुण-कर्मादिका भी प्रत्याख्यान किया जा सकता है। जो-जो प्रतिभासित होता है, वह-वह विचारसह है। अप्रतिभासमानके सद्भावमें कोई प्रमाण नहीं है। अत: कोई भी प्रत्यय बाह्यालम्बन नहीं होते हैं।
विज्ञानवादीका यह भी कहना है कि यह नहीं कहा जा सकता कि विज्ञान इन्द्रियकी तरह स्वयं विलीन (अज्ञात) रहकर ही अर्थका प्रकाशन करेगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि जैसे इन्द्रिय अर्थविषयक ज्ञान उत्पन्न करती है, वैसे ही ज्ञान भी किसी अन्य ज्ञानको उत्पन्न करेगा; क्योंकि इस तरह समान होनेसे वह ज्ञान भी ज्ञानान्तर जनन करेगा तो अनवस्था प्रसंग होगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान अर्थमें प्राकटॺ लक्षण फलका आधान करेगा; क्योंकि अतीत-अनागत विषयोंमें अविद्यमानताके कारण प्राक‍्स्वरूप फलका आधान हो ही नहीं सकता, इसलिये यह मानना चाहिये कि ज्ञानस्वरूपकी प्रत्यक्षता ही अर्थकी प्रत्यक्षता है, वह ज्ञान अनाकार होनेसे स्वभावत: भेदरहित है, फिर उसके द्वारा अर्थभेद अवस्था कैसे हो सकती है? अत: अर्थभेद व्यवस्थाके लिये ज्ञानमें आकार-भेद भी स्वीकार करना आवश्यक है। पीछे कहा जा चुका है कि ‘वित्तिसत्ता ही अर्थवेदन नहीं हो सकती इत्यादि, परंतु आकार एक ही अनुभूत होता है। यदि यह विज्ञानका आकार है तो अर्थ सद्भावमें कोई प्रमाण नहीं सिद्ध होता।’
एक रूपसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानोंमेंसे घटज्ञान, पटज्ञान आदि रूपसे प्रतिविषयोंमें पक्षपात प्रतीत होता है, वह ज्ञानगत विशेषके बिना उपपन्न नहीं हो सकता; अत: ज्ञानमें विषय-सारूप्य मानना चाहिये। यदि ज्ञानमें विषयसारूप्य मान लिया गया तो ज्ञानकी विषयाकारता ज्ञानसे ही अवरुद्ध है, फिर बाह्यार्थ सद्भावकी कल्पना व्यर्थ ही है। इसी तरह सहोपलम्भ नियमसे भी विषय और ज्ञानका अभेद मालूम पड़ता है, इनमेंसे एकके उपलम्भ हुए बिना दूसरेका उपलम्भ नहीं होता।
यदि ज्ञान और अर्थका स्वाभाविक भेद हो तो यह नियम नहीं बन सकता। घट-पट आदि भिन्न हैं तो उनमें सहोपालम्भका नियम नहीं होता है। मृत्तिका और घटमें सहोपालम्भका नियम होता है, अत: मृत्तिकासे भिन्न घटकी सत्ता नहीं होती। यही स्थिति ज्ञान और ज्ञेयके सम्बन्धमें भी कही जा सकती है। जिसका जिसके साथ नियमेन सहोपालम्भ होता है, वह उससे भिन्न नहीं होता। जैसे एक चन्द्रसे भ्रान्तिसिद्ध द्वितीय चन्द्रका भेद नहीं होता, उसी तरह ज्ञानके साथ अर्थका सहोपालम्भनियत है।
भिन्न-भिन्न घट-पटको एवं दो अश्विनीकुमारोंका भी ऐसा सहोपालम्भ नियम नहीं होता, अपितु पृथक् भी उनका उपालम्भ होता है। बादलसे एकके ढके रहनेपर भी दूसरा दिखता है। इस तरह भेद व्यापक अनियमके विरुद्ध सहोपालम्भ नियम तद् व्याप्यभेदको निवृत्त कर देता है, यही विज्ञानवादियोंका सिद्धान्त निम्नकारिकासे व्यक्त होता है—
सहोपालम्भनियमादभेदो नीलतद्धियो:।
भेदश्च भ्रान्तिविज्ञानैर्दृश्येतेन्दाविवाद्वये॥
अर्थात् सहोपालम्भके नियमसे नीलज्ञेय और नीलज्ञानका अभेद ही है। भ्रान्तिके कारण भेद उसी तरह प्रतीत होता है, जैसे अद्वितीय चन्द्रमें चन्द्रका भेद प्रतीत होता है। जैसे स्वप्न, माया, रज्जु, सर्प तथा गन्धर्वनगरादि प्रत्यय बाह्यार्थके बिना ही ग्राह्य-ग्राहकाकार होते हैं, वैसे ही जागरितकालके घटादि-प्रत्यय भी बाह्यार्थ बिना ही ग्राह्य-ग्राहकाकार होते हैं; क्योंकि सभीमें प्रत्ययत्व समान है। अर्थात् जो-जो प्रत्यय है, वह सभी बाह्यार्थशून्य है। किसीका भी बाह्यार्थ आलम्बन (विषय) नहीं होता है।
प्रत्ययत्व स्वभाव ही इसमें हेतु है। जैसे शिंशपात्व निम्बत्वादि-मात्रानुबन्धिनी वृक्षता होती है, उसी प्रकार प्रत्ययत्वमात्रानुबन्धिनी बाह्यानालम्बनता रहती है। जैसे शिंशपात्व निम्बत्वादि जहाँ हैं, वहाँ वृक्षता होती ही है, उसी तरह प्रत्ययत्व जहाँ है, वहाँ निरालम्बनता है ही। इसी तरह प्रत्ययत्व हेतुसे ही स्वप्नादि प्रत्ययोंके समान ही घटादि प्रत्ययकी निरालम्बनता सिद्ध होती है।
इस सम्बन्धमें सौत्रान्तिक कहता है कि बाह्यार्थ न रहनेसे घटादि प्रत्ययोंमें विचित्रता किसी तरह उपपन्न नहीं हो सकती है, अत: बाह्यार्थका स्वीकार करना आवश्यक है। इस विषयमें निम्न अनुमान किया जा सकता है, जिसके रहनेपर भी जो कादाचित्क होते हैं, वे तद्भिन्न हेतुकी अपेक्षा रखते हैं, जैसे मुझमें आलयविज्ञान जिगमिषा (गमनेच्छा) विवक्षा (भाषणेच्छा) न रहनेपर भी जब वचन, गमन प्रतिभास प्रत्यय होता है तो उन्हें मेरेसे भिन्न पुरुषान्तर संतानसापेक्ष मानना पड़ता है। इसी तरह ‘अहं अहम्’ इस रूपसे उदीयमान आलयविज्ञानसे जायमान शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और सुखादि प्रत्यय कादाचित्क होते हैं, ये छहों अर्थ प्रकृतिके हेतु होनेसे प्रवृत्ति विज्ञान कहे जाते हैं। ये आलयविज्ञानके रहनेपर भी कभी ही होते हैं, अत: ये भी ज्ञानातिरिक्त हेतुसे उत्पन्न होने चाहिये। जो आलय-विज्ञान संतानातिरिक्तका कादाचित्क प्रवृत्ति विज्ञान विशेषका हेतु है, वही बाह्यार्थ है। यहाँ विज्ञानवादी कहता है कि वासनापरिपाक प्रत्ययमें कादाचित्क होनेसे प्रवृत्ति-विज्ञानका बाह्यार्थ-निरपेक्ष ही कादाचित्क उत्पाद बन जायगा; क्योंकि विज्ञानवादके अनुसार एक संतानवर्ती आलय-विज्ञानोंकी प्रवृत्ति विज्ञान जनन-शक्ति ही वासना है, उस शक्तिका स्वकार्य जननाभिमुखता ही परिपाक है। स्वसंतानवर्ती पूर्व क्षण ही उस परिपाकका प्रत्यय हेतु है। अर्थात् प्रवृत्ति-विज्ञानजनक आलय-विज्ञानसे पूर्व उसी आलय-विज्ञान संतानमें जब कभी उत्पन्न नीलादि प्रत्यय ही वासना परिपाकका हेतु (प्रत्यय) है।
विज्ञानवादीके अनुसार स्वसंतानपतित नील प्रत्ययक्षण ही उत्तरवर्ती वासना परिपाकका हेतु माना जाता है। सर्वज्ञादि संतानवर्ती क्षण वासना परिपाकका कारण नहीं होता, इसपर सौत्रान्तिकका कहना है कि प्रवृत्ति विज्ञानजनक आत्मा-विज्ञानवर्ति-वासना परिपाकके प्रति आलय-विज्ञान संतानवर्ती सभी क्षणोंको हेतु कहना चाहिये, अन्यथा किसी भी क्षणको हेतु नहीं कहा जा सकता; क्योंकि सभी क्षण संतानान्त:पाती हैं, फिर क्या कारण है कि कोई क्षण वासना परिपाकका हेतु बने और कोई न बने। यहाँ विज्ञानवादी कहता है कि क्षणभेदसे शक्तिमें भेद होता है। इस प्रकार आलय-विज्ञान संतानवर्ती क्षणोंमें भेद है तथा प्रतिक्षणोंमें शक्ति भेद भी है। वह शक्तिविशेष कादाचित्क ही होता है। उस शक्त एक क्षणके अनन्तर उसका कार्य आलय-विज्ञान क्षणवर्तिवासना परिपाक भी कादाचित्क होगा। पुनश्च तज्जनित प्रवृत्ति विज्ञान भी कादाचित्क होगा। विज्ञानवादीके इस पक्षका खण्डन करता हुआ सौत्रान्तिक कहता है कि फिर तो आलय-विज्ञान संतानसे एक ही आलय-विज्ञानमें नीलादि प्रवृत्ति विज्ञानजनकता होगी और उसमें प्राक्तन-आलय-विज्ञानवर्ती एक नीलादि विज्ञान क्षणमें वासना परिपाक हेतुता होगी। उस तरह एक संतानमें एक ही आलय-विज्ञान प्रवृत्ति-विज्ञानजनन समर्थ होगा और उससे प्राक्तन-आलय-विज्ञानवर्ती नील विज्ञान क्षण ही वासना परिपाकका हेतु होगा। इस तरह एक आलय संतानमें दो ही क्षण कारण होंगे और कोई भी क्षण कारण नहीं होगा, परंतु होता है इसके विपरीत। अनेकों बार नील विज्ञान होते ही हैं। यदि तदितर पूर्व ज्ञानोंमें परिपाक हेतुता हो और उत्तरोत्तर आलय विज्ञानोंमें प्रवृत्ति विज्ञानजनकता हो तो यह कैसे कहा जा सकता है कि क्षण भेदसे शक्तिभेद मान्य है। ऐसी स्थितिमें यदि विज्ञानवादी आलय-विज्ञान संतानवर्ती सभी क्षणोंका प्रवृत्ति विज्ञान जनन समर्थ तथा सभी तत्संतानवर्ती प्राक्तन नीलादि ज्ञान क्षणोंको वासनापरिपाकका हेतु मानता है तो समर्थमें कालक्षेप होता नहीं। अत: सदा ही नीलज्ञान होते रहना चाहिये, नीलज्ञानको कादाचित्क न होना चाहिये।
इस प्रकार विचार करनेपर स्वसंतान मात्राधीन होनेपर कादाचित्कत्वके विरुद्ध सदा तत्त्वकी प्राप्ति होती है। उससे नीलज्ञानका कादाचित्कत्व निवृत्त होगा, परंतु यह उपलब्धि विरुद्ध है। नीलज्ञानमें कादाचित्कत्व उपलब्ध होता ही है। इसलिये आलय विज्ञानसे अन्य बाह्यार्थ सापेक्ष होनेपर भी नीलज्ञानका कादाचित्कत्व बन सकता है और तब जिसके रहनेपर भी जो कादाचित्क होते हैं, वे तदतिरिक्त सापेक्ष होते हैं। इस प्रकार सौत्रान्तिकके द्वारा कथित व्याप्यव्यापकका व्याप्ति सम्बन्ध सिद्ध होता है।
यदि कहा जाय कि नीलविज्ञान हेत्वन्तर अपेक्षा रख सकता है, पर वह हेत्वन्तर अन्य आश्रय-विज्ञान संतान ही हो सकता है बाह्यार्थ नहीं, परंतु यह ठीक नहीं, कारण कि विज्ञानवादी प्रवृत्ति विज्ञानोंको संतानान्तर निबन्धन नहीं मानते। जिस समय चैत्रसंतानमें गमन, वचन प्रतिभासप्रत्यय विच्छिन्न होते हैं, उस समय मैत्रसंतानमें रहनेवाले वचन, गमन प्रतिभास निमित्तक ही चैत्रमें गमनवचनादि गोचर प्रवृत्ति विज्ञान उत्पन्न होते हैं, किंतु विवक्षु, जिगमिषु चैत्रमें होनेवाले गमनवचन प्रतिभास चैत्र संतान हेतुक ही होते हैं। स्वसंतानहेतुक प्रवृत्तिविज्ञान माननेपर पूर्वोक्तरीतिसे नीलादिज्ञानका कादाचित्क नहीं बन सकता। अत: नीलादिज्ञानको बाह्यार्थ सापेक्ष मानना ही ठीक है।
यदि प्रवृत्तिज्ञानको अन्यसंतान निमित्तक माना जाय तो भी वह सत्त्वान्तर संतान भी तो सदा सन्निहित ही रहता है। अत: प्रवृत्तिविज्ञानोंका कादाचित्कत्व बन नहीं सकता; क्योंकि चैत्रसंतानसे मैत्रसंतानका देश तथा कालद्वारा विप्रकर्ष (दूरी) सम्भव नहीं है। इसमें यह कारण है कि विज्ञानवादीको विज्ञानसे भिन्न देशकालादि अमान्य ही होते हैं।
अमूर्त होनेसे विज्ञानोंको अदेशात्मक माना जाता है, अत: देशकृत विप्रकर्ष नहीं हो सकता। इसी तरह विज्ञान संतानोंका कालकृत विप्रकर्ष भी नहीं हो सकता; क्योंकि सादिता दोष प्रसक्तिके डरसे विज्ञानवादी नवीन सत्त्वों (विज्ञानसंतानरूप आत्मा)-का आविर्भाव नहीं मानते हैं। जब देशकृत या कालकृत विप्रकर्ष सम्भव ही नहीं तो संतानान्तर सन्निधान भी सर्वदा रहेगा ही, फिर प्रवृत्तिविज्ञानको सदा ही उपपन्न होते रहना चाहिये, किंतु प्रवृत्तिविज्ञानकी कादाचित्कता ही प्रत्यक्ष है, अत: बाह्यार्थ मानना अत्यावश्यक है, उसके बिना कादाचित्क प्रवृत्तिविज्ञान नहीं बन सकता।
सौत्रान्तिकके इस मतका खण्डन करता हुआ विज्ञानवादी कहता है कि वासनावैचित्र्यसे प्रत्ययवैचित्र्य उत्पन्न हो ही सकता है। उसका अभिप्राय यह है कि स्वसंतानसे ही प्रवृत्तिविज्ञानोंकी उत्पत्ति मानी जाय तो भी उसके कादाचित्कत्वकी उपपत्ति हो जायगी। अत: सौत्रान्तिकके बाह्यार्थ साधकहेतुकी विपक्ष व्यावृत्ति सन्दिग्ध है,जिससे वह अनैकान्तिक है। नीलादि ज्ञानको बाह्यनिमित्तक मान भी लें तो भी क्यों कभी नीलज्ञान कभी पीतज्ञान होता है। यदि बाह्यनील पीतके सन्निधान-असन्निधानसे यह व्यवस्था कही जाय तो भी प्रश्न होगा कि पीत सन्निधानमें भी नीलज्ञान क्यों नहीं होता, पीत ही ज्ञान क्यों होता है। यदि कहें कि पीतमें नीलज्ञानजननकी सामर्थ्य नहीं है तो भी प्रश्न होगा कि यह सामर्थ्य-असामर्थ्यका भेद कैसे होता है। यदि हेतुभेदसे कहा जाय तो इसी तरह क्षणों (क्षणिक आलय विज्ञानों)-में भी स्वकारण भेदके कारण शक्तिभेद हो ही सकता है, संतानीक्षण ही कार्यभेदके हेतु होंगे, वे प्रति कार्य भिन्न ही होते हैं। संतान नामकी कोई एक वस्तु क्षणोंकी उत्पादिका नहीं होती, जिसके अभेदसे क्षणभेदमें बाधा पड़ सके।
जो यह कहा जाता है कि आलय-विज्ञान क्षणोंमें स्वस्वहेतु वैचित्र्यसे सामर्थ्यभेद होनेपर भी एक संतानस्थ होनेके कारण सबमें एक ही प्रकारकी सामर्थ्य होगी, वह इसलिये ठीक नहीं कि यह कहा ही जा चुका है कि संतानके अभेद होनेपर भी क्षणोंमें सामर्थ्यभेद है। सौत्रान्तिकका कहना है कि क्षणके भेदाभेदसे शक्तिका भेदाभेद नहीं हो सकता; क्योंकि भिन्न क्षणोंमें भी एक सामर्थ्यकी उपलब्धि होती है, अन्यथा यदि एक ही क्षण नीलज्ञानजननसमर्थ हो तो पुन: कभी भी नीलज्ञानोंकी उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये; क्योंकि इस दृष्टिसे जो समर्थ क्षण था, वह व्यतीत हो चुका और क्षणान्तरोंमें नीलज्ञानजनन सामर्थ्य है ही नहीं, इसलिये क्षणभेदसे सामर्थ्यभेद होता है, यह पक्ष उचित नहीं। एक ज्ञान संतानमें अनेकों बार नीलज्ञान होता ही है, किंतु संतानभेदसे ही सामर्थ्यभेद होता है। अत: आलय-विज्ञान संतानोंसे भिन्न बाह्य नीलादि संतानोंसे नीलादि प्रवृत्तिविज्ञानोंका उत्पन्न होना संगत होता है। इस दृष्टिसे बाह्यार्थ सिद्ध होता है, परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि यदि भिन्न संतानोंमें सामर्थ्यभेद मान्य होगा तो यह भी कहना पड़ेगा कि भिन्न संतानोंमें एक सामर्थ्य नहीं है। ऐसी स्थितिमें विभिन्न नीलसंतानोंमें भी नीलाकारके आधानकी एक सामर्थ्य होनी चाहिये। फिर तो अन्य नील संतानोंका सन्निधान रहनेपर भी नीलज्ञान न होना चाहिये, परंतु यह सब अनुभवविरुद्ध है। अत: नीलपीतादि संतानोंके समान ही स्वकारणाधीन उत्पन्न होनेवाले क्षणान्तरोंमें भी किन्हींमें सामर्थ्य विशेष होता है, किन्हींमें नहीं। इस प्रकार एक आलयविज्ञान संततिपतित क्षणोंमें किसी ही ज्ञानक्षणमें सामर्थ्यविशेष होता है, किसीमें नहीं होता। स्वप्रत्यय (पूर्वोत्पन्न नीलज्ञान)-से आसादित वही सामर्थ्यातिशय वासना है।
किसीसे नीलाकार ही ज्ञान होता है, पीताकार नहीं और किसीसे पीताकार ही ज्ञान होता है, इस तरह वासनावैचित्र्यसे ही ज्ञानवैचित्र्य बन सकता है।
विज्ञानवादीके कहनेका सार यह है कि बाह्यार्थवादमें भी नीलादि अर्थ क्षणिक होते हैं। तथा च नीलसंतान भी अनेक होते हैं, उनमें भी संतानभेदसे यदि शक्तिभेद माना जाय तो नीलादि संतानोंमें भी एक प्रकारकी शक्ति न सिद्ध होगी, तथा च एक ही नील नीलाकार ज्ञान उत्पन्न कर सकेगा, संतानान्तरवर्ती नील नीलाकार ज्ञानका उत्पादक न हो सकेगा। अत: क्षणभेदसे सामर्थ्यभेद माननेमें जो दोष आते हैं, संतान-भेदसे सामर्थ्यभेद माननेपर भी वे ही दोष हो सकते हैं। अत: कहना पड़ेगा कि जैसे किन्हीं संतानोंके परस्परभिन्न रहनेपर भी उनमें समान सामर्थ्य होता है, तभी अनेक नीलसंतानोंसे समानरूपसे नीलाकारज्ञान उत्पन्न हो सकता है। अत: सौत्रान्तिकको मानना पड़ेगा कि अनेक नीलपीतादि संतानोंमें स्वकारणभेदसे ही सामर्थ्यभेद होता है। तथा च कोई नीलज्ञानका जनक होता है, कोई पीत ज्ञानका। इसी तरह आलयविज्ञानपतित क्षणोंके सम्बन्धमें भी व्यवस्था हो सकती है। किन्हीं क्षणोंमें ही उस प्रकारसे आसादित वासनारूप सामर्थ्यातिशय होता है, जिससे नीलादि प्रवृत्तविज्ञान होते हैं। सबमें वह सामर्थ्य नहीं होता। अत: न तो यही कहा जा सकता है कि हर एक आलयविज्ञानसे नीलज्ञान होता रहेगा और न यही कहा जा सकता है कि एक ही आलयविज्ञानसे एक ही नील ज्ञान होगा।
इस तरह वासनावैचित्र्यसे संज्ञानवैचित्र्य बन सकता है। अत: प्रलयसे अतिरिक्त बाह्यार्थके सद्भावमें कोई प्रमाण नहीं है। इस तरह आलयविज्ञान संतानपतित असंविदित पूर्वज्ञान ही वासना है। यद्यपि पहले शक्तिको वासना कहा गया था, पर यहाँ शक्ति-शक्तिमान‍्का अभेद समझकर पूर्व विज्ञानको ही वासना कहा गया है। वर्तमान ज्ञानसे विदित होता है, अनागत असिद्ध ही है। अत: पूर्वविज्ञानको ही असंविदित कहा गया है। वासनाके वैचित्र्यसे ही नीलादि अनुभवोंमें भी विचित्रता बनती है। पूर्वविज्ञानमें विचित्रता कैसे हुई इस शंकाका समाधान यही है कि अनादि संसारमें पूर्व-पूर्व नीलादि अनुभवोंसे ही उत्तरोत्तर विज्ञानोंमें वासनावैचित्र्य सम्पन्न होता है।
इस प्रकार पूर्व नीलादि अनुभवोंके वैचित्र्यसे वासनावैचित्र्य होता है और वासनावैचित्र्यसे अनुभवोंमें भी विचित्रता आती है। बीजांकुरके समान यह परम्परा भी अनादि ही है। अन्वय-व्यतिरेकसे भी यही मालूम पड़ता है कि वासनावैचित्र्य ही ज्ञान-वैचित्र्यका हेतु है; क्योंकि स्वप्नादिमें स्पष्ट है कि बाह्यार्थके बिना भी वासनाके कारण ही विचित्र ज्ञान उत्पन्न होते हैं। यह उभयसम्मत है, परंतु वासनाके बिना अर्थनिमित्तक ज्ञान-वैचित्र्य उभयसम्मत नहीं है। अत: बाह्यार्थका अस्तित्व नहीं सिद्ध होता। इस प्रकार विज्ञानवादीके बाह्यार्थापलापका श्रीव्यासशंकराचार्यादि वैदिक आचार्योंने निराकरण किया है—‘नाभाव उपलब्धे:।’
अर्थात् बाह्यार्थका अभाव नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसका उपलम्भ होता है।
यहाँ विज्ञानवादीसे प्रश्न हो सकता है कि क्या उपलम्भ न होनेसे बाह्यार्थका असत्त्व होता है या वह उपलम्भ ही बाह्यविषयक नहीं है। वाच्यार्थविषयक होनेपर भी बाधक प्रमाणके सद्भावसे बाह्यार्थाभाव है। प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं; क्योंकि घटादिका उपलम्भ सर्वजनप्रसिद्ध है। खम्भ, कुडॺ, घट-पटादि बाह्यविषयक प्रत्येक ज्ञानोंमें स्पष्टतया बाह्यार्थ भासित होते हैं। यदि कहा जाय कि उपलम्भ तो अवश्य है, किंतु उपलम्भका विषय बाह्य घटादि असत् है तो यह भी ठीक नहीं, कारण कि जैसे कोई भोजन तथा भोजनसाध्य तृप्तिका अनुभव करता हुआ भी कहे कि ‘न मैं भोजन करता हूँ, न तृप्त ही होता हूँ’ तो उसका कहना अनर्गल है। इसी तरह इन्द्रिय-सन्निकर्षसे बाह्यार्थका उपलम्भ करते हुए भी विज्ञानवादीका यह कथन कि मैं बाह्यार्थका अनुभव नहीं कर रहा हूँ, सर्वथा अनर्गल है। यदि वह कहे कि मैं यह नहीं कहता कि मैं बाह्यार्थका अनुभव नहीं करता हूँ, अपितु यह कहता हूँ कि उपलब्धिसे भिन्न ही बाह्यार्थ नहीं है, परंतु यह भी उसका कथन ठीक नहीं, यत: उपलब्धिबलसे ही बाह्यार्थ स्वीकृत होता है। उपलब्धिग्राहक साक्षीसे जैसे उपलब्धि गृहीत होती है, वैसे ही उसकी बाह्यविषयता भी गृहीत होती है। घटादिके ज्ञानके साथ घटादि बाह्यविषय भी गृहीत होते हैं, इसीलिये बाह्यार्थका प्रत्याख्यान करनेवाला भी कहता है कि अन्तर्ज्ञेयरूप है। वही बाह्यवत् प्रतीत होता है। वे लोग भी लोकप्रसिद्ध बाह्यार्थविषयिणी संवित‍्को समझते हुए ही उसके प्रत्याख्यानके लिये बाह्यार्थको बहिर्वत् (बाह्यतुल्य) कहते हैं, अन्यथा बहिर्वत् कहनेका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता।
अत्यन्त असत‍्के साथ उपमा-उपमेयभाव भी नहीं बन सकता। कोई यह नहीं कहता है कि विष्णुमित्र वन्ध्यापुत्रके तुल्य भासित होता है। इन सब दृष्टियोंसे अनुभवके अनुसार तत्त्व स्वीकार करनेवाले स्पष्टरूपसे कहते हैं कि घट-पटादि बाह्य अर्थ ही भासित होता है बहिर्वत् नहीं।
यदि तीसरा पक्ष कहा जाय अर्थात् बाह्यमें अर्थ असम्भव है, अत: बाह्यवत् कहा जाता है, परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि सम्भवासम्भवका निर्णय प्रमाणकी प्रवृत्ति अप्रवृत्तिसे ही होता है। सम्भवासम्भवके आधारपर प्रमाणकी प्रवृत्ति अप्रवृत्ति नहीं होती। जो वस्तु प्रत्यक्षादि किसी प्रमाणसे उपलब्ध होती है, वह सम्भव है। जो किसी प्रमाणसे भी विदित न हो, वह असम्भव है। यहाँ तो यथायोग्य प्रत्यक्षानुमान आगमादि सभी प्रमाणोंसे बाह्यार्थ उपलब्ध होता है। ऐसी स्थितिमें उसमें सम्भवासम्भव आदि विकल्पोंको स्थान ही नहीं है। जो कहा जाता है कि ज्ञानमें विषय सारूप्य होनेसे बाह्यार्थका भान होता है, यह भी ठीक नहीं, कारण कि यदि बाह्यार्थ विषय ही न हो तो ज्ञानसे विषय सारूप्य भी क्या होगा? विषय तो ‘इदन्ता’ एवं बाह्यरूपसे ही उपलब्ध होता है, फिर उसका अपलाप कैसे किया जा सकता है।
सार यह है कि यद्यपि घट-पटादि स्थूलरूपमें भासित होते हैं, परम सूक्ष्ममें नहीं। नाना दिशाओं एवं देशोंमें व्यापी होना ही अर्थकी स्थूलता है, अर्थात् युगपद्भिन्न देशव्यापित्व या भिन्न दिग्व्यापित्व ही वस्तुकी स्थूलता है। तथा च एकदिग्देशमें अर्थका आवरण और अन्य दिग्देशमें अनावरणरूप विरुद्धधर्मयोगसे एक ही स्थूलवस्तुमें भेदकी प्रसक्ति होती है, परंतु यदि वस्तु ज्ञानाकार ही हो तो उपर्युक्त दोष प्रसक्त नहीं होता। कारण ज्ञानका सदा अनावरण ही रहता है। जिस समय जिस रूपमें जितनी वस्तु दिखती है, वह उतनी है ही; क्योंकि विज्ञानसे भिन्न वह है ही नहीं, परंतु यदि वस्तु बाह्य है तो वह सर्वात्मना कभी गृहीत हो ही नहीं सकता। हाथमें रखे हुए भी आमलकका अधोभाग नहीं दिखायी पड़ता। इस तरह एक ही वस्तुका कोई अंश दृष्टिगोचर होता है, कोई नहीं। इस दर्शन-अदर्शनसे उसे आवृत्त-अनावृत दोनों ही कहना पड़ेगा, तथा च विरुद्ध धर्मके अध्याससे एक ही वस्तुमें भेद प्रसक्त होगा।
विज्ञानवादमें यह दोष नहीं होता, कारण कि विज्ञानमें जितना आकार भासित होता है, उतनी ही वह वस्तु है। उनके यहाँ यदृष्ट आवृत पदार्थ है ही नहीं, तथापि विज्ञानवादीका उपर्युक्त कथन ठीक नहीं, कारण कि इस प्रकारका दोष तो उसके मतमें भी अपरिहार्य ही होगा। भले ही वस्तुका ज्ञानाकार मान लेनेसे उसमें अवभास-अनवभासरूप विरुद्ध धर्मका प्रसंग न हो, परंतु एक ज्ञानसे प्रकाशित अनेक तन्तु देशोंमें रहनेवाले चित्रपटमें तद्देशत्व अतद्देशत्व रूपविरुद्ध धर्म देखा ही जाता है। प्रदेशभेदसे उसीमें कम्प और अकम्प भी देखते हैं। रक्तत्व-अरक्तत्वकी उपलब्धि भी उसीमें होती है। इस प्रकार पटको ज्ञानाकार मान लें तो भी विरुद्धधर्मवत्ता तथा भेदप्रसक्ति समान ही है, उसका निवारण विज्ञानवादीके लिये अशक्य ही है।
अर्थ और ज्ञानका अभेद माना जाय तो और भी अनेक दोष प्रसक्त होंगे, जैसे अवयवी अवयवोंसे भिन्न है या अभिन्न? यदि भिन्न है तो भी अवयवी समस्त अवयवोंमें रहता है या प्रत्येक अवयवोंमें। यदि प्रत्येक अवयवोंमें तो भी सम्पूर्णरूपसे रहता है या एक देशसे। यदि समस्त अवयवोंमें अवयवी रहता है तो अवयवीकी उपलब्धि न होनी चाहिये। कारण कि समस्त अवयवोंकी उपलब्धिसे ही अवयवीकी उपलब्धि हो सकती है। सर्वावयव सन्निकर्ष न होनेसे जब सब अवयवोंका उपलम्भ नहीं होता तो अवयवीकी उपलब्धि कैसे होगी। जैसे अनेक आश्रयोंमें रहनेवाला बहुत्व किसी एक आश्रयके ग्रहणसे नहीं गृहीत होता। इसी प्रकार सहस्र तन्तुओंमें रहनेवाला पट कुछ तन्तुओंके ही ग्रहणसे कैसे गृहीत होगा। यदि कहा जाय कि पट अपने अवयवोंद्वारा आरम्भक अवयव तन्तुओंमें रहता है तो आरम्भक अवयवोंसे भिन्न पटके पृथक् अवयव मानने पड़ेंगे। इस तरह अनवस्था भी होगी। उन अवयवोंमें भी वर्तनेके लिये पटको अन्य और अवयव अपेक्षित होंगे।
यदि प्रत्येक अवयवमें अवयवी माना जाय तो एक जगह व्यापार होनेपर अन्यत्र अव्यापार प्रसंग होगा; क्योंकि जिस समय देवदत्त काशीमें वर्तमान रहता है, उसी समय काश्मीरमें सन्निहित नहीं रहता। कोई परिच्छिन्न वस्तु अगर एक समयमें ही अनेक स्थानोंमें सन्निहित हो तो उसे एक नहीं, अपितु अनेक समझना चाहिये। इस स्थितिमें यदि प्रत्येक अवयवोंमें अवयवी माना जाय तो अनेकत्वापत्ति होगी। फिर एक अवयववर्ती पटके व्यापृत होनेपर भी अन्यावयववर्ती पटको अव्यापृत ही रहना चाहिये।
यदि कहा जाय कि जैसे गोत्व प्रत्येक गो व्यक्तिमें समाप्त होता है, वैसे ही प्रत्येक अवयवोंमें अवयवी परिसमाप्त हो जाता है तो यह ठीक नहीं, कारण कि जैसे गोत्व प्रति व्यक्तिमें प्रत्यक्ष उपलब्ध होता है, वैसे ही अवयवी प्रत्येक अवयवोंमें प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं होता। यदि प्रत्येक अवयवमें पूरा अवयवी मान लिया जाय तो शृंगसे भी स्तनका कार्य होना चाहिये, परंतु ऐसा होता नहीं। इसी तरह यदि कहा जाय कि एक अणु दूसरे अणुसे सर्वात्मना संयुक्त होता है तो उपचय नहीं होगा, यदि एक देशसे उनका मिलना माना जाय तो उनमें सावयवापत्ति होगी। कल्पित प्रदेश तो मिथ्या होनेसे अकिंचित्कर ही होंगे। जो रूपादिमान् होते हैं, वे परम कारणकी अपेक्षा स्थूल एवं अनित्य होते हैं, जैसे तन्तुकी अपेक्षा पट और अंशुओंकी अपेक्षा तन्तु स्थूल होते हैं, उसी तरह परमाणुओंको स्थूल और अनित्य होना चाहिये। पृथिव्यादि परमाणुओंमें यदि गन्धादि गुणोंका उपचय माना जाय तो परमाणुओंकी मूर्तियोंका उपचय होगा। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श—इन चार गुणोंसे युक्त होनेके कारण पृथ्वी परमाणुको स्थूल होना चाहिये, साथ ही वायुमें केवल स्पर्श गुण होनेके कारण उसमें सूक्ष्मता प्राप्त होगी, इस प्रकार परमाणुओंमें भी तारतम्य होगा।
यदि परमाणुओंमें गुणोपचय न माना जाय तो परमाणुकार्य पृथिव्यादिमें भी गुणोपचय नहीं दीखना चाहिये। यदि परमाणुको निरंश माना जाय तो द्वॺणुकादिमें स्थूलता न बन सकेगी। यदि वह सांश हो गया तो उसमें अनित्यता आदि भी होगी इत्यादि जो दोष वैशेषिकोंके मतमें लागू होते हैं, वे सब सौत्रान्तिक एवं विज्ञानवादी बौद्धोंके यहाँ भी लागू होंगे। जगत‍्को अनिवर्चनीय माननेवाले वेदान्तीके लिये तो वस्तुओंका विचारासहत्व भूषण ही है। किंतु बौद्धोंके यहाँ यह नहीं कहा जा सकता।
बाह्य अस्तित्ववादी जैसे पदार्थोंको बाह्य मानता है, उसी तरह विज्ञानवादी उन सभी पदार्थोंको अन्त:सत्य मानता है। यदि आन्तर पदार्थ सत्य हैं तो जैसे बाह्यपदार्थोंमें स्थौल्य आदि असम्भव हैं, वैसे ही आन्तर पदार्थोंमें भी स्थौल्य आदि असम्भव ही होंगे, ऐसी स्थितिमें वैशेषिकोंके पक्षमें कहे गये सभी दोष विज्ञानवादमें भी लागू होंगे।
यदि कहा जाय कि ज्ञानसे अभिन्न अर्थ माननेपर एक बुद्धिभासित पटमें तद्देशत्व अतद्देशत्वादि विरुद्धधर्म संसर्ग प्रसक्त न होंगे; क्योंकि ज्ञानके विषय परमाणु ही होंगे, उनमें तद्देशत्व-अतद्देशत्वादिका कोई प्रसंग ही नहीं होगा। परंतु यह भी कथन ठीक नहीं है; कारण कि यहाँ विचारना होगा कि ज्ञान-ज्ञेयका अभेद क्या है। ज्ञान ज्ञेयमात्र है या ज्ञेय ज्ञानमात्र है। पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि यदि अनेक नीलपरमाणुओंका आलम्बन करनेवाला ज्ञान ज्ञेयमात्र है तो ज्ञेय नानात्वके समान ही एक नीलज्ञानमें भी नानात्वापत्ति होगी। यदि ज्ञेय ज्ञानमात्र माना जाय तो आकारोंके ज्ञानसे अभेद होनेसे अनेक आकारोंमें एकत्वापत्ति दोष होगा।
यह भी नहीं कहा जा सकता है कि जितने आकार हैं, उतने ही ज्ञान हैं; क्योंकि इस तरह नानापरमाणुओंको आलम्बन करनेवाले अनेक ज्ञानोंके परस्पर वार्तानभिज्ञ होनेसे उनमें स्थूल वस्तुका अनुभव असम्भव ही होगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि एक-एक ज्ञानसे संगृहीत नाना परमाणुओंका परामर्शरूप एक विकल्प ज्ञान ही स्थूलालम्बन है; क्योंकि वह ज्ञान भी आकार ही होगा। उसके आकार नाना परमाणुओंका भी ज्ञानसे अभेद ही होगा। यदि ज्ञान ज्ञेयमात्र होगा तो ज्ञेयभेदसे ज्ञानमें भेदापत्ति होगी। यदि आकार ज्ञानमात्र होगा तो भी आकारोंमें एकत्वापत्ति होगी, इसलिये स्थूलालम्बन एक ज्ञान असम्भव ही होगा! जैसा कि धर्मकीर्तिका कहना है कि—
तस्मान्नार्थे न च ज्ञाने स्थूलाभासस्तदात्मन:।
एकत्वं प्रतिषिद्धत्वाद‍्बहुष्वपि न सम्भव:॥
अर्थात् वृत्ति विकल्पादि पूर्वोक्त तर्कोंसे बाह्य परमाणुसमूहात्मक तथा ज्ञानात्मक आन्तरविषय माना जाय, तब भी स्थूलाभास प्रत्यय नहीं बन सकता; क्योंकि पूर्ववर्णित पद्धतिसे ही नाना परमाणुओंका आलम्बन करनेवाले एक ज्ञानमें जैसे स्थूलविषयता नहीं बन सकती, उसी तरह परमाणुगोचर नाना ज्ञान हो तो परस्पर वार्तानभिज्ञ होनेके कारण स्थूलाभास प्रत्यय नहीं हो सकता। अत: ज्ञानाकार स्थूलताके समर्थन करनेवाले विज्ञानवादीको भी प्रमाणकी प्रवृत्ति एवं अप्रवृत्तिके आधारपर ही सम्भव-असम्भवकी व्यवस्था माननी पड़ेगी। तथा च प्रमाण-प्रवृत्तिबलसे ही ज्ञानभिन्न इदन्तास्पद बाह्यार्थका अपह्नव नहीं किया जा सकता। जो ज्ञानकी प्रतिविषय व्यवस्थाके लिये ज्ञानमें विषयसारूप्य माना जाता है, उससे भी विषयका अपलाप नहीं हो सकता; क्योंकि यदि अर्थ है ही नहीं तो ज्ञानमें किसकी सरूपता होगी? और विषय न होनेपर प्रतिविषय-ज्ञान-व्यवस्थाका भी क्या अर्थ रह जाता है।
सुस्पष्टरूपसे बाह्यार्थका उपलम्भ होता है, अत: उसका अस्तित्व मानना अनिवार्य है। सहोपलम्भ नियमपर भी यह विचारणीय है कि क्या ज्ञान और अर्थका साहित्येन (साथ-साथ) उपलम्भ ही होना सहोपलम्भ है? यदि हाँ, तो सहोपलम्भ हेतुविरुद्ध है, इसके द्वारा अभेदकी सिद्धि नहीं हो सकेगी। साहित्येन उपलम्भ तभी बन सकता है, जब ज्ञान और अर्थ दो वस्तु हों। अत: भेदगर्भित हेतुसे अभेदसिद्धि असम्भव है। साहित्य अभेदविरुद्ध भेदव्याप्य होता है। जहाँ साहित्य होगा, वहाँ भेदका होना अनिवार्य होता है। यदि एकोपलम्भ नियम अर्थात् एक उपलम्भ से ज्ञान और अर्थका ग्रहण होना ही सहोपलम्भ है तो यह भी संगत नहीं है; क्योंकि सहोपलम्भमें ‘सह’ शब्द एकत्वका वाचक नहीं है, फिर सहोपलम्भका एकोपलम्भ कैसे हो जायगा? यदि कहा जाय कि अर्थैकोपलम्भ ही हेतु समझ लेना चाहिये, फिर भी यह विचारणीय होगा कि एकत्वेन उपलम्भ एकोपलम्भ है अथवा ज्ञान और अर्थका एक उपलम्भ होना ही एकोपलम्भ है? पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि ज्ञान और अर्थका एकत्वेन ग्रहण नहीं होता, ज्ञान आन्तररूपसे गृहीत होता है और अर्थ बाह्यरूपसे। आगे बताया जायगा कि कहीं ज्ञानका नानात्व होनेपर भी विषयका एकत्व रहता है, कहीं विषय नानात्व रहनेपर भी ज्ञानका एकत्व रहता है, एकत्वेन उपलम्भ कहाँ है!
दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि वह तो उपायोपेयभावके कारण उत्पन्न हो जाता है, उससे अभेदकी सिद्धि नहीं हो सकती। अतएव सहोपलम्भ नियम भी ज्ञान और विषयके उपायोपेयभावके कारण उपपन्न है, अभेदके कारण नहीं। जिस प्रकार मनुष्योंको सभी बुद्धिबोध्य चाक्षुषरूपादि पदार्थ प्रमाके रूपसे अनुबुद्धि ही गृहीत होते हैं, प्रमाके साथ ही नील-पीतादिरूपका उपलम्भ होता है तो भी इस सहोपलम्भसे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रमा और रूप अभिन्न हैं, किंतु यही कहना पड़ेगा कि प्रमा रूपोपलम्भका उपाय है। इसलिये सहोपलम्भ नियम होता है, इसी तरह अर्थोपलम्भका आत्मसाक्षिक अनुभव ही उपाय है। इसलिये ज्ञेय-ज्ञातका सहोपलम्भ नियम होता है, इस तरह सहोपलम्भ नियम अभेदका साधक नहीं होता। जहाँपर घट-पटादि अनेक पदार्थ एक ज्ञानगोचर होते हैं, वहाँ सभी समझदार समझते हैं कि ज्ञेय अर्थका भेद है और ज्ञानका अभेद होता है। यदि ज्ञान और ज्ञेयका अभेद ही हो तो ज्ञानके एक होनेसे विषयको भी एक होना चाहिये। वैसे भी घटज्ञान, पटज्ञान आदिमें घट-पट आदि विशेषणोंका ही भेद है, विशेष ज्ञान तो एक ही है।
जैसे ‘शुक्ल गौ, कृष्ण गौ’ इत्यादि स्थलोंमें गोत्वका अभेद रहनेपर भी कृष्णता-गौरता आदिका ही भेद रहता है। दोसे एकका, एकसे दोका भेद प्रसिद्ध ही है। इस तरह जैसे अनेक शुक्लता-कृष्णतासे एक गोत्वका भेद होता है, उसी तरह अनेक घट-पटादि विषयोंसे एक ज्ञानका भी भेद ही समझना चाहिये। इसलिये ज्ञान और ज्ञेयका भेद ही सम्यक् है। इसी तरह अर्थ अभेद रहनेपर भी ज्ञानमें भेद होता है। घटका दर्शन, घटका स्मरण आदि स्थलोंमें विशेष्य दर्शन एवं स्मरणमें भेद है, घट विशेषणका अभेद है। जैसे क्षीरगन्ध क्षीररस यहाँ विशेष्य गन्ध और रसका भेद है, विशेषण क्षीरका अभेद होता है, इस तरह भी ज्ञान-ज्ञेयका भेद सिद्ध होता है।
पूर्वोत्तरवर्ती दो विज्ञान स्वसंवेदनसे ही उपक्षीण हो जाते हैं। उनमें परस्पर ग्राह्य-ग्राहक भाव नहीं बन सकता। फिर भेद ही कैसे सिद्ध होगा अर्थात् स्वरूपमात्रमें पर्यवसित ज्ञान एक दूसरे ज्ञानको जान ही नहीं सकता, फिर जिन दोनोंका भेद होता है, वे ही जब अगृहीत हैं तो तद‍्गतभेद सुतरां असिद्ध ही होगा; क्योंकि भेदज्ञानके लिये अनुयोगी—प्रतियोगीका ज्ञान अपेक्षित होता है। इसी तरह सब क्षणिक हैं, सब शून्य हैं तथा सब अनात्मा हैं इत्यादि अनेक प्रतिज्ञाएँ, हेतुदृष्टान्त—ये सभी ज्ञानभेदसे ही साध्य हैं।
यही दशा स्वलक्षण, सामान्यलक्षण, वास्य-वासक, अविद्योपप्लव, सदसद्धर्म, बन्ध-मोक्षादि प्रतिज्ञाओंका भी है। अन्यसे व्यावृत्त अपना असाधारणरूप ही स्वलक्षण होता है। जो व्यावृत्त होता है और जिनसे व्यावृत्त होता है, उन सबका अनेक ज्ञानोंसे ही बोध सम्भव है। इसी तरह विधिरूप या अन्यापोह रूप सामान्य लक्षण भी अनेक ज्ञान-गम्य ही होता है। वास्य-वासकभाव भी अनेक ज्ञानसाध्य है। उत्तरज्ञानमें नीलाद्याकार समर्पण करनेकी उपयुक्त शक्ति पूर्वज्ञानमें होती है। अत: पूर्वज्ञान वासक है और उत्तरज्ञान वास्य होता है। अविद्योपप्लवमें वास्यवासकत्व हेतु है। अविद्योपप्लव सदसद्धर्मोंमें हेतु होता है। जैसे नीलादिसद्धर्म है, नर-विषाणादि असद्धर्म है।
अमूर्त सदसद्धर्म है; क्योंकि शशविषाणको अमूर्त कह सकते हैं। यही बात बौद्धकारिकामें कही गयी है—
अनादिवासनोद‍्भूतविकल्पपरिनिष्ठित:।
शब्दार्थस्त्रिविधो धर्मो भावाभावोभयाश्रय:॥
भाव यह है कि अनादिवासनाजन्य सविकल्प प्रत्यय स्वरूपज्ञानसे परिनिष्ठित अर्थात् विषयीकृत शब्दार्थ तीन प्रकारका होता है। जैसे भाव—नीलत्वादि, अभाव-नरविषाणत्वादि अभयाश्रय, अमूर्तत्वादि। इसी तरह मोक्षप्रतिज्ञा भी भेदसाध्य ही है। जो मुक्त होता है, जिससे मुक्त होता है, जिस साधनसे मुक्त होता है और जो प्रतिपादन करता है, ये सब अनेक ज्ञान-साध्य हैं।
पूर्वोक्त युक्तिसे जब ज्ञानभेद ही असिद्ध है, तब इन सबमें अपेक्षित भेद कैसे सिद्ध होगा? अत: अनेक अर्थोंका प्रतिसंधान करनेवाले एक प्रतिसन्धाता, प्रत्यभिज्ञाताके बिना यह असम्भव है। विज्ञानसे भिन्न उसका आलम्बन न होकर अगर स्वांश ही विज्ञानका आलम्बन हो तो उक्त व्यवस्था कथमपि न बन सकेगी। कर्म फलभाव एवं ज्ञान-ज्ञेयभाव भी भेदमें ही सम्भव होता है। अभिन्न ज्ञानमें ही ग्राह्य-ग्राहक भाव कैसे सम्भव होगा? छिदि क्रियाके द्वारा तद्भिन्न काष्ठ आदि छिन्न होता है, स्वयं छिदि ही छिदिसे छिन्न होती नहीं देखी जाती। इसी तरह पाक क्रिया ही नहीं पकती, अपितु पाक क्रियासे तण्डुल पकते हैं। उसी तरह यहाँ भी ज्ञान ही स्वांशसे ज्ञेय नहीं होता है; क्योंकि अपनेमें ही अपनी वृत्ति विरुद्ध है। जैसे पाकसे अतिरिक्त तण्डुल, छिदिसे पृथक् छेद्य काष्ठ होता है, वैसे ज्ञानसे अतिरिक्त ज्ञेय होता है। अत: ज्ञानज्ञेयका भेद ही है।
इसके अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है कि जब घटविज्ञान, पटविज्ञान आदि अनुभवोंके अनुसार जैसे विज्ञानको स्वीकार किया जाता है, वैसे घट-पटादि बाह्यार्थोंको अंगीकार क्यों न किया जाय? यदि कहा जाय कि विज्ञानका अनुभव होता है, तो उसी तरह बाह्यार्थ घटादिका भी अनुभव होता ही है। यदि कहा जाय कि विज्ञान प्रकाशात्मक होनेसे प्रदीपवत् स्वयं अनुभूत होता है। बाह्यार्थ इस प्रकार नहीं अनुभूत होता तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जैसे ‘अग्नि अपनेको जलाता है’, यह कहना अत्यन्त विरुद्ध है, वैसे विज्ञान अपनेको जानता है, प्रकाशित करता है, यह कहना भी अत्यन्त विरुद्ध है। यह कहा ही जा चुका है कि पाक अपनेको नहीं पकाता है। फिर बाह्यार्थ स्वव्यतिरिक्त विज्ञानसे प्रकाशित होता है, यह लोकप्रसिद्ध तथा अविरुद्ध ही है। अप्रसिद्ध एवं विरुद्ध बातको मानना और अविरुद्ध एवं लोकप्रसिद्ध बातको न मानना—यह विज्ञानवादी बौद्धोंका कैसा पाण्डित्य है? अत: यह कहना सर्वथा निराधार है कि विज्ञेयसे अभिन्न विज्ञान स्वयं ही अनुभूत होता है; क्योंकि स्वसे स्वक्रियाका होना विरुद्ध है।
फिर भी विज्ञानवादी बौद्ध कहते हैं कि ‘यदि विज्ञान स्वभिन्न विज्ञानसे ग्राह्य होगा तो वह विज्ञान भी अन्य विज्ञानसे ग्राह्य होगा और इसी तरह अन्य ज्ञान भी इस प्रकार अनवस्था दोष होगा। साथ ही प्रदीपके समान ही विज्ञान भी अवभासात्मक ही है। जैसे प्रदीपका प्रदीपान्तरसे प्रकाश नहीं होता; क्योंकि दोनों ही समानरूपसे अवभासात्मक हैं, वैसे एक ज्ञानका ज्ञानान्तर मानना भी व्यर्थ होगा; क्योंकि समान होनेसे उनमें ग्राह्य-ग्राहकभाव सम्भव नहीं होगा। इसी दृष्टिसे यदि ज्ञान स्वातिरिक्त अर्थको ग्रहण करेगा तो वह स्वयं अप्रत्यक्ष रहकर अर्थको प्रत्यक्ष न करा सकेगा। चक्षु इन्द्रियके समान स्वयं विलीन, अतएव अप्रत्यक्ष ज्ञान अर्थभेदमें प्राकटॺ आदि किसी भी विशेषताका आधान करनेमें समर्थ नहीं हो सकता। यदि चक्षुके समान अप्रकाशमान ही ज्ञान अर्थका बोधक होगा तो जैसे चक्षु ज्ञानोत्पादनद्वारा अर्थ प्रकाशक होता है, वैसे ही ज्ञान भी ज्ञानान्तरोत्पादनद्वारा वस्तुज्ञापक होगा। फिर इसी तरह ज्ञानजन्य ज्ञानकी भी ज्ञानान्तरोत्पादनद्वारा ही ज्ञापकता माननी होगी, तथा च अनवस्था दोष होगा। अत: कहना पड़ेगा कि ज्ञानकी प्रत्यक्षता ही अर्थप्रत्यक्षता है। ज्ञानको ज्ञानान्तरोत्पादनकी आवश्यकता नहीं होती। वह ज्ञान भी यदि अन्य ज्ञानसे प्रत्यक्ष होगा तो अनवस्था दोष होगा। यदि वह स्वयं अप्रत्यक्ष होगा तो उससे अर्थका प्रत्यक्ष कैसे होगा? इसीलिये कहा गया है कि—
‘अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टि: प्रसिद्धॺति।’
अर्थात् ज्ञानके अप्रत्यक्ष होनेपर अर्थज्ञान ही नहीं हो सकता है। यदि चक्षुके समान अप्रत्यक्ष ज्ञानसे ही अर्थ प्रत्यक्ष माना जायगा, तब तो चक्षुके समान ज्ञानको अजन्य कहना पड़ेगा? इसलिये अनवस्था दोषकी अपेक्षा स्वात्मवृत्तिका मान लेना अच्छा है। जैसे प्रदीप प्रदीपान्तरकी अपेक्षा नहीं करता, वैसे ही ज्ञान भी ज्ञानान्तरकी अपेक्षा नहीं करता है।’
उपर्युक्त विज्ञानवादी बौद्धका मत असंगत है; क्योंकि विज्ञानग्राहक साक्षीको स्वीकार कर लेनेपर अनवस्था, आत्मवृत्तिता आदि समस्त दोषोंका निराकरण हो जाता है। साक्षी और ज्ञान दोनोंका चेतनत्व और जडत्वरूप स्वभाव विषम है। अत: उनमें उपलब्धृत्व तथा उपलभ्यत्व बन सकता है। साक्षी स्वयं सिद्ध होनेसे सर्वथा अप्रत्याख्येय है। ठीक है कि अप्रत्यक्ष ज्ञानसे अर्थप्रकाश नहीं बन सकता; परंतु अन्त:करण वृत्तिरूप ज्ञानका साक्षीके द्वारा प्रकाश मान्य है। तथा च आत्मचैतन्य साक्षीके द्वारा प्रकाशित वृतिरूप ज्ञानसे विषय प्रकाश सम्भव है। अन्त:करणावच्छिन्न चैतन्य ही उपलब्धा होता है। अन्त:करण और विषयाकार वृत्ति तथा विषय सभी उसीसे प्रकाशित होते हैं। उपलब्धा उपलब्धिके द्वारा विषयका उपलम्भ या प्रकाश करता है। इन्द्रिय सन्निकर्षसे अन्त:करण-विकार विशेष वृत्ति उत्पन्न होती है। वृत्तिके उत्पन्न होते ही वृत्ति और उसका विषय दोनों ही उपलब्धाको प्रत्यक्ष होते हैं। विषय अप्रकाश स्वभाव होनेके कारण प्रमाताके प्रति स्वप्रत्यक्षताके लिये अन्त:करण वृत्तिरूप अनुभवकी अपेक्षा रखता है, परंतु वह अनुभव स्वयं जड होते हुए भी स्वच्छ होनेके कारण चैतन्य प्रतिबिम्ब ग्रहण करनेके लिये दूसरे अनुभवकी अपेक्षा नहीं रखता। किंतु स्वच्छ होनेसे स्वयं चैतन्यके प्रतिबिम्बको ग्रहण कर लेता है और उसीसे स्वयं भी प्रकाशित हो जाता है। अतएव अनवस्था भी न होगी। ऐसा कभी नहीं होता कि अनुभव उत्पन्न हो और प्रमाताको उसका प्रत्यक्ष न हो। किंतु नीलादि अर्थ ऐसे नहीं होते। वे तो रहते हुए भी जबतक वृत्तिरूप अनुभव न हो, तबतक प्रमाताके लिये प्रत्यक्ष नहीं होते। अत: जैसे छेत्ता छिदि क्रियाके द्वारा छेद्य वृत्तादिपर व्याप्त होता है। अन्य छिदिद्वारा छिदिपर ही नहीं व्याप्त होता और यह भी नहीं कि छिदि ही छेत्री हो जाती हो, किंतु देवदत्तादि छेत्ता ही छिदिक्रियाके द्वारा छेद्यवृत्तादिपर व्याप्त होता है। इसी तरह पक्ता (पाचक) पाकके द्वारा पाक्य तण्डुलादिपर व्याप्त होता है, न कि पाकान्तरसे पाकपर व्याप्त होता है और न पाक ही पक्ता होता है। वैसे प्रमाता प्रमेय नीलादि पदार्थोंपर प्रमाद्वारा व्याप्त होता है, न कि प्रमान्तरसे प्रमाणपर व्याप्त होता है और न प्रमा प्रमात्री होती है। किंतु स्वत: ही प्रमाता प्रमापर व्यापक होता है।
कूटस्थ नित्य चैतन्य स्वरूप प्रमाताके लिये दूसरी प्रमा अपेक्षित नहीं होती है; क्योंकि प्रमाताको अपनी प्रमाके लिये यदि अन्य प्रमाताकी अपेक्षा होगी, तब तो अनवस्था दोष अनिवार्य ही रहेगा। अत: यही ठीक है कि विज्ञान ग्रहणमात्रके लिये विज्ञान साक्षी प्रमाता आवश्यक है। कूटस्थ नित्य चैतन्यरूप प्रमाताके ग्रहणकी आकांक्षा ही नहीं उठती; क्योंकि उसमें संशय-विपर्यय अज्ञान है ही नहीं; फिर इनके निवर्तक ज्ञानान्तरोंकी आवश्यकता ही क्या है? अन्यत्र संशय, विपर्यय करता हुआ भी प्रमाता अपने सम्बन्धमें संशयादि नहीं करता है। जैसे प्रकाशस्वरूप दीपक आदिमें ‘प्रकाशते’ यह व्यवहार स्वत: होता है। अप्रकाशरूप घटादिमें प्रकाश संसर्गसे ‘प्रकाशते’ यह व्यवहार होता है, वैसे नित्य चैतन्य परम प्रकाशस्वरूप आत्मामें ‘प्रकाशते’ यह व्यवहार स्वत: होता है। तद्भिन्न जडोंमें आत्माके सम्बन्धसे ‘प्रकाशते’ ऐसा व्यवहार होता है। आत्मा और अनात्माका आध्यात्मिक ही सम्बन्ध होता है। उसी सम्बन्धके लिये वृत्तिकी आवश्यकता होती है। कारण साक्षी और वृत्तिरूप साक्षी सम नहीं।
जो कहा जाता है—ज्ञान-ज्ञान सम होनेसे दो दीपकोंके समान दो ज्ञानोंमें प्रकाश्य-प्रकाशकभाव नहीं बन सकेगा, उसका भी समाधान इसीसे हो जाता है। कारण साक्षी और वृत्तिरूप प्रत्यय सम नहीं है; किंतु एक जड है, दूसरा चित् है। अत: अवभास्य-अवभासक बननेमें कोई बाधा नहीं है। भले ही सम होनेसे ज्ञानोंमें परस्पर ग्राह्य-ग्राहकभाव न बनें, परंतु ज्ञाता और ज्ञानमें वैषम्य होनेसे ग्राह्य-ग्राहकभाव सम्भव है ही। हाँ, ज्ञानमें ग्राह्यता इसलिये नहीं है कि वह ग्राहकनिष्ठ क्रियाजन्य फलशाली नहीं है। ऐसी ग्राह्यता तो बाह्यार्थमें ही होती है। वही प्रमाताकी प्रमाक्रियासे जनितफल (प्राकटॺ) शाली होता है; क्योंकि बाह्यार्थ जड होता है। अतएव वह स्वाकार वृत्ति प्रतिबिम्बित चैतन्यसे प्रकाशित होता है। यद्यपि वृत्ति भी जड ही है, तथापि वृत्ति तो उत्पन्न होते ही चैतन्य प्रतिबिम्बसे युक्त ही रहती है। अत: वहाँ प्रतिबिम्बस्वरूप फलान्तर व्यर्थ ही है।
यही वार्तिककारका कहना है कि जैसे आकाश वस्तुके स्वभावानुसार कुम्भ उत्पन्न होते ही आकाशसे पूर्ण होता है, वैसे वृत्तिरूप ज्ञान उत्पन्न होते ही स्वाभाविक आकाशकल्प साक्षी चैतन्यसे पूर्ण रहता है। इसीलिये ज्ञानबुद्धि परिणाम भूतज्ञानसे नहीं ज्ञात होता है, किंतु उसमें प्रमाताके प्रति स्वत:सिद्ध चित्प्रतिबिम्बरूप प्राकटॺ होता है। इसलिये उनकी ग्राह्यता बन जाती है। इसीलिये कहा गया है—‘न संविदर्यते फलत्वात्’ अर्थात् संविद् स्वयं फल है, अत: वह अन्त:करण वृत्तिरूपज्ञानसे नहीं जानी जाती है। यद्यपि बाह्यार्थ भी प्रमाताके प्रतिग्राह्य हैं, तथापि वृत्तिरूप संविद्के रहनेपर ही बाह्यार्थ प्रकट होता है। साथ ही संविद् भी प्रकट होती है। अर्थात् अविद्यावच्छिन्न जीव ही साक्षी है, वह व्यापक होनेसे विषय प्रदेशमें भी रहता है। अत: साक्षीका जैसे ज्ञानसे सम्बन्ध है, वैसे ही विषयसे भी सम्बन्ध है ही, तथापि अन्त:करणावच्छिन्न साक्षी अनावृत रहता है, परंतु विषयावच्छिन्न साक्षी आवृत रहता है। इसीलिये उसमें आवरण-भंगके लिये वृत्तिकी अपेक्षा रहती है। अतएव बाह्यार्थ तभी साक्षिरूप अनुभवसे प्रकट होता है, जब कि विषयाकारान्त:करण वृत्तिरूप संविद् उत्पन्न होती है; क्योंकि उसी वृत्तिसे आवरणभंगद्वारा साक्षीका प्राकटॺ होता है, परंतु वह वृत्ति तो स्वप्रतिबिम्बित साक्षिस्वरूप अनुभवसे ही प्रकट होती है।
निष्कर्ष यह है कि साक्षिस्वरूप अनुभव यद्यपि सर्वव्यापी है तो भी अविद्यासे आवृत होनेके कारण वह प्रकट नहीं होता। जैसे निर्मल दर्पणमें सुख प्रतिबिम्बित होता है, वैसे भास्वर स्वभाववाले अन्त:करणमें ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। अन्त:करण वृत्ति भी भास्वर ही है, अत: विषयाकार वृत्तिपर भी स्वभावसे ही अभिव्यक्त होता है।
इसीलिये वृत्ति भी स्वभावत: प्रकट होती है, परंतु बाह्यार्थ अन्त:करणसे व्यवहित रहता है, अत: स्वभावसे ही उसमें चैतन्यके अभिव्यंजन करनेकी क्षमता नहीं रहती है। यह देखा ही जाता है कि सम्बन्ध समान रहनेपर भी कोई व्यंजक होता है और कोई नहीं होता है। जैसे चाक्षुषी प्रमाके साथ समान सम्बन्ध रहनेपर भी वह रूपादिका प्रकाश करती है, वायु आदिका प्रकाश नहीं करती। घट और दर्पणका मुखसन्निधान समानरूपसे रहनेपर भी घटपर मुखका प्रतिबिम्ब व्यक्त नहीं होता, दर्पणपर प्रतिबिम्ब व्यक्त होता है। ठीक उसी तरह अन्त:करण और तत्परिणामभेद वृत्तिपर साक्षि-चैतन्यकी अभिव्यक्ति होती है, परंतु बाह्यार्थ घटादिपर उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। अन्त:करण और वृत्तिका अभिव्यक्त नित्य साक्षि-चैतन्यसे साक्षात् प्रकाश होता है, परंतु अर्थका स्वाकार वृत्ति व्यंग्य चैतन्यसे प्रकाश होता है। इसी अभिप्रायसे कहा जाता है कि ज्ञान स्वयं ज्ञानान्तरका कर्म हुए बिना ही प्रमाताके प्रति प्रत्यक्ष होता है।
कहा जा सकता है, जो प्रकाशमान होता है, वह स्वभिन्न प्रकाशसे ही प्रकाशमान होता है। जैसे ज्ञान और अर्थ अन्य (साक्षी)-से प्रकाशित होते हैं, इसी तरह साक्षीको भी किसी अन्यसे प्रकाशित होना चाहिये। तथा च साक्षी और ज्ञान दोनोंकी विषमता असिद्ध है।
किंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि साक्षी स्वयं सिद्ध होता है। उसका अपलाप करना विज्ञके लिये भी सम्भव नहीं है। साक्षीस्वरूप आत्माके सम्बन्धमें मैं हूँ या नहीं हूँ, इस प्रकारका संशय नहीं होता। ‘मैं नहीं हूँ’ इस प्रकारकी अभाव प्रमा या भ्रान्ति भी नहीं होती। यह तभी सम्भव है, जब कि साक्षी नित्य साक्षात्कार तथा अनागन्तुक प्रकाशस्वरूप हो। यह सुस्पष्ट है कि प्रमाता अन्य वस्तुओंमें सन्देह करता हुआ भी स्वयं असंदिग्ध रहता है। अन्य विषयोंमें विपर्यस्त भ्रान्त होते हुए भी स्वयं भ्रमका अविषय अविपर्यस्त रहता है, परोक्ष वस्तुओंका अनुमान करता हुआ भी स्वयं अपरोक्ष रहता है, अन्य वस्तुओंका स्मरण करता हुआ भी स्वयं अनुभवरूप होता है, ये सब बातें अन्याधीन प्रकाश होनेपर सम्भव नहीं होतीं। अन्याधीन प्रकाश होनेसे अनवस्था प्रसंग भी होगा ही।
निष्कर्ष यह है कि साक्षीको ज्ञेय सिद्ध करनेके लिये ‘आत्मा ज्ञेय: प्रकाशमानत्वाद् घटवत्’ (आत्मा ज्ञेय है, प्रकाशमान होनेसे घटकी तरह) यह अनुमान उपस्थित किया जाता है। परंतु इस अनुमानके लिये ‘जो प्रकाशमान होता है, वह वेद्य होता है’ यह व्याप्ति माननी पड़ेगी। इस सम्बन्धमें प्रश्न होगा कि व्याप्तिग्राहिका (व्याप्तिको ग्रहण करनेवाली) संवित् स्वसम्बन्धमें प्रकाशमान होती है या नहीं? यदि प्रकाशमान होती है तो कर्म (विषय) रूपसे अथवा स्वप्रकाशरूप (अन्य संविद्की अपेक्षा न करके स्वव्यवहार हेतुरूप)-से? पहला पक्ष संगत नहीं हो सकता; क्योंकि स्वात्मवृत्तिताका विरोध होता है, उसी संविद्का वही संविद् विषय हो यह नहीं बन सकता। अन्तिम पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि यदि व्याप्तिग्राहिका संविद् संविदन्तर निरपेक्ष स्वव्यवहारमें हेतु है (स्वप्रकाश है) तो व्याप्तिग्राहिका संविद‍्में ही व्याप्तिका व्यभिचार होगा। कारण उसमें प्रकाशमानता रहनेपर भी वेधता नहीं।
यदि व्याप्तिग्राहिका संविद् प्रकाशमान नहीं होती तो इसी संविद्के विशेषका अवभास नहीं हुआ, तब तो इस संविद‍्में सकल विशेषोपसंहारवती व्याप्ति कैसे स्फुरित होगी? क्योंकि यावत् हेत्वाश्रयवर्ति साध्य समानाधिकरण ही व्याप्ति होती है। यदि सकलविशेषोपसंहारवती व्याप्तिका स्फुरण न होगा तो अनुमान क्या होगा? यदि संवित‍्का स्वत: स्फुरण मान्य है, तब भी व्याप्ति व्यभिचार होनेसे अनुमानका उदय कैसे होगा? तथा उक्त अनुमानसे आत्मा या साक्षीकी ज्ञेयता नहीं सिद्ध हो सकती। ‘अज्ञेयत्वे सति प्रकाशमानता’ ही स्वप्रकाशता है (यहाँ ज्ञेयताका तात्पर्य अपरोक्ष ज्ञान विषयतासे है। तथा च अनुमानद्वारा आत्माके ज्ञेय होनेपर भी सिद्ध साधनता नहीं) जो ज्ञानका अगोचर होकर प्रकाशमान हो, वह स्वप्रकाश होता है। प्रकाशमानता या भासमानता भी भानविषमता नहीं है, किंतु व्यावहारिक बाधरहित ‘भासते’ इत्याकारक शब्दकी लक्ष्यता ही है। अर्थात् जिसका बाध नहीं होता है, ऐसे ‘प्रकाशते’ इस शब्दका जो लक्ष्य है, वही भासमानता है।
वेदान्तसे ज्ञेय होनेपर भी स्वप्रकाशतामें कोई विरोध नहीं होता; क्योंकि निरुपाधिक ब्रह्म वेदान्त महावाक्यजन्यवृत्तिका अविषय होनेपर भी वृत्तिके द्वारा आवरण भंग होनेमात्रसे भासमान होता है। वेदान्तवाक्यजन्य वृत्तिरूप उपाधिके द्वारा ही उसमें ज्ञेयता भी व्यवहृत होती है। अतएव जो कहा जाता है कि स्वप्रकाश ब्रह्म अनुमानज्ञेय होता है, यह भी नि:सार है; क्योंकि यहाँ भी अनुमितरूप उपाधि रहनेसे ही ब्रह्ममें अनुमान ज्ञेयता होती है।
नित्य साक्षात्कारता अनागन्तुक प्रकाशत्वमें हेतु है। संविद्से अभिन्नता ही साक्षात्कारता है। यहाँ संविद् शब्दका नित्यबोध अर्थ है, वृत्तिरूप ज्ञान नहीं। इन्द्रियजन्य प्रतीतित्व यहाँ साक्षात्कारता अभिप्रेत है। संविद‍्में संविदभिन्नता स्वत: होती है। अन्य विषय संविद‍्में अध्यस्त होनेसे संविदभिन्नता होती है। अधिष्ठानसत्तासे अतिरिक्त अध्यस्तकी सत्ताका न होना ही अध्यस्तकी संविद्से अभिन्नता है। इस सम्बन्धमें अनुमान भी है ‘आत्मा स्वयं प्रकाश: शश्वदपरोक्षत्वात्, यन्नैवं तन्नैवं यथा घट:।’ अर्थात् शश्वत् प्रत्यक्ष होनेसे आत्माको स्वयंप्रकाश मानना चाहिये। घटादि कभी अपरोक्ष होते हैं, शश्वदपरोक्ष नहीं होते। अत: वे स्वप्रकाश नहीं होते हैं। ‘आत्मा शश्वदपरोक्ष: शश्वदसन्दिग्धत्वात्, व्यतिरेके घटवत्’ अर्थात् आत्मा सदा अपरोक्ष ही है; क्योंकि उसमें सदा ही संशय-विपर्यय-अज्ञान-शून्यता रहती है। घटादि ऐसे नहीं हैं, अत: वे अपरोक्ष भी नहीं हैं (भले ही वेदान्तवेद्य अखण्डानन्द आकारसे आत्मा संदिग्ध होता है, अतएव वही शास्त्रका विषय होता है, तथापि ज्ञान, सुखादि साक्षिरूपसे आत्मा सदा ही असंदिग्ध रहता है)।
यहाँ अप्रसिद्ध विशेषता नहीं कही जा सकती है अर्थात् स्वप्रकाशत्वरूप साध्य अप्रसिद्ध है, यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि निम्नोक्त अनुमानसे स्वप्रकाशता प्रसिद्ध हो जाती है। ‘अयं घट:, एतदन्यज्ञेयत्वरहित-भासमानान्य:, द्रव्यत्वाद् घटवत्।’ यहाँ ‘अयं घट:’ पक्ष है। यह यद्यपि ज्ञेय है, तथापि यह पक्ष ही है, अत: इसमें पक्षान्यत्व नहीं है। अतएव यह पक्षान्यत्वविशिष्ट ज्ञेयत्व शून्य ही है और भासमान भी है। एतदन्यत्व विशिष्ट ज्ञेयत्वशून्य भासमान है, उससे अन्य पट है। इस तरह दृष्टान्तसे साध्य प्रसिद्ध हुआ। पक्षसे अन्यत्वेन विशेषित जो ज्ञेयत्व होता है, उस ज्ञेयत्वसे रहित एवं भासमानसे अन्यता साध्य है, यह पटमें है। पक्षभूत घट ज्ञेय होनेपर भी पक्षान्यत्वविशिष्ट ज्ञेयत्वरहित है और भासमान भी है। उससे अन्य पट है। उसी तरह ‘अयं घट:’ इस पक्षमें भी साध्य-सिद्धि अनुमानके द्वारा करनी है। पक्षमें अनुमान बिना साध्यसिद्धि नहीं कही जा सकती; क्योंकि वह तो पक्षान्यत्वविशिष्ट ज्ञेयत्वशून्य भासमान ही है, भासमानसे अन्य नहीं है, किंतु पक्षसे अन्य ही कोई वस्तु ऐसी होनी चाहिये, जो पक्षसे अन्य भी हो, ज्ञेयत्वरहित भी हो, भासमान भी हो। जब उस भासमानसे अन्य पक्ष होगा, तब पक्षान्यत्वविशिष्ट ज्ञेयत्वशून्य भासमानान्यता पक्षमें आ सकेगी। पक्षसे अन्य घटादि प्रसिद्ध पदार्थोंमें ऐसा कोई नहीं है, जो पक्षान्यत्वविशिष्ट ज्ञेयत्वरहित भासमान हो; क्योंकि सभी भासमान पक्षान्यघटादि पक्षान्यत्व विशिष्ट ज्ञेयत्वयुक्त ही है। उपर्युक्त अनुमानसे जो इस प्रकारकी एतदन्यत्वविशिष्ट ज्ञेयत्वशून्य भासमान वस्तु सिद्ध होती है, वही स्वप्रकाश आत्मा है।
सुखादिका अनुभाविता साक्षी सर्वानुभवसिद्ध है। चार्वाक भी ‘अहं’ इस अनुभवका अपलाप नहीं करता है। किंतु शरीरको वह इसका विषय बतलाता है। कहा जा सकता है कि ‘स्वसत्ताके समय सुखादिमें भी सन्देह नहीं रहता है, फिर सुखादिको भी स्वप्रकाश क्यों न माना जाय,’ परंतु आत्मप्रकाशसे ही सुखका प्रकाश उत्पन्न हो सकता है। अत: आत्माकी स्वप्रकाशतासे भिन्न सुखकी स्वप्रकाशता नहीं मानी जाती है।
यदि आत्मामें नित्य साक्षात्कारता न होती तो कभी-न-कभी आत्मामें सन्देह होता, किंतु आत्मामें सन्देह कभी देखा नहीं जाता है, अत: आत्मामें नित्य साक्षात्कारता ही सिद्ध होती है। इसी तरह यह भी कहना संगत नहीं है कि ‘आत्मविषयक अन्य प्रत्यक्ष संविद् उत्पन्न होती है;’ क्योंकि उक्त रीतिसे अनवस्था प्रसंग होगा। अत: अनिच्छयापि बौद्धको आत्माकी स्वयं सिद्धता माननी पड़ेगी। पीछे कहा जा चुका है कि जिस तरह पाक स्वयं पक्ता नहीं होता, छिदिक्रिया स्वयं छेत्री नहीं होती, उसी तरह ज्ञान स्वयं ज्ञाता नहीं होता है।
विज्ञानवादी बौद्ध प्रमाताका अस्तित्व नहीं मानता है। कहता है जैसे—प्रदीप प्रदीपान्तर निरपेक्ष स्वयं प्रकाशित होता है, वैसे ही विज्ञानान्तर निरपेक्षविज्ञान स्वयं प्रकाशित होता है। विज्ञानवादी बौद्धके इस कथनका निष्कर्ष यह निकलता है कि विज्ञान प्रमाणागम्य है और उसका कोई अवगन्ता या जानकार नहीं है। यह कथन उसी तरहका है, जैसे कोई कहे कि ठोस शिलाके मध्यमें सहस्र दीप प्रकाश है। यह भी न प्रमाणगम्य है, न किसी जानकारको इसका अनुभव है। अर्थात् शिलाघनमध्यस्थ सहस्र दीप प्रकाश प्रमाणागम्य तथा ज्ञातृरहित होनेसे अमान्य होता है, वैसे ही विज्ञान प्रमाणागम्य तथा ज्ञातृशून्य होनेसे अमान्य ही होगा। यदि विज्ञान किसी ज्ञाताको भासमान नहीं हो तो उस स्वप्रकाशका विज्ञानसे क्या प्रयोजन है?
बौद्धोंकी ओरसे कहा जाता है कि ‘विज्ञान ही ज्ञाता है। विज्ञानवादी बौद्धोंका विज्ञान अनुभवरूप ही है। वही साक्षी भी है।’ किंतु यह कथन संगत नहीं है; क्योंकि जैसे नेत्ररूपी साधनसे युक्त अन्य ज्ञाताको ही प्रदीपादिका प्रकाश होता है, वैसे अन्य ज्ञाताको ही विज्ञानका प्रकाश होना युक्त है। जैसे दीप ग्राह्य है। वैसे ही बौद्ध मतमें विज्ञान भी ग्राह्य है। फिर भी बौद्धका कहना है कि जब वेदान्ती साक्षीको स्वयंसिद्ध मानता है तो स्वयंसिद्ध विज्ञान माननेमें क्या आपत्ति है?
वस्तुस्थिति यह है कि बौद्धके स्वयंसिद्ध विज्ञानको ही वेदान्तीने साक्षी नाम दे दिया है। तथा च नाममें ही विप्रतिपत्ति है, परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि बौद्ध विज्ञानकी उत्पत्ति और प्रध्वंस मानता है तथा विज्ञानकी अनेकता मानता है और वेदान्तीका साक्षी नित्य तथा एक, असंग एवं अनन्त है।
बौद्धका विज्ञान बुद्धिवृत्तिरूप ही है। उसकी उत्पत्ति, विनाश तथा अनेकता प्रसिद्ध ही है। घटादिके तुल्य ही उसकी अतिरिक्त साक्षिवेद्यता सिद्ध की जा चुकी है। जिस विज्ञानकी उत्पत्ति होती है, वह स्वयं फलरूप है, फिर स्वयं ज्ञाता कैसे बन सकता है? वही कर्ता, वही फल नहीं हो सकता है, वही पक्ता वही पाक नहीं होता, यह कहा जा चुका है। आजकल भी बौद्ध यही कहते हैं कि ‘विज्ञानवादीका विज्ञान नित्य विज्ञानस्वरूप आत्मा ही है और श्रीशंकराचार्यके समयमें भी कुछ बौद्धोंने ऐसा कहा था, किंतु यह सब बौद्धोंका अपसिद्धान्त ही है।’
जो कहा गया था कि स्वप्नादि प्रत्ययके तुल्य ही जागरित घटादि प्रत्यय भी बाह्यार्थके बिना ही उपपन्न हो जायँगे, वह भी ठीक नहीं; क्योंकि स्वप्नादि प्रत्ययोंका जागरित प्रत्ययसे महान् अन्तर है। स्वप्नादिका बाध होता है, परंतु जागरित प्रत्ययका बाध नहीं होता। बौद्ध मतानुसार जागरित प्रपंच किसी अधिष्ठानके अज्ञानका कार्य नहीं है, जो कि अधिष्ठान ज्ञानसे शुक्ति रजतके समान बाधित हो जाय। स्वप्नकी वस्तु प्रबोध होते ही बाधित हो जाती है। इसलिये जागनेपर प्रतिबुद्ध प्राणी कहता है ‘मैंने स्वप्नमें मिथ्या ही गज-रथादि देखा था। वस्तुत: गज-रथादि न थे। मेरा मन निद्रासे म्लान था। उसीसे ऐसी भ्रान्ति हुई थी।’ इसी तरह माया प्रत्ययका भी बाध होता है। यदि जागरित प्रत्यय भी बाधित हो तो वह स्वप्न प्रत्ययका बाधक नहीं हो सकता; क्योंकि जो स्वयं बाध्य है, वह बाधक कैसे हो जायगा? फिर तो स्वप्नप्रत्यय दृष्टान्त भी नहीं सिद्ध होगा। अत: स्वप्नप्रत्ययके दृष्टान्तसे जाग्रत् प्रत्ययकी निरालम्बनता नहीं सिद्ध की जा सकती है।
तथा ‘घटादिप्रत्ययो, निरालम्बन:, प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवत्।’ (घटादि प्रत्यय स्वप्नज्ञानके तुल्य ही ज्ञानत्व जातिमें होनेसे निरालम्बन-विषयशून्य है) यह अनुमान भी बाध्यत्वरूप उपाधिसे दूषित है। जहाँ निरालम्बनता है, वहाँ बाध्यता है, जैसे स्वप्नादिमें। प्रत्ययत्व जागरित प्रत्ययमें भी है, परंतु वहाँ बाध्यत्व नहीं है। इसलिये साध्यव्यापक तथा साधना व्यापकरूप उपाधिसे युक्त होनेके कारण उक्त अनुमान दूषित है। जहाँतक प्रमाता है, वहाँतक जाग्रत्प्रत्ययका बाधाभाव प्रमित ही है। साथ ही प्रमाणाजन्यत्व भी उपाधि है। अर्थात् स्वप्न प्रत्यय एक प्रकारकी स्मृति ही है, जो कि संस्कारमात्रसे उत्पन्न होती है। वह जाग्रत्प्रत्ययकी तरह प्रमाणजन्य नहीं होती। जाग्रत्प्रत्यय तो वर्तमान विषयेन्द्रिय सन्निकर्ष, लिंग, शब्द, सादृश्य, अन्यथानुपपत्ति, योग्यानुपलब्धिरूप प्रमाणोंसे उत्पन्न होते हैं। निद्राकालमें उपर्युक्त कोई सामग्री नहीं रहती है, केवल संस्कार ही हेतु रहते हैं। अत: संस्कारमात्रजन्य होनेके कारण स्वप्नादि प्रत्यय स्मृति हैं। वह स्मृति भी निद्रादि दोष-परीत होनेके कारण विपरीत हो जाती है। तभी तो अवर्तमान पिता आदिको वर्तमानरूपसे ग्रहण करती है। स्मृति और उपलब्धिमें भेद होता है। स्वप्न तो विपरीत स्मृति ही है। अत: जाग्रत् कालके प्रमाणजन्य प्रमारूप प्रत्ययोंसे स्वप्न प्रत्ययमें महान् भेद है। अत: स्वप्नप्रत्ययकी तरह जाग्रत्प्रत्यय निरालम्बन नहीं हो सकते। प्रमाणोंका स्वत: प्रामाण्य होता है। जाग्रत्प्रत्ययोंकी यथार्थता अनुभवसिद्ध है। अनुमानके द्वारा उनका अन्यथात्व नहीं सिद्ध किया जा सकता; क्योंकि अनुभवविरुद्ध अनुमान उत्पन्न ही नहीं हो सकता। यह नहीं कहा जा सकता कि स्वत: प्राप्त प्रामाण्यका अनुमानद्वारा अपोहन हो जायगा; क्योंकि अबाधित विषय होनेपर ही अनुमानका प्रामाण्य होता है। यहाँ तो प्रत्यक्ष बाध है। अत: अनुमान प्रमाजनक नहीं हो सकेगा। प्रत्यक्षके प्रामाण्यका अपवाद अनुमानसे नहीं हो सकता। अबाधित विषयता भी अनुमानोत्पादक सामग्रीसे ग्राह्य होनेसे प्रमाण होती है। यहाँ तो अनुमान सामग्री प्रत्यक्षसे अनुमानका विषय बाधित ही हो जाता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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