14.2 शास्त्रीय शासनविधान
सभी प्राणी अमृतस्वरूप परमेश्वरके ही पुत्र हैं—‘अमृतस्य पुत्रा:’ (श्वेता० उ० २।५) अर्थात् सभी देहादिभिन्न चेतन, अमल, सहज, सुखस्वरूप जीवात्मा स्वप्रकाश सच्चिदानन्द परमेश्वरके ही अंश हैं। जैसे महाकाशके अंश घटाकाश, अग्निके विस्फुल्लिंग, गंगाजलके तरंग आदि अंश हैं, वैसे ही अखण्डबोधस्वरूप परमेश्वरका बोधस्वरूप जीवात्मा अंश है। अत: सबकी सहज समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृता ही माननीय है। जैसे मलिन भूमिके सम्पर्कसे निर्मल जल मलिन हो जाता है, कतक, निर्मली आदि औषधके सम्पर्कसे पुन: शुद्ध हो जाता है, वैसे ही अविद्याश्रयकर्मके सम्पर्कसे जीवात्मा मलिन होता है तथा कर्मोपासना, ज्ञान आदिसे पुन: प्रसन्न-निर्मल-निष्कलंक हो जाता है। भ्रातृता, आत्मीयता तथा आत्मैक्यताके कारण सर्वजनहिताय-सर्वजनसुखाय राजनीति आवश्यक है।
न वै राज्यं न राजासीन्न च दण्डो न दाण्डिक:।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥
(महा० शांति० ५९।१४)
कृतयुगमें सभी तत्त्ववित्, धर्मनिष्ठ, विवेकी तथा सात्त्विक होते हैं। सब एक-दूसरेके पोषक, रक्षक, हितचिन्तक होते हैं। कोई किसीका शोषक नहीं होता। सब धर्मनियन्त्रित होकर परस्पर एक-दूसरेके पूरक बनते हैं। तामस, राजसभावकी वृद्धि, अधर्म-अनाचारके विस्तारसे सत्त्व एवं धर्मका ह्रास होता है। अत: मोहके प्रभावसे ब्रह्मात्मविज्ञान संकुचित होता है, काम-क्रोधका विस्तार होता है, तभी मात्स्यन्याय फैलता है। उस मात्स्यन्यायको रोककर सर्वसामंजस्य सर्वहित सम्पादनार्थ राज्य-व्यवस्था होती है। अहिंसा, सत्यादि धर्मका प्रतिष्ठापन, ब्रह्मविज्ञान-विस्तार और दण्डविधान—ये ही मात्स्यन्याय निरोधके मूल उपाय हैं, यह कहा जा चुका है। चाणक्यके अनुसार ‘सुखस्य मूलं धर्म:, धर्मस्य मूलमर्थ:, अर्थस्य मूलं राज्यम्, राज्यमूलमिन्द्रियजय:, इन्द्रियजयस्य मूलं विनय:, विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा’ (चाणक्य-सूत्र १—६)। सातिशय, निरतिशय—सर्वविधसुखका मूल धर्म है, परंतु धर्मका मूल अर्थ है। अर्थ रहनेपर ही धर्मानुष्ठान सम्भव होता है। अर्थका मूल राज्य है, राज्यका मूल इन्द्रियजय है, इन्द्रियजयका मूल विनय है, विनयका मूल वृद्धसेवा है। वृद्धोंकी सेवाका भी मूल विज्ञान है; इसलिये विज्ञानसम्पन्न होकर, जितात्मा होकर सर्वसुखार्थ प्रवृत्त होना आवश्यक है।
मनुके अनुसार—
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वत:॥
तत: स्वयम्भूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम्।
महाभूतादिवृत्तौजा: प्रादुरासीत् तमोनुद:॥
(मनु० १।५-६)
सम्पूर्ण जगत् सृष्टिके प्रथम नाम-रूपरहित, कल्पनातीत, अलक्षण, सर्वत: प्रसुप्त, तमोमय अर्थात् अनिर्वचनीय अज्ञान-विशिष्ट चिन्मात्र था। सर्वकारण परब्रह्म परमेश्वर स्वयम्भू भगवान् ही तमको अभिभूत करके इस अव्यक्त जगत्को व्यक्त करते हुए प्रादुर्भूत होते हैं। जैसे वसंत, ग्रीष्म आदि ऋतुओंके बदलनेपर ऋतुलिंग प्रकट होते हैं, उसी तरह प्राणी समयानुसार अपने-अपने कर्मोंको प्राप्त होते हैं। कर्मानुसार ही चराचर विश्वका उत्पादन भगवान् करते हैं—‘यथाकर्म तपोयोगात् सृष्टं स्थावरजङ्गमम्’ (मनु० १।४१)। कर्मानुसार ही विविध योनियोंमें प्राणियोंके जन्म होते हैं। कर्ममूलक सृष्टिका विस्तार वर्णाश्रमव्यवस्थाका प्रतिपादन करके मनु कहते हैं कि संसारमें अराजकता होनेपर सारी प्रजा घबड़ाकर भयसे इधर-उधर भागने लगी, तब उसकी (प्रजाकी) रक्षाके लिये प्रजापतिने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्र और कुबेर—इन आठ लोकपालोंके अंशसे राजाका निर्माण किया—
अराजके हि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुते भयात्।
रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत् प्रभु:॥
इन्द्रानिलयमार्काणामग्नेश्च वरुणस्य च।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वती:॥
(मनु० ७।३-४)
देवताओंके अंशसे उत्पन्न होनेके कारण ही राजा अपने तेजसे सब प्राणियोंको दबा लेता है। राजा बालक हो तो भी मनुष्य समझकर उसका अपमान नहीं करना चाहिये। उस राजाके लिये भगवान्ने सब प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले धर्मस्वरूप ब्रह्मतेजोमय दण्डका निर्माण किया। उस दण्डके भयसे ही स्थावरजंगम सभी प्राणी अपने पदार्थोंका उचित उपभोग कर पाते हैं तथा अपने कर्तव्यसे विचलित भी नहीं होते—
तस्य सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
भयाद् भोगाय कल्पन्ते स्वधर्मान्न चलन्ति च॥
(मनु० ७।१५)
दण्ड ही राजा, पुरुष, नेता, शासक और चारों आश्रमोंके धर्मका साक्षी है—
स राजा पुरुषो दण्ड: स नेता शासिता च स:।
चतुर्णामाश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिभू: स्मृत:॥
(मनु० ७।१७)
दण्ड ही सब प्रजाका शासक एवं रक्षक है। सबके सोनेपर दण्ड ही जागता है। विद्वानोंने दण्डको ही धर्म कहा है। विचारपूर्वक प्रयुक्त हुआ दण्ड प्रजाका अनुरंजन करनेवाला और अविचारित दण्ड प्रजाका विनाशक होता है। यदि राजा आलस्य छोड़कर दण्डका विधान न करे तो बलवान् प्राणी दुर्बलोंको वैसे ही पकाकर खा जायँ, जैसे लोग मछलियोंको भूनकर खा जाते हैं। कौवा पुरोडाश खाने लग जाय, कुत्ता हवि चाटने लग जाय—किसी पदार्थपर किसीका स्वत्व न रहे और छोटे बड़े तथा बड़े छोटे हो जायँ। सभी वर्ण दूषित हो जायँ, मर्यादाएँ भंग हो जायँ और सारे संसारमें उथल-पुथल मच जाय—
दण्ड: शास्ति प्रजा: सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्ड: सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधा:॥
समीक्ष्य स धृत: सम्यक् सर्वा रञ्जयति प्रजा:।
असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वत:॥
यदि न प्रणयेद् राजा दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रित:।
शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन् दुर्बलान् बलवत्तरा:॥
अद्यात्काक: पुरोडाशं श्वावलिह्याद् हविस्तथा।
स्वाम्यं च न स्यात् कस्मिंश्चित् प्रवर्तेताधरोत्तरम्॥
दुष्येयु: सर्ववर्णाश्च भिद्येरन् सर्वसेतव:।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद् दण्डस्य विभ्रमात्॥
(मनु० ७।१८—२१; २४)
राजा दण्डका ठीक-ठीक विधान करनेवाला, सत्यवादी, विचारपूर्वक काम करनेवाला, बुद्धिमान्, धर्म, अर्थ और कामका ज्ञाता होना चाहिये, ऐसा मनु आदि धर्मशास्त्रकारोंका मत है—
तस्याहु: सम्प्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम्।
समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम्॥
(मनु० ७।२६)
दण्ड बड़ा तेजस्वी है। अजितेन्द्रिय लोग ठीक-ठीक उसका विधान नहीं कर सकते। वह धर्मविचलित राजाको बन्धु-बान्धवोंसहित नष्ट कर देता है तथा दुर्ग, राज्य, स्थावर-जंगम जगत्, आकाशचारी देवगण और ऋषिगणको भी पीड़ित करता है। राजा या शासकको न्यायपूर्वक अपने राज्यकी प्रजाका पालन करना चाहिये। शत्रुओंको उग्र दण्ड देना चाहिये। मित्रोंके साथ छल-कपटका व्यवहार नहीं करना चाहिये। प्रेमीजनों और सज्जनोंके साथ सहिष्णुता रखनी चाहिये। ऐसा व्यवहार करनेवाला राजा भले ही कोषरहित हो, उसका यश ऐसा फैलता है, जैसे जलपर तैल-बिन्दु। राजाको चाहिये कि वह पवित्र विद्वान्, ब्राह्मण एवं वृद्धोंकी नित्य सेवा करे। ऐसा करनेसे राक्षस भी राजाका सम्मान करते हैं तथा विनय (जितेन्द्रियता, नम्रता) भी प्राप्त होती है। अविनय (उद्दण्डता)-से सुसमृद्ध राजा भी सपरिवार नष्ट हो जाते हैं और विनयसे जंगलमें रहनेवाले कोषविहीन राजा भी राज्य पा लेते हैं। शिकार, द्यूत, दिवास्वप्न, निन्दा, स्त्री, मद (नशा), नृत्य, गीत, वादित्र और व्यर्थ घूमना (हवाखोरी), इन दश कामज व्यसनों तथा चुगली, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, असूया (गुणोंमें भी दोषदृष्टि), दूसरेका धन छीन लेना, गाली-गलौज और मारपीट—इन आठ क्रोधज व्यसनोंसे तथा इन दोनोंके मूल लोभसे राजाको अत्यन्त बचना चाहिये। कामज व्यसनमें मदिरापान, द्यूत, स्त्री और मृगया—ये चार तथा क्रोधज व्यसनमें गाली-गलौज, मारपीट और दूसरेका धन छीन लेना ये तीन बहुत ही भयंकर हैं। इनसे तो सर्वथा बचना चाहिये।
अत्यन्त सुकर कर्म भी एक असहाय पुरुषद्वारा दुष्कर होता है। अत: राजाको शास्त्रज्ञानी, शूर, लब्धप्रतिष्ठ, कुलीन, सुपरीक्षित सात या आठ मन्त्री रखने चाहिये। सन्धि, विग्रह, सेना, खजाना, खेती, खान, रक्षा (बन्दोबस्त) आदिके विषयमें पृथक्-पृथक् प्रत्येककी राय जानकर विद्वान् ब्राह्मणके साथ विचारकर निर्णय करना चाहिये। राज्यका काम जितने लोगोंसे अच्छी तरहसे चल सके, उतने लोगोंको परीक्षा करके उपमन्त्री बनाना चाहिये। खान, चुँगी और कर वसूल करनेके लिये शूर, पवित्र, निर्लोभ लोगोंको और पापभीरु लोगोंको घर आदिके प्रबन्धसम्बन्धी काममें लगाना चाहिये। इसी तरह सर्वशास्त्र-विशारद इंगित आकार और चेष्टा जाननेवाले पवित्र कुशल कुलीनको दूत बनाना चाहिये। दूत अनुरक्त, पवित्र, चतुर, स्मृतिशाली, प्रतिभासम्पन्न, देश-काल-परिस्थितिका ज्ञाता, सुन्दर, निर्भीक और वाग्मी होना चाहिये।
सेनापतिके अधीन चतुरंगिणी सेना, सेनाके अधीन युद्ध तथा विनय सिखाना, राजाके अधीन खजाना और राज्य तथा दूतके अधीन सन्धि-विग्रह होते हैं। दो राजाओंमें मेल कराना या मिले हुए राजाओंको परस्पर लड़ा देना, यह दूतका काम है। कृषक जैसे खेतमेंसे घासको निकालकर धान्यकी रक्षा करता है, उसी तरह राजा दुष्टोंका निग्रहकर प्रजाकी रक्षा करे। जैसे शरीरको कष्ट देनेसे प्राणोंका क्षय होता है, उसी तरह राष्ट्रको पीड़ा पहुँचानेसे राजाके प्राणोंका क्षय होता है। जो राजा अज्ञानवश राष्ट्रको पीड़ा पहुँचाता है, वह अपने बन्धु-बान्धवोंसमेत जीवनसे भ्रष्ट हो जाता है।
राजाको लगानवसूली, नौकरोंका मासिक वेतन, मन्त्री आदिको बाहर भेजना, किसीको हानिकर काम करनेसे रोकना, किसी कामको कराना, मुकदमोंका निर्णय, अपराधियोंको दण्ड, पापियोंका प्रायश्चित्त, पाँच प्रकारके गुप्तचर, प्रजाका प्रेम या असंतोष और अन्य राजाओंके व्यवहार, इन बातोंपर भलीभाँति विचार करना चाहिये। मध्यम (अपने और शत्रुदेशके बीचका राजा)-का व्यवहार, विजिगीषु (अपनेको जीतनेके लिये आनेवाले राजा)-का कर्म तथा उदासीन और शत्रुकी कार्यवाहियोंपर पूरी दृष्टि रखनी चाहिये।
द्वादश राजन्य-मण्डलकी चार मूल-प्रकृतियाँ हैं—(१) मध्यस्थ, (२) विजिगीषु, (३) उदासीन और (४) शत्रु। अर्थात् इनके वशमें रहनेसे सभी राष्ट्र वशमें रहते हैं। आठ और प्रकृतियाँ हैं—मित्र, शत्रु-मित्र, मित्र-मित्र, अरि-मित्रमित्र, आक्रन्द, पार्ष्णिग्राह, आक्रन्दासार और पार्ष्णिग्राहासार। इन प्रत्येककी मन्त्री, राष्ट्र (प्रजा), दुर्ग, खजाना और शासन-विभाग—ये पाँच-पाँच प्रकृतियाँ होती हैं, इस तरह ६० प्रकृतियाँ हुईं और मूल १२ मिलकर सब ७२ हो गयीं। अपनी चारों ओरकी सीमाके राजा तथा उनके मित्रोंको शत्रु समझना चाहिये। उनसे आगेके राजाओंका अपना मित्र और उनसे भी आगेके राजाओंको उदासीन समझना चाहिये। इन सबको साम, दान, भेद और दण्ड—इन प्रत्येक उपायोंसे अथवा सभी उपायोंसे सबको अथवा अधिक-से-अधिक जितने बने रह सकें, उनको मित्र बनाये रखना चाहिये। यद्यपि आज परिस्थिति बदली हुई है तथापि रूपान्तरसे यह शत्रु-मित्रकी व्यवस्था आज भी अक्षुण्ण ही है।
सन्धि, विग्रह (लड़ाई), यान (चढ़ाई), आसन (किलेके अन्दर ही बन्द रहना), द्वैधीभाव (भेद) और संश्रय (किसी बलवान्का आश्रय)—इन छ: गुणोंका बराबर विचार करना चाहिये। एक साथ काम करनेसे भूतमें हुए या भविष्यमें होनेवाले हानि-लाभको बाँट लेनेकी प्रतिज्ञा करना तथा पृथक्-पृथक् काम करनेसे भूतमें हुए या भविष्यमें होनेवाले हानि-लाभको बाँट लेनेकी प्रतिज्ञा करना—ये सन्धिके भेद हैं। शुद्ध सन्धिमूलक ही शान्ति होती है। आस्तिकता तथा धर्म-प्रधानताके बिना सन्धियाँ अनेक हेतुओंसे अव्यवस्थित रहती हैं, इसीलिये शान्ति भी अव्यवस्थित रहती है। अत: धर्मनिष्ठा तथा आस्तिकता ही शुद्ध सन्धि एवं स्थिर शान्तिका मूल मन्त्र है।
अपनी विजयके लिये लड़ना और मित्रकी हानिके निमित्त मित्रके शत्रुसे लड़ना—ये विग्रहके दो भेद हैं। आपद्ग्रस्त शत्रुको देखकर उसपर अकेले चढ़ाई करना अथवा मित्रकी सहायतासे चढ़ाई करना—ये यानके दो भेद हैं। सैन्य-बल कमजोर देखकर किलेमें रह जाना अथवा मित्रके अनुरोधसे किलेमें रह जाना—ये आसनके दो भेद हैं। सेनामें फूट डाल देना अथवा दो मित्र राजाओंमें फूट डाल देना—ये भेदनीतिके दो प्रभेद हैं। शत्रुसे पीड़ित होकर किसी बलवान्का आश्रय लेना अथवा शत्रु पीड़ा न पहुँचाये, इसलिये किसी बलवान्का आश्रय लेना—यह दो प्रकारका संश्रय है।
सन्धि करनेसे भले ही थोड़ी तात्कालिक पीड़ा हो, किंतु भविष्यमें लाभ हो तो सन्धि अवश्य कर लेनी चाहिये। जब सारी प्रकृति सन्तुष्ट हो और कोष तथा युद्धके साधन पर्याप्त हों, तब युद्ध करना चाहिये। जब अपनी सेना हृष्ट-पुष्ट-सन्तुष्ट हो और शत्रुसेना दुर्बल तथा असन्तुष्ट हो, तब भी युद्ध करना चाहिये। जब सेना, वाहन और कोष क्षीण हों तो शत्रुसे समझौताकी बातचीत करते हुए अपने दुर्गमें ही रहना चाहिये। जब राजा देखे कि शत्रु बलवान् है, तब अपनी सेनाका दो विभागकर एक विभाग लड़ाईपर भेजे और एक विभागको शत्रुकी सेनामें भेजकर शत्रु-सेनाके लोगोंको अपनी ओर मिला लेना चाहिये। यदि राजा देखे कि शत्रु अब हमें जीत लेगा, तो झट किसी ऐसे बलवान् धर्मात्मा राजाका आश्रय ले ले, जो अपनी दुष्ट प्रजा और शत्रुको भी दण्ड दे सकता हो तथा गुरुके समान प्रत्येक प्रकारसे उसकी सेवा करनी चाहिये। यदि उसका आश्रय लेनेपर भी कोई लाभ न हो, अपितु हानि होनेकी ही सम्भावना हो, तो बेखटके युद्ध ही करना चाहिये। गुण-दोष विचारकर भविष्यका निर्णय करनेवाले, वर्तमान-निर्णयमें विलम्ब न करनेवाले तथा भूतकालिक शेष कार्यको शीघ्र पूर्ण करनेवाले राजाको शत्रु-मित्र या उदासीन अभिभूत नहीं कर सकते।
मनुने राजाका यद्यपि बहुत महत्त्व माना है, फिर भी उसे निरंकुश नहीं बतलाया। सर्वप्रथम राजापर ही धर्मका नियन्त्रण आवश्यक है। राजाके हाथमें जो दण्ड होता है, वह दूसरोंपर ही नियन्त्रण नहीं करता, वरन् धर्मविरुद्ध राजाको भी नष्ट कर डालता है, यह पीछे कहा जा चुका है। शुक्रके अनुसार भी राजाके लिये अमात्योंकी अत्यन्त आवश्यकता कही गयी है। जो राजा मन्त्रियोंके मुखसे हिताहितकी बात नहीं सुनता, वह राजाके रूपमें प्रजाका धन हरण करनेवाला डाकू होता है—
हिताहितं न शृणुते राजा मन्त्रिमुखाच्च य:।
स दस्यु: राजरूपेण प्रजानां धनहारक:॥
(शुक्रनीति २।२४८)
शुक्रके अनुसार राजाको राज्यका कार्य चलानेके लिये पुरोधा, युवराज, प्रधान, सचिव, मन्त्री, प्रतिनिधि, पण्डित, सुमन्त्र, अमात्यदूत—इन दस प्रकृतियोंका संग्रह आवश्यक है। इनकी योग्यता एवं कार्योंका विस्तृत वर्णन शुक्रनीतिमें है। किसी भी शासन-लेखपर मन्त्री आदिकी स्वीकृति होनी चाहिये। उसपर मन्त्री, प्राड्विवाक, पण्डित और दूतको यह लिखना चाहिये कि यह हमारी सम्मतिसे लिखा गया है, अमात्यको लिखना चाहिये कि यह ठीक लिखा गया है, सुमन्त्रको लिखना चाहिये कि इसपर पूर्ण विचार कर लिया गया है, प्रधानको लिखना चाहिये कि यह यथार्थ सत्य है, प्रतिनिधिको लिखना चाहिये कि यह अंगीकार करने योग्य है, युवराज लिखे कि यह स्वीकृत किया जाय, तब पुरोहित अपना मत लिखे कि यह मुझे सम्मत है। सबके अन्तमें राजा लिखे कि यह स्वीकृत हुआ। अपने लेखके अन्तमें सबकी मुहर लगनी चाहिये—
मन्त्री च प्राड्विवाकश्च पण्डितो दूतसंज्ञक:।
स्वाविरुद्धं लेख्यमिदं लिखेयु: प्रथमं त्विमे॥
अमात्य: साधु लिखितमस्त्येतद् प्राग् लिखेदयम्।
सम्यग् विचारितमिति सुमन्त्रो विलिखेत्तत:॥
सत्यं यथार्थमिति च प्रधानश्च लिखेत् स्वयम्।
अङ्गीकर्तुं योग्यमिति तत: प्रतिनिधिर्लिखेत्॥
अङ्गीकर्तव्यमिति च युवराजो लिखेत् स्वयम्।
लेख्यं स्वाभिमतं चैतद् विलिखेच्च पुरोहित:।
स्वस्वमुद्राचिह्नितं च लेख्यान्ते कुर्युरेव हि॥
(शुक्रनीति २।३५५—३५९)
मन्त्रिमण्डलके लेखबद्ध युक्तिसहित पृथक् मतोंको लेकर विचार करना चाहिये। फिर जो बहुमत हो, उसे स्वीकार करना चाहिये—
पृथक्पृथङ् मतं तेषां लेखयित्वा ससाधनम्।
विमृशेत् स्वमतैनैव कुर्याद् यद् बहुसम्मतम्॥
जो राजा प्रकृतिकी बात नहीं सुनता, वह अन्यायी है। जो प्रजाका रक्षक बनकर भी रक्षा नहीं करता, उस राजाको पागल कुत्तेके समान मार देना चाहिये—
अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिप:।
स संहत्या निहन्तव्य: श्वेव सोन्माद आतुर:॥
(शुक्रनीति)
इस तरह भारतीय राजनीतिशास्त्रानुसारी शासक उच्छृंखल नहीं होता था।
आजके लोकतन्त्र-शासनका आधार मुण्ड-गणना है। इसके अनुसार योग्य शासकोंका संग्रह कठिन ही नहीं, अपितु असम्भव भी हो जाता है। बहुमत जिसे प्राप्त हो, उसीके हाथमें शासनसूत्र आ जाता है। विधान-सभा एवं लोकसभाका काम है विधान या कानूनका निर्माण करना। पर स्थिति यह है कि भारतमें सैकड़ों नहीं हजारों विधानसभायी मेम्बर इस प्रकारके हैं, जो कानूनसे सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं। उनका अपना मुकदमा होता है तो वे रुपया खर्चकर अन्य वकीलोंका सहारा लेते हैं, परंतु वे ही राष्ट्रके लिये कानून बनाते हैं।
साधारण तौरपर भारतीय राजनीतिशास्त्र वेदों एवं मन्वादि धर्मशास्त्रोंको ही राष्ट्रका संविधान एवं कानून मानते हैं। उनकी दृष्टिमें शास्त्रज्ञों एवं सदाचारी धर्मनिष्ठ विद्वानोंकी परिषद् विधान-निर्णेत्री है, विधान-निर्मात्री नहीं। शासन-परिषद्की सहायतासे राजा शास्त्रानुसारी विधानद्वारा शासन करता है। राजा या शासक, वह चाहे जन-प्रतिनिधि हो या कुल-परम्परागत राजा, उसका परम कर्तव्य है कि वह पहले अपने-आपको शास्त्र एवं आचार्योंकी शुश्रूषाद्वारा विनयसे युक्त बनाये। पुन: अपने पुत्रों, मन्त्रियोंको विनययुक्त बनाये, पश्चात् भृत्यों एवं प्रजाको विनययुक्त बनाये—
आत्मानं प्रथमं राजा विनयेनोपपादयेत्।
तत: पुत्रांस्ततोऽमात्यान् ततो भृत्यान् तत: प्रजा:॥
(शुक्रनी० १।९२)
राजाको व्यसनमुक्त होना चाहिये। कठोर भाषण, उग्र दण्ड, अर्थदूषण, पान, स्त्री, मृगया और द्यूत—ये राजाके लिये भीषण व्यसन हैं। पीछे अष्टादश व्यसनोंकी चर्चा आयी ही है—
वाग्दण्डयोश्च पारुष्यमर्थदूषणमेव च।
पानं स्त्री मृगया द्यूतं व्यसनानि महीपते:॥
(कामन्दकीयनीतिसार १४।६)
मन्त्रीके लिये भी ये सब दूषण हैं। आलस्य, स्तब्धता, घमण्ड, प्रमाद, वैरकारिता आदि ये और भी मन्त्रीके व्यसन हैं। दक्षता, शीघ्रता, अमर्ष, शौर्य एवं उत्साह आदि गुणोंसे युक्त ही राजा होना चाहिये—
दाक्ष्यं शैघ्य्रं तथामर्ष: शौर्यं चोत्साहलक्षणम्।
गुणैरेतैरुपेत: सन् राजा भवितुमर्हति॥
(कामन्दकीयनीति० ४।२३)
मन्त्रियोंके उपयोगी और भी बहुत-से गुण कहे गये हैं। जिनके बिना शासन करनेकी योग्यता ही नहीं हो सकती है।
स्वावग्रहो जानपद: कुलशीलबलान्वित:।
वाग्मी प्रगल्भश्चक्षुष्मानुत्साही प्रतिपत्तिमान्॥
स्तम्भचापलहीनश्च मैत्र: क्लेशसह: शुचि:।
सत्यसत्त्वधृतिस्थैर्यप्रभावारोग्यसंयुत:॥
कृतशिल्पश्च दक्षश्च प्रज्ञावान् धारणान्वित:।
दृढभक्तिरकर्ता च वैराणां सचिवो भवेत्॥
स्मृतिस्तत्परतार्थेषु वितर्को ज्ञाननिश्चय:।
दृढता मन्त्रगुप्तिश्च मन्त्रिसम्पत्प्रकीर्तिता॥
(कामन्दकीयनीति० ४।२८—३१)
आत्मनियन्त्रित, स्वदेशस्थ, कुलीन, शीलवान्, बलवान्, वाग्मी, निर्भीक, शास्त्रज्ञ, उत्साही, प्रत्युत्पन्नमति, निरभिमान, अचंचल, मैत्रीवर्धक, सहिष्णु, पवित्र, धैर्य-स्थैर्य-सत्य एवं सत्त्वसे युक्त, प्रतापी, नीरोग, शिल्पज्ञ, दक्ष, बुद्धिमान्, धारणावान्, स्वामिभक्त तथा उससे कभी वैर-विद्वेष न करनेवाला सचिव होता है। स्मृतिमान्, पुरुषार्थ-तत्पर, विचारशील, निश्चित ज्ञानवाला, दृढ़ता, मन्त्रगुप्ति, क्षमता आदि गुणोंसे युक्त मन्त्री हो। मन्त्रियोंकी योग्यता राजाको स्वयं प्रत्यक्ष देखकर, परोक्ष (परोपदेश)-से तथा अनुमानसे (कार्य देखकर यह जान लेना कि कितना कार्य नहीं किया) जाननी चाहिये—
‘प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्ति:। स्वयं दृष्टं प्रत्यक्षम्। परोपदिष्टं परोक्षम्। कर्मसु कृतेनाकृतावेक्षणमनुमेयम्।’ (कौ० अर्थ० १।९।११—१३)
वाद, जल्प, वितण्डारूप कथाके प्रसंगसे मन्त्रीकी प्रगल्भता, निर्भीकता, प्रतिभा एवं वाक्कुशलताको जाना जाता है। उसी प्रसंगसे सत्यवादिताका भी पता लग जाता है। अवैरकारिता, भद्रता, क्षुद्रताका ज्ञान भी प्रसंगवशात् प्रत्यक्षसे ही जाना जा सकता है। आपत्तिके समय उत्साह, प्रभाव तथा क्लेश, सहिष्णुता, धैर्य, अनुराग, स्थिरताका परिज्ञान होता है। भक्ति, मैत्री तथा स्थिरताका परिज्ञान व्यवहारसे करना चाहिये—
उत्साहं च प्रभावं च तथा क्लेशसहिष्णुताम्।
धृतिं चैवानुरागं च स्थैर्यं चापदि लक्षयेत्॥
भक्तिं मैत्रीं च शौचं च जानीयाद् व्यवहारत:।
(कामं० नीतिसार ४।३७-३८)
मन्त्रीकी शास्त्रज्ञता एवं शिल्पज्ञता तत्-तद् विद्याओंके विद्वानोंसे जानना चाहिये। उसके स्वजनोंसे कुल, स्थान एवं संयमका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। कर्ममें प्रयुक्तकर दक्षता, विज्ञान एवं धारयिष्णुताकी परीक्षा होती है। सहवासियों, पड़ोसियोंसे उसके बल, सत्त्व (शक्ति), आरोग्य, शील, अस्तब्धता एवं अचापलका ज्ञान हो सकता है। दारुण कृच्छ्र उत्पन्न होनेपर उसकी कुलीनताका ज्ञान हो सकता है; क्योंकि दारुण अवसरपर ही स्वच्छहृदय कुलीन अपनी विशेषताको दिखलाता है—
साधुतैषाममात्यानां तद्विद्येभ्यस्तु बुद्धिमान्।
चक्षुष्मतां च शिल्पं च परीक्षेत गुणद्वयम्॥
स्वजनेभ्यो विजानीयात् कुलं स्थानमवग्रहम्।
परिकर्मसु दाक्ष्यं च विज्ञानं धारयिष्णुताम्॥
गुणत्रयं परीक्षेत प्रागल्भ्यं प्रतिभां तथा।
संवासिभ्यो बलं सत्त्वमारोग्यं शीलमेव च।
अस्तब्धतामचापल्यं वैरिणां चापि कर्तृताम्।
समुत्पन्नेषु कृच्छ्रेषु दारुणेष्वप्यसंशयम्।
दर्शयत्यच्छहृदय: कुलीनश्चतुरस्रताम्॥
(कामं० ना० ४।३४—३६; ३९; ६९)
आचार्य, सन्त, महात्मा और विद्वान् ही विद्याओंके प्रकाशक, प्रवर्तक तथा संचालक होते हैं। राजा भी विद्वानोंसे ही राजनीतिका विज्ञान प्राप्त करता है। इसीलिये स्वराज्यकी स्थापनामें मित्र-लाभादिसे भी प्रथम विद्या-चिन्तनका ही निर्देश किया गया है; क्योंकि सम्पूर्ण लोकस्थिति ही विद्यापर निर्भर होती है।
तत्रायं प्रथमोपाय: यद् विद्यावृद्धै: सार्धं विद्याचिन्ता। विद्याप्रतिबद्धत्वाल्लोकस्थिते:॥ (नीतिवाक्यामृत)
राजाको सक्रिय विद्वानोंके साथ बैठकर विनययुक्त होकर आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीतिका विचार करना चाहिये—
आन्वीक्षिकीं त्रयीं वार्तां दण्डनीतिं च पार्थिव:।
तद्विद्यैस्तत्क्रियोपेतैश्चिन्तयेद् विनयान्वित:॥
(का० नी० २।१)
वात्स्यायनने भी भूमि, हिरण्य, पशु, धान्य, भाण्डोपस्कर, मित्रादिके पहले विद्याके ही उपार्जन एवं वर्धनको अर्थ माना है—‘विद्याभूमिहिरण्यपशुधान्यभाण्डोपस्करमित्रादीनामर्जितस्य विवर्धनमर्थ:।’ (वात्स्या० कामसूत्र १।२।९)
मधुकरकी वृत्तिसे राजाका संगृहीत कोष भी अपने उपभोगार्थ न होकर प्रजाहितार्थ ही होना चाहिये। शास्त्रधर्मनियन्त्रित शासन ही रामराज्य है। इसमें प्रजाकी रुचि तथा सम्मतिका पूरा ध्यान रखा जाता है तथापि शास्त्र एवं धर्म-विरुद्ध बहुमतके आधारपर कोई अनर्थ नहीं किया जाता। फिर भी जहाँ अनेक जाति-उपजाति तथा सम्प्रदायके लोग बसते हों, वहाँ सबके धर्म, संस्कृतिकी रक्षा होनी चाहिये। किसीके देवस्थान, धर्मग्रन्थ, आचार्य एवं आचार-व्यवहारकी अवहेलना कदापि न होनी चाहिये। सभीके धर्मका निर्णय उन-उन सम्प्रदायोंके धर्मग्रन्थों तथा धर्माचार्योंपर ही छोड़ा जाना चाहिये। शासनका उसमें हस्तक्षेप न होना चाहिये। राष्ट्रके परमोपकारक गोवंशका सभी दृष्टिसे पालन होना चाहिये। उसका वध सर्वदा अवरुद्ध होना रामराज्यकी विशेषता है।
देशको सर्वथा अखण्ड रखना चाहिये। प्रान्तों या राज्योंको अपने घरेलू मामलोंमें स्वतन्त्रता मिलनी चाहिये। पर राष्ट्रहितके व्यापक कार्यमें सम्पूर्ण देशकी एक नीति रहनी चाहिये। राजा या राष्ट्रपति किंवा शासनपरिषद्के नीचे आठ विद्वानोंकी एक परिषद् होनी चाहिये। ये विद्वान् वेद, धर्मशास्त्र, राजनीति, समाजनीति, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद आदि विद्याओं तथा विविध भाषाओं एवं देश-विदेशकी नीतिके वेत्ता हों। यदि सभी सब विषयोंके ज्ञाता न भी हों तथापि पूरी परिषद् मिलकर उपर्युक्त विषयोंकी पूरी जानकारी अवश्य रखे। परिषद्के सदस्य अपनी सहायताके लिये पृथक्-पृथक् परामर्शसमिति भी रख सकते हैं। प्रजाकी सम्मति, रुचि तथा आन्तरिक स्थिति एवं शासनप्रणालीके सुपरिणाम, दुष्परिणाम जाननेके लिये एक लोकसभा होनी चाहिये। उनके सदस्य प्रजाप्रिय हों। उन्हें प्रजाकी सम्मतिसे उपर्युक्त अमात्य-परिषद् ही नियुक्त करेगी। मुण्डगणनाके आधारपर यह कार्य न होना चाहिये।
राजा, प्रजा, अमात्यमण्डल सभीमें ईश्वरपरायणता और धर्मनिष्ठा होनेसे शासनव्यवस्था ठीक चल सकेगी। वैसा न होनेसे छल, कपट तथा मिथ्या आचरणका ही बोलबाला रहेगा। धर्मनिष्ठाके बिना कानूनकी वंचना की जाती है, परंतु यदि धर्मनिष्ठा है तो अपराधी स्वयं अपराध व्यक्त करके शुद्धिके लिये दण्ड माँगता है। भारतमें आज भी गोहत्या आदि होनेपर अपराधी ‘मिताक्षरासे’ व्यवस्था माँगने स्वयं जाता है। वैसे तो सभीको धर्मात्मा तथा ईश्वरविश्वासी होना चाहिये। विशेषकर अमात्यमण्डल और उससे भी अधिक राजाको वैसा अवश्य होना चाहिये। गुणवान् पुरुष थोड़े होनेसे दुर्लभ होते हैं। अत: जहाँतक हो सके, अधिकार थोड़े ही लोगोंके हाथमें होने चाहिये। इसीलिये राजा और अमात्योंका हर समय बदलते रहना ठीक नहीं, यही राजतन्त्रका अभिप्राय है। युद्ध आदिके समय लोकतन्त्रमें भी एकके ही हाथमें अधिकार देने पड़ते हैं। अधिक लोगोंकी अपेक्षा थोड़े लोगोंको साधु-सज्जन बनानेमें सरलता होती है। यदि वंशपरम्पराका राजा हो, तो वह अपने ऊपर अधिक जिम्मेदारीका अनुभव करता है। अत: यथासम्भव वैसा ही राजा होना चाहिये। यदि वैसा न मिले, तो किसी योग्य व्यक्तिको राष्ट्रपति बनाना चाहिये। शीघ्र बदलते रहनेसे किसी योग्य व्यक्तिको भी अपनी नीति कार्यान्वित करनेका पूरा समय नहीं मिल पाता। इसके अतिरिक्त सामान्य व्यक्तिको थोड़े ही दिनोंमें स्वार्थसिद्धिकी चिन्ता लग जाती है, जिससे प्रजाके कल्याणमें बाधा पड़ती है। अत: यह आवश्यक है कि राजा या राष्ट्रपतिको जीवनपर्यन्त या दीर्घकालके लिये नियुक्त किया जाय। किंतु कर्तव्यच्युत होनेपर उसको हटाना आवश्यक है। राजाके स्थानकी पूर्ति उसका योग्य उत्तराधिकारी न होनेपर मन्त्रियोंद्वारा होनी चाहिये। मन्त्रिमण्डलमें किसीकी मृत्यु होने अथवा किसीके हटनेपर शेष मन्त्रियोंके परामर्शसे राजाको नयी नियुक्ति करनी चाहिये।
राजा, अमात्य, कोष, सेना और न्याय—राज्यके पाँच मुख्य विषय हैं। ग्राम, मण्डल, प्रान्तके भेदसे उत्तरोत्तर अधिक शक्तिशाली अधिकारियोंकी नियुक्ति होनी चाहिये। कोषके लिये सर्वत्र कर-संग्रह-विभाग रहने चाहिये। रक्षाविभाग तथा न्यायविभागकी भी उचित व्यवस्था होनी चाहिये। रक्षाके लिये सेना दो प्रकारकी होनी चाहिये—एक वह जो प्रतिदिनकी शान्ति स्थापित रखे अर्थात् पुलिस और दूसरी वह, जो विशेष अवसरपर शत्रुके साथ युद्ध करे। न्यायालय प्रत्येक विभागके लिये पृथक्-पृथक् होना चाहिये। मण्डल और प्रान्तमें बड़े-बड़े न्यायालय और सम्पूर्ण राष्ट्रका एक सर्वोच्च न्यायालय होना चाहिये। अन्तिम न्यायालयमें अमात्यमण्डल तथा राजाको न्याय करनेका अधिकार होना चाहिये। न्यायाध्यक्षके पदपर धर्मात्मा, विद्वान् तथा सदाचारी व्यक्तियोंकी ही नियुक्ति होनी चाहिये। सम्पूर्ण स्थितिका पूर्ण परिचय रखनेके लिये गुप्तचरविभाग होना चाहिये। उसका कार्य केवल अपराधी या राजाके विरोधियोंका पता लगाना ही नहीं, किंतु लोकसेवी, परोपकारी, सदाचारी विद्वानों तथा दुखी आर्तोंके सम्बन्धमें भी सरकारको सूचित करते रहना चाहिये, जिससे निग्रहानुग्रह आदिमें पूरी सहायता मिल सके। कोषका उपयोग उपर्युक्त विभागोंके संचालन, शस्त्रास्त्र-निर्माण तथा संग्रह, यातायातसाधनोंका निर्माण तथा व्यवस्था और राष्ट्रके स्वास्थ्य तथा शिक्षा आदिमें होना चाहिये। प्रचार, यातायात, परराष्ट्रसम्बन्ध एक विभागसे, डाक, तार, शिक्षा, स्वास्थ्य दूसरेसे और उद्योग, खाद्य आदि तीसरे विभागसे सम्बद्ध हों तो अच्छा है। इसी तरह कोष, न्याय एवं सेनाकी व्यवस्था होनी चाहिये। आजकल एक सबसे बड़ा विभाग व्यवस्थापनका अर्थात् कानून बनानेका है, जिसके लिये धारासभाओंका निर्वाचन होता है, परंतु अपने यहाँ तो इसकी आवश्यकता ही नहीं। केवल विशिष्ट विद्वानोंकी एक निर्णेत्री-परिषद् होनी चाहिये, जो मनु, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, नारद, अंगिरा, पराशर आदिके मतानुसार ठीक-ठीक व्यवस्था दे सके। अहिन्दुओंके लिये उनके धर्मशास्त्रानुसार उनके आचार्योंकी व्यवस्था होनी चाहिये। भारतीय धर्मशास्त्र और राजनीतिके सम्यक् विद्वान् ही व्यवहारमें शास्त्रार्थके अधिकारी होंगे। व्यवहारनिर्णायक न्यायाध्यक्ष स्वधर्मनिष्ठ एवं ईश्वर-विश्वासी होना चाहिये। अमात्यमण्डलको राजाके आज्ञानुसार सभी कर्मचारियोंके नियोजन, पृथक्करण, संशोधन आदिका अधिकार होना चाहिये। गुप्तचरोंके अतिरिक्त विशिष्ट व्यक्तियोंकी एक अन्वेषणसमितिद्वारा जटिल विषयोंकी जानकारी प्राप्त करनेका प्रयत्न होना चाहिये। अमात्यमण्डलके सदस्य और राजा सर्वसाधारणके लिये दुर्दर्श, दुर्लभ न होकर सुदर्श और सुलभ रहें, जिसमें प्रजा उनसे अपनी स्थिति निवेदन कर सके। ऐसे अनेक स्थान होने चाहिये, जहाँ नियत समयपर अर्थी आकर अमात्यों या राजासे मिल सकें। मन्त्री तथा राजाओंको भी गुप्त वेषसे प्रजाकी स्थिति तथा राजकर्मचारियोंका व्यवहार जानना चाहिये। इस मार्गसे गुप्त तथा जटिल रहस्योंका भी पता लग सकता है। हिंसा, मद्यपान, व्यभिचार, द्यूत आदिपर कड़ा नियन्त्रण होना चाहिये। प्रत्येक पदपर सच्चे और शुद्ध अधिकारियोंकी नियुक्ति होनी चाहिये। पुलिस प्रजाकी सेवक बनकर नम्रतापूर्वक काम करे, पर साथ ही दुष्टदमनार्थ आवश्यक उग्रताका निषेध न होना चाहिये। प्राचीन ढंगपर ग्रामपंचायतें विधिवत् स्थापित होनी चाहिये। आपसी झगड़े वहीं तय हुआ करें, जिसमें न्यायालय जानेकी आवश्यकता ही न पड़े। पंचायतोंका काम ठीक होता है या नहीं, इसकी देख-रेखके लिये एक निरीक्षक-विभाग होना चाहिये। क्रय-विक्रयके सम्बन्धमें यथासम्भव ऐसा प्रबन्ध होना चाहिये कि अन्नवाले अन्न, तेलवाले तेल, गुड़वाले गुड़ दें। नाई, धोबी आदि अपना काम करें, जिसके बदलेमें उन्हें अन्न मिले। यथासम्भव नकद क्रय-विक्रयके स्थानपर वस्तु-विनिमय होना चाहिये और जिसका जो परम्पराप्राप्त व्यवसाय है, उसे वही करना चाहिये। इस तरह परस्पर सम्बन्ध स्थापित रखनेमें सुविधा होगी। जहाँतक हो प्रजाको विशुद्ध क्षत्रियवंशका राजा, विद्वान् ब्राह्मण पुरोहित तथा महामात्य बनाना चाहिये। न्यायाध्यक्ष तथा अध्यापकके पदपर भी ब्राह्मणोंकी ही नियुक्ति होनी चाहिये। सेनापतिके पदपर पवित्र वीर क्षत्रिय तथा सैनिक भी अधिकतर कुलीन क्षत्रिय ही होने चाहिये। कोषाध्यक्ष वैश्य तथा सेवाध्यक्ष शूद्र होने चाहिये। चर्मके व्यापारों तथा यन्त्रोंके अध्यक्ष चर्मकार होने चाहिये। शुचिता (सफाई) विभागका अध्यक्ष अन्त्यज होना चाहिये। इसी तरह प्राय: सभी यन्त्र, शिल्प, कल-कारखाने आदिपर शूद्रोंका ही प्राधान्य रहना चाहिये। सर्वसाधारणके व्यवहारमें आनेवाली राष्ट्रकी भाषा हिन्दी होनी चाहिये। पर विशिष्ट विवरणोंमें संस्कृतका प्रयोग आवश्यक है।
राजाको उदार, सौम्य, धार्मिक, निर्व्यसन, विद्वान्, शुद्ध तथा रहस्यज्ञ होना चाहिये। उसे वेदान्त, न्याय तथा दण्डनीतिका विद्वान् और अपने दोषोंका ज्ञाता होना चाहिये। कोई काम करनेके पहले उसपर उसे स्वयं तथा मन्त्रियोंके साथ एकान्तमें अच्छी तरह विचार करना चाहिये। किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्यमें शुभ मुहूर्त, नीति और आथर्वणिक प्रयोगोंका उपयोग किया जा सकता है। अच्छा तो यह है कि राजा योग्य व्यक्तियोंद्वारा श्रौत-स्मार्तकर्मोंका अनुष्ठान करता रहे। राजाका कर्तव्य है कि वह अप्राप्त धन, भूमि आदि वस्तु धर्ममार्गसे प्राप्त करे, प्राप्तकी रक्षा करे तथा उन्हें बढ़ाये और फिर उन्हें पात्रोंमें प्रदान भी करे। दत्त वस्तुओंका आगामी राजाओंद्वारा भी पालन होता रहे, इसलिये दान-पत्र आदिका उचित उल्लेख होना चाहिये। राजधानी ऐसे प्रदेशमें भी होनी चाहिये, जो रम्य हो और जहाँ मनुष्योंके लिये अन्न तथा पशुओंके लिये चारा पर्याप्त मिल सके। वहाँ विस्तृत दुर्ग (किला) बनवाना चाहिये, जिसमें जन, धनकी पूर्ण रक्षा हो सके। राजाको चाहिये कि वह विद्वान् ब्राह्मणोंके प्रति क्षमाशील, शत्रुओंके प्रति क्रोधयुक्त और भृत्यवर्ग तथा प्रजाओंके प्रति पिताके समान हो। प्रजाके पुण्यका छठा भाग राजाको मिलता है, अत: न्यायसे प्रजाका पालन ही राजाके लिये सबसे बड़ा धर्म और दान है। अन्यायियोंसे ठीक रक्षा न कर सकनेके कारण प्रजाके पापोंका आधा भाग राजाको मिलता है, अत: उसे सदा सावधान रहना चाहिये।
राजनीतिके अयोग्यों, नास्तिकोंके हाथमें जाते ही विद्वानोंके ही मुँह बन्द हो जाते हैं। शुक्राचार्यके पुत्र शण्डामर्क-जैसे योग्य विद्वान् भी हिरण्यकशिपु-जैसोंको ही ईश्वर बतलाने लगते हैं। वे किसी अयोग्य शासकको भी ‘त्वमर्कस्त्वं सोम:’ (शिवमहिम्न०) कहने लगते हैं। शासकोंसे भयभीत विद्वान् स्पष्ट सत्य कहनेमें हिचकने लगते हैं। आचार्य, साधु-सन्त भी या तो चुप साध लेते हैं या सरकारी साधु-समाजमें प्रविष्ट होकर ईश्वर-गुणगानके बदले सरकारका गुणगान करने लगते हैं। गोहत्या, धर्म-हत्या, शास्त्रहत्या-जैसे जघन्य कृत्योंको होते देखकर भी वे मौन रह जाते हैं और इन सबके प्रवर्तक, प्रेरक सरकारका गुणगान करते हैं। रावणकी मायासे बने अनेकों हनुमान् देखकर जैसे बन्दर भ्रममें पड़ गये कि इनमेंसे कौन रामके हनुमान् हैं, कौन रावणके हनुमान्, उसी तरह जनता भी भ्रममें पड़ जाती है कि कौन रामके साधु-सन्त हैं और कौन सरकारी साधु-सन्त? शास्त्र एवं धर्मके नियन्त्रणशून्य उच्छृंखल शासक जनताके धर्मके साथ धनका भी अपहरण कर लेते हैं। राष्ट्रियकरण, समाजीकरण आदि नामोंसे जनताकी व्यक्तिगत भूमि-सम्पत्ति आदि छीन लेते हैं। जनताके व्यक्ति शासनयन्त्रके नगण्य पुर्जे बन जाते हैं। शासन-यन्त्र तानाशाह शासकोंके हाथका खिलौना बन जाता है। उच्छृंखल शासकोंकी इच्छा ही कानून-कायदा बन जाती है। सनातन सत्य, न्याय, विवेक, शास्त्र-सब लुप्त हो जाते हैं। धनहीन होनेके कारण जनतामें ऐसे शासनके विरोधकी भी शक्ति नहीं रह जाती। आजके सरकारी साधुसमाजका यह प्रस्ताव कि ‘साधु-समाज गोहत्याबन्दी आन्दोलनका समर्थन नहीं कर सकता; क्योंकि वह ऐसे अपराधी साधुओंद्वारा चलाया गया है, जिनसे साधु-समाजकी सत्ताको बहुत ठेस पहुँची है’ आँख खोल देनेवाला है। विश्वनाथमन्दिर-हरिजनप्रवेश, हिन्दू-विवाह, तलाक आदि प्रश्नोंपर सरकारी साधुओं एवं सरकारी पण्डितोंका चुप रहना भी एक विचित्र बात है। आचार्य कहे जानेवाले लोगोंकी भीषण निद्रा या जान-बूझकर आँख मीचनेकी बात भी इसी ओर संकेत करती है कि राजनीतिक विप्लुत होनेके बाद सब विद्याएँ व्यर्थ हो जाती हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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