14.3 राजनीतिमें किसका अधिकार? ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

14.3 राजनीतिमें किसका अधिकार?

कई लोग कहते हैं कि विद्वानों, महात्माओंको राजनीतिमें नहीं पड़ना चाहिये, परंतु राजनीतिका विद्वान् होना चाहिये। वे समारोहके साथ सिद्ध करनेकी चेष्टा करते हैं कि राजनीतिका विद्वान् होना ही विद्वान‍्का अन्तिम कृत्य है, पर प्रत्यक्ष राजनीतिमें भाग लेना नहीं। वे समर्थ रामदास और चाणक्यकी प्रशंसा करते हुए भी उनके कर्तृत्वको दुर्लक्ष्य करते हैं। वे लोग ‘मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हतायाम्’ (म० शां० ६३।२८) का भी यही अर्थ करते हैं कि ‘राजनीतिके जाने बिना त्रयी डूब जाती है।’ पर ‘दण्डनीति’ का ‘दण्डनीतिज्ञान’ अर्थ करना असंगत है। वे इस बातपर ध्यान नहीं देते कि ब्रह्मज्ञानसे भिन्न सभी ज्ञान परांग ही होते हैं, स्वतन्त्र नहीं। भट्टपादकुमारिलका स्पष्ट कहना है कि ‘सर्वत्रैव हि विज्ञानं संस्कारत्वेन गम्यते। पराङ्गं चात्मविज्ञानादन्यमित्यवधार्यताम्॥’ (तन्त्रवार्तिक)
पीछे कहा गया है कि सक्रिय विद्वानोंसे ही राजाको आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीतिका विचार करना चाहिये—
‘तद्विद्यैस्तत्क्रियोपेतैश्चिन्तयेत्।’ (का० नी० २।१)
ब्रह्मात्मविज्ञान तो स्वसत्तामात्रसे अविद्या, तत्कार्यका निवर्तक होनेसे पुरुषार्थरूप है। ऐसे कतिपय स्थलोंको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र ही ज्ञान कर्तृत्वके बिना सफल नहीं होता। ‘जानाति इच्छति अथ करोति’ यह क्रम प्रसिद्ध है। जाननेसे इच्छा होती है, इच्छासे क्रिया होती है। ‘य: क्रियावान् स पण्डित:’ (सुभा० मं०) की कहावत प्रसिद्ध ही है। प्रयोगहीन शिल्पविज्ञान एवं शस्त्रादि-विज्ञानके तुल्य प्रयोगहीन राजनीति-विज्ञान भी व्यर्थ ही रहता है। क्रियाहीन तर्क-वितर्क एवं ज्ञान-विज्ञान, बुद्धि-व्यवसायमात्र ही रह जाता है।
रावणके समयमें ज्ञान-विज्ञानवाले ऋषियोंकी कमी न थी। फिर ऋषियोंका वध चालू था। रक्तघटका उपहार देनेपर भी रावणको सन्तोष नहीं हुआ था। ऋषियोंकी अस्थियोंका पहाड़ लग गया था।
अस्थि समूह देखि रघुराया।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥
(रा०च०मा० ३।९।६, ८)
उस समय विश्वामित्रकी सक्रिय राजनीति ही सफल हुई। उसीके द्वारा राम मैदानमें आये और दुष्टोंका दर्प-दलन करके त्रयी-धर्मकी रक्षा एवं साधु-सत्पुरुषोंका पोषण किया। हाँ, जहाँ राजनीतिके योग्य प्रयोक्ता एवं प्रयोग-साधन ठीक उपलब्ध हों, वहाँ विद्वान् केवल उपदेशमात्र कर सकता है; परंतु जहाँ प्रयोक्ता, प्रयोग-साधन नहीं, वहाँ उनका अन्वेषण एवं निर्माण भी विद्वान‍्का ही काम है। राजाके अभावमें यह सब उत्तरदायित्व विद्वान‍्पर ही आता है। ‘चाणक्य’ ने यही सब किया था, समर्थ रामदासने भी यही किया। शुक्र, बृहस्पति आदि भी अनेक ढंगसे सक्रिय राजनीतिका प्रवर्तन करते थे। हाँ, विद्वान् राज्याधिकारके प्रलोभनमें न पड़े, यह अवश्य ठीक है। अत: ठीक राजनीति बिना त्रयी एवं तत्प्रोक्त धर्म संकटग्रस्त हो जाता है।
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्।
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वा: परिददे प्रजा:॥
(मनु० स्मृ० ९।३२७)
प्रजापतिने सृष्टि रचकर वैश्योंको पशु दिया, ब्राह्मण एवं राजाको सारी प्रजा दी। अत: राजाके अभावमें विद्वानोंपर सर्वाधिक भार आता है। विद्वान् आस्तिक, सद‍्गृहस्थ एवं साधु-सत्पुरुषोंके बिना राजनीति सर्वथा उच्छृंखल लोगोंके हाथमें चली जाती है, फिर तो गुंडागर्दीका ही शासन होने लगता है। अत: धार्मिक लोगोंके प्रवेशसे ही समस्या हल हो सकती है। यह ठीक है कि ‘सच्छिक्षा एवं सद्विद्याके प्रचारसे सद‍्बुद्धि होती है, सद‍्बुद्धिसे सदिच्छा एवं सदिच्छासे सत्प्रयत्न होता है और सत्प्रयत्न ही सब प्रकारके सत्फलोंका स्रोत होता है। परंतु आज तो शिक्षा भी स्वतन्त्र विद्वानोंके हाथमें नहीं है। जिस विचारके शासक हैं, उसी विचारका समर्थन करनेवाली आजकी शिक्षा बनती जा रही है। स्वतन्त्र विद्वान्, स्वतन्त्र विद्यालय एवं उनके छात्र भी सरकारी-शिक्षाके प्रभावसे स्पष्ट ही प्रभावित हैं। कथावाचक, मण्डलेश्वर आदि भी उसी ढंगकी कथा कहनेमें लाभका अनुभव करते हैं। घोर नास्तिक उच्छृंखल मिनिस्टरों, सरकारी पदाधिकारियोंकी भी विद्वान्, महन्त, मण्डलेश्वर प्रशंसा करते फिरते हैं। इस दृष्टिसे नास्तिकोंके हाथसे राजनीतिका उद्धार करने योग्य, धार्मिक, सुशील लोगोंके हाथमें राजनीति लानेके लिये विद्वान‍्का प्रयत्न अत्यावश्यक है ही। महाभारतका स्पष्ट वचन है—
क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्त: पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्मा:॥
(महा० शां० ६४।२१)
परमेश्वरसे सर्वप्रथम राजधर्मका ही आविर्भाव हुआ। उसके पीछे राजधर्मके अंगभूत अन्य धर्मोंका प्रादुर्भाव हुआ। अत: राजधर्म—राजनीतिके नष्ट होनेपर त्रयीधर्मके डूब जानेकी बात आती है। अराजकता या उच्छृंखल राजाके धर्महीन अधार्मिक राज्यमें कोई धर्म पनप ही नहीं सकता। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा विश्वके लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय एवं नि:श्रेयसके सम्पादनमें होनेवाले सब प्रकारके विघ्नोंको रोककर सब प्रकारकी सुविधा उपस्थित करना भारतीय राजधर्म, राजनीति या क्षात्र-धर्मका मूलमन्त्र है।
भले ही कभी राजनीति राजाओं, राजमन्त्रियों एवं राजकीय पुरुषोंतक ही सीमित रहे, उसमें सर्वसाधारणका प्रवेश आवश्यक भी न ठहरे, तब भी विशिष्ट विद्वानोंके लिये तो कभी भी राजनीति उपेक्ष्य नहीं रही है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा विश्वको लौकिक-पारलौकिक-विनाशसे बचाना, उनको अभ्युदय, नि:श्रेयस-प्राप्तिसे वंचित होनेसे बचाना क्षात्र या राजाका धर्म है। वही क्षात्रधर्म है, वही राजनीति है। इसीलिये राजाकी प्रशंसा है—
‘नराणां च नराधिपम्’ (गी० १०।२७) ‘नाविष्णु: पृथिवीपति:।’ (दे० भा०)
‘महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति।’ (मनु० ७।८)
‘राजा ईश्वररूप है, नरोंमें नराधिप ईश्वरीय विभूति है, विष्णुसे अतिरिक्त पृथ्वीपति नहीं हो सकता, वह कोई मनुष्यरूपमें विशेष दिव्य शक्ति है इत्यादि।’ इस प्रकारके राजधर्मका पालन श्रुताध्ययनसम्पन्न धर्मज्ञ, सत्यवादी, रागद्वेषविहीन विद्वानोंकी सहायता बिना राजा भी नहीं कर सकता। इसीलिये राजाके लिये आवश्यक है कि वह ऐसे विद्वानोंको अपना सभासद् बनाये—
श्रुताध्ययनसम्पन्ना धर्मज्ञा: सत्यवादिन:।
राज्ञा सभासद: कार्या रिपौ मित्रे च ये समा:॥
(याज्ञवल्क्यस्मृति २।२)
शासनारूढ शासककी भूल प्रमादको रोकनेके लिये परम निरपेक्ष विरक्त विद्वान् भी लोककल्याण-कामनासे राजनीतिमें हस्तक्षेप करते थे। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वेन-जैसे अन्यायी राजाको, जो समझाने-बुझानेसे भी न माने, शासनाधिकारसे च्युत या नष्ट भी कर देते थे एवं उनके स्थानमें पृथु-जैसे योग्य शासकको प्रतिष्ठित करते थे। यह भी लोक-कल्याणार्थ विद्वानोंके राजनीतिमें हस्तक्षेपका उदाहरण है। ‘इतिहास’ बतलाता है कि संसारके प्रमुख राजनीतिज्ञ शासकोंने अपनी राजनीतिकी बागडोर तप:पूत, लोक-हितैषी, राग-द्वेषविहीन ऋषियोंके ही हाथमें दे रखी थी। देवराज इन्द्रकी राजनीति देवगुरु बृहस्पतिके हाथमें थी, दैत्यराज बलिकी राजनीति महर्षि शुक्राचार्यके हाथमें थी तथा रामचन्द्रकी राजनीति वसिष्ठके हाथमें थी। धर्मराज युधिष्ठिरकी राजनीति धौम्य, व्यास, कृष्ण, विदुर आदिके हाथमें थी। चन्द्रगुप्तकी राजनीति महर्षि चाणक्यके हाथमें थी तथा शिवाकी राजनीति भी समर्थ रामदासके हाथमें थी। वस्तुत: जैसे बिना अंकुशके हस्ती, बिना लगामके घोड़ा आदि हानिकारक होते हैं, वैसे ही अंकुश एवं नियन्त्रणके बिना शासन भी हानिकारक होता है। राज्यश्रीसम्पन्न राजापर भी अंकुश होना ही चाहिये। इसी अर्थमें राजापर धर्मका नियन्त्रण होना चाहिये। यही बृहदारण्यक ‘क्षत्रस्य क्षत्रम्’ (१।४।१४) के अनुसार धर्मनियन्त्रित राजतन्त्रका सिद्धान्त है। धर्म-कर्म, संस्कृति, धर्मसंस्थाकी रक्षा तभी हो सकती है, जब धर्म-नियन्त्रित शासक हो। अन्यथा उच्छृंखल शासक सबको ही चौपट कर देता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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