14.4 सत्पुरुषोंसे एक निवेदन
कुछ लोग कहते हैं कि उपासना या ज्ञान तो मनकी चीज है। सब कुछ गड़बड़ होनेपर भी महात्मा या विद्वान्को इन टंटोंसे दूर रहकर भजन ही करना चाहिये। ठीक है, परंतु शास्त्र एवं धर्म-स्थान नष्ट हो जानेपर विद्वानों या महात्माओंका शण्डामर्कके तुल्य सरकारीकरण हो जानेपर भजन करनेका, धार्मिक होनेका मन भी कैसे बन सकेगा? आखिर धार्मिक, आध्यात्मिक भावनाओंसे ओतप्रोत मन भी तो शास्त्रों एवं सत्पुरुषोंकी कृपासे ही बनता है, बिना शास्त्रादिके वैसा मन भी नहीं बन सकता है। यदि प्रह्लादने भी यही सोचा होता कि चलो पितासे विवाद कौन करे? मनमें ही रामनाम जपते रहेंगे, ऊपरसे पिताकी ही बात मान लें तो आज कोई राम-नाम लेनेवाला रह सकता था? परंतु जब सच्चाईके साथ प्रह्लादने अपने जीवनको संकटमें डालकर भी सिद्धान्तकी रक्षा की, तभी संसारमें सिद्धान्तकी स्थिरता रह सकी है। इस तरह विद्वान् एवं महात्मा राजतन्त्र शासनमें भी राजनीतिमें हस्तक्षेप करते थे, फिर अब तो जनतन्त्र-शासन है। इस सिद्धान्तके अनुसार तो शासनकी सर्वोच्च सत्ता जनतामें ही निहित होती है। अत: वास्तविक राजा जनता ही होती है, अत: राजनीतिक दक्षता सम्पादन करना प्रत्येक व्यक्तिका परम कर्तव्य है, फिर तो जनताके धन एवं धर्मकी रक्षाका उत्तरदायित्व जनतापर ही होता है। इसलिये जनताके प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य होता है कि वह उदारता, गम्भीरता और दक्षताके साथ राष्ट्र एवं धर्मका हिताहित देखकर कर्तव्यका निर्धारण एवं पालन करे। जहाँ न राजतन्त्र हो, न जनतन्त्र हो; किंतु अधिनायकतन्त्र डिक्टेटरशिप हो, वहाँपर तो विशिष्ट दक्ष राजनीतिज्ञ विद्वानों एवं महात्माओंके सिवा दूसरा कोई कुछ कर ही नहीं सकता है। जनताका संग्रह, उसे प्रोत्साहन देना एवं क्रान्तिके लिये उसे तैयार करना भी राजनीतिज्ञोंके ही वशकी बात है। ऐसे समयमें धर्म एवं धर्मशास्त्रोंकी रक्षाके लिये विद्वानोंको सामने आना पड़ता है। इसी अभिप्रायसे कहा गया है—
स्थापयध्वमिमं मार्गं प्रयत्नेनापि हे द्विजा:।
स्थापिते वैदिके मार्गे सकलं सुस्थिरं भवेत्॥
(सूतसंहिता, ज्ञानयोगखं० २०।५४)
विद्वानोंको वैदिक-धर्मकी स्थापनाके लिये सुदृढ़ प्रयत्न करना चाहिये। वैदिक-धर्मके स्थिर होनेपर सब कुछ स्थिर हो जायगा। यहीं यह भी कहा गया है कि ‘जो समर्थ होनेपर भी सर्वप्रकारसे धर्मरक्षार्थ प्रयत्नशील नहीं होता, वह पापका भागी होता है। माता-पिताके, गुरुजनोंके या जनसमूहके धन-धर्म एवं प्राणोंका विनाश हो रहा हो, कोई समर्थ पुरुष बैठे-बैठे तमाशा देखे, कुछ प्रयत्न न करे, यह प्रत्यक्ष ही पाप है—
यश्च स्थापयितुं शक्तो नैव कुर्याद् विमोहित:।
तस्य हन्ता न पापीयानिति वेदान्तनिर्णय:॥
(सूतसंहिता २।२०।५५)
किंतु जो समर्थ न होनेपर भी यथाशक्ति धर्मशास्त्र-मर्यादाकी रक्षाके लिये प्रयत्न करता है, वह उसी पुण्यके प्रभावसे सब पापोंसे मुक्त होकर सम्यक् ज्ञानका भागी होता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि यम कहे जाते हैं। यह निवृत्तिमार्गानुसारियोंके लिये बड़े ही महत्त्वके हैं। शौच, सन्तोष, स्वाध्याय आदिमें कुछ गड़बड़ी क्षम्य भी हो सकती है, परंतु यमके सेवनमें तो पूर्ण तत्परता होनी चाहिये। इसीलिये कहा गया है—‘यमान् सेवेत सततं नियमान् मत्पर: क्वचित्’ (श्रीमद्भा०) यमोंका सेवन सर्वदा ही करना चाहिये। नियमोंमें सातत्य न होनेपर भी काम चल सकता है। अहिंसा आदिका अभिप्राय है—मनसा-वाचा-कर्मणा प्राणिरक्षण करना, प्राणियोंको पीड़ा न पहुँचाना। यही लोकरक्षण, प्राणिरक्षण, धर्मरक्षण राजनीतिका मुख्य लक्ष्य है, यही क्षत-त्राण है। इसी कारण महात्माओंकी इन कार्योंमें प्रवृत्ति होती थी। कालकवृक्षीय-जैसे अरण्यवासी, चाणक्य-जैसे बालब्रह्मचारी, समर्थ स्वामी-जैसे निवृत्तिनिष्ठ लोग भी इस काममें संलग्न हुए। फिर भले ही इस काममें सफलता मिले अथवा न मिले, समुचित प्रयत्न कभी निष्फल नहीं होता। उसका अदृष्ट फल तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है, तभी तो भगवान् कृष्णने कहा था—
य: स्थापयितुमुद्युक्त: श्रद्धयैवाक्षमोऽपि सन्।
सर्वपापविनिर्मुक्त: सम्यग् ज्ञानमवाप्नुयात्॥
धर्मकार्यं यतञ्छक्त्या नो चेत् प्राप्नोति मानव:।
प्राप्तो भवति तत् पुण्यमत्र मे नास्ति संशय:॥
(महा० उद्यो० ९३।६)
इन सब बातोंसे स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान दुरवसरपर जबकि जनताके धन-धर्मपर संकट उपस्थित है, विशिष्ट विद्वानों, महात्माओं तथा धार्मिक सद्-गृहस्थोंको भी राजनीतिसे न डरकर आगे आना चाहिये और धर्म-रक्षणके लिये जो भी आवश्यक कार्य हो करना चाहिये। परिणाम निश्चयेन शुभ-मंगलमय ही होगा। शिवमिति दिक्।
परिशिष्ट
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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