1. भगवान् श्रीरामके द्वारा उपदिष्ट राजनीति ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

“शुक्राचार्यजी अपने ‘नीतिसार’ में लिखते हैं कि श्रीरामके समान नीतिमान् राजा पृथ्वीपर न कोई हुआ और न कभी होना सम्भव ही है—”,
“‘न रामसदृशो राजा पृथिव्यां नीतिमानभूत्।’”,
“(शुक्र० ५।५७)”,
“[श्रीराम लक्ष्मणजीसे कहते हैं—]”,
“न हि स्वसुखमन्विच्छन् पीडयेत् कृपणं जनम्।”,
“कृपण: पीडॺमानो हि मन्युना हन्ति पार्थिवम्॥”,
“राजाको चाहिये कि वह अपने लिये सुखकी इच्छा रखकर दीन-दु:खी लोगोंको पीड़ा न दे; क्योंकि सताया जानेवाला मनुष्य दु:खजनित क्रोधके द्वारा अत्याचारी राजाका विनाश कर डालता है।”,
“अहिंसा सूनृता वाणी सत्यं शौचं दया क्षमा।”,
“वर्णिनां लिङ्गिनां चैव सामान्यो धर्म उच्यते॥”,
“प्रजा: समनुगृह्णीयात् कुर्यादाचारसंस्थितिम्।”,
“वाक्सूनृता दया दानं दीनोपगतरक्षणम्॥”,
“इति सङ्ग: सतां साधु हितं सत्पुरुषव्रतम्।”,
“आधिव्याधिपरीताय अद्य श्वो वा विनाशिने॥”,
“को हि राजा शरीराय धर्मापेतं समाचरेत्।”,
“किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना—कष्ट न पहुँचाना, मधुर वचन बोलना, सत्यभाषण करना, बाहर और भीतरसे पवित्र रहना एवं शौचाचारका पालन करना, दीनोंके प्रति दयाभाव रखना तथा क्षमा (निन्दा आदिको सह लेना)—ये चारों वर्णों तथा आश्रमोंके सामान्य धर्म कहे गये हैं। राजाको चाहिये कि वह प्रजापर अनुग्रह करे और सदाचारके पालनमें संलग्न रहे। मधुर वाणी, दीनोंपर दया, देश-कालकी अपेक्षासे सत्पात्रको दान, दीनों और शरणागतोंकी रक्षा तथा सत्पुरुषोंका संग—ये सत्पुरुषोंके आचार हैं। यह आचार प्रजा-संग्रहका उपाय है, जो लोकमें प्रशंसित होनेके कारण श्रेष्ठ है तथा भविष्यमें भी अभ्युदयरूप फल देनेवाला होनेके कारण हितकारक है। यह शरीर मानसिक चिन्ताओं तथा रोगोंसे घिरा हुआ है, आज या कल इसका विनाश निश्चित है। ऐसी दशामें इसके लिये कौन राजा धर्मके विपरीत आचरण करेगा?’”,
“शुचिरास्तिक्यपूतात्मा पूजयेद्देवता: सदा।”,
“देवतावद् गुरुजनमात्मवच्च सुहृज्जनम्॥”,
“‘बाहर और भीतरसे शुद्ध रहकर राजा आस्तिकता (ईश्वर तथा परलोकपर विश्वास)-द्वारा अन्त:करणको पवित्र बनाये और सदा देवताओंका पूजन करे। गुरुजनोंका देवताओंके समान ही सम्मान करे तथा सुहृदोंको अपने तुल्य मानकर उनका भलीभाँति सत्कार करे।’”,
“अनिन्दा परकृत्येषु स्वधर्मपरिपालनम्।”,
“कृपणेषु दयालुत्वं सर्वत्र मधुरा गिर:॥”,
“प्राणैरप्युपकारित्वं मित्रायाव्यभिचारिणे।”,
“गृहागते परिष्वङ्ग: शक्त्या दानं सहिष्णुता॥”,
“स्वसमृद्धिष्वनुत्सेक: परवृद्धिष्वमत्सर:।”,
“नान्योपतापि वचनं मौनव्रतचरिष्णुता॥”,
“बन्धुभिर्बद्धसंयोग: सुजने चतुरश्रता।”,
“तच्चित्तानुविधायित्वमिति वृत्तं महात्मनाम्॥”,
“‘दूसरे लोगोंके कृत्योंकी निन्दा या आलोचना न करना, अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुरूप धर्मका निरन्तर पालन, दीनोंके प्रति दया, सभी लोकव्यवहारोंमें सबके प्रति मीठे वचन बोलना, प्राण देकर भी अपने अनन्य मित्रका उपकार करनेके लिये उद्यत रहना, घरपर आये हुए मित्र या अन्य सज्जनोंको भी हृदयसे लगाना—उनके प्रति अत्यन्त स्नेह एवं आदर प्रकट करना, आवश्यकता हो तो उनके लिये यथाशक्ति धन देना, लोगोंके कटु व्यवहार एवं कठोर वचनको भी सहन करना, अपनी समृद्धिके अवसरोंपर निर्विकार रहना (हर्ष या दर्पके वशीभूत न होना), दूसरोंके अभ्युदयपर मनमें ईर्ष्या या जलन न होना, दूसरोंको ताप देनेवाली बात न बोलना, मौनव्रतका आचरण (अधिक वाचाल न होना), बन्धुजनोंके साथ अटूट सम्बन्ध बनाये रखना, सज्जनोंके प्रति चतुरश्रता (अवक्र—सरलभावमें उनका समाराधन), उनकी हार्दिक सम्मतिके अनुसार कार्य करना—ये महात्माओंके आचार हैं।’”,
“आजीव्य: सर्वसत्त्वानां राजा पर्जन्यवद्भवेत्।”,
“आयद्वारेषु सर्वेषु कुर्यादाप्तान् परीक्षितान्।”,
“आददीत धनं तैस्तु भास्वानुस्रैरिवोदकम्॥”,
“‘राजा मेघकी भाँति समस्त प्राणियोंको आजीविका प्रदान करनेवाला हो। उसके यहाँ आयके जितने द्वार (साधन) हों, उन सबपर वह विश्वस्त एवं परीक्षित किये गये लोगोंको नियुक्त करे। जैसे सूर्य अपनी किरणोंद्वारा पृथ्वीसे जल लेता है, उसी प्रकार राजा उन आयुक्त पुरुषोंद्वारा धन ग्रहण करे।’”,
“साम दानं च भेदश्च दण्डोपेक्षेन्द्रजालकम्।”,
“मायोपाया: सप्त परे निक्षिपेत् साधनाय तान्॥”,
“‘साम, दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, इन्द्रजाल और माया—ये सात उपाय हैं; इनका शत्रुके प्रति प्रयोग करना चाहिये। इन उपायोंसे शत्रु वशीभूत हो जाता है।’ [अग्निपुराण]”,

श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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