ब्राह्मण जन्म या कर्म से
विशेष : यह लेक सरयूपारीण ब्राम्हणो के इतिहास से सम्बंधित ग्रथ का भाग है इस लिए यहाँ प्रेषित किया गया है , किन्तु इसे पढ़ते हुए बहुत सी वर्ण सम्बंधित अवं श्रेष्ठता सम्बंधित भ्रांतियां उत्त्पन्न हो सकती है| इसलिए मूलभूत विषयो पर टिपण्णी करना हमने अनिवार्य समझा| पंडित जी को प्रणाम कर क्षमा याचना करते हुए ऐसा लिखने का सहस कर रहा हूँ, समय बहुत बदल गया है इसलिए ऐसा लिखना आवश्यक समझा|
१. वर्ण का सर्वप्रथम मानक जन्म है , फिर कर्म और फिर आचरण है, वर्णोचित आचरण ना करने पर भी व्यक्ति के वर्ण के सत्य को नाकारा नहीं जा सकता ऐसे व्यक्ति को ब्राम्हण क्षत्रिय, ब्राम्हण वैश्य, ब्राम्हण शूद्र इत्यादि संज्ञा दी जा सकती है , किन्तु उसका मूल भूत वर्ण ब्राम्हण तब तक है जब तक बीज रक्षण हो रहा है | अनेकानेक पीढ़ियों तक वेद अध्ययन ना होने पर पुनः ब्राम्हण ब्राम्हण की संज्ञा प्राप्त कर पाना कठिन होते जाता है |
आज के समय में जहाँ वर्णशंकरता की ओर समाज त्रीव्र गति से आकर्षित हो रहा है ऐसे में इस प्रकार के लेखों का दुरूपयोग हो सकता है |
२. सनातन धर्म के मूलभूत विषयों के लिए वर्णन करते समय मूलभूत ग्रंथो का आलम्बन पूर्णता में ना ले के केवल चुने हुए प्रसंगो प्रकट करने से भ्रम की स्थिति हिन् उत्त्पन्न होगी , और ऊपर से जैन और बौद्ध ग्रंथो तक का आलम्बन लेना पड़े तो यह उचित नहीं |
३. आवश्यता है की ब्राम्हण शास्त्रवादी बने ना की समझौतावादी | वर्ण पर हम लेख अलग से लिखेंगे |
४. एक तथाकथित उच्च गोत्र का व्यक्ति अगर वेद अध्ययन नहीं किया और दुसरे वर्ण के व्यक्ति ने वेद अध्ययन किया , नित्य संध्या पंचमहायज्ञ इत्त्यादि करता हो तो ऐसे में श्रेष्ठता तो माननी हिन् पड़ेगी | निद्रा के लिए भी सर को थोड़ा उचा तो रखना हीं पड़ता है |हमारे जैसे ब्राम्हण जो संध्या तक उचित समय पे नहींकरते पंचमहायज्ञ नहीं करते दार्श-पौर्णमास नहीं करते अग्निहोत्र नहीं करते, उन्हें भी अन्यों के तुल्य मान लिया जाय यह तो न्याय सांगत नहीं लगता|
इसी प्रसंग में यह एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि ब्राह्मण कौन है? उसका आधार जन्म है या कर्म। क्या वह ब्राह्मण है जो ब्राह्मण कुल में पैदा तो हुआ है किन्तु उसमें ‘ब्राह्मण के कर्म नहीं पाये जाते? क्या उस क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र को ब्राह्मण कहा जा सकता है जिसका जन्म तो ब्राह्मण कुल में नहीं हुआ है किन्तु उसमें ब्राह्मणों के सब धर्म, कर्म और आचार पाये जाते हैं। यह प्रश्न बहुत पुराना है। इस पर धर्मग्रन्थों में विचार भी किया गया है। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर से जब यह पूछा गया कि महाराज ब्राह्मण कौन होता है तो उन्होंने उत्तर दिया कि ‘जिसमें सत्य, ज्ञान, क्षमा, शील, अनृशंस्य, तप और दया हो।१ आगे फिर एक स्थल पर महाभारत में इसी प्रश्न को इस ढंग से पूछा गया है कि ‘राजन् ! कुल, वृत्त, स्वाध्याय और श्रुत इनमें से किसे ब्राह्मण माना जाय।२ महाराज युधिष्ठिर ने कहा कि ब्राह्मण होने के लिए न कुल, न स्वाध्याय और न श्रुत कारण होता है। वृत्त (चरित्र) ही ब्राह्मण होने में कारण है। अर्थात् कोई भी व्यक्ति जो सदाचारी है, ब्राह्मण है क्योंकि सदाचारी व्यक्ति निर्धन नहीं है।
निर्धन वह है जो कि चरित्र भ्रष्ट है। पढ़ने, पढ़ाने और शास्त्र चर्चा करने वाले यदि चरित्रहीन हैं तो वे व्यसनी हैं, मूर्ख हैं। जो क्रियावान है वही पण्डित है। यदि कोई व्यक्ति चारों वेदों का ज्ञाता है किन्तु चरित्रभ्रष्ट है तो वह शूद्र से भी गया गुजरा है। जो शुद्ध आचरण वाला व्यक्ति है वही ब्राह्मण है।
जन्म से जाति न मानी जाय, इस पक्ष में बौद्धधर्म प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने ‘भी प्रचार किया। उन्होंने कहा कि ‘कोई व्यक्ति जटा रखने से, गोत्र से या जाति से ब्राह्मण नहीं हो जाता। जिसमें सत्य और धर्म हो, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है।३ आर्य समाज, ब्राह्म समाज आदि अनेक सम्प्रदाय भी जन्म से जाति मानने के पक्ष में नहीं हैं। जैनी लोग भी जन्म से जाति नहीं मानते हैं, किन्तु उनके ग्रन्थ जैन आदिपुराण में कहा गया है कि ‘ब्राह्मण होने में तीन कारण हैं, तप, श्रुत और जाति। अतः जिस ब्राह्मण में श्रुत और तप नहीं है वह तो केवल ‘जाति ब्राह्मण’ है क्योंकि द्विज होने के लिए ब्राह्मण कुल में जन्म तदनुसार कर्म ये दोनों आवश्यक हैं। इसलिये क्रियाकर्म विहीन ब्राह्मण तो केवल नामधारी ब्राह्मण हैं।४ महाभाष्यकार ने भी कहा है कि ‘विद्या और तप से हीन ब्राह्मण तो ‘जाति ब्राह्मण’ ही है।५ मनु महाराज ने भी ऐसे अनेक कर्मों का उल्लेख किया है जिनके करने से ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है। उन्होंने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुये भी यह बात स्पष्ट रूप में लिखी है कि ‘जो ब्राह्मण प्रातः और सायंकाल संध्या नहीं करता है उसे महाणोचित सभी कर्मों से हटा देना चाहिए।६
इस प्रकार इस प्रश्न पर विचार करते हुए अन्त में अग्निपुराण में यह उल्लेख मिलता है कि ‘वह व्यक्ति पूर्ण ब्राह्मण है जो कि जाति, कुल, चरित्र, स्वाध्याय और श्रुत इन सबसे युक्त हो। अर्थात् ब्राह्मण कुल में जन्म हो और ब्राह्मणोचित कर्म करता हो वही पूर्ण ब्राह्मण है।७ भविष्य पुराण में भी कहा गया है कि जैसे भाग्य और कर्म दोनों के सहयोग से कार्य सिद्ध होता है उसी प्रकार पुरुष भी जाति और कर्म दोनों के होने से ही पूर्ण होता है। न केवल जाति से, न केवल कर्म से।८
विस्तार
ब्राह्मण लोग बड़े त्यागी, तपस्वी, धर्म प्रचारक और साहसी थे। वे वैदिक धर्म का प्रचार करने के लिए आर्यावर्त्त की सीमा से बाहर भी गये। विदेशों में आज भी वैदिक सभ्यता और संस्कृति के चिह्न पाये जाते हैं। देश के भीतर वंश वृद्धि के कारण ब्राह्मणों का विस्तार होने लगा। धीरे-धीरे वे विन्ध्याचल पर्वत के उत्तर और दक्षिण दोनों ओर फैल गये। जिन-जिन प्रदेशों में ये बसे वे उन्हीं प्रदेश के ब्राह्मण कहलाने लगे। जैसे गौड़ प्रदेश में बसने वाले गौड़ ब्राह्मण, कान्यकुब्ज प्रदेश में बसने वाले कान्यकुब्ज (कन्नौजिया) ब्राह्मण, उत्कल (उड़िसा) में बसने वाले उत्कल ब्राह्मण और मिथिल में बसने वाले मैथिल ब्राह्मण और महाराष्ट्र प्रदेश में बसने वाले महाराष्ट्रीय ब्राह्मण कहलाये। बंगाल में बसने वाले ब्राह्मण बंगाली कहलाये। इस प्रकार एक ही ब्राह्मण जाति से अनेक प्रदेशों में बसने के कारण उनके अनेक भेद हो गये।
उच्च-नीच भावना
कई प्रदेशों में बसने पर उन ब्राह्मणों पर उस-रस प्रदेश की परम्परा का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। इसका परिणाम यह हुआ कि एक प्रदेश के ब्राह्मण दूसरे प्रदेश के ब्राह्मणों के आचार-विचार और परम्पराओं की आलोचना करने लगे। कान्यकुब्ज ब्राह्मण कहने लगे हम दान नहीं लेते। अतः हम ऊंचे हैं। गौड़ ब्राह्मण कहने लगे कि कान्यकुब्ज लोग माँस खाते हैं। अतः वे हमसे छोटे हैं। मैथिल ब्राह्मण कहने लगे कि गौड़ ब्राह्मण तो अपने हाथ से हल चलाते हैं, हुक्का पीते हैं। अतः उनकी हमारी क्या तुलना। इस प्रकार ब्राह्मणों में उच्च-नीच की भावना पैदा हुई। किन्तु गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सभी ब्राह्मणों में परस्पर उच्च-नीच की भावना उचित नहीं हैं, क्योंकि
१. ब्राह्मण शब्द सभी प्रदेश में बसे हुये ब्राह्मणों के साथ लगता है। जैसे गौड़ ब्राह्मण, कान्यकुब्ज ब्राह्मण, महाराष्ट्रीय ब्राह्मण और मैथिल ब्राह्मण आदि। यदि ब्राह्मण शब्द न लगाया जाय तो केवल प्रदेश वाची शब्द से उस प्रदेश में रहने वाली सभी जातियों का बोध होगा। जैसे केवल ‘कान्यकुब्ज’ कहने से कान्यकुब्ज प्रदेश के क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी समझे जायेंगे। अतः स्पष्ट है कि उन-उन प्रदेशवाची शब्दों के साथ ब्राह्मण शब्द केवल अलगाव करने के लिए जोड़ा जाता है न कि ऊँच-नीच भाव सूचित करने के लिए।
२. यदि किसी एक वस्तु के कई टुकड़े हो जायें तो उनमें कोई एक टुकड़ा ऊँचा या कोई टुकड़ा नीचा नहीं माना जा सकता क्योंकि उस वस्तु का विक्रय की दर सब टुकड़ों में समान रूप से होती है। उसी प्रकार विभिन्न प्रदेशों में बस जाने से ब्राह्मण जाति में कोई ऊँच या नीच नहीं हो सकता।
३. देशवाची नाम के जुड़ जाने से एक नया नाम जरूर हो जाता है किन्तु गंभीरता से देखा जाये तो ब्राह्मण जाति के अवान्तर भेद शुक्ल, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि गुणपरक नाम प्रायः सभी स्थानों के ब्राह्मणों में पाये जाते हैं। उनमें ऊँच या नीच की भावना नहीं प्रकट होती।
४. ब्राह्मणों के आदि पुरुष ऋषि-महर्षि आपस में एक दूसरे को बड़ा या छोटा नहीं मानते थे। अतः उनके वंशज ब्राह्मणों में भी ऊँच-नीच की भावना अनुचित है।९
५. पद्मपुराण में कहा गया है कि तुलसी और पीपल के पत्तों में, शालिग्राम की मूर्तियों में, गायों में, ब्राह्मणों में और मन्त्रों में ऊँच और नीच की भावना नहीं होनी चाहिए। १०
कर्म से ब्राह्मण भेद
चाणक्य आचार्य ने अपनी पुस्तक ‘चाणक्य नीति’ में कर्म के अनुसार ब्राह्मणों का विभाजन ६ वर्गों में किया है-
१. ऋषि ब्राह्मण
२. द्विज ब्राह्मण
३. वैश्य ब्राह्मण
४. मार्जार ब्राह्मण
५. म्लेच्छ ब्राह्मण
६. चाण्डाल ब्राह्मण
इनका परिचय इस प्रकार है-
१. ऋषि ब्राह्मण– जो ब्राह्मण बिना जोती भूमि से फल, कन्द-मूल आदि खा कर वन में रहता है। प्रतिदिन श्राद्ध करता है। उसको ऋषि ब्राह्मण कहते हैं।
२. द्विजब्राह्मण-दिन में एक बार भोजन करने वाला ‘ब्राह्मणों के ६ को जिब्राह्मणानानि यज्ञ करने कराने और दान देने जाते तप करता है और स्त्री से केवल ऋतुकाल के बाद शुद्ध दशा में संभोग करता हो। उसको द्विज ब्राह्मण कहते हैं।
३. वैश्य ब्राह्मण-जो ब्राह्मण सांसारिक कार्यों में लिप्त रहता है। पशु पालत है। खेती और व्यापार करता है। वह वैश्य ब्राह्मण कहा जाता है।
४. मार्जार ब्राह्मण-दूसरे के काम को बिगाड़ने वाले, पाखण्डी, स्वार्थी, छली. कपटी, मुँह से मधुर भाषी और हृदय से क्रूर निर्मम ब्राह्मण को मार्जार ब्राह्मण या बिल्ला ब्राह्मण कहते हैं।
५. म्लेच्छ ब्राह्मण-बावली, कुआँ, तालाब आदि को निडर हो कर नष्ट करने वाला ब्राह्मण म्लेच्छ ब्राह्मण कहलाता है।
६. चाण्डाल ब्राह्मण-देवता का धन, गुरु का धन हड़पने वाला, दूसरी की स्त्री से संभोग करने वाला, सब तरह के लोगों में रह कर निर्वाह कर लेने वाला ब्राह्मण चाण्डाल ब्राह्मण कहा जाता है। ११
१. ब्राह्मणः को भवेद्राजन् ! किं वेद्यं च युधिष्ठिर।
व्रबीध्यति मति त्वां हि वाक्यैरमुमिभीमहे ।।
सत्यं ज्ञानं क्षमा शीलमानृशंस्यं तपो दया।
दृश्यन्ते यंत्र नागेन्द्र ! स ब्राह्मण इति स्मृतः ।।
वेद्यम् सर्प ! परं ब्रह्म निर्दुःखंममुखं च मत्।
यत्र गत्वा न शोचन्ति भवतः किं विवक्षिते ।। – महाभारत, वनपर्व, अध्याय १३०, श्लोक २०-३७
२. राजन् ! कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा।
ब्राह्मणो केन भवति ब्रब्रूयेतत् सुनिश्चितम् ।।
शृणु यक्ष ! कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुते।
कारणं हि द्विजत्वे स वृत्तमेव न संशयः ।।
वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः ।
अक्षीणवृत्तो न क्षीणः वृत्ततस्तु हतो हतः ।।
पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खाः यः क्रियावान् स पण्डितः ।।
चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तः स शूद्रादतिरिच्यते ।
योऽग्निहोत्रपरो दान्तः स ब्राह्मण इति स्मृतः ।। – महाभारत, वनपर्व, अध्याय ३१३, श्लोक १०७-१११
३. न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यह्मि सच्चञ्च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ।। -धम्मपद-श्लोक १३
४. तपः श्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मणकारणम् ।
तपः श्रुताभ्याम् यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः ।।
द्विर्जातो हि द्विजन्मेष्टः क्रियातो गर्भतश्च यः।
क्रियामन्त्रविहीनस्तु केवलं नामधारकः ।। – जैन आदिपुराण, अध्याय ३८, श्लोक ४३, ४८
५. विद्यातपोम्याम् यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः। – महाभाष्य
६. नोपतिष्ठति यो पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्। स शूद्रवत् बहिष्कार्योः सर्वस्माद्विजकर्मणः ।। – मनुस्मृति
७. जात्या कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन च।
एभिर्युक्तो हि यस्तिष्ठन्त्रित्त्यं स द्विज उच्चते ।। – अग्निपुराण
८. सिद्धिं गच्छेत् यथा कार्यं दैवकर्मसमुच्चयात्। एवं संसिद्धमायाति पुरुषो जातिकर्मणोः ।। – भविष्यपुराण, अध्याय ४५, श्लोक ३
९. पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी शास्त्री : ब्राह्मण भेद विचार।
१०. तुलस्यश्वत्थपत्रेषु शालिग्रामेषु धेनुषु।
महीसुरेषु मन्त्रेषु नोच्चनीचादिभावना ।। – पद्मपुराण… पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी शास्त्री : ‘ब्राह्मण भेद विचार’ पुस्तक में पृष्ठ तीन पर उद्धृत।
स०ब्रा० इति० – 2
११. चाणक्य नीति, अध्याय ११, श्लोक ११-१६.
श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर लेखक तथा प्रकाशक की सहायता करें
हम आप सभी को अपने नित्यकर्मों जैसे संध्यावंदन, ब्रह्मयज्ञ इत्यादि का समर्पणपूर्वक पालन करने की अनुरोध करते हैं। यह हमारी पारंपरिक और आध्यात्मिक जीवनशैली का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
इसके अलावा, हम यह भी निवेदन करते हैं कि यदि संभव हो तो आपके बच्चों का उपनयन संस्कार ५ वर्ष की आयु में या किसी भी हालत में ८ वर्ष की आयु से पहले करवाएं। उपनयन के पश्चात्, वेदाध्ययन की प्रक्रिया आरंभ करना आपके स्ववेद शाखा के अनुसार आवश्यक है। यह वैदिक ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये रखने का एक सार्थक उपाय है और हमारी संस्कृति की नींव को मजबूत करता है।
हमारे द्वारा इन परंपराओं का समर्थन और संवर्धन हमारे समुदाय के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देगा। आइए, हम सभी मिलकर इस दिशा में प्रयास करें और अपनी पारंपरिक मूल्यों को आधुनिक पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य करें।
हमें स्वयं शास्त्रों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए जब हम दूसरों से भी ऐसा करने का अनुरोध करते हैं।