सरयूपारीण ब्राह्मण वंश में परिवर्तन
किसी दूसरे गोत्र के ब्राह्मण की गद्दी (राशि) पर जाने पर वंश में परिवर्तन हो जाता है। जैसे- शांडिल्य गोत्रीय पोहिला तिवारी की गद्दी पर जाने पर वत्स गोत्रीय श्रीधर मिश्र का गोत्र तो वही रहा किन्तु अब वे वत्स गोत्र पोहिला तिवारी हो गये। इसी प्रकार इंटिया पाण्डेय का गोत्र पहले अगस्त्य था। उनकी गद्दी पर जाने पर गर्ग गोत्रीय महसों शुक्ल, गर्गगोत्रीय इंटिया पाण्डेय हो गये। नियम यह है कि किसी की गद्दी पर जाने पर जाने वाले ब्राह्मण का गोत्र तो वही अपना ही गोत्र रहता है किन्तु ब्राह्मण का वंश बदल जाता है जैसा कि ऊपर उदाहरण से स्पष्ट है।
इसका उद्देश्य यह है कि यह मालूम होता रहे कि यह गद्दी अमुक ब्राह्मण की थी। उस पर अमुक गोत्र के ब्राह्मण उत्तराधिकार में आये। गद्दी पर जाने पर अपनी प्रतिष्ठा गिर न जाय इसलिए लोग समाज में उच्च मान्यता न पाये ब्राह्मणों के यहाँ विवाह सम्बन्ध नहीं करते। अब इस नियम का पालन लोग प्रायः नहीं करते हैं यद्यपि गद्दी वाले ब्राह्मण की सम्पत्ति का उपभोग करते हैं या बेंच कर अपने पूर्व स्थान मै पुनः वापस चले जाते हैं। यह उचित नहीं।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी राजदरबार द्वारा किसी ब्राह्मण को द्विवेदी, चतुर्वेदी आदि प्रतिष्ठा की पदवी दी जाती है तो उसका पूर्व ब्राह्मण कुल छूट जाता है किन्तु गोत्र वही रह जाता है। जैसे-गर्ग गोत्रीय इटिया पाण्डेय कुल में एक पंडित नागनाथ हुये। उन्होंने दो वेदों पर अच्छी व्याख्या लिखी। इसको उन्होंने सुलतापुर जिले कोडवार राजदरबार में प्रस्तुत किया। राजा ने अपने पंडितों की सभा द्वारा संस्तुति करने पर पंडित नागनाथ को ‘द्विवेदी’ की उपाधि दी। वे अपने को कोडवरिया द्विवेदी लिखने और कहने लगे। इस प्रकार गर्ग गोत्रीय इटिया पाण्डेय, गर्ग गोत्रीय कोडवरिया द्विवेदी बन गये। गोत्रकार प्रमुख ऋषियों के नाम निम्नलिखित है- अंगिरा, अगस्त्य, अत्रि, उद्वाह, उपमन्यु, कण्व, कश्यप, कात्यायन, कुण्डिन, कौशल, कुशिक, कौशिक, गर्ग, गालव, गौतम, जमदग्नि, पराशर, भरद्वाज, भार्गव, भृगु, मौनस, वत्स, वर्तन्तु, वशिष्ठ, शांडिल्य, संकृति और सावर्णि।
इनके अतिरिक्त कृष्णात्रि, घृतकौशिक और गार्गेय थे मिश्रित गोत्र हैं।
श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर लेखक तथा प्रकाशक की सहायता करें
हम आप सभी को अपने नित्यकर्मों जैसे संध्यावंदन, ब्रह्मयज्ञ इत्यादि का समर्पणपूर्वक पालन करने की अनुरोध करते हैं। यह हमारी पारंपरिक और आध्यात्मिक जीवनशैली का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
इसके अलावा, हम यह भी निवेदन करते हैं कि यदि संभव हो तो आपके बच्चों का उपनयन संस्कार ५ वर्ष की आयु में या किसी भी हालत में ८ वर्ष की आयु से पहले करवाएं। उपनयन के पश्चात्, वेदाध्ययन की प्रक्रिया आरंभ करना आपके स्ववेद शाखा के अनुसार आवश्यक है। यह वैदिक ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये रखने का एक सार्थक उपाय है और हमारी संस्कृति की नींव को मजबूत करता है।
हमारे द्वारा इन परंपराओं का समर्थन और संवर्धन हमारे समुदाय के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देगा। आइए, हम सभी मिलकर इस दिशा में प्रयास करें और अपनी पारंपरिक मूल्यों को आधुनिक पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य करें।
हमें स्वयं शास्त्रों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए जब हम दूसरों से भी ऐसा करने का अनुरोध करते हैं।