आजकल के अर्वाचीन-विचार वाले व्यक्ति स्त्री एवं शूद्रादि को वेदाधिकारी सिद्ध करने के लिए “यथेमां वाचं कल्याणीम्” यह वेद-मन्त्र तथा अन्य वचन उपस्थापित किया करते हैं। हम उस पर विचार करते हैं। ‘आलोक’ पाठकगण इसे ध्यान से देखें। वह सम्पूर्ण मन्त्र यह है—
‘यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।
प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासम्।
अयं मे कामः समृद्ध्यताम्, उप माऽदो नमतु’।
(शुक्ल यजुर्वेद – माध्यंदिना शाखा २६।२)
वादियों का अभिप्राय यह है कि हमें कोई ऐसा वेद मन्त्र वा शास्त्र-वचन नहीं मिलता, जो स्त्री एवं शूद्रादि के वेदाध्ययन का निषेध करता हो, पर ऐसा मन्त्र तो मिलता है, जो सबको वेद का अधिकार देता है। वह यही मन्त्र है (श्री राजाराम शास्त्री, श्री रवि. आदि)।
यह मन्त्र उन महाशयों की स्व-गवेषणा से प्रसूत नहीं है। इसके उपस्थापित करने वाले व्यक्ति प्रायः स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के अनुयायी होने के नाते इसे मानते वा उद्धृत करते हैं। कई थोड़े ज्ञान वाले स्वतन्त्र पुरुष भी इस मन्त्र से प्रभावित होकर स्त्री-शूद्रादि को वेदाधिकार सिद्ध करने को तैयार हो जाते हैं। तब यह आवश्यक है कि इस मन्त्र पर सम्यक् विचार किया जाए। सबके उपजीव्य स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के अर्थ आलोचित कर देने पर प्रधान-मल्लनिवर्हण न्याय से सबकी आलोचना हो जाएगी। यह विचार कर हम स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का अर्थ उद्धृत करते हैं। यह मन्त्र स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋग्वेद भाष्य भूमिका, तथा अपने यजुर्वेद संहिता भाष्य में व्याख्यात किया है।
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी उक्त मन्त्र का अर्थ इस प्रकार करते हैं—
‘परमेश्वर कहता है कि – जैसे मैं सब मनुष्यों के लिए इस कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का आवदानि-उपदेश करता हूं, वैसे तुम भी किया करो। यहां कोई ऐसा प्रश्न करे कि – ‘जन’ शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्मृत्यादि-ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही के वेदों के पढ़ने का अधिकार लिखा है, स्त्री और शूद्रादि वर्णों का नहीं (उत्तर) ‘ब्रह्म-राजन्याभ्याम्’ इत्यादि। देखो परमेश्वर स्वयं कहता है कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्वाय अपने भृत्य वा स्त्रियादि, अरणाय और अतिशूद्रादि के लिए भी वेदों का प्रकाश किया है।… कहेंगे – अब तुम्हारी बात मानें या परमेश्वर की?”
(सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ संख्या – ४४)
अपने यजुर्वेद-भाष्य में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है—
‘हे मनुष्यो! मैं ईश्वर जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, और स्वाय अपने स्त्री-सेवक आदि, और अरणाय उत्तम-लक्षणयुक्त प्राप्त हुए अन्त्यज के लिए भी, इन उक्त सब मनुष्यों के लिए इस संसार में इमां – इस प्रकट की हुई सुख देनेवाली वाचम्-चारों वेद रूपी वाणी का आवदानि-उपदेश करता हूं, वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार उपदेश करें। जैसे मैं दान देने वाले के संसर्गी देवानां-विद्वानों की दक्षिणाए अर्थात् दान आदि के लिए मनोहर प्यारा हो जाऊं और मेरी यह कामना समृद्ध्यताम्-उत्तमता से बढ़े, तथा मुझे अदः-वह परोक्ष सुख प्राप्त हो, वैसे आप लोग भी होवे और वह कामना तथा सुख आपको भी प्राप्त होवे।’
(यजुर्वेद-भाष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती जी)
(१) अब इस अर्थ पर आलोचना दी जाती है। ‘आलोक’ पाठकगण इसे सावधानता तथा निष्पक्ष भाव से देखें। इस अर्थ में आपत्तियां वह हैं —
१. ‘हे मनुष्यो!’ यह अर्थ मन्त्र के किस पद का है? वे मनुष्य ब्राह्मणादि से क्या भिन्न थे, और अपने से वेद में उपदिश्यमान ‘जनों’ से भिन्न थे? जिनको सम्बोधित किया जा रहा है, क्या परमात्मा ने उन्हें वेदों का उपदेश नहीं किया था? वा उनको उक्त कहने से पूर्व ही परमात्मा ब्राह्मणादि को उपदेश कर चुके थे? उस समय यह मन्त्र तो वेद में नहीं रहा होगा।
२. यदि सम्मुखस्थ-मनुष्य ही परमात्मा को मन्त्रोक्त ब्राह्मणादि इष्ट हैं, तो उन्हें ‘वः जनेभ्यः’ इस प्रकार ‘युष्मद्’ शब्द से कहा जाता, और फिर ‘तुम्हें उपदेश करता हूं’ यह न कहा जाता, किन्तु ‘तुम्हें वेदवाणी का उपदेश जैसे कर चुका हूँ, वैसे तुम लोग भी करना’ इस प्रकार से कहा जाता, क्योंकि ऐसी बात उपदेश के अन्त में कही जाती है। न आदि में, और न मध्य में, यह स्पष्ट है, तब यह मन्त्र चारों वेदों, बल्कि अन्तिम वेद के अन्त में होना चाहिये था, अथवा आदिम-वेद की आदि में। पर मध्य में अधिकारिचिन्ता-निरूपण अप्रासङ्गिक है, फिर तो वेदोपदेश में व्यवधान डाल दिया गया। फलतः ‘हे मनुष्यो ! ऐसा सम्बोधन चिन्त्य है, क्या इस मन्त्र का देवता ‘मनुष्य’ है, जो स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने उन्हें परमात्मा की ओर से सम्बोधित किया। यह याद रखना चाहिए कि प्रतिपाद्य ही मन्त्रका देवता हुआ करता है, प्रतिपादक नहीं ।
३. ‘मैं ईश्वर’ यह शब्द मन्त्र के किस पद का अर्थ है ? क्या इस मन्त्र का ‘ईश्वर ऋषि’ है ? याद रखिए प्रतिपादक ही मन्त्र का ऋषि हुआ करता है।
४. ‘स्त्री-सेवकादि’ किस पद का अर्थ तथा कैसे है? क्या सेवक शूद्र आदि से भिन्न हो जाता है ? ‘स्त्री’ पृथक् कहने मे आगे कहे जानेवाले ‘जातिपक्ष’ का तो बाध हो गया।
५. ‘उत्तमलक्षण-प्राप्त अन्त्यजादि’ यह मन्त्रस्थ किस शब्द का अर्थ तथा कैसे है ? ‘उत्तम लक्षणयुक्त अन्त्यजों’ को देने से ‘अधम-लक्षणयुक्त अन्त्यज को वेदवाणी का उपदेश न होने से वेदवाणी ‘सर्वाधिकारा’ न हुई, इससे दयानन्द सरस्वती के पक्ष का मूल ही कट गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के सम्प्रदाय में चार वर्णों से भिन्न अन्त्यज भी क्या पञ्चम, अवर्ण माना जाता है ?
६. ‘चारों वेद रूप वाणी’ यह किस शब्दका अर्थ है ?
७. ‘वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार उपदेश करें’ यह किन पदोंका अर्थ है ?