“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ४

(१४) इसके अतिरिक्त उक्त मन्त्र का यदि स्वामी दयानन्द-प्रोक्त अर्थ माना जाए, तो इससे स्वामी दयानन्द सरस्वती से अभिमत गुणकर्म कृत वर्णव्यवस्था भी खण्डित हो जाती है। देखिये – १. यहाँ पर प्रष्टव्य है कि – ब्राह्मणादि वर्ण इस मन्त्र में परमात्मा को जन्म से अभिमत हैं, वा गुणकर्म से ? यदि जन्म से, तब तो वर्ण-व्यवस्था परमात्मा को जन्म से अभिमत हो गई। यदि गुणकर्म से यहाँ ब्राह्मणादि इष्ट हैं, तो वेदाध्ययन रूप गुण कर्म से पहले ही उनकी ब्राह्मणादि संज्ञा कैसे हो गई? २. और फिर वेदाध्ययन से क्षत्रिय, वैश्य की संज्ञा का क्या सम्बन्ध ? यदि यह संज्ञा उनकी जन्म से नहीं थी, तब परमात्मा ने ‘ब्राह्मण शूद्रादिकों मैं वेद पढ़ाता हूँ’ यह कैसे बताया, अथवा ‘परमात्मा ने ब्राह्मणादिकों वेद पढ़ाया’ यह कैसे जाना गया ?
३. परमात्मा ब्राह्मण तथा शूद्र-अतिशूद्रादिको वेद बराबर पढ़ाता है या न्यूनाधिक अर्थात् विषमता से? यदि विषमता से, तो पक्षपाती सिद्ध हो गया। ४. वह पक्षपात उन वर्णों के जन्म से है या गुण-कर्म से? यदि जन्म से, तो परमात्मा को जन्म से वर्ण-व्यवस्था इष्ट हुई। यदि गुण-कर्म से यह पक्षपात है, तो चारों का वेद पढ़ाना तो अभी से प्रारम्भ हुआ है, तब पढ़ने वालों में कर्म-तारतम्य कैसे हुआ? ५. यदि इसमें पूर्व-जन्म का कर्म-वैषम्य कारण है, तब ब्राह्मण-शूद्र आदि भी पूर्व जन्म के कर्म से सिद्ध हुए, इस जन्म के गुण-कर्म से नहीं, यह सनातनधर्म का सिद्धान्त ही विजयी हुआ। जैसे कि-न्यायदर्शन के ३।२।६९ सूत्र के वात्स्यायनभाष्य में उच्चाभिजन और निकृष्टाभिजन आदि रूप शरीरोत्पत्ति का कारण पूर्व-जन्म का कर्म माना है। ६. यदि परमात्मा सबको साम्य से पढ़ाता है, तब क्या उसमें इतनी भी शक्ति नहीं कि वह सब अपने शिष्यों को पूर्ण विद्वान् वा एक वर्ण का बना दे। ७. स्वामी दयानन्द सरस्वती के इस अर्थ को माननेवाले शिष्य महाभारतानुसार तो मानते हैं कि-आदि में केवल ब्राह्मण ही थे, अन्य वर्ण बाद में बने। इसमें वे कौन सी बात ठीक मानते हैं? ८. यदि परमात्मा में सबको एक वर्ण बनाने की शक्ति नहीं, तब वह सर्वशक्तिमान् कैसे? यदि शक्ति है तब उनमें चार संज्ञाएँ कैसे हुई? अथवा क्या यह व्यवस्था बनी हुई है कि-एक वेद पढ़े तो शूद्र, दो वेद पढ़े तो वैश्य, तीन वेद पढ़े तो क्षत्रिय, चार पढ़े तो ब्राह्मण? यदि यह व्यवस्था बनी हुई है, तो मैं ‘चार वर्णों तथा अवर्णों को चारों वेदों की वाणी का उपदेश करता हूँ’ यह स्वामी दयानन्द सरस्वती का अर्थ खण्डित होता है। इससे स्पष्ट है कि परमात्मा जन्म से इन चारों वर्णों को मानकर उनके पढ़ाने में उनके अधिकार के अनुसार वैषम्य करता है, सबको नहीं पढ़ाता।
९. अन्य यह भी प्रष्टव्य है कि वे ब्राह्मणादि पहले वेद से भिन्न अन्य शास्त्र भी पढ़े हुए थे, या नहीं? यदि पढ़े हुए थे, तो वेद उन शास्त्रों से पीछे की रचना हुई। यदि नहीं पढ़े हुए थे, तो उनको वेदों की आरम्भ में ही समझ कैसे आ गई? १०. परमात्मा ने उन्हें वेदवाणी ही पढ़ाई, या अर्थ भी समझाए? यदि अर्थ ही समझाए, तो वेदवाणी का उपदेश उन्हें पहले से ही सिद्ध हो गया, फिर ‘परमात्मा ने चारों वर्णों को वेद पढ़ाए’ यह स्वामी दयानन्द सरस्वती का अर्थ खण्डित हो गया, फिर अर्थात्मक ब्राह्मण-भोग भी परमात्म-प्रणीत होने से वेद सिद्ध हो गया! यदि परमात्मा ने उन्हें वेद-वाणी का ही उपदेश किया; अर्थ का नहीं तब उन्हें अर्थ-ज्ञान कैसे हो गया? ११. उस समय अग्नि, वायु, रवि, अङ्गिरा- ये चार स्वामी दयानन्द सरस्वती से अभिमत ऋषि भी वेद पढ़ने में शामिल थे या नहीं? यदि थे, तो उनका नाम यहाँ क्यों नहीं आया? यदि नहीं थे, तो उन्होंने फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती के मतानुसार संसार को एक-एक वेद का सृष्टि की आदि में उपदेश कैसे दिया? क्या उस समय जगत्भर के ब्राह्मण-शूद्र आदि परमात्मा से पढ़ाए गये वेद को भूल गए? क्या यह भी वेद में कोई क्रमिक इतिहास है, क्योंकि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘अग्ने ! देवेषु प्रवोचः’ (ऋग्वेद १।२७।४) यहाँ ‘जगदीश्वर ! त्वं सृष्ट्यादौ जातेषु पुण्यात्मसु अग्निवाय्वादित्याङ्गिरस्सु मनुष्येषु प्रोक्तवान्।’ यह भी कहा है। क्या यह वेद में भिन्न-भिन्न काल का वर्णन भी आप मानते हैं? १२. ये चारों स्वाम्यनुसार ब्राह्मण थे- इनमें परमात्मा ने किसी स्त्री तथा शूद्र को क्यों नहीं रखा जाना आदिष्ट किया? क्या उस ऋग्वेद के समय में परमात्मा सनातनधर्मी थे, और यजुर्वेद में ‘यथेमां वाचं मन्त्र आते-आते आर्यसमाजी हो गए, और अथर्ववेद में फिर द्विजों के लिए’ वेद रखकर अन्त में सनातनधर्मी हो गए!
१३. स्वामी दयानन्द सरस्वती पूर्ण-विद्वत्ता से ब्राह्मण तथा पूर्ण-मूर्खता से शूद्र बनना मानते हैं। यदि परमात्मा उनके किए अर्थ के अनुसार पूर्ण-विद्वान् को फिर वेद पढ़ाता है; तो परमात्मा भ्रान्तिमान् सिद्ध होता है, क्योंकि वह पूर्ण-विद्वान् को फिर वेद क्यों पढ़ाए? यदि फिर भी पढ़ाता है और भ्रांतिमान् भी नहीं है, तो इससे स्पष्ट है कि वे ब्राह्मण पूर्ण-विद्वान् नहीं थे, किन्तु अपूर्ण विद्वान् थे। तभी तो परमात्मा ने उन्हें वेद पढ़ाया । यदि ब्राह्मणगण अपूर्ण विद्वान् थे, तो वे ब्राह्मण ही कैसे रहे ? यदि वे ब्राह्मण ही न रहे, तो परमात्मा ने ब्राह्मणों को वेद पढ़ाया- यह स्वामी दयानन्द सरस्वती का कहना गलत सिद्ध हो गया। अथवा जन्म से उनकी ब्राह्मणता मानने पर परमात्मा के मत में वर्णव्यवस्था जन्म से सिद्ध हुई ।
१४. स्वामी दयानन्द सरस्वती के मत के अनुसार अत्यन्त मूर्ख ही शूद्र-पद को प्राप्त करता है, तो क्या परमात्मा नहीं जानता था कि यह अत्यन्त मूर्ख है, इसका पढ़ाना व्यर्थ है, मैं इसे क्यों पढ़ाता हूँ ? यदि वह यह नहीं जानता, तो तो वह अल्पज्ञ सिद्ध होता है। यदि वह पढ़ाये जा सकने योग्य शूद्र को पढ़ाता है, न पढ़ाये जा सकने योग्य शूद्र वा अतिशूद्र को वेद नहीं पढ़ाता, तो फिर वेद स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार मनुष्यमात्र के लिए नहीं रहते, जैसे कि -स्वामी दयानन्द सरस्वती के यह शब्द हैं कि- ‘मनुष्यमात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है’ (सत्यार्थ प्रकाश ३ पृष्ठ ४४) । और फिर परमात्मा अपनी उक्ति से विरुद्ध भी सिद्ध होता है, क्योंकि वह ‘अरण’ को भी वेद पढ़ाता है, जिसका अर्थ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘अतिशूद्रादि’ किया है।
१५. यदि परमात्मा, जान-बूझकर ही शूद्र-अतिशूद्रादि को वेद पढ़ाता है, तब वह पढ़ाए जा सकने योग्य को शूद्र कैसे कहता है ? वेद पढ़े हुए शूद्र को फिर वह ब्राह्मणादि क्यों नहीं मानता ? इस प्रकार अपूर्ण-विद्वान् को भी वह ब्राह्मण क्यों कहता है? इससे स्पष्ट है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती के किये हुए अर्थ के अधीन भी परमात्मा वर्णव्यवस्था जन्म से ही मानता है, क्योंकि वह वेद-पढ़े भी शूद्र को शूद्र कहता है; ब्राह्मण नहीं । अब स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की इच्छा है कि-अपने अनभीष्ट सिद्धान्त के प्रचारक ईश्वर को अपने सम्प्रदाय से बाहर कर दें, अथवा फिर ‘अहम्’ पद से ‘परमेश्वर’ अर्थ और ‘वाचं’ का ‘वेदवाणी’ अर्थ न मानें; जिसमें शतशः दोष उपस्थित होते हैं। क्योंकि तब ‘वेदमाता… द्विजानाम्’ (अथर्ववेद संहिता १६।७१।१) इस मन्त्र से भी उक्त मन्त्र का विरोध पड़ता है- ‘वेदमाता द्विजानां पावमानी’ यह शब्द स्पष्ट हैं। शूद्र को एकज माना गया है, ‘द्विज’ कहीं नहीं माना गया; और उसे द्विजत्व का अधिकार भी कहीं नहीं दिया गया। उसे तो कृच्छ्रकर्म सेवारूप तप की ही आज्ञा है, जैसा कि वेद में ही कहा है – ‘तपसे शूद्रम्’ (यजुर्वेद संहिता ३०।५) इसका आर्यसमाजी भी यही अर्थ मानते हैं। (देखो ९ पुष्प) स्मृति में भी कहा है- ‘तपः शूद्रस्य सेवनम्’ (मनु. ११।२३५) । आजकल के विद्वान् भी इसका यही अर्थ करते हैं। इसके अतिरिक्त ‘यथेमां-वाच’ मन्त्र में ‘वेदवाच’ पाठ भी नहीं, फिर इससे सबको वेदाधिकार कैसे सिद्ध हो सकता है? नहीं तो विविध-वेदमन्त्रों में परस्पर-विरोध होने से वेद अप्रमाणित हो जाए ।

(१५) अन्य प्रश्न यह है कि ब्रह्म-राजन्य आदि शब्द उस-उस वर्ण वा जाति में रूढ इष्ट हैं, या यौगिक ? यदि रूढ, तो वेद में रूढ शब्द भी सिद्ध हो गये, तो वादियों का वेद में केवल यौगिक-शब्द मानना खण्डित हो गया। यदि यह शब्द यहाँ यौगिक है, तो यह बात यहाँ कैसे घट सकती है, क्योंकि-वेद-पठन कर्म तो पांचों का एक ही कहा है, तो तदनुसार या तो सभी ब्राह्मण हो जाते, या सभी शूद्र, अन्त्यज नामधारी हो जाते। इससे स्पष्ट है कि-इनकी यह संज्ञा वेद-पठनादि कर्म-मूलक नहीं, किन्तु जन्म से रूढ है, जिससे वर्णव्यवस्था जन्म से सिद्ध होती है। नहीं तो सृष्टिकी आदि में युद्धों के न होने से कइयों की संज्ञा क्षत्रिय कैसे हुई ? वाणिज्य न होने से वैश्य-संज्ञा कैसे हुई ?

(१६) अन्य यह भी प्रष्टव्य है कि परमात्मा ने जिन ब्राह्मणादि को पढ़ाया; उनकी कितनी आयु थी ? सबकी समान आयु थी, वा भिन्न-भिन्न ? उनके माता-पिता थे वा नहीं, उनके गुरुकुल का क्या नाम था ? वहाँ आचार्य-उपाचार्य आदि कौन थे ? यदि परमात्मा ही आचार्य थे, तो पढ़ाने वालों का उपनयन किया गया वा नहीं? वे सभी द्विज किये गये, वा कई एकज भी रहे-यह बात इस मन्त्र से कैसे जानी जाय ?

(१७) वास्तव में ऐसा अर्थ करने पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी परस्पर-विरुद्ध वक्ता सिद्ध होते हैं, क्योंकि उन्होंने सृष्टि की आदि में अग्नि, वायु, सूर्य, अङ्गिरा नामक चार ऋषियों को ही परमात्मा द्वारा वेद का ज्ञान देना बतलाया है (देखिये ऋग्वेद १।२७।४ का स्वामी दयानन्द सरस्वती का भाष्य ।) ‘ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिका’ में भी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा है-‘ (प्रश्न) ईश्वरो न्यायकारी अस्ति, वा पक्षपाती (उत्तर) न्यायकारी’ (प्रश्न) तर्हि चतुर्णामेव [ऋषीणाम्] हृदयेषु वेदाः प्रकाशिताः, कुतो न सर्वेषाम् (उत्तर)… तेषामेव [चतुर्-ऋषीणाम्] पूर्वपुण्यमासीत्; अतः खल्वेतेषां हृदये वेदानां प्रकाशः कर्तुं योग्योस्ति’ (वेदोत्पत्ति-विषय पृष्ठ १६)। तो पहले केवल चार पुण्यात्मा ऋषियों को परमात्मा द्वारा वेद-ज्ञान का प्रदान दिखलाकर-जिन में कोई स्त्री-शूद्र नहीं था, फिर सभी पुण्यात्मा-अपुण्यात्मा ब्राह्मण-शूद्रादिको परमात्मा-द्वारा वेद-ज्ञान-प्रदान कैसे बतलाया ? यह परस्पर विरोध हुआ, वा पहले चार ऋषियों का पढ़ाना और उनका पुण्यात्मत्व सिद्ध करना व्यर्थ हुआ। इससे तो यह सिद्ध हो रहा है कि-परमात्मा ने आरम्भ में केवल चार पुण्यात्मा ब्राह्मणों को ही वेदोपदेश दिया, उन में कोई क्षत्रिय, वैश्य भी नहीं था; पापयोनि स्त्री, शूद्र तथा अतिशूद्रादिका तो क्या कहना ? इसलिए ‘ब्रह्मणे ब्राह्मणम्’ (यजुर्वेद ३०।५) इस मन्त्र में भी वेदाधिकारी ब्राह्मण को ही रखा। इसलिए ‘विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम’ इस मन्त्र में भी विप्र, ब्राह्मण यही शब्द आये हैं। यदि कहा जाय कि-पहला सृष्टि का आदिकालीन वर्णन है, दूसरा ‘यथेमां’ वाला मध्यकालिक, तो वेद में स्वामी दयानन्द सरस्वती के विरुद्ध भिन्न-भिन्न काल का इतिहास सिद्ध हो जाने से वेद की अनित्यता प्रसक्त होगी। फिर ‘वेदमाता… द्विजानाम्’ (अथर्ववेद १९।७१।१) यह द्विजों को वेदाधिकार अन्तिम वेद में कहने से यह परमात्मा का अन्तिमपक्ष, सिद्धान्तपक्ष, एवम् उत्तरपक्ष हो जायगा; और यही मान्य सिद्धान्त हो जायगा ।

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