“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ७

(३३) तो जब यहाँ ईश्वर प्रतिपादक नहीं, तब ‘जैसे मैं ईश्वर चार वेदरूप वाणी का उपदेश करता हूं’ यह स्वामी दयानन्द सरस्वती का अभिप्रेत अर्थ भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि ‘अहम्’ यह प्रतिपादक का शब्द है, प्रतिपाद्य का नहीं। जबकि ईश्वर यहाँ प्रतिपाद्य है, प्रतिपादक नहीं, तो वह यहाँ ‘मैं ईश्वर’ यह कैसे कह सकता है? यदि स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी यहाँ (२६।२) ईश्वर को देवता होने पर भी जबर्दस्ती ‘प्रतिपादक’ मानें; तो उसके अग्रिम ‘बृहस्पते ! अति यदर्यो… तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् उपयामगृहीतोसि’ (यजुर्वेद २६।३) मन्त्र में भी उन्हें ईश्वर को प्रतिपादक मानना पड़ेगा। तो क्या ईश्वर ऐसी प्रार्थना कर सकता है ?

(३४) स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के अनुयायी यदि हमारी बात न मानें, तो हम ‘बृहस्पते ! अति यदर्यो (२६।३) मन्त्र का स्वामी दयानन्द सरस्वती का भाष्य उद्धृत करते हैं- ‘है (बृहस्पते) बड़े-बड़े प्रकृति आदि पदार्थों और जीवों के पालने हारे ईश्वर ! जो आप (उपयामगृहीत) प्राप्त हुए यमनियमादि योग-साधनों से जाने गये (असि) हैं, उन आपको (बृहस्पतये) बड़ी वेदवाणी को पालने के लिए तथा जिन (ते) आपका (एषः) यह (योनिः) प्रमाण है, उन (बृहस्पतये) बड़े-बड़े आप्त विद्वानों की पालना करने के लिए (त्वा) आपको हम स्वीकार करते हैं… (तत्) उस (चित्रम्) आश्चर्य रूप ज्ञान (द्रविणम्) धन और यश को (अस्मासु) हम लोगों में (धेहि) धारण स्थापना कीजिये’ ।
इस स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य से स्पष्ट है कि ईश्वर यहाँ प्रतिपाद्य है; क्योंकि वह इस मन्त्र (२६।३) का देवता है। ऋग्वेद भाष्य भूमिका (शताब्दी संस्करण पृष्ठ ६४२) में भी स्वामी दयानन्द सरस्वती जीने ‘बृहस्पते ! अति’ के लिए लिखा है- ‘तदस्मदधीनं द्रविणं-धनं कृपया धेहि’ इत्यनेन मन्त्रेण ईश्वरः प्रार्थ्यते’। इस प्रकार इस मन्त्र से पूर्व के ‘यथेमां वाचं’ का भी ईश्वर देवता है। तब वह ईश्वर वहाँ भी ‘हे बृहस्पते !’ इस प्रकार प्रार्थ्य होगा, प्रार्थक नहीं। जैसे कि ‘वेदवाणी’ के वेदांक (५।१-२) के १२१ पृष्ठ में श्रीब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु ने भी लिखा है- (७) मन्त्र के प्रतिपाद्य विषय को देवता माना है (शतपथ ब्राह्मण २ पृष्ठ २३) ‘यस्य-यस्य मन्त्रस्य यो-योऽर्थोस्ति, स-सोऽर्थस्तस्य देवता-शब्देन अभिप्रायार्थ-विज्ञापनार्थ प्रकाश्यते । एतदर्थं ‘देवता’ शब्दलेखनं कृतम्’ (पृष्ठ ६९० ऋग्वेद भाष्य भूमिका शताब्दी संस्करण)
एक दयानन्दी के ‘दयानन्द-वेदभाष्यानुशीलन’ में भी लिखा है- ‘सर्वानुक्रमणी” (२।५) में लिखा है- ‘या तेनोच्यते सा देवता’ इसी पर षड्‌गुरुशिष्य कहता है-‘तेन वाक्येन प्रतिपाद्यं वस्तु सा देवता’ अर्थात् मन्त्र के प्रतिपाद्य विषय का नाम ही देवता है (पृष्ठ २०) ।
जब यह वादी मानता है- तब जो उसने नीक्षीवि. में आक्षेप किया है कि- ‘मैं भी आप से पूछता हूँ कि आपके पौराणिक पण्डित | महीधराचार्य | ने किस प्रकार ‘हे परमात्मन् !’ अर्थ किया है।
यह उसकी बात स्वयं खण्डित हो गई। क्योंकि जब, वादी ने ‘देवता’ का अर्थ स्वयं ‘प्रतिपाद्य’ माना है; तब ‘परमात्मानं प्रत्युच्यते’ तथा ‘हे. परमात्मन्’ यह प्रतिपाद्य परमात्मा को कहा जा सकता है। परमात्मा यहां ‘ऋषि’ न होने से ‘मैं ईश्वर’ यह स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत अर्थ वादी के अनुसार भी गलत सिद्ध हुआ, और श्रीमहीधराचार्य का अर्थ ठीक सिद्ध हुआ ।
जब ऐसा है; तो २६।३ मन्त्र में जैसे ‘अस्मासु’ का ‘हम जीवों वा मुझ ऋषि में’ यह अर्थ है; वैसे ही २६।२ मन्त्र में भी ‘अहं आवदानि’ का ‘मैं ईश्वर’ अर्थ नहीं; किन्तु ‘मैं जीव यजमान-ऋषि’ यही अर्थ होगा । यदि वादी लोग ‘अस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्’ (२६।३) इस मन्त्र में ईश्वर की ओर से ऐसी प्रार्थना के असम्भव होने से उसे इसमें प्रतिपादक न मानकर प्रतिपाद्य मानें; तो वैसे ही २६।२ मन्त्र में भी ‘प्रियो देवानां, दक्षिणायाश्च दातुः प्रियो भूयासम्, अयं मे कामः समृष्यताम्, माम् अद उपनमतु’ इस अन्तिम अंश में (जिसे वादी छिपा दिया करते हैं) कही प्रार्थना को भी पूर्णकाम ईश्वर नहीं कर सकता। अतः २६।२ मन्त्र में भी ईश्वर प्रतिपाद्य ही होगा, प्रतिपादक नहीं। तब ‘हे बृहस्पते ! अहं कल्याणीं वाणीमावदानि’ इसका कर्ता भी जीव ही हुआ, ईश्वर नहीं। तब उसमें वाणी भी जीव की होगी, ईश्वर की चतुर्वेदरूप वाणी नहीं ।

(३५) फलतः यहां ऋषि की ‘दीयताम्, भुज्यताम्’ यह वाणी ही इष्ट है, उसका पूर्ण करना ईश्वर के ही अधीन है; अतः उस वाणी का पति भी ईश्वर है। इसी से ‘यथेमां’ के अग्रिम मन्त्र में ईश्वर को ‘बृहस्पति’ शब्द से सम्बोधित किया गया है। ‘वाग् हि बृहती, तस्या एष पतिः’ यह अर्थ ‘छान्दोग्योपनिषत्’ [१।२।११] में किया गया है- ‘कुक्कुटयादीनामण्डा-दिषु’ (वार्तिक ६।३।३५) इस से पुंवद्भाव हो गया है। प्रकरणानुसार ‘बृहती वाक्’ यहां पर ‘दीयताम्, भुज्यताम्’ इत्यादि पूर्ववर्णित याज्ञिक वाणी ही हैं। अथवा ‘बृहद् वदेम विदथे’ इस मन्त्र के ‘बृहत्’ की तरह यह ‘बृहद्’ नपुंसकलिंग है, ‘बृहतो वचनस्य पतिः बृहस्पतिः ।’ तब यहां वही ‘दीयतां भुज्यताम्’ यह ऋषि-प्रोक्त वचन वा वाणी ही विवक्षित है। यज्ञ में देववाक् देवताओं को ही सुनाई जाती है; क्योंकि वे उसके उपास्य है, मनुष्य नहीं। तब वेदवाणी यहां प्रकृत नहीं ।
‘आवदानि’ का अर्थ ‘कहता हूं’ नहीं है; किन्तु ‘कहूँ’ यह है, क्योंकि-‘आवदानि’ यह प्रार्थना-अर्थ में लोट् है, वर्तमानार्थक लट् नहीं । परमात्मा प्रार्थना नहीं कर सकता । इस प्रकार वादियों के अर्थ के अशुद्ध सिद्ध होने से तदाश्रित उनका पक्ष गिर गया ।
इस से स्पष्ट हुआ कि दोनों ही मन्त्रों में ईश्वर ‘देवता’ होने से वाच्य (प्रार्थ्य) है, वाचक (प्रार्थक) नहीं, प्रतिपाद्य वा सम्बोध्यमान है, प्रति-पादक वा सम्बोधक नहीं, तब जो स्वामी दयानन्द सरस्वती जीने सत्यार्थ प्रकाश में ‘यथेमां’ इस मन्त्र का ‘परमेश्वर कहता है कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिए… ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का उपदेश करता हूं’ यह अर्थ किया हैं, वह देवतावाद से विरुद्ध है, तथा प्रकरण से भी विरुद्ध है; क्योंकि इस मन्त्र के सामने चारों वेद नहीं रखे हुए हैं। वेदों के अन्त में होने पर तब वहाँ वह अर्थ घटता, पर अब वैसा न होने से वह अर्थ सम्भव भी नहीं हो सकता। खेद तो यह है कि गतानुगतिक, उनके पीछे बिना स्वयं कुछ भी विचार किए भागते हुए लोग गड्डलिका-प्रवाह में बहकर थोड़ा-सा भी विवेचन का कष्ट नहीं उठाना चाहते। ऐसी उनकी परप्रत्ययनेयता देखकर हमें अत्यन्त खेदमिश्रित आश्चर्य होता है।

(३६) ‘देखो परमेश्वर स्वयं कहता है कि-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अतिशूद्रादि, अपने भृत्य वा स्त्रियों के लिए भी ऋग्वेदादि चारों वेदों का प्रकाश किया है’ यह अर्थ स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का स्वयं कल्पित है, क्योंकि-‘परमेश्वर कहता है यह शब्द मन्त्रस्थित किसी भी पद का अर्थ नहीं । ‘ऋग्वेदादि चारों वेदों की’ यह शब्द भी मन्त्रान्तर्गत नहीं हैं। ‘अतिशूद्रादिके लिए भी’ यहां के ‘भी’ शब्द का वाचक पद ‘अपि’ भी मन्त्र में नहीं है। ‘भृत्य वा स्त्रियादिके लिए भी वेदों का प्रकाश किया है’ यह शब्द भी मन्त्रस्थित किसी भी पद का अर्थ नहीं। ‘स्वाय’ का अर्थ ‘अपने’ और ‘अरणाय’ का अर्थ ‘अपगतोदकसम्बन्ध’ अर्थात् ‘पराया’ है, ‘अतिशूद्र’ का यहां कोई सम्बन्ध ही नहीं। देखिये निरुक्त ‘परिपद्य” हि श्ररणस्य’ ‘अरणोऽपार्णो भवति’ (३।२।१) । अथवा इसका अर्थ ‘अन्त्यज’ माना जावे, तो उसे ‘पराया’ बताने से तथा अपगतोदक सम्बन्ध होने से उनकी अस्पृश्यता वेदसम्मत सिद्ध होगी, क्या आर्यसमाजी लोग अवर्ण को अस्पृश्यता वैदिक मानते हैं ?
इस से स्पष्ट है कि इस प्रकार के अशुद्ध अर्थ करने तथा प्रचलित करने का उत्तरदायित्व स्वामी दयानन्द सरस्वती जी पर ही है, किसी भी प्राचीन ऋषि-मुनिने ऐसा अर्थ नहीं किया, वा नहीं माना। इस कारण हमने विचार भी स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दृष्टिकोण से किया है। स्त्री’ शब्द का तो इस मन्त्र में गन्ध ही नहीं है। जबकि ‘जनेभ्यः’ से ‘मनुष्यमात्र’ का ग्रहण प्राप्त था, तो ‘ब्राह्मण-राजन्य’ आदि पृथक् क्यों कहे गये ? इस से ब्राह्मणी, शूद्रा आदि स्त्रियों के बाधित हो जाने से उक्त मन्त्र में स्त्रियाँ इष्ट नहीं हैं। तभी तो स्त्री-वेदाध्ययन-पक्षपाती स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने जब देखा कि यहाँ ‘स्त्री’ का वर्णन किसी पद से नहीं निकलता, अपितु ‘जनेभ्यः’ से पृथक् ब्राह्मणादिके कहने से स्त्री का ग्रहण वाधित होता है, यह सोचकर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने विवश होकर ‘स्वाय’ इस पद का ‘अपने भृत्य वा स्त्रियादि’ यह अर्थ बलात् कर दिया। कदाचित् निराकार की पत्नियाँ वा नौकर भी होते हों ! वस्तुतः ऐसा अर्थ करना जनता की आँखों में धूल झोंकना है; तब स्त्री-शूद्र के वेद-अध्ययन के अधिकार में इस मन्त्र को उपस्थापित करना व्यर्थ ही है।
फलतः उक्त मन्त्र में जब परमात्मा ‘प्रोच्यमान’ (प्रतिपाद्य) है, प्रवक्ता नहीं, तब यह मन्त्र ईश्वरप्रवक्तृक सिद्ध न हुआ, किन्तु जीवप्रवक्तृक ही सिद्ध हुआ । तब ‘यथेमां वाचमावदानि’ इस से ईश्वर की वाणी वेदवाणी का ग्रहण न हुआ। तब जो लोग वैसा मानते हैं, उनका पक्ष देवतावाद-द्वारा निष्कृत हो गया। उक्त मन्त्र से पूर्व के मन्त्र में ‘सकामानु अध्वनः कुरु’ ‘संज्ञानमस्तु मेऽमुना’ (२६।१) इन पदों से तथा उत्तरमन्त्र में ‘तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्’ (२६।३) इत्यादि मन्त्रों द्वारा प्रार्थना करने से और ‘यथेमां वाचं’ (२६।१) इस प्रकृत मन्त्र में ‘हे बृहस्पते ! इमां वाचम् आवदानि’ प्रियो दक्षिणाया दातुरिह भूयासम् ‘दक्षिणायै’ यहाँ षष्ठ्यर्थमें चतुर्थी है (वार्तिक २।३।६२), अयं मे कामः समृध्यताम्’ इत्यादि प्रार्थनाओं से सिद्ध होता है कि पूर्णकाम परमात्मा इस मन्त्र के अर्थ का वक्ता नहीं, क्योंकि सर्वशक्तिमान् ईश्वर ऐसी प्रार्थना अन्य को नहीं कर सकता । हाँ, ईश्वर को जीव ऐसी प्रार्थना कर सकता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा हैं कि ‘न उस (ईश्वर) को कोई अप्राप्त पदार्थ, न कोई उससे उत्तम और पूर्ण सुख-युक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं है; इसलिए ईश्वर ने इच्छा का तो सम्भव नहीं’ (७ समुल्लास ईश्वर सगुण-निर्गुण पृष्ठ १२४) तब यहाँ कामना होने से यह ईश्वर का वाक्य सिद्ध न हुआ । माण्डूक्योपनिषद् (गौडपादकारिका १।९) में भी लिखा है- ‘आप्त-कामस्य का स्पृहा’ (जिसको सभी कामनाएं प्राप्त हैं; उनको भला कामना कैसे ? तब देवतावाद के कारण इस मन्त्र का ‘वक्ता’ जीव और ‘वाच्य’ ईश्वर सिद्ध हुआ। तब फिर ‘वाचम्’ से ईश्वर की वाणी वेद-वाणी का ग्रहण भी सिद्ध न हुआ। किन्तु जीवकी वाणी- यज्ञमें कही जाती हुई ‘दीयतां भुज्यताम्’ इस पूर्व-प्रोक्त ऋषिकी वाणी का ही यहाँ ग्रहण सिद्ध हुआ; और वादिगणसम्मत अर्थ न रहा। वेद में अधिकार ‘वेदमाता… द्विजानाम्’ (अथर्ववेद संहिता १९/७१।१) केवल द्विजों का हुआ ।

(३७) द्विज, ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य यह तीन ही होते हैं। शूद्र एक ही होता है। ‘गौतमधर्मसूत्र’ में कहा है- ‘शूद्रश्चतुर्थो वर्णं एकजातिः’ (२।१।५१) यहाँपर श्रीहरदत्ताचार्यने व्याख्या की है-‘वर्णसामान्यत्वे सत्यपि चतुर्थग्रहणं पूर्वेषां त्रयाणां ब्राह्मणादिवर्णानां पृथग्वर्णत्वोपपादनार्थम् । त्रैवर्णिकाः इति सिद्धत्वात् एकजातिः । उपनयनं पूर्वेषां द्वितीय-जन्म । तद् (द्वितीयजन्म) अस्य (शूद्रस्य) नास्ति इति उपनयनप्रतिषेधात् तत्पूर्वक-अध्ययनमपि न भवति ।’ ‘स्मृतिचन्द्रिका’ के संस्कारकाण्डमें उपनयनप्रकरण- में भी कहा है-‘ब्राह्मणादीनां त्रयाणामेव द्विजत्वं; न तु शूद्रस्य, तस्य द्वितीय-जन्मनोऽभावात् । तथा च याज्ञवल्क्यः ‘मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जीबन्धनात् । ब्राह्मणक्षत्रियविशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृताः ।’ ब्रह्मसूत्र ३।४।१२ सूत्र के माध्वभाष्य में भी कहा है- ‘अवैष्णवस्य वेदेऽपि ह्यधिकारो न विद्यते ।… न च वर्णावरस्यापि (शूद्रादेः) ।’ तो यदि ‘यथेमां वाचं’ मन्त्र, द्विजेतरों को भी वेद का अधिकार दे दे; तब उक्त दोनों मन्त्रों में परस्पर-व्याघात हो जावे; और फिर ‘तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तेभ्यः’ (न्यायसूत्र २।१।५७) वेद अप्रमाण हो जावें, पर ऐसा नहीं। ‘वेदमाता… द्विजानाम्’ (अथर्ववेद १९।७१।१) यहाँ ‘वेद’ शब्द तथा ‘द्विज’ शब्द स्पष्ट है; पर ‘यथेमां वाचं… शूद्राय चार्याय च’ (यजुर्वेद २६।२) में केवल ‘वाचं’ है, ‘वेदवाचम्’ नहीं। साथ ‘द्विज’ शब्द भी नहीं। अतः उक्त मन्त्र से शूद्रादिको वेद का अधिकार देना भी असिद्ध है। उक्त पक्ष देवतावाद-द्वारा निराकृत हो गया ।

(३८) सनातनधर्मने स्त्री-शूद्रादिको वेद में साक्षात् अधिकार न देकर उन्हें वेद के ज्ञान से वंचित भी नहीं किया, किन्तु वेद के शब्द में अधिकार न देकर पुराणेतिहास-श्रवणद्वारा उस वेद के अर्थ में अधिकार देकर उनपर बड़ा अनुग्रह किया है। ‘तपसे शूद्रम्’ (यजुर्वेद माध्यन्दिन संहिता ३०।५) वेदने शूद्रों के लिए कड़े कर्म बताये हैं. ‘ब्रह्मणे शूद्रम्’ नहीं कहा। तब सेवाधर्म-जैसे कठिन-काम में लगे हुए स्त्री-शूद्रादिको वेद के वैध अध्ययन का अवकाश हो नहीं रहता । तब उनपर अनुग्रह करके पुराणादि-द्वारा उन्हें वेद का निचोड़ ही सुना दिया जाता है। यह उन सेवाकार्य में लगे हुओं का समय बचाकर उनपर बड़ा अनुग्रह किया गया है।
इसका एक उदाहरण देख लीजिये- मुझे दिनरात लेख-लिखने के कार्यों में व्यस्त रहने से सामयिक-समाचारपत्र पढ़ने का अवकाश ही नहीं मिलता । यदि मैं उधर लगू; तो मेरा समय नष्ट होता है, अथवा उसमें मैं रसिक हो गया, तो मेरा लेखकार्य छूटता है। यदि उस समाचारपत्र का वृत्त मुझे पता न लगे, तो मुझे देश की दशा का परिचय नहीं मिल सकता । पर मेरा कोई हितैषी मित्र. मेरी स्थिति पर विचार करके यदि मुझे उन वृत्तपत्र का निचोड़ सुना देता है, तो मैं समझता हूं कि उसने मेरा समय बचाकर मुझे अपने कर्तव्य के पालन में सहायता देकर मुझपर अतिशयित अनुग्रह किया है- मुझे उसका अत्यन्त कृतज्ञ होना चाहिये। यही स्थिति सनातनधर्मकी शूद्रादिकी वेदादिके सम्बन्ध में है। सनातनधर्मने वेद का संकेत देखकर ही उन्हें वेद का अधिकारी नहीं बनाया। क्योंकि वह इधर प्रवृत्त हो जाय, तो उससे अपना कठिन कर्तव्य छूटता है। हवाई जहाज आदि देश-रक्षा का कार्य है। यदि वह उसका छूट जावे; तो देश की कितनी बड़ी हानि हो। शत्रु प्रसन्न हो जावें। यदि वह अपनी बुद्धिका उपयोग सेवा-शिल्प आदि में करता, तो देश का अधिक उपकार करता, जो अब उसने एक ब्राह्मणकी वृत्ति छीनकर किया। इसी एक-दूसरे के कर्म तथा वृत्तिकी छीना-झपटी से आज देश में अव्यवस्था मची हुई हैं, और कभी इधर कभी उधर ऐसी बातों में लगा हुआ समाज अव्यवस्थित-चित्त होकर ‘इतो भ्रष्टस्ततो नष्टः’ का उदाहरण बनकर संस्कार-हीन हो सकता है। सनातनधर्म सबका मित्र है, तथा देशभक्त हो सकता है; अतः सबको अपने अधिकार में रखने को प्रेरित करता है। 

आक्षेपोंका परिहार
(स्वामी दयानन्द सरस्वती का आक्षेप)

(३९) अब एत्तद्विषयक कई आक्षेपोंका परिहार किया जाता है-(१) (क) इसी मन्त्र के अर्थमें स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने लिखा है-‘जैसे परमात्माने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिए बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिए प्रकाशित किये हैं (सत्यार्थ प्रकाश ३ १. ४४) ।
इस पर यह जानना चाहिए कि सूर्यादिके प्रकाश को कालकोठरीमें पड़ा एक अपराधी कैदी भी प्राप्त नहीं कर सकता, उल्लू भी प्राप्त नहीं कर सकता, निशाचर भी प्राप्त नहीं कर सकते, इस प्रकार पूर्व जन्म के जघन्य कर्मों से अपराधी, जन्मभर का बन्दी, शूद्र जन्म-प्राप्त व्यक्ति भी साक्षात् वेद के प्रकाश को प्राप्त नहीं कर सकता। वस्तुतः यहाँ सूर्य-चन्द्रादि का दृष्टान्त ही विषम है। सूर्य पृथिवी जलादि की प्राप्तिके लिए यज्ञोपवीत का परिधान अनिवार्य नहीं रहता, अध्ययन तथा आचार्यकरण की भी अन्नादि के लिए अनिवार्य आवश्यकता नहीं रहती, परन्तु वेद की प्राप्त्यर्थ आचार्यकरण, यज्ञोपवीत तथा उसका अध्ययन अनिवार्य ही होता है; शूद्र को तो सेवातिरिक्त अध्ययन की आज्ञा नहीं; वेद का अधिकार-पट्ट, आचार्यकुल में प्रवेश का प्रमाणपत्र-स्वरूप उपनयन-सूत्र उसका नहीं होता; तब उसे वेद का अधिकार कैसे हो ? अतः सूर्य-चन्द्रादि का दृष्टान्त इस विषय में विषम है। आश्चर्य तो यह है कि-वादी लोग वेद को ईश्वर का ज्ञान मानते हैं; वह ईश्वर का ज्ञान वेद अपने आपमें ‘वेदमाता… द्विजानाम्’ (अथर्ववेद १९।७१।१) ‘ब्रह्मणे ब्राह्मणं… तपसे (सेवादि कृच्छ्र-कर्मणे) शूद्रम् (शुक्ल यजुर्वेद – माध्यंदिना शाखा ३०।५) द्विजों का वेद में अधिकार बताता है, एक शूद्रादि का नहीं; पर वादी वेद की यह बात नहीं मानते। इसका तात्पर्य यह हुआ कि-वेद ईश्वरीय ज्ञान नहीं; उनका वैयक्तिक ज्ञान ही ईश्वरीय ज्ञान है !
(ख) यदि प्रिन्सिपल उत्तम तीन श्रेणियों को ही स्वयं पढ़ाता है; निचली आरम्भिक पहली श्रेणी को स्वयं न पढ़ाकर उन तीन श्रेणीवालों में ही किसी को आज्ञा दे देता है कि-इन पहली श्रेणीवालों को मेरा तुम्हें दिया हुआ ज्ञान अपने सुगम और सरस शब्दों में समझा दो, तो यह न पक्षपात हो जाता है; न अनुपपन्न ही। फलतः इस विषय में सूर्य-चन्द्रादि का दृष्टान्त विषम होने से ग्राह्य नहीं। (ग) “जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढ़ाने-सुनाने का न होता, तो इनके शरीर में वाक् और श्रोत्र इन्द्रिय क्यों रचता” यह स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का आक्षेप भी निस्सार है। यदि यह दोनों इन्द्रियाँ केवल वेद के लिए ही होतीं, तो यह उनका कथन ठीक था, पर इनका उपयोग अपने कार्यों के लिए है, दूसरे के कार्य के लिए नहीं । वाक् और श्रोत्र तोते आदि पक्षियोंके भी होते हैं, इसी कारण मनु (७।१५०) ने मन्त्रकाल में उनका हटा देना कहा है- पर इससे उनका वेद में अधिकार सिद्ध नहीं हो जाता । फलतः इन तर्काभासों का कुछ भी मूल्य नहीं।

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