“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ (“एक सिद्धान्तालङ्कार” का आक्षेप) ~ भाग ८

(“एक सिद्धान्तालङ्कार” का आक्षेप)

(२) हम पूर्व सिद्ध कर चुके हैं कि- ‘यथेमां वाचं’ मन्त्र का ईश्वर देवता है. देवता-प्रतिपाद्य को कहते हैं, तब यहाँ ईश्वर प्रतिपादक नहीं, प्रतिपाद्य है, प्रतिपादक जीव है, तो यहाँ वाणी भी जीव की है, इस पर ‘उदारतम आचार्य महर्षि दयानन्द’ निबन्ध में “एक सिद्धान्तालङ्कार” लिखते हैं कि- “यह बात उपहासजनक है, ‘देवता’ का अर्थ महर्षि दयानन्द तथा निरुक्तादि के अनुसार केवल ‘प्रतिपाद्य विषय’ ही नहीं है, ‘देवो दानाद् वा, द्योतनाद् वा, दीपनाद् वा’ आदि निरुक्त-वचन के अनुसार देनेवाला, प्रकाशित करनेवाला इत्यादि भी है। ईश्वर ने उपदेश दिया है; तथा वह सत्य-ज्ञान को प्रकाशित करता है, अतः उसे देव वा देवता कहना सर्वथा उचित ही है।”
आक्षेपक इस अपने कथन में सफल नहीं हो सका, यह विद्वानों से तिरोहित नहीं । तब ‘यथेमां वाचं’ के अग्रिम मन्त्र ‘बृहस्पते’ को भी वह ‘ईश्वर देवता’ होने से क्या परमात्मा की उक्ति मान लेगा कि-ऐ मनुष्य मुझे चित्र घन दे। ‘अग्निमीले पुरोहितम्’ का अग्नि देवता होने से वह यह अर्थ करेगा कि-परमात्मा उपदेश देता है कि मैं परमात्मा अग्नि-परमात्मा की स्तुति करता हूं ? अब वह दो परमात्मा मान लेगा ? जब ईश्वर सारे मन्त्रों का उपदेष्टा है, तो फिर केवल ‘यथेमां वाचं’ और ‘बृहस्पते ! अति’ इन दो मन्त्रों का ही ‘ईश्वर देवता’ लिखने का क्या अर्थ रहता है ? फिर अन्य मन्त्र ईश्वर के नहीं रहेंगे, यह दोष उपस्थित हो जाता है। तब यहाँ ‘चौबेजी गये थे छब्वे बनने, दुबे बनकर आये’ यह लोकोक्ति चरितार्थ हो जायगी। गये थे शूद्रों को परमात्मा की वाणी वेद पढ़ाने, पर इन दो मन्त्रों से शेष वेद को जीव की वाणी सिद्ध करवा बैठे ।
वस्तुतः अनुक्रमणीकारों का कहा ‘देवता’ शब्द सिद्धान्तालङ्कार से उद्धृत निरुक्त वाले अर्थ को नहीं रखता। आप साँख्य के ‘गुण’ का अर्थ क्या व्याकरण के ‘अदेङ्‌गुणः’ सूत्र से करेंगे ? अनुक्रमणीकारों का ‘ऋषि’ वा ‘देवता’ शब्द परिभाषिक होता है, वह परिभाषा है- ‘यस्य वाक्यं स ऋषिः, या तेन उच्यते, सा देवता’। इसकी स्पष्टता पूर्व की जा चुकी है। यही बात निरुक्तकार ने भी मानी है- ‘यत्काम ऋषिर्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छन् स्तुति प्रयुङ्क्ते, तद्-देवतः स मन्त्रो भवति’ (७।१।३) इसकी स्पष्टता पूर्व की जा चुकी है।
इससे स्पष्ट है कि- तत्तद्‌मन्त्र में प्रतिपाद्य ही अनुक्रमणीकारों का ‘देवता’ होता है, प्रतिपादक नहीं। इसके उदाहरण भी पूर्व वेद से दिए जा चुके हैं; वादी उनका खण्डन नहीं कर सका; और न कर सकता है। अतः ‘देवता’ इस अनुक्रमणिका के ‘पारिभाषिक’ शब्द का उससे किया हुआ निरुक्तानुसारी अर्थ ठीक नहीं. उसका इस ‘देवता’ शब्द से कोई सम्बन्ध भी नहीं। वह तो केवल मन्त्रस्थ ‘देवता’ शब्द का निर्वचन है, विनियोगा-नुक्रमणिका के ‘देवता’ शब्द की वह परिभाषा नहीं। अनुक्रमणिका वाले ‘देवता’ शब्द का अर्थ निरुक्तकार को भी प्रतिपाद्य ही इष्ट है, यह दैवत-काण्ड का ‘यत्काम ऋषिर्यस्यां… तद्देवतः स मन्त्रो भवति’ (७।१।३) श्री यास्क का वचन देकर हम उसे स्पष्ट कर चुके हैं। यदि यहाँ ‘ईश्वरो देवता’ का ईश्वर इस मन्त्र को प्रकाशित करनेवाला है- यह अर्थ किया जाएगा, तो शेष वेदमन्त्र अनीश्वर जीव की वाणी बन जाएंगे । क्योंकि इन दो के अतिरिक्त शेष वेदमन्त्रों का ‘ईश्वरो देवता’ नहीं लिखा गया है, यह निस्सार बात लिखकर वादीने स्वामी दयानन्द सरस्वती के पक्ष को और भी निर्मूल सिद्ध कर दिया है; और हमारे पक्ष को ही पुष्ट कर दिया । क्योंकि वह ‘देवता’ का अर्थ ‘प्रतिपाद्य’ भी मानता ही है। यहाँ वह अर्थ है भी सही। अतः हम वादी की ही बात मान लेते हैं कि ‘देव’ शब्द द्योतन-वाचक भी है, सो दीव्यति-प्रकाश्यते, स्तूयते वा’ (क्योंकि यह दोनों ही अर्थ दिवु धातु के आए हैं- द्युति स्तुति। यह धातु अकर्मक है, अतः उसका अर्थ यहाँ ‘प्रकाशक’ वास्तविक न होकर (क्योंकि तब सकर्मकता प्रसक्त हो जाती है) प्रकाश्यमान वा स्तूयमान ही अर्थ है। जैसा कि ‘अग्निमीले’ मन्त्र पर सायण ने भी लिखा है- ‘द्योतनार्थ-दीव्यति धातु-निमित्तो ‘देव’ शब्दः, अतो दीव्यतीति देवः, मन्त्रेण द्योतते-इत्यर्थः । अस्मिन् सूक्ते स्तूयमानत्वाद् अग्निर्देवः’ सो उक्त मन्त्र में भी ईश्वर द्योतमान स्तूयमान होने से ‘देवता’ है, द्योतक वा स्तावक का नाम ‘देव’ कहीं नहीं माना गया, तब वह वाच्य ही सिद्ध हुआ, वाचक नहीं ।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site is protected by reCAPTCHA and the Google Privacy Policy and Terms of Service apply.