(श्री शाण्डिल्य जी)
(४) ‘भारतीय-धर्मशास्त्र’ के ८३ पृष्ठ में श्रीशाण्डिल्यजी ने ‘यथेमां वाचं’ का अर्थ करते हुए लिखा है-वेद में लिखा है- ‘यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः’ (जैसे मैं इस कल्याणी वाणी को सभी मनुष्यों के लिए कहता हूँ) यह मन्त्रद्रष्टा ऋषि की उक्ति है जो भगवान् की वाणी का प्रचारक है। इस मन्त्र की आज्ञा से मनुष्यमात्र वेद का अधिकारी है।’
जब श्रीशाण्डिल्यजी इस वाक्य (यथेमां) को ऋषि की उक्ति कहते हैं, तो यह परमात्मा की आज्ञा कहाँ रही ? यह तो एक जीव का-लौगाक्षि-ऋषि का वैयक्तिक कथन सिद्ध हुआ। वाणी भी उसी जीव की हो गई, परमात्मा की वाणी न रही। यदि ‘इमां वाचं’ से परमात्मा की ‘वेदवाणी’ इष्ट होती, तो यह मन्त्र वेद के अन्त वा आदि में होता, तभी वेद उसके सामने रहने से ‘इदं’ शब्द का प्रयोग सार्थक होता। अब तो ‘इमां वाचं’ से यही मन्त्र गृहीत होगा, सम्पूर्ण वेद नहीं, ‘इदम्’ सन्निकृष्ट का बोध कराता है- इस विषय में पहले बहुत स्पष्टता की जा चुकी है। ‘आवदानि’ इस लोट् का ‘कहता हूँ’ यह लट्लकार का अर्थ भी ठीक नहीं। ‘आवदानि, भूयासम्, समृध्यताम्, उपनमतु’ यह मन्त्रस्थ सभी क्रियाएं समानार्थक हैं। उस लौगाक्षि-ऋषि ने सभी को कब वेदोपदेश किया – इसमें इतिहास की साक्षी बतानी पड़ेगी, क्योंकि ऐसा अर्थ ऐतिहासिक हो जायगा, तब फिर वेद अनित्य हो जायगा। लौगाक्षि-ऋषि का तो केवल एक यही मन्त्र है, सारा वेद तो उनका दृष्ट है नहीं, नहीं तो सब वेदों का द्रष्टा उन्हें कहा जाता, पर ऐसा नहीं है। तब वह ऋषि सारे वेदों को कैसे विवक्षित कर सकता है ? अतः श्रीशाण्डिल्यजी का पक्ष ही असिद्ध हो गया। ‘वैसे तुम भी सब को कहो’ यह वाक्यार्थ शाण्डिल्यजी ने वेदार्थ में स्वयं प्रक्षिप्त किया है, वह मन्त्र में नहीं। अस्तु; शाण्डिल्यजी ने इसे ऋषि की उक्ति बताकर जहाँ ‘ईश्वर कहता है’ इस अपनी भावना के नायक स्वामी दयानन्द सरस्वती की उक्ति को खण्डित कर दिया, वहाँ शुद्रादि का जीव की वाणी में अधिकार बताकर अपना पक्ष भी खण्डित कर दिया; क्योंकि यह ऋषि की वाणी रही-परमात्मा की नहीं । वेदप्रचारक ऋषि की वाणी पृथक् हो सकती है, वह उसे वेद में नहीं घुसेड़ सकता। वस्तुतः यहाँ भूतवशकारिणी ‘दीयताम्, भुज्यताम्’ यही याज्ञिक-वाणी ही यजमान-ऋषि को इष्ट है, वेदवाणी नहीं।