आदर्शनागरिक

3.21 संघवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.21 संघवाद १९वीं सदीके अन्तमें फ्रांसीसी संघवाद भी मार्क्सवाद एवं अराजकतावादके आधापर ही बना है। इसका भी अनेक देशोंपर प्रभाव फैला। कोकरके कथनानुसार यह राज्य-विरोधी, देशभक्ति-विरोधी, सैन्यवाद-विरोधी, राजनीतिक-दल-विरोधी, संसद्-विरोधी, मध्यमवर्ग-विरोधी और सोवियतवाद-विरोधी भी है। उस समयके वोलेञ्जर, ग्रेवी-विल्सन, पनामा आदि अनेक भ्रष्टाचारकाण्ड इसके कारण थे। लेवीनके मतानुसार जिस शासनमें नागरिक स्वयं निर्माण करे, वही वास्तविक […]

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3.20 समष्टिवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.20 समष्टिवाद समष्टिवादका भी मार्क्सवादसे अंशत: मतभेद है। उसका स्रोत है फेवियनवाद और संशोधनवाद। इसे ही ‘समाजवादी जनतन्त्र’ या ‘जनतन्त्रीय समाजवाद’ कहा जाता है। द्वितीय अन्ताराष्ट्रिय मजदूर-संघके कई दल इसके समर्थक थे। इसे ही सुधारवादी या विकासवादी समाजवाद भी कहा जाता है। इंग्लैण्डका मजदूर-दल इसी विचारधाराका है। मिल इस वादका उद‍्गम है। वार्करने मार्क्सवादसे बचकर

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3.19 कार्ल मार्क्स ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.19 कार्ल मार्क्स मार्क्सका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवारमें हुआ। पहले उसने वकालतकी शिक्षा ग्रहण की। फिर वह पत्रकार बना, समय पाकर उसने ‘हीगेलवाद’ का अध्ययन किया। मानवतावादसे प्रेरित होकर वह श्रमिक आन्दोलनमें अग्रसर हुआ और शीघ्र ही आन्दोलनका नेता बन गया। उसकी जीविकाका आधार उसके लेख एवं एंजिल्सकी सहायता ही थी। गरीबी अवस्थामें भी उसने

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3.17 एफ० एच० ब्रैडले ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.17 एफ० एच० ब्रैडले एफ० एच० ब्रैडले (१८४६-१९२४)-का कहना था कि ‘मनुष्यका समाजसे बाहर कोई अस्तित्व ही नहीं। समाजद्वारा ही उसे भाषा एवं विचार मिलते हैं। मनुष्यका शरीर एक पैतृक सम्पत्ति है, परंतु बिना समाजके यह सम्पत्ति प्रगति नहीं कर सकती। व्यक्तित्व-वृद्धिके लिये समाज अनिवार्य है।’ उसके अनुसार ‘व्यक्तिको समाजमें स्थान चुननेकी स्वाधीनता है, परंतु

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3.16 टी० एच० ग्रीन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.16 टी० एच० ग्रीन टी० एच० ग्रीन (१८३६-८२) ब्रिटेनका आदर्शवादी दार्शनिक था। उसने ग्रीक (यूनानी) दर्शन एवं आदर्शवादी दर्शनका अध्ययन किया और एक नया दर्शन (ऑक्सफोर्डदर्शन) निर्मित किया। वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयमें दर्शनका प्रोफेसर था। वह अफलातून, अरस्तूकी तरह राजनीतिशास्त्रको आचारशास्त्रका एक अंग मानता था। रिची, ब्रेडले, बोसांके, लिण्डसे, बार्कर आदि ग्रीन परम्पराके अनुयायी हुए हैं।

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3.15 बोदाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.15 बोदाँ बोदाँ (१५३०—१५९६) ने कहा था कि ‘मनुष्यजातिका इतिहास प्रगतिका इतिहास है।’ दो शती बाद हीगेलने इसी सिद्धान्तकी व्याख्या की और उसने बताया कि यदि कभी इसके विपरीत अवनति-सी दृष्टिगोचर होती है तो भी उसे अवनति नहीं मानना चाहिये; किंतु यह घटना प्रगतिकी पृष्ठ-भूमि है। हीगेलके अनुसार मानव-इतिहास केवल कुछ घटनाओंका वर्णन नहीं है;

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3.14 हीगेल ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.14 हीगेल हीगेल (१७७०—१८३१) सर्वश्रेष्ठ आदर्शवादी माना जाता है। कहा जाता है, उसका पिता सरकारी कर्मचारी था। अत: वह पिताके पेशेसे प्रभावित होकर नौकरशाहीका समर्थक हुआ। हीगेल फ्रांसकी राज्यक्रान्तिसे भी प्रभावित था। कहते हैं कि हीगेलका दर्शन केवल एक ही व्यक्ति समझ सका था और उस व्यक्तिने भी उसे गलतरूपमें ही समझा। वह व्यक्ति था

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3.13 फिक्टे ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.13 फिक्टे फिक्टे (१७६२-१८१४) प्रथम मार्टिन लूथरकी धार्मिक शिक्षासे प्रभावित हुआ। १७८४ में वह काण्टके आदर्शवादका अनुयायी हुआ। कहा जाता है कि वह १७९४ तक विश्वबन्धुत्व एवं जनवादका अनुगामी था। इसके पश्चात् उसकी विचारधारामें परिवर्तन हुआ और वह व्यक्तिवादका विरोधी राष्ट्रवादी हो गया। वह अपने गुरु काण्टके विचारोंसे आगे बढ़ा। वह विचारोंपर प्रतिबिम्बरूपमें वस्तुका प्रभाव

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3.12 काण्ट ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.12 काण्ट काण्ट (१७२४-१८०४) आधुनिक आदर्शवादका जन्मदाता माना जाता है। वह कनिंग्सवर्ग विश्वविद्यालयका अध्यापक था। वह दर्शन एवं राजनीतिशास्त्रका विद्वान् और अध्यात्मवादी था। उसके मतानुसार एक वस्तुका ज्ञान उसकी बनावटसे नहीं, किंतु मस्तिष्कमें पड़े हुए उस वस्तुके प्रतिबिम्बसे होता है। एक वस्तुको हम पुस्तक इसीलिये कहते हैं कि वह हमारे मस्तिष्कके अनुसार पुस्तककी भाँति है।

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3.10 आदर्शवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.10 आदर्शवाद ईसाके पूर्व यूनानी कालमें ‘आदर्शवाद’ का उदय हुआ। आदर्शवादी राज्यको एक आदर्श संस्था मानते हैं और कर्तव्यपरायणता उसकी आधार-शिला कहते हैं। इस दृष्टिसे ‘राज्य और व्यक्ति—दोनों ही कर्तव्यके बन्धनमें आबद्ध होकर आगे बढ़ते हैं। इसमें नागरिककी राजभक्ति और राज्यका मनुष्योंके जीवन-यापनकी सुव्यवस्था करना परम कर्तव्य है। दोनों अन्योन्य-पोषक होते हैं। कहा जाता है

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