ज्ञानप्रेम

11.12 ज्ञान और आनन्द ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.12 ज्ञान और आनन्द ज्ञानके सम्बन्धमें अनेक प्रकारोंकी विप्रतिपत्तियोंके रहते हुए भी ‘अर्थप्रकाश’ को ही ‘ज्ञान’ कहा जा सकता है। मुक्तिमें यद्यपि अर्थ नहीं होता, तथापि जब अर्थ-संसर्ग सम्भव हो, तभी अर्थका प्रकाशक अर्थ ही ज्ञान है। अतएव ‘ज्ञानत्व जाति-विशेष है, साक्षात् व्यवहारजनकत्व ही ज्ञानत्व है, जड-विरोधित्व ही ज्ञानत्व है, जडसे भिन्नत्व ही ज्ञानत्व है, […]

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11.5 ज्ञानका मूल ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.5 ज्ञानका मूल ‘ज्ञान वस्तुगत सत्यताकी यथासम्भव निर्दुष्ट प्रतिच्छायाओंके रूपमें प्रतिष्ठापित एवं परीक्षित मान्यताओं, दृष्टियों एवं प्रस्तावनाओंका योग है। यह निश्चितरूपसे एक सामाजिक उपज है, जिसकी जड़ें सामाजिक व्यवहारोंमें हैं; जिन्हें व्यावहारिक आशाओं एवं अपेक्षाओंकी पूर्तिद्वारा परीक्षित एवं संशोधित कर लिया जाता है। सभी ज्ञानोंका प्रारम्भ उन इन्द्रियानुभूतियोंमें निहित है, जिनकी विश्वसनीयता मनुष्यके व्यवहारोंमें सिद्ध

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11.4 सत्य ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.4 सत्य ‘सत्य का अर्थ होता है धारणाओं एवं वस्तुगत सचाई की समन्विति। ऐसी समन्विति बहुधा केवल आंशिक एवं प्रायिक (लगभग) ही होती है। हम जिस सत्यताको स्थापित कर सकते हैं, वह सर्वदा सत्यके अन्वेषण एवं अभिव्यंजनके हमारे साधनोंपर अवलम्बित रहती है; परंतु इसीके साथ धारणाओंकी सत्यता, यहाँके अर्थमें आपेक्षिक ही सही, उन वस्तुगत तथ्योंपर

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11. मार्क्स और ज्ञान – 11.1 मन और शरीर ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11. मार्क्स और ज्ञान (मार्क्सीय मन या ज्ञानपर विचार) मोरिस कौर्न फोर्थकी ‘दि थ्योरी ऑफ नालेज’ में कहा गया है कि—‘मन शरीरसे विभाज्य नहीं है। मानसिक क्रियाएँ मस्तिष्ककी क्रियाएँ हैं। मस्तिष्क प्राणीके बाह्य जगत‍्के साथ रहनेवाले जटिलतम सम्बन्धोंका अवयव है। वस्तुओंकी प्रत्ययात्मिका जानकारी (Conscious, awareness) का प्रथम रूप ‘सेंसेशन’ (Sensation) अनुभूति है, जो प्रतिनियत सहज

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10.9 काण्टका ज्ञान-सिद्धान्त ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

10.9 काण्टका ज्ञान-सिद्धान्त ‘काण्ट इससे सहमत है कि हमारा ज्ञान अनुभवसे आरम्भ होता है और इस अनुभवकी प्रारम्भिक बात है—बाहरी वस्तुओंका अस्तित्व। वह केवल इस बातसे इनकार करता है कि यहीं इसका अन्त होता है; क्योंकि हमें ऐसी चीजोंका ज्ञान है, जो अनुभवसे परे हैं। वह इसको मान लेता है कि शेषोक्त प्रकारका ज्ञान पूर्वोक्त

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9.8 ज्ञानका मूल ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

9.8 ज्ञानका मूल मार्क्सवादी ज्ञानकी परिभाषा करते हुए कहते हैं कि ‘ज्ञान सम्बन्धोंकी चेतना, वस्तु विषय तथा आत्मविषयक जीवधारी मनुष्यके रूप हम और बाहरी दुनियाँके सम्बन्धोंकी चेतना, बाहरी दुनियाँमें व्यापक और विशिष्ट तफसीलोंके बीचका सम्बन्ध और दृष्टिभूत वस्तु तथा उसकी कल्पनाके बीचका सम्बन्ध जिसमें और जिसके द्वारा हम अस्तित्वका अनुभव करते हैं। अपना अस्तित्व और

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3.15 बोदाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.15 बोदाँ बोदाँ (१५३०—१५९६) ने कहा था कि ‘मनुष्यजातिका इतिहास प्रगतिका इतिहास है।’ दो शती बाद हीगेलने इसी सिद्धान्तकी व्याख्या की और उसने बताया कि यदि कभी इसके विपरीत अवनति-सी दृष्टिगोचर होती है तो भी उसे अवनति नहीं मानना चाहिये; किंतु यह घटना प्रगतिकी पृष्ठ-भूमि है। हीगेलके अनुसार मानव-इतिहास केवल कुछ घटनाओंका वर्णन नहीं है;

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3.12 काण्ट ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.12 काण्ट काण्ट (१७२४-१८०४) आधुनिक आदर्शवादका जन्मदाता माना जाता है। वह कनिंग्सवर्ग विश्वविद्यालयका अध्यापक था। वह दर्शन एवं राजनीतिशास्त्रका विद्वान् और अध्यात्मवादी था। उसके मतानुसार एक वस्तुका ज्ञान उसकी बनावटसे नहीं, किंतु मस्तिष्कमें पड़े हुए उस वस्तुके प्रतिबिम्बसे होता है। एक वस्तुको हम पुस्तक इसीलिये कहते हैं कि वह हमारे मस्तिष्कके अनुसार पुस्तककी भाँति है।

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1.2 यूनानी-दर्शन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

1.2 यूनानी-दर्शन पाश्चात्य-दर्शन प्राय: मनतक ही पहुँचते हैं। आत्मवादी भी मन और आत्माका अभेद मानते हैं। इस सृष्टिके पहलेकी सृष्टियोंका विचार भी उन लोगोंने नहीं किया। ‘मैटर’ या भूतसमुदाय यद्यपि बहुत सूक्ष्म माना जाता है तथापि वह सांख्यीय प्रकृतिसे भिन्न है। यही कारण है कि आत्माका विचार उनके लिये बहुत दूरकी बात हो गयी है।

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1. पाश्चात्य-दर्शन – 1.1 दर्शनकी परिभाषा ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

1. पाश्चात्य-दर्शन मार्क्सवादको समझनेके लिये उसकी पृष्ठभूमिपर एक दृष्टि डालना बहुत आवश्यक है। मार्क्सवादमें दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र तीनोंका ही समावेश है। किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, मत या वादका स्थायी आधार उसका दर्शन ही होता है। मार्क्सने भी अपनी विचारधाराका आधार दर्शन ही बनाया। भूत, वर्तमान और भविष्यको एक-दूसरेसे पृथक् नहीं किया जा सकता। यूरोपमें

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