रामराज्य

4.10 मानवसृष्टिका मूलस्थान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.10 मानवसृष्टिका मूलस्थान ‘इसी तरह जब समस्त मनुष्य बन्दरोंसे उत्पन्न हुए हैं, तब जहाँ-जहाँ बन्दरोंका निवास है, वहीं मनुष्योंकी उत्पत्ति हुई और जब मनुष्योंकी उत्पत्ति वनमानुषोंसे हुई, तब वनमानुष जहाँ-जहाँ मिलते हैं, वहाँ मनुष्योंकी उत्पत्ति हुई। वनमानुष अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, मेडागास्कर, जावा आदिमें होते हैं। वहाँका नीग्रोदल सभ्यतामें अबतक भी मनुष्य-समुदायसे पीछे है। उनमें कई जातियाँ […]

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4.9 मनुष्य-जाति ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.9 मनुष्य-जाति ‘मनुष्य-जातिका विकास वनमनुष्योंसे हुआ है’, ‘जावाद्वीपके कलिंग नामक मनुष्य अधिकतर वनमनुष्योंसे मिलते हैं, अत: वे ही मनुष्य-जातिके पूर्वपितामह हैं’, यह सब कथन भ्रान्तिपूर्ण हैं। अतएव जो कहा जाता है कि ‘यही मनुष्य-समुदायकी समस्त शाखाओंका जन्मदाता है’ यह सब भी भ्रान्तिपूर्ण है; क्योंकि जब विकासवादका सिद्धान्त ही खण्डित हो गया, तब उसके आधारपर शास्त्र-विरुद्ध

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4.8 कृत्रिम चुनाव ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.8 कृत्रिम चुनाव कृत्रिम चुनावके भी तीन नियम हैं—(१) अमुक मर्यादातक कृत्रिम होनेपर संतति होती है, (२) अमुक मर्यादाके बाद अपनी पहली पीढ़ियोंके रूपको ही हो जाती है और (३) अमुक मर्यादाके बाद वंश बन्द हो जाता है। पहला नियम प्राय: सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसीके अनुसार मनुष्य पशुओं एवं वृक्षोंके अच्छे बीज पैदा करते हैं।

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4.7 प्राकृतिक चुनाव ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.7 प्राकृतिक चुनाव विकासकी दूसरी विधि डार्विनके प्राकृतिक चुनावकी है, जिसके पाँच तत्त्व हैं—(१) सर्वत्र विद्यमान परिवर्तन है, (२) अत्युत्पादन, (३) जीवन संग्राम, (४) अयोग्योंका नाश और योग्योंकी रक्षा तथा (५) योग्यताओंका संततिमें संक्रमण। परिवर्तनका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक प्राणीकी संततिमें भी भेद होता है। इस भेदका भी नियम है। इंग्लैण्डमें सबसे अधिक संख्या

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4.6 संधियोनियाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.6 संधियोनियाँ इसी तरह संधियोनियोंके आधारपर भी विकाससिद्धिका प्रयत्न किया जाता है। ‘जो प्राणी बिलकुल दो श्रेणियों-जैसा आकार रखते हैं, वे संधियोनिके हैं—जैसे चमगादड़, डकविल, आर्किओप्टेरिक्स, ओपोसम और कंगारू। जिनके कुछ अंग निकम्मे हो गये हैं, जैसे ह्वेल, मयूर, शुतुर्मुर्ग और पेंग्विन एवं जिनके कई अधिक अंग स्फुटित हो गये हैं, जैसे कई स्तनोंकी स्त्रियाँ,

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4.5 गर्भ-शास्त्र ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.5 गर्भ-शास्त्र कहा जाता है कि ‘गर्भ-शास्त्र’ के आधारपर विकास सिद्ध होता है। पानीमें पड़े हुए पत्तों या लकड़ियोंपर जो लसदार काले चिकने कण दिखायी पड़ते हैं, वे मेढकोंके अण्डे हैं। तीन-चार दिनमें ये कण या पिण्ड पूँछदार और चपटे सिरवाले जन्तुका आकार धारण कर लेते हैं। फिर इनके गलेके पास मछलियोंकी तरह श्वास लेनेके

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4.4 लुप्त-जन्तु ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.4 लुप्त-जन्तु यह भी कहा जाता है कि ‘पृथ्वीकी तहोंमें लुप्त हुए पाषाणमय प्राणियोंकी खोजसे भी विकास सिद्ध होता है। प्राणियोंकी शृंखलाकी कुछ कड़ियाँ नहीं मिलतीं; क्योंकि वे आज लुप्त हो चुकी हैं। ‘लुप्त-जन्तु-शास्त्र’ से वर्तमानकालमें अविद्यमान लुप्त जन्तुओंका पता लगाया जाता है। एल० म्यूजियममें घोड़ेकी, साउथ कैन्सिंगटनमें हाथी-दाँतोंकी, ब्रूसेल्समें इग्बेनोडसकी और किस्टल् पैलेस, न्यूयार्क,

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4.3 जातिविधान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.3 जातिविधान इसी तरह विकासवादी जातिविभाग-शास्त्रके अनुसार साधर्म्य-वैधर्म्यके अनुसार प्राणिवर्गका वर्गीकरण पृष्ठवंशधारी और पृष्ठवंशविहीनोंके भेदसे करते हैं। जबसे रक्तकी परीक्षाका सिलसिला जारी हुआ, तबसे विकासवादियोंका वर्ग-विन्यास गलत सिद्ध हो गया। अबतक लोग ‘गिनी फाउल’ को मुर्गीकी किस्मका समझते थे। पर अब रक्तकी परीक्षासे वह शुतुरमुर्गकी जातिका मालूम होता है। इसी तरह ‘विकासवाद’ के लेखकने भालूको

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4.2 स्पेंसरकी मीमांसा ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.2 स्पेंसरकी मीमांसा हर्बर्ट स्पेंसर, हेमिल्टन एवं माइन‍्सेल आदि विकासानुयायियोंने ईश्वर माननेमें कई आपत्तियाँ उपस्थित की हैं, जैसे यदि ‘स्वतन्त्र जगत्-कारण ईश्वर जगत् बाह्य है, तो उसका जगत‍्से कोई सम्बन्ध ही नहीं। बिना सम्बन्धके कोई ज्ञान ही होना कठिन है। यदि जगत‍्से सम्बन्ध हुआ, तो स्वतन्त्रता कैसे रह सकती है’ इत्यादि। परंतु ईश्वरवादियोंकी दृष्टिमें इन

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3.25 अराजकतावाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.25 अराजकतावाद मार्क्सवादियोंसे भी बढ़े-चढ़े अराजकतावादी हैं। इसके प्रवर्तक माइकेल बाकुनिन (१८१४—१८७६) और प्रिंस क्रोपोटकिन (१८४२-१९१९) हुए हैं। उनके मतानुसार क्रान्तिद्वारा पूँजीवादका अन्त होते ही राज्यका भी अन्त हो जाना चाहिये। श्रमिक क्रान्तिके पश्चात् वर्गीय संस्थाका अन्त हो जाना चाहिये। न मर्ज (वर्ग) रहे, न मरीज (राज्य) रहना चाहिये। मार्क्सवादी भी राज्यको वर्ग-विशेषकी ही संस्था

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