सरयूपारीण ब्राह्मण की विशेषताएँ
सरयूपारीण ब्राहणों में तीन विशेषताएँ पाई जाती हैं- (१) पंक्ति, (२) भोजन
सम्बन्धी विचार, (३) गोत्र प्रवरादि। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
१. पंक्ति-इन ब्राह्मणों में पंक्ति का निर्माण कुछ नियमों और परम्पराओं को से कर हुआ। ऐसा माना गया कि सभी सरयूपारीण ब्राह्मण ऋषियों की सन्तान हैं। ऋषि गण आपस में छोटे बड़े या ऊँच-नीच का भेद नहीं मानते थे। अतः हम उनकी संतानों को आपस में किसी ब्राह्मण को छोटा बड़ा नहीं मानना चाहिए। इस सम्बन्ध में कुछ नियम बनाये गये। ११ दिनों का एक आयोजन किया गया। कहा गया कि कि इस आयोजन में सम्मिलित हो कर जो ब्राह्मण पंक्ति (पाँति) में बैठ कर एक साथ भोजन करेंगे तथा पंक्ति नियमों का पालन करेंगे उनको पंक्तिपावन ब्राह्मण के रूप में मान्यता दी जायेगी। उनको पंक्ति नियमों के अनुसार सदाचारी, तपस्वी और विद्वान होना होगा। पंक्ति से बाहर वाले (अपांक्तेय) ब्राह्मणों से विवाहादि सम्बन्ध न करना होगा। दहेज न ग्रहण करना होगा। ऐसे ब्राह्मण पंक्तिपावन वेदशास्त्रों के ज्ञाता और तपस्वी, सदाचारी तथा शतायु होते थे। उनकी महिमा का उल्लेख मनु महाराज ने मनु स्मृति में किया है। राजा सिंहासन से उतर कर उनकी अगवानी करते और पूजा करते थे।
२. भोजन सम्बन्धी विचार– सरयूपारीण ब्राह्मण अपने ही वर्ग के घरों में चौके में बैठ कर भोजन करते थे। वे भोजन चाहे कच्चा हो या पक्का उसको यात्रा आदि में ले जा कर नहीं खाते थे। इसके साथ ही किसी स्ववर्गीय व्यक्ति को छोड़ कर अन्य लोगों द्वारा बनाया गया तथा होटल आदि में जा कर भोजन नहीं करते थे। जीविका के चक्कर में तथा राष्ट्रीय आन्दोलनों के प्रभाव वश यह परम्परा अब टूटती जा रही है। अपने इस कठोर नियम और आचार-विचार के कारण सरयूपारीण ब्राह्मण सरकारी नौकरियों और व्यवसाय आदि में बहुत पिछड़ भी गये।
३. गोत्र प्रवर आदि– प्रत्येक सरयूपारीण ब्राह्मण का एक गोत्र होता है। इसके विषय में पीछे बताया गया है। उसके अनुसार वे ब्राह्मण अपने-अपने वेद, उपवेद, शाखा और सूत्र को पढ़ते थे। अब यह नियम भी प्रायः टूट गया है। वे ब्राह्मण अपने को शर्मा कहते थे। प्रत्येक शुभ और अशुभ कर्म में ‘अमुक गोत्रोत्पन्न अमुक शर्माऽहम्’ ऐसा पढ़ा जाता है। अतः गोत्र, प्रवर आदि का ज्ञान रखना और उसको याद रखना चाहिए। एक गोत्र और प्रवर में विवाह न करना चाहिए। इसलिए भी इसको याद रखना चाहिए।
पहले अपने गोत्र के लिए निर्धारित वेद उसके उपवेद, शाखा और सूत्र को ब्राह्मण बालक पढ़ते थे। दाहिन शिखा वाले दाहिनी ओर से और बाम शिखा वाले बाई ओर से अपनी शिखा बाँधते थे। दाहिने पाद वाले पहिले दहिना पैर यज्ञ आदि में धुलाते थे और वामपाद वाले पहले बायाँ पैर धुलाते थे। अपने लिए निर्धारित देवता विष्णु या शिव की पूजा करते थे। इसका उद्देश्य यह था कि इस प्रकार ब्राह्मण को अपनी मूल ऋषि परम्परा का ज्ञान रहेगा। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य सुरक्षित रहेगा तथा लोग अपने अपने वेद आदि के विशेषज्ञ रहेंगे। खेद है कि वर्तमान समय में यह सब परम्परा प्रायः टूट गई है। सामान्य सरयूपारीण ब्राह्मण को अपना सही गोत्र तक याद नहीं है। प्रवर-वेद, उपवेद, शाखा और सूत्र आदि का ज्ञान तो दूर की बात है। यह चिन्ता का विषय है।
श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर लेखक तथा प्रकाशक की सहायता करें
हम आप सभी को अपने नित्यकर्मों जैसे संध्यावंदन, ब्रह्मयज्ञ इत्यादि का समर्पणपूर्वक पालन करने की अनुरोध करते हैं। यह हमारी पारंपरिक और आध्यात्मिक जीवनशैली का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
इसके अलावा, हम यह भी निवेदन करते हैं कि यदि संभव हो तो आपके बच्चों का उपनयन संस्कार ५ वर्ष की आयु में या किसी भी हालत में ८ वर्ष की आयु से पहले करवाएं। उपनयन के पश्चात्, वेदाध्ययन की प्रक्रिया आरंभ करना आपके स्ववेद शाखा के अनुसार आवश्यक है। यह वैदिक ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये रखने का एक सार्थक उपाय है और हमारी संस्कृति की नींव को मजबूत करता है।
हमारे द्वारा इन परंपराओं का समर्थन और संवर्धन हमारे समुदाय के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देगा। आइए, हम सभी मिलकर इस दिशा में प्रयास करें और अपनी पारंपरिक मूल्यों को आधुनिक पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य करें।
हमें स्वयं शास्त्रों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए जब हम दूसरों से भी ऐसा करने का अनुरोध करते हैं।