1.4 हीगेल-दर्शन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

1.4 हीगेल-दर्शन

हीगेल (१७७०-१८३१)-ने काण्टकी वस्तुस्वरूप धारणाका खण्डन किया और बतलाया कि ‘वस्तुको उसके आवेष्टन गुणों और अवस्थाओंसे अलग करके देखना ही वस्तु स्वरूपकी धारणा है, परंतु ऐसा सम्भव नहीं। अत: वह ज्ञानसे परे है।’ हीगेलके जगत‍्का भी स्रष्टा मन ही है, काण्टके असल जगत् एवं दृश्यमान जगत‍्के द्वित्वका भी इसने खण्डन किया है। स्पिनोजाके समान हीगेल भी आत्मा-मन और भूतको अभिन्न ही मानता है। अर्थात् आत्मासे अभिन्न मन एवं मनसे अभिन्न भूत हैं। उसके अनुसार ‘पूर्णतत्त्व ही सब कुछ है, दृश्यमान जगत् उसीका अंग है।’ किसी वस्तुको समझनेके लिये दूसरी वस्तुओंसे तुलना आवश्यक होती है। जैसे एक मुर्गीका अण्डा गेंदसे कम गोल है, चमड़ेसे अधिक टूटनेवाला है, गौरैयाके अण्डेसे बड़ा है। इस तरह सभी घटनाओंको मिलाकर ही वस्तुविशेष बनती है। अत: दूसरी वस्तुओंसे इसके सम्बन्ध इसकी प्रकृतिको बताते हैं। साथ ही दुनियाकी सभी वस्तुओंसे भी इस अण्डेका सम्बन्ध है। भले ही यह सम्बन्ध समतासे हो या विषमतासे। इसलिये एक अण्डेको पूर्णरूपसे जाननेके लिये हर विद्यमान वस्तुका ज्ञान होना चाहिये, जो कि अल्पज्ञ प्राणीके लिये असम्भव ही है। अत: भेद असत्य है, एक ही महान् वस्तुके सब अंगोपांग हैं। यही बात विचारोंके सम्बन्धमें भी है। किसी सत्यके अस्तित्वके प्रकाशके साथ-साथ उसके विपरीत असत्यके अस्तित्वका भी प्रकाश होता है। शंख श्वेत है, इस प्रकारकी घटनाके विवरणके लिये ही यह सत्य नहीं, किंतु सिद्धान्तोंके विचारके लिये भी यही सत्य है। जैसे स्वतन्त्र इच्छाके ही सिद्धान्तको देखें, अपनी इच्छाके अनुसार काम करनेकी स्वतन्त्रता हमें नहीं है। हमारा कार्य पूर्वनिर्धारित है। घटनावश उस कार्यको करनेके लिये हम बाध्य हैं। इसे ही ‘पूर्वनिर्धारणका सिद्धान्त’ कहा जाता है। इन सिद्धान्तोंके विपरीत सिद्धान्तके अस्तित्वका अर्थ ही यही है कि कोई भी सिद्धान्त स्वतन्त्ररूपसे पूर्ण सत्य नहीं है। इसलिये वह कहता है कि ‘कोई उपाय ऐसा अवश्य होना चाहिये, जिससे एक सत्य एवं उसके विपरीत सत्यको मिलाकर व्यापक सत्यकी प्रतिष्ठा हो, जिसमें दोनों आंशिक सत्य मिले हों।’ इन आंशिक सत्योंका परस्पर विरोध रहता है, अत: इनके अधूरेपनमें मनका टिकना सम्भव नहीं। इसीलिये मन व्यापक सत्यकी खोजमें बढ़ता रहता है। यद्यपि कारणरूपी सत्यमें विरोधी कार्योंका समन्वय हो जाता है, जैसे मृत्तिकामें घट-शरावादि विविध कार्य अन्तर्गत होते हैं तथापि मृत्तिका भी स्वयं कार्य है, अत: अन्तिम (अधिष्ठान) सत्यपर जबतक मन नहीं पहुँचता, जहाँ किसी भी आंशिक सत्यका विरोध विलीन हो जाता है, तबतक आंशिक सत्योंको मिलाकर एक व्यापक सत्यमें परिणत करनेकी क्रिया जारी रहती है। यह अन्तिम सत्य ही सब कुछ है और वह सत्य आन्तर अखण्ड बोधस्वरूप ही है। मन एवं मनद्वारा ज्ञात विषय एवं उनकी विभिन्नताएँ इसके अन्दर ही हैं। मन इसी पूर्णका अंशमात्र है। इसीलिये यह विश्वको भी गलतरूपमें देख सकता है और अलग वस्तुओंके पुंजके रूपमें देखता है। आम तौरपर समझा जाता है कि सत्यता सम्मति या रायका एक गुण है। कोई सम्मति सत्य है, यह एक ही वस्तुपर निर्भर है। हीगेल सिवा पूर्णके और किसीको सत्य नहीं मानता। जो कुछ पूर्णसे कम है, वह सत्य घटना नहीं, वह दूसरी घटनाओंसे सम्बन्धित है। जिनसे विच्छिन्न करके इसको नहीं समझा जा सकता। इसीलिये विचार एवं विचारका विषय मिथ्या है, परम सत्य अधिष्ठानस्वरूप नित्य बोध ही रहता है।
हीगेलका ‘स्वयंगतिविवर्तनवाद’ का विचार बड़े महत्त्वका माना जाता है। अरस्तू एवं उसके अनुयायियोंके मतानुसार ‘कोई नयी चीज हो ही नहीं सकती; क्योंकि वह एक आनुमानिक प्राथमिक वस्तुसे ही हमारे सारे संसारका सूत्र जोड़ लेती हैं।’ अरस्तूके अनुसार ‘एक वस्तु एवं तदनुरूप विचार एक ही वस्तु है, दो नहीं।’ इससे भिन्न हीगेलने कहा कि ‘प्रत्येक वस्तुमें एक अन्तर्विरोध है, जो उसको गतिमान करता है और इस स्वयं विकासकी क्रियामें वह दूसरी वस्तुके रूपमें परिवर्तित हो जाती है।’ हीगेल वस्तुकी अपेक्षा विचारको ही तात्त्विक मानता है। संसारका क्रमविवर्तन उसके मतानुसार विचारका ही क्रमविवर्तन है।
उसके अनुसार प्रथम ‘विचारका नाम वाद है, इसके साथ ही विपरीत विचार भी वर्तमान रहता है, उसका नाम प्रतिवाद है। इन दोनोंके संघर्षसे जो नया विचार उत्पन्न होता है, उसका नाम समन्वयवाद है। इस समन्वयवादमें पुन: अन्तर्विरोधकी सृष्टि होती है और एक नये संघर्षके परिणामस्वरूप गति उत्पन्न होती है, जो एक नये और बृहत्तर समन्वयवादमें लीन होती है। विश्व-लीला इसी विचार-संघर्षकी ही क्रिया है। अनन्त: यह लय होती है पूर्णमें।’
हीगेलके विचार वेदान्तके अद्वैत-दर्शनसे मिलते-जुलते हैं। वेदान्तका ब्रह्म अखण्डबोधस्वरूप है, उसीका विवर्त विश्व है, विश्वके पहले भी मन बनता है।
स आत्मा सर्वगो राम नित्योदितवपुर्महान्।
समनाङ् मननीशक्तिं धत्ते तन्मन उच्यते॥
(पंचदशी १३।२०)
वह स्वप्रकाश ब्रह्मात्मा किंचित् मननी शक्तिको धारण कर मन हो जाता है। यह भी वेदान्तका ही सिद्धान्त है कि हर एक वस्तु व्यावृत्तरूपसे ही उपलब्ध होती है। अर्थात् अपनेसे भिन्न समस्त वस्तुनिरूपित भेदसे युक्त ही वस्तुका बोध होता है। किसी अल्पज्ञको सम्पूर्ण पदार्थोंका बोध हो नहीं सकता, अत: तन्निरूपित भेदका भी ज्ञान असम्भव है, फिर स्वेतर सर्व वस्तु भिन्नरूपसे किसी भी पदार्थका जानना सम्भव नहीं। इसीलिये घटज्ञानमें व्यावृत्तरूपसे घटका भान होता है, परंतु व्यावृत्ति एवं उसके निरूपक घटातिरिक्त सकल पदार्थोंका बोध है नहीं, अत: अतत्में तद‍्बुद्धि होनेके कारण व्यावृत्ताकारेण घट-बोध ही भ्रम है, सुतरां उसमें भासित होनेवाला घट भी भ्रम-सिद्ध ही है। विचार या ज्ञानमें भिन्न वस्तु नहीं। विचार या ज्ञान अखण्ड बोध ब्रह्मसे भिन्न नहीं है, इस दृष्टिसे वस्तु एवं विचार सबका ही पर्यवसान अखण्ड बोधस्वरूप वस्तुमें ही होता है।
हीगेलका अन्तर्विरोध या द्वन्द्वमानका अभिप्राय क्रमिक विवर्तके स्वरूपका ही विवेचन है। मूल वस्तु अखण्डबोध आन्तरिक वस्तु है। मन, विचार आदि उसके अति संनिहित हैं। अत: उनमें हलचल होनेसे ही विचारान्तर या वस्त्वन्तर उत्पन्न होते हैं। विचार-संघर्षसे विरोधी विचारोंसे सर्वबाध होनेके अनन्तर बाधाधिष्ठान परमार्थ वस्तुका बोध होता है। वहीं सब विरोधों, सब संघर्षोंका अन्त हो जाता है। सुन्दोपसुन्दन्यायसे सत‍्कार्यवाद-असत‍्कार्यवाद दोनोंके ही सांख्यों एवं नैयायिकोंद्वारा खण्डित हो जानेपर अनिर्वचनीयता एवं विवर्तकी सिद्धि होती है। इसी तरह जैसे बीजमें अन्तर्विरोधद्वारा उसका विध्वंस होता है, तब अंकुरकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही हर एक कारणमें अन्तर्विरोध होनेके बाद विध्वंस या विकृति आनेपर ही कार्यान्तरका विकास होता है। अव्यक्तका महान्, महान‍्का अहं, अहंका आकाश, आकाशका वायु आदिरूपसे विवर्त या विकास इसी क्रमसे होता है। सत्त्व-रज-तम तीनों ही गुणोंके विमर्द-वैचित्र्यसे ही सृष्टि होती है। विमर्द भी संघर्ष ही है। निर्विरोध शान्त सम गुणोंसे सृष्टि नहीं होती। विमर्दवैषम्यसे ही तत्त्वान्तरका विकास होता है। उस तत्त्वान्तरको कारणकी अपेक्षा अनिर्वचनीय कहा जाता है। इन्हीं वस्तुओंको हीगेलने अपनी भाषामें वाद, प्रतिवाद, समन्वय, द्वन्द्वमान या अन्तर्विरोध आदि शब्दों में कहा है।
विचारोंके बाद प्रतिवाद एवं संवादके अनुसार उत्तरोत्तर सत्य वस्तुपर उपनीत होनेके कारण कारणातीत परमार्थ सत्य ब्रह्मकी ओर पहुँच सकते हैं। वस्तुगत अन्तर्विरोध, संघर्षवाद, प्रतिवाद एवं संवादसे उत्तरोत्तर कार्यसृष्टिकी ओर अग्रसर हो सकते हैं। फिर भी यह विवेचनकी एक शैलीमात्र है। इसका सदुपयोग-दुरुपयोग दोनों ही हो सकता है। इसीलिये अन्तिम पूर्णपर ब्रह्मनिर्णयरूप संवादको भी इतर संवादोंके समान वाद बनानेका प्रयत्न भी हो सकता है। इसी तरह अन्तिम कार्यके भी अन्तर्विरोधके क्रमसे पुन: व्यापक कार्यान्तरमें समन्वयका प्रयत्न हो सकता है। यह सब अनवस्था-दोष-दुष्ट होनेसे वैसे ही अनादरणीय है, जैसे अन्तिम मूलको भी मूल होनेसे ही समूल माननेका आग्रह, परंतु सिद्धान्तत: अनवस्था-दोषके कारण अन्तिम मूल अमूल ही माना जाता है। वस्तुत: हर एक तर्ककी अवधि आशंका होती है। आशंकाकी अवधि व्याघात ही होता है। जैसे ‘धूमो यदि वह्निव्यभिचारी स्यात् तर्हि किं स्यात्’ धूम यदि वह्निव्यभिचारी हो तो क्या होगा? इस शंकाका समाधान होता है ‘तर्हि धूमो वह्निजन्यो न स्यात्’ यदि धूम वह्निव्यभिचारी हो तो उसे वह्निजन्य नहीं होना चाहिये। यदि कोई इसपर भी तर्क करे तो उसके सामने व्याघातदोष उपस्थित होता है। अर्थात् कार्य-कारणभाव तो प्रत्यक्ष दृष्ट ही है। दृष्ट व्याघात इस शंकाकी अवधि है।
‘व्याघातावधिराशङ्का शङ्का तर्कावधिर्मत:।’
इस तरह अन्तिम परम सत्य पर संवादको वाद बनाना तथा अन्तिम कार्यरूप संवादको भी वाद बनाकर कार्यान्तरकी कल्पना करना भी अनवस्था एवं दृष्ट व्याघात-दोषसे दुष्ट है। यों तो हीगेलके द्वन्द्ववादको भी वाद बनाकर उसका भी ऐकात्म्यवादमें लय हो जानेकी कल्पना की ही जाती है। जब द्वन्द्ववादके आधारपर अधिनायकवाद, समष्टिवाद, भूतवाद और चेतनवाद-जैसे परस्पर विरुद्ध मत सिद्ध हो सकते हैं, तब उसके बलपर तो किसी ‘इदमित्थम्’ सिद्धान्तका निर्णय असम्भवप्राय ही है। हीगेलके मतानुसार ‘राज्य मानवकी सामाजिक प्रगतिकी चरम सीमा है।’ इसका अर्थ है कि ‘वह संवाद आगे वाद नहीं बनेगा’, परंतु मार्क्सने उसे भी वाद बनाया ही। वह मजदूर-नायकत्व या समष्टिवादको चरम संवाद कहता है, परंतु रामराज्यवादी जड-चेतन दोनोंको आध्यात्मिक सम्बन्धसे समन्वित करता है तथा राजतन्त्र-प्रजातन्त्र, व्यष्टि-समष्टि वित्तविभाग एवं श्रमविभागको समन्वित करता है। इस तरह अध्यात्मवादपर आधृत धर्म-नियन्त्रित धर्मसापेक्ष पक्षपातविहीन शासन-तन्त्र राज्यको ही अन्तिम संवाद एवं सामाजिक प्रगतिकी चरम सीमा मानता है। इस पक्षमें निश्चित प्रत्यक्षानुमान, अपौरुषेय आगम आर्षशास्त्र एवं परम्परा सभी अनुकूल है। भारतीय अध्यात्मवादमें समष्टि अनन्तकोटि ब्रह्माण्डात्मा कार्य-कारणातीत ब्रह्मका स्थूल रूप है। उसके भीतर समष्टि लिंगात्मा हिरण्यगर्भ सूक्ष्मरूप है। उसमें भी आन्तरसमष्टिकारणात्मा महाकारण ईश्वर है और सर्वान्तर सूक्ष्मतम कार्यकारणातीत शुद्ध ब्रह्म है। महाविराट्की अपेक्षा भी हेगेलका विश्वात्मा बहुत स्थूल एवं संकीर्ण है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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