1.3 अन्य पाश्चात्य-दर्शन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

1.3 अन्य पाश्चात्य-दर्शन

रोजेनिलस आदि दार्शनिक धर्मविरोधी थे। रोजर बेकन इत्यादिने विचार-स्वातन्त्र्यमें धर्मको कुछ नहीं गिना। धर्मके विषयमें यूरोपमें उस समय सुधारकी भावना उद‍्भूत हुई तथापि वे सुधारक भी संकुचित वृत्तिके थे। कैलविनने सुधारक होते हुए भी ‘रक्तसंचालन’ के तथ्यके आविष्कारमें लगे हुए सर्विटसको जीवित ही जलवा दिया था।
बेकनका कहना है कि ‘सर्वत्र श्रेष्ठ उपाय खोजना चाहिये। वस्तुके सभी अंशोंका यथायोग्य अध्ययन करना चाहिये। जिसका प्रथम स्थान हो, उसका अध्ययन प्रारम्भमें तथा दुरूहसे पहले सरलका अध्ययन कर लेना चाहिये। यह सब प्रयोगके बिना सम्भव नहीं हो सकता। आप्तवाक्य, विवेक और प्रयोग—ज्ञानके ये तीन मार्ग हैं। कारणरहित आप्तवाक्य अकिंचित्कर है, कारणके बिना आप्तवाक्यका कोई अर्थ नहीं। आप्तवाक्यपर विचार कर प्रयोगसे प्रमाणित कर विवेकसे ज्ञान एवं प्रदर्शनका भेद जानना चाहिये। उसके मतमें पहले प्राकृतिक ज्ञानसे ही विज्ञानकी उन्नति सम्भव है। इन्द्रियाँ पहले प्रमाण हैं, मन बादमें।’
असलमें ऐसे स्थलोंमें प्रत्यक्षानुमानमूलक जो आप्तवाक्य हैं, उनका प्रत्यक्षानुमानसे भिन्न शब्दप्रमाणसे व्यवहार नहीं किया जा सकता। ये वाक्य भी प्रत्यक्षानुमानमूलक होनेसे प्रत्यक्षानुमानके अन्तर्गत ही समझे जाते हैं। जैसे नैयायिकोंका प्रत्यक्षखण्ड, अनुमानखण्ड या बौद्धोंके आगमग्रन्थ होनेपर भी वे प्रत्यक्षानुमानके अन्तर्गत ही समझे जाते हैं। आप्तवाक्य या शास्त्रप्रमाणके रूपमें उनकी मान्यता नहीं होती। इसी तरह यहाँ बेकनका ‘आप्तवाक्य’ भी है, जिसे वह प्रयोग और विवेककी कसौटीपर कसता है, पर वह शब्दप्रमाणमें मान्य नहीं हो सकता।
यों प्रत्यक्षानुमानकी शिक्षाके लिये अपेक्षित शिक्षकका जो मूल्य है, वही इनके मतानुसार आप्तोपदेशका मूल्य है। कुछ आधुनिक वेदप्रामाण्यवादी वेदोंका प्रामाण्य इसीलिये मानते हैं कि वेदोक्त अर्थ प्रयोग और विवेककी कसौटीपर खरे उतरते हैं, परंतु वास्तविक वेदप्रामाण्यवादियोंका कहना है कि जिस प्रयोग और विवेकके आधारपर वेदोक्त अर्थका सौष्ठव एवं सत्यता सिद्ध की जाती है, उसी आधारपर वेदोक्त अर्थका परिज्ञान भी सम्पादित किया जा सकता है। फिर उसके लिये वेदप्रामाण्यकी कोई आवश्यकता नहीं ठहरती। जैसे नेत्रसे अवगत रूपके लिये दूसरे प्रमाणकी आवश्यकता नहीं होती। अज्ञातज्ञापकता ही प्रमाणोंका मुख्य प्रामाण्य होता है। प्रयोग और विवेकसे जो वस्तु ज्ञात हो, उसका ज्ञापक वेदवाक्य ज्ञातज्ञापक होनेसे अनुवाद ही ठहरता है।
देकार्त्तेने भी बेकनका अनुवर्तन करते हुए ‘धर्मबन्धनसे विनिर्मुक्त’ ही दर्शनका प्रवर्तन किया। उसके मतसे ‘ईश्वर भी बुद्धिसे अतीत [परे] नहीं है।’ विश्वसृष्टिके लिये उसने यान्त्रिक सिद्धान्त स्वीकृत किया है। पृथ्वीकी गतिके दृष्टान्तसे वस्तुओं एवं उनकी गतियोंसे ही विश्वकी सृष्टि उसने सिद्ध की है। उसके मतमें ‘विस्तार पदार्थोंका मुख्य गुण है, इसलिये जहाँ विस्तार हो, वहाँ भी पदार्थका अस्तित्व मान लेना चाहिये। इसलिये रिक्त स्थान है ही नहीं। जो स्थान रिक्त समझा जाता है, वह कोणमुक्त कणोंसे भरा हुआ ही है और सभी गतिमान् पदार्थ पारस्परिक संघर्षसे ‘कोणत्व’ के मिट जानेपर वृत्ताकार और सूक्ष्म हो जाते हैं। उन्हींसे सूर्य तथा अन्य प्रकाशवान् वस्तुएँ होती हैं। कुछ विलक्षण प्रकारके उन्हीं कोणत्वहीन पदार्थोंसे आकाशकी भी उत्पत्ति होती है। तीसरे प्रकारके उन्हीं पदार्थोंसे, जो स्थिरप्राय होते हैं, पृथ्वी उत्पन्न होती है, जिसमें प्रकाशकी किरणोंका प्रवेश नहीं हो पाता। इनकी गतियाँ वृत्ताकार आवर्त-जैसी होती हैं। बड़ी वस्तुएँ भँवरके बीचमें रहती हैं, छोटी उनके चारों ओर। भँवरकी इस गतिसे ही नक्षत्र सूर्यके चारों ओर चक्‍कर काटते रहते हैं।’
पर चेतनानधिष्ठित किसी भी प्रकारके पदार्थोंसे व्यवस्थित सृष्टिका होना असंगत है; क्योंकि कुलालादिसे अधिष्ठित मृत्तिकादिसे ही घटादिकी उत्पत्ति होती है। सारथिसे अधिष्ठित रथादिकी व्यवस्थित प्रवृत्ति होती है। इसलिये ईश्वर आवश्यक है। देकार्त्तेको भी यह मानना पड़ा। वह ईश्वर बुद्धॺतीत होते हुए भी बुद्धिगम्य हो सकता है। सृष्टिकर्तृत्वादिसे उसका अनुमान होता ही है। जहाँतक आकाशकी उत्पत्तिकी बात है, वहाँ आकाश यदि अवकाशात्मक, आवरणात्मक है, तो उसकी कल्पना निरर्थक है; क्योंकि निरवयव पदार्थकी उत्पत्तिमें कोई प्रमाण नहीं है। शब्दसमवायिकारण आकाश निरवयव एवं व्यापक है। इसलिये नैयायिकों तथा वैशेषिकोंके मतानुसार आकाशकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। वेदान्त-मतानुसार यद्यपि आकाशकी उत्पत्ति होती है तथापि वह आकाशसे भी सूक्ष्म एवं अमूर्त अहंतत्त्वका ही परिणाम है। परमाणु, अन्य भूतों या किन्हीं कणोंसे आकाशकी उत्पत्ति तो सर्वथा असंगत एवं निराधार है।
‘ज्ञान कहाँसे प्राप्त होता है और किस प्रकारका होता है’ यह दार्शनिकोंका मुख्य प्रश्न है। ‘मनमें कुछ निश्चित सिद्धान्त सुस्थिर रहते ही हैं, बुद्धि उन्हींका अनुगमन करती है और पदार्थोंके सत्य-ज्ञानके विषयमें सत्य-ज्ञान उत्पन्न होते हैं—यही देकार्त्तेका ‘प्रज्ञावाद’ है। ‘जिस प्रकार गणितका सारा प्रपंच कुछ निश्चित सिद्धान्तोंके आधारपर चलता है, उसी प्रकार सारा-का-सारा दार्शनिक प्रपंच बुद्धिके आधारपर चलता है, यह कहा जा सकता है।’ दूसरे पक्षका कहना है कि ‘यदि विश्वकी सारी समस्या गणितकी ही जैसी हो तो ऐसा कहा जा सकता है, परंतु ऐसा है नहीं। निश्चित घटनाओंके सम्बन्धमें गणितके समान कहा जा सकता है, परंतु इनके साथ विविध प्रकारकी अनिश्चित घटनाएँ भी सम्मिलित हैं। अत: मानना होगा कि गणितसे भिन्न भी अंश है। कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं, जो अनिवार्य रूपसे किसी घटनाकी फलभूत नहीं होतीं। जैसे किसी पदार्थका पीतवर्णविशिष्ट गुरुत्व होनेपर भी अनुभवके बिना केवल बुद्धिसे नहीं जाना जा सकता। इसलिये विश्वके ज्ञानके लिये विश्वका अनुभव आवश्यक है।’ ‘घटनाके अनुभवसे ही सत्य ज्ञान प्राप्त होता है,’ ऐसा कहनेवाले अनुभववादी दार्शनिक हैं। यद्यपि अंशत: यह सत्य है तथापि इससे दर्शनका उद्देश्य पूरा नहीं होता। ‘मनुष्य अपने उद्दिष्ट कार्योंमें स्वतन्त्र है अथवा संसार ही किसी उद्देश्यकी पूर्तिके लिये प्रवृत्त होता है’ इस विषयमें अनुभववादी सन्देहमें ही हैं। संसार आध्यात्मिक भी है, उसका ईश्वर भी है—यह अनुभवका विषय नहीं है। इन्द्रियोंसे जिनका अनुभव नहीं होता, उनपर उन्हें विश्वास नहीं। ये आदर्शवादी नहीं, व्यवहारवादी हैं।
देकार्त्तेके दर्शनमें ‘संसार आध्यात्मिक और सेश्वर है। इन्द्रियजन्य अनुभव तो मायामात्र ही है। कुछ सहज (स्वाभाविक) प्रत्यय होते हैं, उन्हींसे विश्वकी वस्तुएँ जानी जाती हैं।’ अन्य लोग सहज प्रत्ययोंको भी माननेको तैयार नहीं। उनका कहना है कि ‘दो और दो मिलकर चार होते हैं, यह सही है, पर यह भी कुछ बार अनुभव करके ही जाना जाता है। ज्ञानदृष्टिकी अभिव्यक्तिके लिये भी दो-तीन अनुभवोंकी आवश्यकता है। यद्यपि सर्वत्र सहज प्रत्ययोंकी सिद्धि इतनी सरल नहीं तथापि सहज प्रत्यय मान लेनेका यह तात्पर्य होगा कि अनेक वस्तुएँ ऐसी हैं, जो सहज प्रत्ययोंसे ही जानी जाती हैं, परंतु प्रमाणोंद्वारा नहीं। वे केवल बुद्धिसे ग्रहण कर ली जाती हैं और वे मनुष्योंको स्वत: सिद्ध हैं, अत: प्रमाण-निरपेक्ष होकर भी सत्य हैं।’
वस्तुत: सत्यताका निर्णायक प्रमाण ही होता है; क्योंकि प्रमाके कारणको प्रमाण कहते हैं और अज्ञात अबाधित असंदिग्धविषयक ज्ञान ही प्रमा शब्दसे कहा जाता है। उस प्रमाके कारणको ही प्रमाण कहा जाता है। सहज प्रत्यय भी तो चक्षुरादि प्रमाणोंसे ही उत्पन्न होंगे। इसीलिये सहज प्रत्ययोंमें भ्रम, प्रमा आदि विभाग होंगे। देकार्त्तेके मतमें जिस वस्तुका बुद्धिमें स्पष्ट अवभासन हो, उसीका सत्य ज्ञान होता है, परंतु यहाँ यह विचारणीय है कि किसीको बुद्धि या मनमें जो भासित होगा, वह दूसरेकी भी बुद्धि या मनमें भासित हो, यह अनिवार्य नहीं। यदि प्रत्येककी बुद्धिमें जो भासित हो, उसीको सत्य मान लें, तो भिन्न-भिन्न बुद्धियोंमें भिन्न भान होनेके कारण वस्तुका रूप ही विकृत हो जायगा। फिर भी अन्य सभी वस्तुओंमें सन्देह करनेवाला भी अपनेमें कोई सन्देह नहीं करता। ‘सन्देह करनेवाला कोई मनन करनेवाला है’ यह तो असंदिग्ध ही है। यहाँ भी सन्देह आदिका भासक कोई है, यह तो मानना ही पड़ेगा और वह अपरिवर्तनशील ही हो सकता है, अत: चेतनावान् पुरुषको भी देकार्त्तेने माना है।
ह्यूमका कहना है कि ‘काम, संकल्प, लज्जा, भय इत्यादि मानसिक भावोंकी जिस प्रकार अनुभूति होती है, उस प्रकार उसके भासक पुरुषकी अनुभूति नहीं होती। यदि ऐसी कल्पना की जाय कि ये मानसिक भाव मणितुल्य हैं और आत्मारूपी सूत्रमें निबद्ध हैं, तब भी मणिस्थानीय भावोंके समान सूत्रस्थानीय आत्माकी भी उपलब्धि तो आवश्यक ही रहती है और यह सूत्रस्थानीय आत्मा उपलब्ध होता नहीं, अत: उसका अस्तित्व ही नहीं है।’ साथ ही इस पक्षमें बाह्य वस्तुकी अपेक्षा मनके मननकर्तृत्वसे स्वात्मज्ञान ही अधिक है। इस प्रकार संसारके मानसिक कल्पनामय होनेसे वस्तुत्वकी ही सिद्धि न होगी। तब फिर मनको पूर्णरूपेण शरीरसे भी पृथक् मानना पड़ेगा। ऐसी भ्रान्ति बहुतोंको हुई है। वस्तुत: सर्वभासक साक्षी उपलब्धि अथवा भानस्वरूप होनेसे भानान्तरनिरपेक्ष ही सिद्ध है। वस्तुका प्रकाश दो प्रकारसे होता है। एक प्रकाशस्वरूप होनेसे और दूसरा प्रकाशसे संसर्ग होनेसे। जैसे घटादिमें ‘प्रकाशके संसर्गसे प्रकाशित होता है’ ऐसा व्यवहार होता है और प्रकाशमें संसर्गान्तर बिना ही ‘स्वत: ही प्रकाशित होता है’ ऐसा व्यवहार होता है। इसी तरहसे प्रकाशान्तर या बोधान्तरका विषय न होनेपर प्रकाशस्वरूप होनेसे ‘प्रकाशित होता है’, ऐसा व्यवहार संगत है और मणियोंके बीच सूत्रोपलब्धिके समान विविध बौद्ध वृत्तियोंकी सन्धियोंमें निर्विकल्प बोधस्वरूप स्वत: भासमान रहता ही है।
गतिविज्ञानवादियोंकी दृष्टिमें यन्त्रादिकी अपेक्षा गति ही पहलेसे निर्धारित है। शरीरके वस्तुकण-निर्मित होनेके कारण उसकी भी गति वैसे ही पूर्वनिर्धारित ही है। मन भी यदि शरीरसे अभिन्न वस्तु हो, तो उसकी भी वैसी ही गति सिद्ध हो जाय। पृथक्त्ववादियोंके मतमें मन शरीर-प्रभावसे असंस्पृष्ट ही रहता है।
देकार्त्तेके मतसे ‘मन और वस्तु दोनों ही ईश्वरनिर्मित हैं। चिन्तन मनकी विशेषता है और विकास वस्तुकी। ये दोनों परस्पर भिन्न होनेके कारण एक दूसरेसे अत्यन्त अप्रभावित रहते हैं। जिस प्रकार दो घटिकायन्त्र स्वतन्त्ररूपसे नाद करते हैं, अत: एक साथ नाद करनेपर भी उनका सम्बन्ध नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार मन एवं शरीरकी घटनाएँ यद्यपि एक दूसरेके अनुरूप होती हैं तथापि उनका कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है। परमेश्वरकी कृपासे ही मन और शरीर दोनोंकी क्रियाओंमें सामंजस्यसे जीवन चलता है।’ इस प्रकार भौतिकवाद तथा आदर्शवाद—ये उस [देकार्त्ते]-के दर्शनकी दो धाराएँ हैं।
स्पिनोजा [१६३२-१६७७ ई०] भौतिकवादका प्रवर्त्तक हुआ और लाइवनिट्स [१६४६ ई०] आदर्शवादका। स्पिनोजाके मतसे ‘प्रज्ञा ही सबसे उत्कृष्ट है। उसीके द्वारा धर्मग्रन्थके विषयोंकी भी परीक्षा की जानी चाहिये। प्रज्ञासे वस्तुओंके सम्बन्धोंका अन्वेषण करना चाहिये। प्राकृतिक घटनाओंके आन्तरिक सम्बन्धको बतलानेमें अप्राकृतिक शक्तिका हस्तक्षेप अनुचित है।’ इसके मतसे आध्यात्मिक, मानसिक एवं भौतिक ऐश्वर्य आदि सभी भाव प्रकृतिमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं और इस प्रकार ईश्वर अथवा प्रकृति एक ही है। सम्पूर्ण ही ईश्वर है, ईश्वर ही सम्पूर्ण है। घटनाओंका ऐक्य केवल उनके अस्तित्वमात्रका है। जो नियमानुवर्ती हैं। भूतों तथा आत्माओंका पूरा साम्य है। उनमें ईश्वरकी सत्ता है, अत: भूत आत्ममय ही हुए। सीमित वस्तुएँ एवं घटनाएँ अपने अतिरिक्त असंख्य वस्तुओं एवं घटनाओंसे सम्बद्ध हैं। इनके समूहका ज्ञान अत्यन्त दुष्कर है, अत: किसी न किसी स्वात्मनिर्भरकी सत्ता मानना आवश्यक है। इस प्रकार मूल पदार्थका वैविध्य नहीं रह जाता। साथ ही इस पक्षमें शून्यकारणतावादका परिहार बड़ी सरलतासे हो जाता है। पूर्ण अनन्त ईश्वर अथवा पूर्ण अनन्त प्रकृतिसे बहिर्भूत अन्य कुछ नहीं रह जाता—ईश्वर ही सम्पूर्ण है। इसमें अन्तर इतना ही है कि कार्य कारणसे अभिन्न अर्थात् अनन्य हो सकता है; परंतु कारण कार्यसे अभिन्न नहीं होता। जैसे हाटक (सोना)-से भिन्न कटक, मुकुट, कुण्डलादि नहीं हैं, पर कटक, मुकुट आदिके बिना भी हाटक रहता है। अत: हाटकको उनसे अभिन्न नहीं कहा जा सकता। इसी तरहसे सम्पूर्ण जगत् परमेश्वरसे अभिन्न है। पर जगत‍्के बिना भी वह परमेश्वर रहता है। अत: वह जगत‍्से अभिन्न नहीं कहा जा सकता और प्रकृति तथा ईश्वरमें इतना भेद है कि स्वतन्त्र और चेतन ईश्वर है, किंतु अचेतन चेतनाधिष्ठित प्रकृति है। सृष्टिचक्रके बाहर कोई अप्राकृत वस्तु नहीं है और प्रकृतिका स्वभाव चंचल है। सभी शक्तियाँ उसीमें विलीन रहती हैं। सारी-की-सारी शक्तियाँ परमेश्वरकी अंगभूता हैं। व्यापकता तथा मननशक्ति इन दोका अनुभव लोगोंको होता है। भौतिक पदार्थ तथा घटनाएँ व्यापकताशक्तिमें एवं मन तथा उसकी अनुभूतियाँ मननशक्तिमें अन्तर्भूत हो जाती हैं। एक ही अन्तिम सत्ताके विभिन्न रूप होनेके कारण तथा समानकालिक होनेके कारण मन तथा शरीर परस्पर क्रिया-प्रतिक्रियावान् हैं। पदार्थगतिके अनुरूप ही मनोगति होती है। बाह्य नियमबन्धनका प्रतिबिम्बमात्र ही आन्तरिक-नियमबन्धन है। बुद्धिमें जिसकी धारणा होती है, बाहर भी उसकी सत्ता होती है। साथ ही, कार्यकारणभाव सर्वत्र है। जैसे लौहका कूट (निहाई) आदिके द्वारा ताड़नादि होता है, वैसे ही कूटादिका भी अन्य साधनोंसे ही निर्माण होता है। वैसे ही उन साधनोंका भी निर्माण साधनान्तरोंसे ही होता है—यों कार्यकारणभावकी कहीं समाप्ति नहीं। समान गुण हुए बिना दो वस्तुएँ परस्पर प्रभावोत्पादक नहीं हो सकतीं। इसलिये आत्मा एवं भूतोंके पारस्परिक प्रभावोत्पादनके लिये उनका समानगुणत्व मानना होगा। यों मूलत: दोनों एक ही हैं।
आन्तर कारणके सम्बन्धमें स्पिनोजाकी दृष्टिसे ‘किसी प्रयोजनके बिना मन्द व्यक्ति भी किसी कार्यमें प्रवृत्त नहीं होता, अत: प्रवृत्ति सोद्देश्य होनी चाहिये। जैसे नेत्र देखनेके लिये बनाये गये हैं, दाँत चबानेके लिये, सूर्य प्रकाशके लिये, ऐसे ही सभी वस्तुएँ मानवीय उपयोगके लिये ही बनी हैं। उपयोग करने योग्य वस्तुएँ अपने प्रयत्नके बिना ही मिल गयीं, इसलिये यह कल्पना की जाती है कि वे किसीके द्वारा बनायी गयी होंगी। निर्माताके बिना ही स्वत: उत्पन्न हो गयी होंगी ऐसा विश्वास जल्दी नहीं होता; क्योंकि वैसा देखा नहीं जाता। जैसे हमलोग अपने उद्योगके लिये वस्तुओंका निर्माण करते हैं, वैसे ही प्रकृतिके अधीश्वरने हमलोगोंपर अनुग्रह कर वस्तुओंका निर्माण कर दिया—ऐसे निरूढ़ संस्कारसे ईश्वर सिद्ध हो जाता है।’
इसपर भौतिकवादियोंका यह कहना है कि ‘सब वस्तुएँ परमेश्वरके अनुग्रहसे उत्पन्न हुई हैं’ यह इसलिये नहीं कह सकते कि बहुत-सी ऐसी भी वस्तुएँ मिलती हैं, जो उपयोगार्ह नहीं हैं, प्रत्युत विघातक हैं। यथा—विष, भूकम्प, व्याधि आदि। यदि कहा जाय कि ‘ये वस्तुएँ परमेश्वरके कोपमूलक हैं’ तो वह भी ठीक नहीं; क्योंकि वैसा माननेपर धार्मिकों एवं ईश्वरभक्तोंपर इनका कोई प्रभाव न पड़ना चाहिये था। पर देखा यह जाता है कि धार्मिक और अधार्मिक सब उपद्रवग्रस्त होते हैं। दूसरा मार्ग खोजनेकी अपेक्षा अन्धकारमें पड़े रहना ही सुखकर है, ऐसा सोचकर आदर्शवादी वहीं पड़े हैं।
यह भौतिकवादियोंका प्रलाप है। वास्तवमें सुख-दु:ख धर्माधर्ममूलक हैं (सुखका मूल धर्म और दु:खका मूल अधर्म है)। व्यष्टिके पापोंसे व्यष्टिके दु:ख और समष्टि पातकोंसे समष्टिदु:खजनक उपद्रवोंकी उत्पत्ति होती है, यह सर्वथा निर्दोष सिद्धान्त है। इस स्थितिमें धार्मिक होनेपर भी दु:ख आनेपर कालान्तरीय पातकोंकी कल्पना की जा सकती है, जो फलबलकल्प्य हैं। इस प्रकार कोई दोष नहीं रह जाता। ऐसे प्रलापोंका समाधान बहुत पूर्वसे होता आ रहा है। मनुने पापी पुरुषोंको सुखी और कदाचित् धर्मात्माओंके दु:खी होनेकी शंकापर बतलाया है कि ऐसी बात देखकर भी अधर्मसे बचना चाहिये; क्योंकि पहले अधर्मसे कभी-कभी वृद्धि देखी जाती है, पर उसका कारण व्यक्तिके प्राक्तन सुकृत हैं। उनका फल समाप्त होते ही उसका समूल विनाश हो जाता है—
अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति।
तत: सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति॥
नाधर्मश्चरितो लोके सद्य: फलति गौरिव।
शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥
न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत्।
अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन् विपर्ययम्॥
(मनु० ४।१७४, १७२, १७१)
पापीके बड़े-बड़े पुण्योंका फल तनिक सुखमें समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार पुण्यात्माके बड़े-बड़े पाप साधारण कष्टभोगोंसे समाप्त हो जाते हैं। पापीको जहाँ साम्राज्यप्राप्तिकी बात थी, वहाँ उसे पाप करते एक अशर्फी मिलकर रह जाती है। यों ही पुण्यात्माको जहाँ मरण-जैसा भयंकर कष्ट आना होता है, वहाँ पुण्य करते काँटा चुभकर रह जाता है।
प्रज्ञा (बुद्धि)-में भी भ्रम आदि दोष देख पड़ते हैं, अत: उसका भी प्रामाण्य ऐकान्तिक नहीं है। अनुभवके अतिरिक्त भी कोई विचारमार्ग है या नहीं? इस प्रश्नके उत्तरमें अध्यात्मवादी कहते हैं ‘है’, भौतिकवादी कहते हैं ‘नहीं है।’
हॉब्सने सब वस्तुओंकी व्यवस्था यान्त्रिक सिद्धान्तानुसार बतलायी। उसके मतानुसार ‘केवल वस्तुएँ और गतियाँ ही सत्यभूत हैं और सब इन्हींका विकार-समुदाय है। ज्ञान भी उसीमें अन्तर्भूत हो जाता है। इन्द्रियानुभूति ही ज्ञान है। वस्तुओंके द्वारा इन्द्रियाक्रान्ति ही अनुभूति है। यह भी गतिविशेष ही है। मन भी भौतिक ही है। सभी वस्तुओंका यह मूलभूत गुण है कि वे अपनी वर्तमान अवस्थामें रहती है। वह अवस्था गतिरहित हो या गतिमती हो यह दूसरी बात है।’ हॉब्सके मतमें ‘मानव कल्पनाशक्तिके सीमित ही होनेके कारण किसी भी वस्तुकी असीम धारणा सम्भव नहीं है। इसलिये सीमारहित शक्ति या सीमारहित समय नहीं है। कहीं-कहीं असीम शब्दका जो प्रयोग होता है, उसका यही तात्पर्य होता है कि हमें उसकी सीमाका ज्ञान नहीं है। इन्द्रियानुभूतिका विषय न हो ऐसा कोई भी धारणाका विषय (सम्भव) नहीं हो सकता।’
लाइवमिट्सने भौतिकवादका खण्डन करनेके लिये संशोधित रूपसे परमाणुवादकी प्रतिष्ठापना की। निर्जीव भूतोंसे सृष्टि नहीं हो सकती, यह सिद्ध करनेके लिये उसने ‘मोनाड’ नामके अनुभवशक्तियुक्त आध्यात्मिक अणुओंको ही सृष्टिका कारण माना। यान्त्रिक नियमोंका अनुवर्त्तन करनेवाले इन असंख्य और असमान अणुओंका अन्योन्य प्रभाव न होनेपर भी परमेश्वरकी महिमासे परस्पर सम्बन्ध अवभासित होता है। जिस प्रकार अनेक घटीयन्त्र (घड़ियाँ) समान रूपसे कालनिर्देशन करते हैं, वैसे ही इन अनन्त असंसृष्ट अणुओंके विषयमें भी समझना चाहिये। कार्य-कारणकी परम्परा ईश्वरमें जाकर समाप्त हो जाती है; क्योंकि मूलका मूल नहीं हुआ करता। इसलिये जो सबका मूल है, उसे स्वयं अमूल (मूलरहित) ही होना चाहिये। कार्य-कारणपरम्पराके नियमानुवर्त्ती होनेके कारण सृष्टिमें परमेश्वरका हस्तक्षेप नहीं होता। ये ‘मोनाड’ नामके अणु ही अन्तर्निहित शक्तियोंद्वारा जीव, अजीव, पशु, मनुष्य आदिके रूपमें विकसित होते हैं। ‘मोनाड’ मन और शरीर तथा पशु और मनुष्यके भेदको दूर कर देता है। बाह्य वस्तुएँ प्रत्यक्ष अनुभूतिके विषय हैं, अत: उनका मनसे पृथक् रूपमें अस्तित्व है और उससे मन प्रभावित होता है। उसीसे बाह्य वस्तुओंका प्रत्यक्षीकरण होता है, परंतु ऐसा माननेपर ‘एक मोनाड दूसरे मोनाडोंसे प्रभावित नहीं होता’ यह सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। इसलिये वह प्रक्रिया ठीक नहीं। घड़ीके समान परस्पर सम्बन्ध न रहनेपर भी समान क्रिया हो सकती है—यह उपपत्ति तो दी ही जा चुकी है। इसलिये आत्मनिष्ठ घटनाका ही अनुभव होता है। बाह्यानुभूति तो माया ही है। काम, संकल्प आदिके समान बाह्य वस्तु भी मानस (मानसिक) ही है। मनुष्य-शरीर असंख्य मोनाडोंसे संघटित है। इसका नियामक मन या आत्मा एक ही मोनाडसे बना है। विश्वके सम्बन्धमें मोनाडोंका विचार समानरूपसे स्पष्ट नहीं होता।
अग्निसे दो हाथकी दूरीपर स्थित व्यक्तिको उष्णताकी अनुभूति होनेपर प्रतीत होता है कि औष्ण्य अग्निका गुण है। उससे भी अधिक निकट जानेपर औष्ण्यकी अभिवृद्धि हो जानेपर देहमें पीड़ा भी होने लगती है। वह संनिधान या नैकटॺका ही गुण हो सकता है, अग्निका नहीं। पीड़ा तो उष्णताका ही उत्कट रूप है। अत: औष्ण्य अनुभूतिविशेष ही हुआ, अग्निका गुण नहीं। कुछ कीटाणुओंकी टाँगें इतनी सूक्ष्मतम होती हैं कि वे सूक्ष्मवीक्षण-यन्त्रसे ही देखी जा सकती हैं, परंतु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उन [कीटाणुओं]-को भी अपनी टाँगें सूक्ष्मवीक्षण-यन्त्रसे ही ज्ञात होती हैं। इसलिये द्रष्टाके मनके गुणोंके अनुसार ही सूक्ष्मता या दीर्घता प्रतीत होती है। इसीलिये कीटाणुके मनके लिये दृश्य कुछ और है, हमारे मनके लिये दृश्य कुछ और है। किंतु इतने मात्रसे उस टाँगकी लम्बाई दो प्रकारकी नहीं हो जाती, परंतु सिद्ध यह होता है कि परिमाण दृष्टिका गुण है, दृश्य वस्तुका गुण नहीं। कारण, वह द्रष्टाके मनमें सापेक्ष है। जो आपातत: गुण प्रतीत होते हैं, विचार करनेपर वे मनकी अनुभूतिके अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाते। दर्शन, श्रवण आदिके स्वरूपका विचार करनेपर भी यही निश्चय होता है। जैसे—वस्तुओंकी आलोककिरणें स्नायुओंके सूक्ष्म दृष्टिस्तरोंपर पड़ती हैं। उससे स्नायुओंमें गति उत्पन्न होती है। उससे मस्तिष्कगत कणोंमें स्पन्दन उत्पन्न होता है। उसीसे किसी प्रकार चेतना उत्पन्न हो जाती है। यही वस्तुदर्शन कहलाती है। इसी प्रकार शब्दका, जो वायुमण्डलीय स्पन्दनविशेष है, कर्णशष्कुलियोंसे सम्बन्ध होता है, जिससे मस्तिष्क प्रभावित होता है। उससे मस्तिष्कस्थित स्नायु-कणोंमें गतिसमूह उत्पन्न होता है, उससे चेतना। इसीको ‘श्रवण’ कहते हैं। मस्तिष्क गहरे तमसे आच्छन्न कमरे-सरीखा है। उसमें एक सुदीप्त पट है, जिसका दीपन करनेवाली चेतना है। अनुभूयमान बाह्य विषय इन्द्रियोंको उत्तेजित करते हैं और वे मस्तिष्कगत स्नायुओंको उत्तेजित करती हैं। उससे उत्पन्न चेतनाके द्वारा उद्दीप्त हुए पटपर वस्तुकी प्रतिकृतियाँ अभिव्यक्त हो जाती हैं। ‘वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त किया जाता है’, इसका अर्थ यह है कि वस्तुओंके चित्र—प्रतिकृतियाँ—मस्तिष्कस्थ प्रदीप्त पटपर व्यक्त होती हैं। चेतनाके द्वारा उज्ज्वलित पटपर प्रतिफलित वस्तुकी प्रतिकृति ही ज्ञान है।
सांख्ययोग तथा वेदान्तके मतानुसार इन्द्रियोंद्वारा प्रत्युपस्थापित शब्दादि-विषयाकाराकारित वृत्तिसे युक्त अन्त:करणमें प्रतिबिम्बित असंग पुरुषका अपने प्रतिबिम्बके साथ तादात्म्याभिमानके द्वारा विषयोपरागाभिमान उत्पन्न होता है। जैसे जपाकुसुमसे उपरक्त हुआ स्फटिक स्वनिष्ठ प्रतिबिम्बमें अपना आकार समर्पित कर देता है तथा च वृत्तियुक्त अन्त:करणमें स्थित विषयाकारताका प्रतिबिम्बमें भान होता है। इसलिये प्रतिबिम्ब भी रक्त हो जाता है और उसके तादात्म्याभिमानसे बिम्ब भी अपने आपको रक्त मानता है। दर्पणगत मालिन्यके कारण दर्पणान्तर्गत प्रतिबिम्बमें भी मलिनता प्रतीत होती है। प्रतिबिम्बके साथ तादात्म्याभिमानवान् होनेके कारण ‘मेरा मुख मलिन है’ यह समझकर बिम्ब भी चिन्तित होता है। उसी प्रकार विषयोपरक्त अन्त:करणमें पुरुषका प्रतिबिम्ब है, अत: उस प्रतिबिम्बके साथ तादात्म्याध्यास (अभेदाभ्यास)-के कारण बिम्बमें भी विषयोपरागका अभिमान होता है। इस तरह असंग स्वप्रकाश चेतनसे विषयोपरागद्वारा विषयका प्रकाश होता है।
ज्ञाताका मन प्रथम पदार्थ है, बाह्य वस्तु द्वितीय तथा चेतनोज्ज्वलितपट-प्रतिबिम्बित चित्र या प्रतिकृति तृतीय। मन प्रतिकृतिको तो जानता है, पर बाह्य वस्तुको नहीं; क्योंकि प्रथम एवं तृतीय द्वितीयके बाधकके रूपमें उपस्थित हैं। ऐसी दशामें प्रश्न उठता है कि फिर द्वितीयका अस्तित्व माना जाय या नहीं। यदि द्वितीय जाना ही नहीं जा सकता तो फिर उसीसे तृतीय उत्पन्न कैसे हो जाता है, यह वाचोयुक्ति भी संगत मालूम होती है। अन्य लोगोंका कहना है कि बाह्य वस्तु अनुभूतिके कारणके रूपमें मान लेना चाहिये; क्योंकि उसके बिना अनुभूतियोंमें वैचित्र्य उत्पन्न नहीं होता। औरोंका कहना है कि वासनाओंके वैचित्र्यसे ही उन अनुभूतियोंके वैचित्र्यकी उपपत्ति दी जा सकती है। कुछ लोगोंका कहना है कि यद्यपि विज्ञानके अतिरिक्त और कुछ अनुभवका विषय नहीं होता तथापि विज्ञानके वैचित्र्यकी उपपत्तिके लिये जब उसे मान लेना पड़ता है, तब स्वातन्त्र्येण भी उसकी कहीं सत्ता होगी, ऐसा मान लेना चाहिये। बौद्धोंमें कोई क्षणिक बाह्य और आन्तर दोनों पदार्थ मानते हैं। कुछ लोग अन्तरको प्रत्यक्ष और बाह्यको अनुमेय कहते हुए आन्तर विज्ञानमें विचित्रताकी उपपत्तिके लिये अनुमेय बाह्य पदार्थ मानते हैं। कुछ लोग वासना-वैचित्र्यसे ज्ञान-वैचित्र्य मानते हैं। इसलिये बाह्य पदार्थका अस्तिस्व नहीं स्वीकार करते।
बर्कले (१६८५-१७५३)-का मत है कि ‘औष्ण्य (उष्णता)-के समान ही रूप-संस्थान, गुरुत्व आदि भी ‘मानस’ भाव ही हैं, इसलिये उनमें भी औष्ण्यसे कुछ वैशिष्टॺ न होनेके कारण कोई भेद नहीं। इसी प्रकार वस्तु गुणात्मक ही है। गुणोंके न रह जानेपर वस्तु रह ही नहीं जाती और गुण विज्ञानके अतिरिक्त कुछ नहीं है।’ भारतीय वेदान्तानुसार भी वस्तुस्थिति ऐसी ही है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि गुणोंके अभावसे पृथ्वीतत्त्व कुछ मनोमात्र ही तो रह जाता है। परमेश ज्ञानमय होनेके कारण व्यवहारमें सब वस्तुओंका यथायोग्य उपयोग हो जाता है, परंतु विचारसे उनका बाध हो जाता है; अत: अविचारितरमणीयता भी है। ईश्वरकी कल्पनाके विषय पदार्थ ‘व्यावहारिक’ और ‘धारणाविषय’ कहे जाते हैं और हमलोगोंके कल्पित पदार्थ ‘प्रातिभासिक’ और ‘कल्पनामात्र’। यही भेद है। ब्रह्मसे भिन्न सब कुछ दृष्टि-सृष्टिमात्र है।
भौतिकवादी न तो परमेश्वरको ही मानते हैं, न चेतनको ही स्वतन्त्र मानते हैं। अत: उनके मतमें तो यह सारा ही दर्शन बाधित हो जाता है। उनके मतमें विज्ञान सिद्ध पदार्थका भी अस्तित्व है ही। मन अथवा चेतना पदार्थोंके गुण ही हैं।
काण्ट (१७२४-१८०४ ई०) दार्शनिक तथा गणितज्ञ था। उसकी ‘प्रकृतिका साधारण इतिवृत्त’ और ‘ऊर्ध्वलोक-सिद्धान्त’ नामकी पुस्तकें प्रसिद्ध हैं। उसने ह्यूमके अज्ञेयवादसे विज्ञानका उद्धार किया और धर्मकी भी रक्षा की। उसके मतमें सभी वस्तुएँ दो प्रकारकी होती हैं—पारमार्थिक तथा प्रातिभासिक। इसलिये सामान्य व्यक्तिको वस्तुका यथावत् ज्ञान नहीं होता। उसके मतमें ‘मनसे संलग्न कुछ कारण होते हैं, जिनसे युक्त मनके द्वारा वस्तुएँ कुछ दूसरे ही प्रकारकी जानी जाती हैं। जैसे सहज नीले उपनेत्रसे युक्त चक्षुके द्वारा सब वस्तुएँ नील ही प्रतीत होती हैं, वैसे ही कुछ हेतुओंसे युक्त मनके द्वारा देश-कालमें व्याप्त ही वस्तुएँ प्रतीत होती हैं। अनुभूतिमें जिनकी प्रतीति होती है, उससे पहले रूपादिहीन वस्तुएँ ही प्रतीत होती हैं।’ सहज नीले उपनेत्र लगा लेनेके समान स्वत:सिद्ध ज्ञानरूपी साँचेसे वस्तुएँ जब मस्तिष्कमें जाती हैं, तब देश-कालादिसे सम्बद्ध ही प्रतीत होती हैं—यह हम कह आये हैं। ‘यहाँ’, ‘वहाँ’ अथवा ‘सर्वत्र’ किंवा ‘इस समय’, ‘उस समय’ अथवा ‘सर्वदा’—इस प्रकार सभी वस्तुओंका अवबोध देश-कालसे आबद्ध ही होता है। काण्टके अनुसार मनमें यही स्वत:प्राप्त ज्ञानका रूप है।’ ऐसे ही मन:संलग्न सहज उपनेत्रके समान अन्य कारणोंसे ज्ञान होनेका उस (काण्ट)-का सिद्धान्त भी समझ लेना चाहिये, जिससे गुण, परिणाम, पदार्थ, कार्य और कारणके सम्बन्धोंका भान होता है। ‘जो भी वस्तुएँ जानी जाती हैं, उनमेंसे प्रत्येक पदार्थ परिमाणयुक्त है। उनमें कुछ गुणयुक्तोंकी दृष्टिसे कार्य हैं, कुछकी अपेक्षासे कोई कारण है। ज्ञानसिद्धान्तानुसार अनुभूयमान वस्तुओंमें मनके साथ मानसिक भाव भी संयुक्त हो जाते हैं। अत: ज्ञात वस्तु सम्मिश्रित ही होती है, शुद्ध नहीं। सहजप्रत्ययरूप रूपहीन पदार्थ ज्ञानसिद्धान्तसे संस्पृष्ट होकर विज्ञात होता है और ‘यह मनुष्य है’ ‘यह पशु है’ इत्यादि रूपसे प्रत्यभिज्ञात होता (पहचाना जाता) है। इसीसे अनुभव विज्ञान बनता है। उसके मतमें प्रतीयमान जगत‍्का नाम ‘फेनोमेना’ है और वस्तुभूत जगत‍्का ‘नूमेना’ प्रथम बर्कलेके सिद्धान्तसे सम्मत है, द्वितीय उससे भिन्न।’
समस्त व्यवहार संकल्पमूलक ही हैं। तर्क, गणित आदिके नियम भी संकल्पात्मक ही हैं। जैसे दो और तीन मिलकर पाँच होते हैं—यह गणितका नियम है। कार्य सदा सकारण होता है। आम्र स्वयं भी और स्वयंसे भिन्न भी—यह सम्भव नहीं, यह तर्क भी उसी ढंगका है। ये भाव मानस ही हैं; क्योंकि जिनके मनका संघटन भिन्न प्रकारका होगा, उनके इस विषयमें विचार भी भिन्न प्रकारके हो सकते हैं। इसलिये हमारी धारणाके अनुसार ही हमारा जगत् है, परंतु हमारे विचारोंसे वस्तुव्यवहार भी प्रभावित होता है, इस विश्वासका कोई कारण नहीं है। तर्क और अनुभवके मध्यसे विज्ञान प्रवृत्त होता है। गणितके समान विज्ञानमें भी तर्कका स्थान है। भेद इतना ही है कि विज्ञान अनुभवसे तर्ककी परीक्षा करता है और गणितका परिणाम अपरीक्षणीय ही रहता है; क्योंकि उसकी सत्यता छिपी नहीं रहती। इन्द्रियानुभूतिमें भी वैसी जटिलता नहीं है, किंतु तब गणितके तर्कोंका अनुभूतिके क्षेत्रोंमें प्रयोग कैसे हो, यह समस्या तो है ही। वैज्ञानिकी प्रक्रिया तो यह है। उसमें तर्कसिद्ध ज्ञान वस्तुव्यवहारमें प्रयुक्त होता है। जैसे मध्याकर्षण-नियमके आविष्कारसे वस्तुव्यवहारके सम्बन्धमें भविष्यवाणी की जाती है और वैसा ही घटित भी होता है। तर्कसिद्ध वस्तु प्रयोगमें भी कैसे सत्य होती है। यह समस्या है। जिन वस्तुओंका इन्द्रियानुभूतियोंसे ग्रहण किया जाता है तथा जिनका बुद्धिसे ग्रहण किया जाता है, उनमें अन्तर स्पष्ट है। कुछ वस्तुओंकी दो-दो जोड़ियाँ बालकके द्वारा गिनी जानेवाली बुद्धिसे दो-दो चार होते हैं, यह व्यापक सत्य है। व्यापकधारणा विशिष्ट इन्द्रियानुभूतियोंसे भिन्न पृथक् ही हैं, कारण वह रूप, प्रयोग आदिसे भिन्न हैं। यहाँ प्रज्ञावादी तो इन्द्रियानुभूतिके विषयका ही अपलाप कर देते हैं। कार्यकारण-सम्बन्धमें बँधे होनेके कारण एक वस्तुके विज्ञानसे ही सब विज्ञान हो जाता है; क्योंकि वही अवश्यम्भावी परिणाम है। उनके मतमें कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसका अस्तित्व घटनामात्र हो।
डार्विन (१८०९-१८८२)-का मत है कि ‘इन्द्रियोंसे पृथक् विचारशक्ति है ही नहीं, इसलिये इन्द्रियानुभूतिके अतिरिक्त विचार कुछ है ही नहीं।’ उसके मतमें ‘उन सूक्ष्म तन्तुओंका संकुचन, गतिविशेष अथवा रूपान्तरसे परिवर्तनविशेष ही ज्ञान है, जिनसे इन्द्रियोंका निर्माण होता है।’ विचारका ही दूसरा पर्याय इन्द्रिय-गतिविज्ञान है। स्मृतिशक्ति, कल्पना यदि जीवगति नहीं तो और क्या हो सकती हैं? यदि उसे वस्तुओंका चित्र या प्रतिकृति कहा जाय तो वह कहाँ है, जहाँ सभी वस्तुओंका संग्रह शक्य हो? सामान्यतया इन्द्रियानुभूति-विश्वासियोंके मतमें कोई आत्मा है, जिसके द्वारा बाह्य वस्तुएँ प्रतिकृतिके रूपमें ग्रहण की जाती हैं।
डार्विन, हक्सले प्रभृति वैज्ञानिकोंने आत्मवादका खण्डन कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया कि ‘वस्तुओंके इन्द्रिय-संनिकर्षसे स्नायुओंद्वारा शरीरमें जो क्रियाविशेष उत्पन्न होती है, उसीसे विचारका जन्म होता है।’ इन्द्रियाँ और उनका विषयोंके साथ संनिकर्ष एवं मस्तिष्क-स्नायुओंपर तज्जन्य प्रभाव सभी अचित् (जड) होनेसे वे स्वयं अपना ही प्रकाश नहीं कर सकते तो फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या? अचेतनसे चेतनकी उत्पत्ति होती है, यह सिद्धान्त भी असिद्ध है, जैसा कि पहले दिखलाया जा चुका है।
कावानी (१८५२-१९३५)-का कहना है कि ‘मानवेन्द्रियोंमें बाह्य वस्तुओंकी क्रिया-प्रतिक्रिया आदिके द्वारा जो प्रभावोत्पादन होता है, वही ज्ञान है। अनुभव ही जीवन है। घटनावलियोंकी अद‍्भुत शृंखलाओंसे उसका अस्तित्व है। सभी वृत्तियोंके द्वारा अपने विकाससे किसी आवश्यकताकी पूर्ति ही की जाती है और परस्परके अनुसार अभ्यास बढ़ानेवालेके प्रयोजनोंकी निवृत्ति भी हो जाती है। बाह्य वस्तुओंके घात-प्रतिघातका परिणाम ही मानवजीवनका अस्तित्व है।’
हलवांशने ‘प्रकृति-प्रथा’ नामक पुस्तकमें फ्रांसीसी भौतिकवाद प्रकाशित किया है। उसमें दीदेरो, वफो, दकेसी, हेलवेशियस इत्यादिका मत संगृहीत है। उसके अनुसार ‘दु:खका मूल प्रकृतिका अन्यथाज्ञान ही है। रूढ़िपाशमें बँधे हुए प्रकृतिके अध्ययनसे विमुख लोगोंका प्रेत-पिशाचादिमें अन्धविश्वास ही दु:खका मूल है। प्रकृतिके अध्ययनसे उसका उच्छेद (कर डालना) आवश्यक है। सत्य एक ही है और वह सुखरूप है। भ्रमवशात् ही उद‍्वृत पुरोहितों तथा राष्ट्रोंने जातियोंका बन्धन बनाया और भीषण मृगतृष्णामय धर्मोंके शिकार बने। अन्यथा-ज्ञानसे ही लोग घृणा तथा क्रूर दमनके भागी बनते हैं। इसलिये अन्धविश्वासका अपनयन और वस्तुतत्त्वज्ञान नितान्त आवश्यक है। जीव और उसे प्रभावित करनेवाले पूर्ण प्रकृतिके अंश हैं। अप्राकृत पुरुष कल्पनाप्रसूत ही है। मानव भौतिक ही है। विशिष्ट-संघटनका परिणाम होनेके कारण उसकी विशेषता है। वस्तु तथा उसकी गतिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। कार्यकारण-सम्बन्धकी अनन्त शृंखला ही संसार है। वस्तुओंमें परस्पर क्रिया-प्रतिक्रियाकी परम्परा चलती ही रहती है। विचित्र गुणों एवं संयोगोंसे वस्तुविशेषकी अभिव्यक्ति होती है।’
सुकरात, अफलातून, अरस्तू, काण्ट आदिके दर्शन ही इस पक्षका खण्डन हैं। सुख अवश्य पुरुषार्थ है, परंतु क्षणभंगुर नहीं, अपितु अनन्त एवं शाश्वत भी है और वही पुरुषार्थ है। प्रकृति और प्राकृत प्रपंचका जो भान है, जिसके अनुग्रहसे प्रकृति और प्राकृत प्रपंच प्रस्फुरित होता है, उसको प्रकृतिपार या प्रकृतिसे अतीत कहना अनिवार्य है। चक्षुका द्रष्टा चक्षुसे अतीत है, यह निर्विवाद है। महान् उद्देश्यकी प्राप्तिके लिये सूक्ष्म, आवश्यक नियम अपरिहार्य होते हैं। अतएव वे नियम उद‍्वृत्त राजाओं और पुरोहितोंद्वारा निर्मित नहीं हुए, अपितु अब्भक्ष, वायुभक्ष, कन्द-मूल-फलाशी, वल्कल-वसनधारी, अरण्य-वासी, शान्त, ऋतम्भरा प्रज्ञावाले, महातपा महर्षियोंद्वारा आविष्कृत हुए हैं।
बर्कले (१६८५-१७५३) भौतिकवादियोंके विरुद्ध है। उसके मतमें ‘सब कुछ संकल्पमात्र ही है, भौतिक नहीं। इसकी अनुभूतिका मूल ईश्वर है, कारण उसीकी अनुभूतिमें सबकी अनुभूतिका अन्तर्भाव हो जाता है। संकल्पोंके परस्पर सम्बन्धका नियामक ईश्वर ही है। उसीसे वस्तुओंके भी सम्बन्धका नियम प्रतीत होता है। जिह्वासे दन्तस्पर्श होते समय ‘मैं दन्तस्पर्शवान् हूँ’ यह प्रतीति होती है। प्रतीतिके अतिरिक्त दाँतोंका अस्तित्व नहीं ही है। किसी काष्ठका अंगुलियोंसे स्पर्श करनेपर काठिन्य, चिक्‍कणता और शैत्यका अनुभव होता है। यहाँ अनुभूतिसे भिन्न बाह्य वस्तु कुछ भी नहीं है। जैसे सुवर्णका पीत रूप और विशिष्ट गुरुत्व होता है और दोनोंका सहज साहचर्य भी होता है, परंतु उनका कार्यकारण-सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार वे लोग घटनामात्रका अपलाप कर देते हैं।’
इन्द्रियानुभूतिवादियोंका कहना है कि ‘बुद्धिसे किसी भी विषयका अस्तित्व नहीं जाना जाता। वास्तविकताके प्रत्यक्षीकरणसे ही अस्तित्वावगम होता है।’ जैसे प्रज्ञावादियोंके मतमें प्रत्यक्षानुभूतिका स्थान नहीं है, वैसे ही प्रत्यक्षानुभूतिवादियोंके मतमें व्यापक सिद्धान्तोंका भी स्थान नहीं है, जिन व्यापक सिद्धान्तोंके लिये दृश्य वस्तुओंका एकीकरण, उनका पारस्परिक सम्बन्ध-स्थापन तथा तुलनात्मक आलोचना होती है। इसलिये इन्द्रियानुभूतिको सत्य माननेपर बुद्धिप्राप्त ज्ञान ही असम्भव है। यदि प्रज्ञावाद सत्य हो तो इनका ज्ञान असम्भव है।
ज्ञानका विषय कुछ है, परंतु यह भी सत्य है कि अनुभूतियोंमें बुद्धि प्रयुक्त होती है। उसके परिणामका भी अपने जगत‍्में प्रयोग होता है, परंतु उभयवादियोंके सामंजस्यकी समस्या तो वैसी ही रह जाती है। इस विषयमें काण्टका कहना है कि ‘अनुभूतिका विषय अकृत्रिम नहीं है। इसलिये वस्तुतत्व अनुभवसे गृहीत नहीं होता, किंतु ज्ञानप्राप्तिकी क्रियासे परिष्कृत देशकालादि-सम्बद्ध ही वस्तुका ग्रहण होता है। इससे यह तो सम्भव है कि वस्तु उन नियमोंका पालन करे, जिन नियमोंसे वस्तु बुद्धिसे मण्डित होती है।’
यदि भौतिकवादके अनुसार प्रकृतिको क्रियाशील और ज्ञानको अक्रिय माना जाता है तो ज्ञानमें व्यवस्थापकत्व कैसे बन सकता है? काण्ट आदिके ज्ञानका रचनात्मक कार्य-कर्तृत्व इस दृष्टिसे होता है कि मनस या सर्वमनस ही ज्ञान है, भारतीय वेदान्तकी दृष्टिसे मन स्वयं ही भौतिक कार्य है, उसकी उत्पत्ति होती है और वह व्यापारवान् होता है, सक्रिय तो है ही। इंगलिश-फ्रेंच भौतिकवादियोंका यह मत भी ठीक नहीं कि वस्तुका अस्तित्व-विचार कर्ताके अस्तित्वसे पहले है, विचारकर्ता इसकी अनुभूति प्राप्त कर सकता है। यदि आत्मा भूतका ही परिणाम है, तब तो सुतरां कार्यभूत आत्माके पहले कारणरूप भूतका रहना ठीक ही है, परंतु जड़भूतोंके किसी परिणाममें चेतनता या विचारकर्तृता किसी भी प्रमाणसे नहीं सिद्ध हो सकती, हाब्सके विचार भी इस सम्बन्धमें भौतिकवादी ही हैं। भौतिकवादी भूतपरिणामको ही ज्ञान मानते हैं, अतएव ज्ञानका उद‍्गमस्थान उनकी दृष्टिसे इन्द्रियग्राह्य रूपोंके मूलभूत ही हैं, किंतु अध्यात्मवादी जड़भूतोंके अतिरिक्त आत्माको ही ज्ञानका उद‍्गमस्थान मानते हैं। वह आत्मा नैयायिक, वैशेषिक आदिके अनुसार ज्ञान-गुणवाला है, कुछके मतानुसार ज्ञानस्वरूप होकर ज्ञानधर्मक है और कुछके मतानुसार अखण्ड नित्य बोधस्वरूप है। उससे ही सर्वभूतों एवं भूतप्रकृतिकी उत्पत्ति होती है, उससे भौतिक अन्त:करण मन आदि उत्पन्न होता है, उसीसे साभास वृत्तिरूप अनित्य ज्ञान उत्पन्न होते हैं, परंतु इन सबसे पृथक् अखण्ड स्वत:सिद्ध नित्यबोध है, जिससे अनित्य ज्ञानोंकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय आदिका बोध होता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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