2.4 मध्य युग
रोमन साम्राज्यके पश्चात् यूरोपीय इतिहासका मध्य-काल आरम्भ होता है। इसके दो भाग किये जाते हैं, पूर्वार्ध (अन्धकार-युग) और उत्तरार्ध। पूर्वार्धमें रोमन लोगोंद्वारा निर्मित सड़कोंकी इतिश्री हो गयी थी। यूनानी और रोमन सभ्यताका अन्त-सा हो गया था। लोगोंमें आतंक छाया था। क्रमबद्ध राजनीतिक विचार नष्ट-से हो गये थे। संस्कृति और धर्मका भ्रष्ट स्वरूप सामने प्रस्तुत किया जा रहा था। ईसाइयोंका एक सम्प्रदाय बन चुका था। सारी उन्नति, आदर तथा सौहार्द सम्प्रदायतक ही सीमित था। परिणामस्वरूप धर्म-सत्ता और राजसत्ताका संघर्ष प्रारम्भ हो गया। धर्म और संस्कृतिका वास्तविक स्वरूप न होनेसे राजसत्ता निरंकुश होकर आगे बढ़ी।
तेरहवीं शताब्दीमें धार्मिक सत्ता पराकाष्ठाको पहुँच गयी थी। चौदहवीं शताब्दीके आरम्भमें उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। राज्याधिकारियोंने पोपकी प्रधानताको अमनस्कतासे स्वीकार किया था। पोपोंने आत्मबलके अभावमें अपना नाश स्वयं किया। सम्पत्तिके कारण तथा संयमके अभावमें उनमें विलासिताका प्रादुर्भाव हुआ। अरस्तूका बढ़ता हुआ प्रभाव भी धार्मिकताकी प्रधानताके विरुद्ध था। विवेक, बुद्धि तथा आत्मप्रेरणाकी उत्पत्तिसे धार्मिक विश्वास नष्ट हुए। राष्ट्रिय भावनाके उदयका प्रभाव भी धार्मिक सत्ताकी प्रधानताके प्रतिकूल तथा राजकीय सत्ताकी प्रधानताके अनुकूल था। फ्रांसके धर्माधिकारियोंतकने धार्मिक भावनाकी अपेक्षा राष्ट्रिय भावनाको उच्चतर समझा और पोपके आदेशोंकी अवज्ञा करके राजाका साथ देने लगे। स्वयं ईसाईसंघमें कुछ ऐसे लोग थे, जो पोपकी अनियन्त्रित सत्ताके विरोधी हो गये थे। परिणाम यह हुआ कि राजनीतिपरसे धर्मका अंकुश समाप्त हो गया और धर्मविहीन लौकिक राजनीतिका उदय हुआ। इस लौकिक राजनीतिका स्वरूप-निर्धारण मेकियाविली जैसे कूटनीतिज्ञके हाथोंसे हुआ। मेकियाविलीके युगमें विद्याका पुनर्जन्म तथा धार्मिक सुधारोंका प्रचार था। उसने पहले ही पक्षको ग्रहण किया। पुनर्जागरणके भी दो पक्ष होते हैं—एक स्वार्थवादी, जिसमें ईर्ष्या, स्पर्धा, स्वार्थ इत्यादिका प्राधान्य रहता है और दूसरा मानवतावादी, जिसमें सहिष्णुता, प्रेम और सहयोगका प्राधान्य रहता है। मेकियाविलीने इसके भी प्रथम पक्षको ही ग्रहण किया; क्योंकि उसके अनुसार ‘मनुष्य स्वभावत: कृतघ्न, सनकी, धोखेबाज, भीरु और लालची होता है। वह स्वार्थमयी इच्छाओंकी पूर्तिके लिये सतत प्रयत्नशील रहता है। उसे उसकी पूर्तिमें धर्म, अधर्म, नीति, अनीति किसीका विचार नहीं रहता। प्रेमका बन्धन तभीतक स्थिर रहता है, जबतक उससे स्वार्थकी पूर्ति होती है।’ अरस्तूके विपरीत उसका कहना था कि ‘मनुष्य सामाजिक जीवनमें नीच प्रकृतिका होता है। अपने स्वार्थोंकी पूर्तिके लिये ही वह सामाजिक समझौतोंका प्रयोग करता है।’
मध्ययुगमें राजनीति और धर्ममें एकता थी। मेकियाविलीने इन दोनोंको अलग किया। धर्मके विषयमें उसका कहना था—‘हमारे धर्मके अनुसार परमानन्द विनम्रता, तुच्छता और सांसारिक विरक्ततासे मिलता है। उनके स्थानपर रोमनचर्चने आत्माकी शान-शौकत, शरीरकी शक्ति और उन बातोंपर अधिक जोर दिया है, जो कि मनुष्यको दुर्बल बना देती हैं।’ उसके अनुसार ‘राज्यको धर्मकी आवश्यकता थी, किंतु इसी रूपमें कि वह राज्यके उद्देश्यकी पूर्ति करता रहे। उसका कहना था कि ‘राजनीति और धर्मका पृथक्करण मनुष्यके स्वाभाविक जीवनके अनुकूल है।’ उसके अनुसार ‘समाज और तन्निर्भर राजाकी उत्पत्ति स्वार्थ-साधनार्थ हुई है।’ उसका कहना था—‘वह राज्य जो स्थायित्वके आधारपर संगठित होता है, पतनोन्मुख हुए बिना नहीं रह सकता।’ राजाको उसने सलाह दी कि ‘वह पुरुषार्थमें शेर और चालाकीमें लोमड़ीकी तरह व्यवहार करे।’ यद्यपि मेकियाविलीकी निन्दा उस समय लोगोंने की, किंतु समस्त यूरोपकी राजनीति उसके परामर्शानुसार ही संचालित होती रही।
इसके बाद धार्मिक सुधारका युग आता है। मार्टिन लूथर तथा काल्विन इसके प्रमुख विचारक थे। इन्होंने नैतिकताकी स्थापनाकी चेष्टा की, किंतु सुधारका जो सबसे प्रमुख दोष होता है, वह इनमें भी आया। सुधारवाद परिस्थिति-सापेक्ष हुआ करता है, परिस्थितियोंके अनुसार उनमें परिवर्तन होते हैं; अतएव उसमें एकात्मकता कभी नहीं आती। लूथर और काल्विन दोनों ही लौकिक राजनीतिको नहीं चाहते थे; किंतु उनके अनुयायी आगे चलकर लौकिक राजनीतिके प्रतिष्ठापक बने। कारण यह था कि ‘विचार-विशेषके विपरीत आचरण करनेवाले राज्य’ का इन्होंने खण्डन किया था। फल यह हुआ कि इनका राजशक्तिसे संघर्ष हो गया। तब इन्होंने राजशक्तिको दैवीसिद्धान्तसे नीचे ले आनेवाले सिद्धान्तका प्रतिपादन किया। इसमें स्वभावत: लौकिक राजनीतिका प्रतिपादन हो गया।
जॉन बोदाँने राज्यकी आन्तरिक प्रभुताकी स्थापना की। बाह्य प्रभुताका स्पष्टीकरण ग्रोशसके द्वारा हुआ। राजनीतिशास्त्रकी गतिमें इसने मध्ययुगीन तथा आगामी प्रवृत्तियोंका समन्वय करना चाहा। परिणाम यह हुआ कि इसमें स्वभावत: विरोध हो गया; फिर भी उसने राजनीतिशास्त्रके विकासमें बड़ा योग दिया। उसने जो कुछ कहा स्पष्ट तथा तर्कपूर्ण ढंगसे कहा। इससे वह एक शुद्ध राजनीतिक विचार कहा जा सका। किंतु अन्तिम समयमें ‘पालिटिक’ में काम करनेके कारण दलीय राजनीतिको भी उसने दार्शनिक रूप देना चाहा। फलत: इनमें ‘वदतोव्याघात’ उत्पन्न हो गया।
उसने इतिहासका विकासवादी सिद्धान्त सामने रखा। इसके पूर्व यह विश्वास था कि मनुष्य स्वर्णयुगसे पतनकी ओर अग्रसर हो रहा है। उसने राजनीतिक विचारकी स्थापनामें इतिहासको आधार माना। न्याय तथा नैतिक नियम (मेकियाविलीसे भिन्न)-को राजनीतिका मूलतत्त्व स्वीकार किया। ‘प्राकृतिक नियम’ प्रत्येक सम्बन्धोंके आधार हैं। इन्हें उसने नैतिक नियमोंसे अभिन्न बताया और सर्वशक्तिमान् ‘प्रभु’ को भी इन नियमोंके अधीन माना। राज्यके उद्देश्यमें इन्हीं नैतिक नियमोंको स्वीकार किया। इसी नैतिक नियम तथा प्राकृतिक नियमकी प्रधानतामें आधुनिक व्यक्तिवादकी नींव थी। साथ ही उसकी प्रभुता नागरिकोंके ऊपर सर्वसत्तासम्पन्न नहीं थी, अपितु नैतिक, प्राकृतिक तथा कौटुम्बिक नियमोंसे बाध्य थी।
उसने राज्य और सरकारका भेद सामने रखा। राज्य-प्रभुता राज्यकी विशेषता थी; किंतु उसका प्रयोग सरकारके द्वारा ही सम्भव माना। उसने सरकारके भेदोंका वर्णन किया। इतना सब होते हुए भी वह ‘प्रयोगवादी’ था। इसी आधारपर उसने राजनीति और इतिहासका गँठबन्धन किया। इस गँठबन्धनमें उसने नक्षत्र-विज्ञानका भी माध्यम लिया। फ्रांसकी धार्मिक असहिष्णुतामें उसने धार्मिक सहिष्णुताका बीजारोपण किया। कुटुम्बको राज्यका आधार माना और कुटुम्बका आधार अर्थको। इसीलिये उसने वैयक्तिक सम्पत्तिको मूलाधिकारके रूपमें स्वीकार किया, जो आजके व्यक्तिवादकी रीढ़ है। उसने ‘प्रभुसत्ता’ को धर्मसे अलग किया और उस प्रभुसत्ताको राज्यसे ऊपर माना। धर्म, अर्थ, संघटन इत्यादि सबको राज्यके अन्दर माना, साथ ही प्रभुसत्ताको कुटुम्बसे बाधित भी। जब उसने यह स्वीकार कर लिया कि नैतिक तथा प्राकृतिक नियमोंका व्याख्याता व्यक्ति है, तब तो उसकी प्रभुता व्यक्तिके नीचे आ गयी। इनमें असंगतियाँ अत्यन्त स्पष्ट हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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