2.3 अरस्तू
यह यथार्थवादी दार्शनिक था। अपने युगके लगभग १५० संविधानोंका अध्ययन करके इसने ‘पालिटिक्स’ नामक ग्रन्थ लिखा था। इसने प्लेटोकी आगमन-पद्धतिके स्थानपर निगमन-पद्धतिको स्वीकार किया। इसके अनुसार अध्ययनके बाद आदर्शकी स्थापना करनी चाहिये। उसने राजनीतिक तथा आर्थिक—दो पक्षोंसे अध्ययनकर राज्योंको छ: भागोंमें बाँटा। राजतन्त्र, उच्चजनतन्त्र, लोकहिताय जनवादको वह प्राकृतरूपमें मानता था। अत्याचार, सामन्ततन्त्र तथा जनवाद (डेमोक्रेसी)-को उनका विकृतरूप मानता था। इस प्रकार नियमनिर्धारण संविधानोंका वर्गीकरण—ये दो देनें उसकी हुईं। तीसरी देन उसकी ‘शक्ति-पृथक्कीकरण है। इसके अनुसार व्यवस्थापन, शासन तथा न्याय—इन तीनोंको उसने अलग किया। ४. प्लेटोने विवेकको प्रधान माना था। यद्यपि आगे चलकर उसने भी नियमपर जोर दिया, किंतु अरस्तूने नियमका ही प्राधान्य माना है, जिनमें परम्परागत तथा नैसर्गिक नियम मुख्य है। सत्ताधारीको इनके अधीन होना चाहिये। ५. आदर्श राज्य वह है, जिसमें मध्यममार्गीय व्यवस्था हो—न ज्यादा गरीब न ज्यादा अमीर। प्लेटोने ५०४० व्यक्तियोंके राज्यको आदर्श राज्य माना था; किंतु अरस्तूने माना कि आदर्श राज्यमें गुणात्मक तथा मात्रात्मक दोनोंका संतुलन होना चाहिये। ६. राजनीतिशास्त्रको इसने धर्मसे स्वतन्त्र किया, जब कि प्लेटोने आचार-शास्त्रपर आधारित राजनीतिको ही श्रेष्ठ तथा उपयुक्त माना था। उसके अनुसार सद्गुणी नागरिकके लिये सद्गुणी शासन आवश्यक था। अरस्तूने राजनीतिकी प्रधानता दी; यद्यपि उसका भी लक्ष्य आदर्श नागरिक-निर्माण ही था। वह राजनीतिको शास्त्र ही नहीं, कला भी मानता था। उसके अनुसार ‘राजनीतिशास्त्र उसे कहते हैं, जो राजनीतिक बन्धनके आधारका विश्लेषण करे।’
वैयक्तिक सम्पत्ति—अरस्तू वैयक्तिक सम्पत्तिको मानता था। उसका कहना था कि ‘मेरी सम्पत्ति वह दर्पण है, जिसमें मैं अपना प्रतिबिम्ब देखता हूँ। मुझे अपना परिचय उसीमें मिलता है, जिसपर मेरा अधिकार है।’ दासताको प्राकृतिक, नैतिक एवं आवश्यकता—इन तीन दृष्टिकोणोंसे वह उचित मानता था। कुछ लोग शारीरिक तथा बौद्धिक दृष्टिसे निर्बल होते हैं, यह प्राकृतिक अन्तर है। कुछ लोग उत्कृष्ट तथा निकृष्ट होते हैं, यह नैतिक अन्तर है। सामाजिक दृष्टिसे भी दास आवश्यक हैं; क्योंकि कृषि, उद्योग तथा पुलिस दासोंद्वारा अच्छी तरह संचालित हो सकते हैं। कार्यविभाजनकी दृष्टिसे भी वह दासताको आवश्यक मानता था।
वह प्रेम तथा सामान्य हितकी भावनासे परिवारको आवश्यक मानता था। उसके अनुसार ‘नैतिकताकी दृष्टिसे परिवार एक सर्वोत्कृष्ट पाठशाला है। पति-स्त्री, पिता-पुत्रका सम्बन्ध प्राकृतिक है। व्यक्तित्व-विकासकी दृष्टिसे परिवार एक स्तर है। आधुनिक राज्यकी कल्पना यहींसे है।’ शिक्षामें सावयवका सिद्धान्त वह भी मानता था।
अफलातून और अरस्तूकी विचार-परम्परा इतनी दूरतक जाती है कि कुछ विद्वान् तो यहाँतक कह डालते हैं कि ‘प्रत्येक मनुष्य या तो अफलातूनका अनुयायी होता है या अरस्तूका।’ यदि हम इस व्यापक बातको अधिक महत्त्व न दें तो उनके कुछ विशिष्ट विचारोंसे यूनानी राज्यदर्शनका निष्कर्ष सामने आता है।
अफलातून और अरस्तू दोनोंने इस बातपर जोर दिया था कि राज्य और व्यक्तिमें किसी प्रकारकी विभिन्नता न थी, दोनों एक ही थे। कुछ तार्किकोंने इसपर जोर दिया था कि ‘राज्य और व्यष्टिके स्वार्थोंमें विभिन्नता थी’ और कुछने इस बातपर कि ‘राज्यकी उत्पत्ति समझौताद्वारा हुई थी।’ अफलातूनने प्रथम पक्षके तार्किकोंको यह उत्तर दिया था कि राज्य व्यक्तिका बृहत्तम रूप था और व्यक्ति राज्यका सूक्ष्मरूप। इस प्रकार दोनोंके स्वार्थोंमें किसीका विरोध न था। अरस्तूने दूसरे वर्गके तार्किकोंको यह उत्तर दिया कि ‘राज्य एक प्राकृतिक संस्था है, जिसका सावयवीकी भाँति क्रमश: विकास हुआ है।’ दोनों विचारक राज्यकी आवश्यकताको स्वीकार करते थे। अरस्तूके मतानुकूल यदि कोई व्यक्ति राज्यके बिना रह सकता था तो वह या तो देवता था या दानव। अफलातूनके विचारोंमें नीतिशास्त्रोंकी प्रधानता थी। अरस्तू अफलातूनकी भाँति क्रान्तिकारी नहीं था। उसके राज्यमें राजनीति, नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र—तीनोंका समन्वय इस प्रकार किया गया था कि मनुष्य सुखमय जीवनको प्राप्त कर सके।
यूनानी विचारकोंने मध्यवर्ती मार्गका प्रतिपादन बड़े प्रभावशाली ढंगसे किया था। इसका आरम्भ डेल्फीकी देववाणियोंसे हुआ और सोलनके सुधारोंमें यह कार्यरूपमें परिणत किया गया। अरस्तू और अफलातूनने भी इस सिद्धान्तका अनुसरण किया। अफलातून और अरस्तू दोनों अपने समयके राज्योंसे सन्तुष्ट न थे। अत: उन्होंने ऐसे राज्योंका चित्रण किया, जिनके अनुरूप वे वास्तविक राज्योंको परिवर्तित करना चाहते थे। संरक्षकोंको नि:स्वार्थसेवामें रत रखनेके लिये अफलातूनने आर्थिक और सामाजिक साम्यवादके सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था। अरस्तू इसका विरोधी था। उसके मतसे ‘मानसिक विकार मानसिक ओषधियोंद्वारा ही दूर किये जा सकते हैं।’ दोनों ही शिक्षाको राज्यके अधीन मानते थे। इस्टोइक दार्शनिकोंने समस्त मनुष्योंको समानताके सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था। यूनानी विचारक मनुष्यकी स्वतन्त्रताके समर्थक थे।
राजनीतिक विचारोंमें रोमकी प्रमुख देन कानून है। उसका प्रभाव आज भी समस्त यूरोपपर छाया हुआ है। यूनानियोंका राजनीतिक आदर्श व्यक्ति और राष्ट्रकी स्वतन्त्रताका आदर्श था। रोमन लोगोंने स्वतन्त्रताके स्थानपर व्यवस्थाके आदर्शको अपनाया। यूनानी लोग नगर-राज्योंकी ही सरकारोंसे परिचित थे। उनमें शासकों और शासितोंका सम्पर्क था। इसके विपरीत रोमने एक विशाल साम्राज्यका निर्माण करके वहींसे उसका शासन-संचालन किया। यूनानियोंका दृष्टिकोण नगर-राज्योंकी सीमासे परिमित होनेके कारण संकुचित था। रोमन लोगोंने संसारके एक बड़े भागकी राजनीतिक एकता स्थापित करके लोगोंके हृदयमें यह धारणा उत्पन्न कर दी थी कि समस्त संसारको एक ही सूत्रमें बाँधा जा सकता है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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