“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ५

(१८) अन्य विरोध स्वामी दयानन्द सरस्वती का यह है कि- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कार-विधि में उपनयन एवं वेदारम्भ शूद्र-अतिशूद्रों का नहीं माना, सुश्रुत के वचनानुसार उन्होंने अशुभ-लक्षणयुक्त और अकुलीन शूद्र को मन्त्र-संहिता तो दूर, अन्य शास्त्रों के पढ़ाने का अधिकारी भी सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ २५ में नहीं माना, फिर पृष्ठ ४४ में मनुष्यमात्र को वेदाध्ययनाधिकार देते हुए वे परस्पर-विरुद्ध वक्ता भी सिद्ध हो गए। आर्यसमाजी विद्वान् श्रीनरदेव-शास्त्रीजी के ‘आर्यसमाज का इतिहास (प्रथम भाग)’ के पृष्ठ १२० में लिखा है-‘विधिपूर्वक उपनयन कराकर शूद्रों को गुरुकुलों में भेजने का विधान कहीं भी नहीं है’। यदि शूद्र के लिए पूर्व से ही उपनयन संस्कार होता, तो जैसे ब्राह्मणादि तीन वर्णों के उपनयनकाल वसन्तादिक दिये हैं, उन के लिए पृथक् दण्डादिका विधान किया है, भैक्षचर्या में ‘भवति !’ इस सम्बोधन को अपने-अपने वर्णों के ज्ञापनार्थ आगे, पीछे, मध्य में लगाने का विधान बताया है, ऐसे ही और इसी प्रकार के अन्य विधान शूद्र-बालक के लिए भी देखे जाते, यदि इन को पूर्व से ही उपनयन का अधिकार होता । स्वामी दयानन्द सरस्वती की ‘संस्कार-विधि’ देखने से ये बातें स्पष्ट ज्ञात हो सकती हैं। जिन संस्कार-सम्बन्धी प्राचीन पद्धतियों के आधार पर यह ‘संस्कारविधि’ रची गई है, उन में भी शूद्र के लिए कहीं भी यज्ञोपवीत-संस्कार का विधान नहीं है।’ जब ऐसा है तो शूद्रों का उपनयन न होने से वेद में भी अधिकार नहीं हो सकता ।

(१९) अन्य विरोध यह है कि- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज के तृतीय नियम में वेद का पढ़ना-पढ़ाना आर्यों का परम धर्म माना है। सत्यार्थ प्रकाश के ८वें समुल्लास के अनुसार शूद्र अनार्य [अनाड़ी] माना गया है, पर यहाँ उसी अनार्य को वेदाधिकार दे दिया गया है-यह परस्पर विरोध है।

(२०) स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का अन्य विरोध यह है कि उन्होंने अपने यजुर्वेद-भाष्य में ‘अरणाय’ का अर्थ ‘उत्तम लक्षणवाले अन्त्यज के लिए’ यह किया है। तब अधम-लक्षणवाले अन्त्यज के लिए वेदोपदेश न होने से वेद का मनुष्यमात्र को अधिकार निरस्त हो गया। ‘स्वाय’ का अर्थ। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने ‘अपने स्त्री-सेवक’ कहा है। तब दूसरों के स्त्री-सेवकों को वेद न पढ़ाने से मनुष्यमात्र तथा स्त्रीमात्र को वेदाधिकार निरस्त हो गया। तब परमात्मा से भिन्न भी क्या कोई अन्य परमात्मा है, जिसके स्त्री-सेवक आदि को वह वेद नहीं पढ़ाता। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने जब अपनी ‘संस्कार-विधि’ में शूद्रादिको उपनयन तथा वेदारम्भ का अधिकार नहीं दिया, तब वह वेद पढ़ेगा ही कब?
वस्तुतः ‘यथेमां वाचं कल्याणीम्’ का जो पण्डित ‘में परमात्मा ब्राह्मण-शूद्रादिको वेदवाणी पढ़ाता हूं’ यह अर्थ करते हैं, वे सभी भारी भूल में हैं-यह बात अब दिखलाई जाती है।

(२१) यह हम मान लेते हैं कि इस मन्त्र का देवता ‘ईश्वर’ है, हम यह भी मान लेते हैं कि यहाँ ‘ईश्वर’ का अर्थ ‘राजा’ नहीं, किन्तु – ‘परमात्मा’ है। तथापि न इससे हमारे पक्ष की हानि है, न स्वामी दयानन्द सरस्वती जी वा उनके पिछलगुआओं के पक्ष की सिद्धि ही है। इसमें स्वामी दयानन्द सरस्वती जी तथा उनके अनुयायी भारी भ्रम में पड़ गये, इसको पाठक अवघान से देखें।

(२२) इस मन्त्र का देवता ‘ईश्वर’ अर्थात् ‘परमात्मा’ है। वादितोष न्याय से हम इसमें नकार नहीं करते, परन्तु इसमें यह विचारणीय है कि विनियोगान्तर्गत ‘देवता’ शब्द का क्या अर्थ है? इसका उत्तर यह है कि-‘या तेन उच्यते, सा देवता’ (सर्वानुक्रमणी २।५) यहाँ पर षड्‌गुरुशिष्य ने भी कहा है- ‘तेन वाक्येन यत् प्रतिपाद्यं वस्तु, सा देवता’ अर्थात् मन्त्र में जिसके प्रति प्रार्थना की जा रही हो; वही ‘देवता’ होता है। यही निरुक्तकार-श्रीयास्क ने भी कहा है- ‘यत्काम ऋषिर्यस्यां देवतायामार्थ-पत्यमिच्छन् स्तुति प्रयुङ्क्ते, तद्देवतः स मन्त्रो भवति’ (७।११४) अर्थात् ऋषि जिस अर्थवस्तु की कामना करता हुआ जिस देवता की स्तुति करने पर अपने को उस अर्थ का पति चाहता हुआ कि मैं उस देवता की कृपा से अमुक अर्थ का स्वामी बन जाऊंगा, यह बुद्धि रखकर स्तुति करता है; अथवा जिस मन्त्र से उसे प्रार्थना करता है; उस मन्त्र में वही देवता होता है – इस दुर्गाचार्यप्रोक्त प्रकार से स्पष्ट है कि वेदमन्त्र में प्रतिपाद्य विषय तथा स्तोतव्य एवं सम्बोध्यमान देव का नाम ही ‘देवता’ होता है। जो प्रति-पादक अथवा स्तोता, अथवा सम्बोधयिता, प्रार्थक होता है, वह ऋषि होता है, देवता नहीं। जैसे कि ‘बृहद्‌देवता’ में भी कहा है-

(२३) ‘संवादे (सूक्ते) ष्वाह वाक्यं यः स तु तस्मिन् भवेद् ऋषिः। यस्तेनोच्येत वाक्येन देवता तत्र सा भवेत्’ (२।९०) यह बहुत स्पष्ट है। इस कारण ‘सर्वानुक्रमणी’ में भी कहा है- ‘यस्य वाक्यं स ऋषिः’ (२।४) १।१ यजुर्वेद संहिता के भाष्य में उवट ने कहा है- ‘मन्त्रस्य वाच्यं देवता’ इति श्रुतिर्दर्शयति।’ ‘वेदार्थ-दीपिका’ में षड्‌गुरुशिष्य ने भी कहा है- ‘संवादेषु च सर्वेषु स ऋषिर्यस्य वाक्यं तत्। आत्मस्तवेषु य ऋषि-देवता स एवोच्यते। तेन वाक्येन यः प्रतिपाद्यते, स स्याद् देवता’ (१। १६५।११)। ‘वेदसम्मेलन’ लाहौर के भाषण में आर्य समाजी विद्वान् श्री-ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु ने भी १४ पृष्ठ में कहा था- ‘देवता मन्त्र के प्रतिपाद्य’ ‘या तेनोच्यते सा देवता’ (subject matter of mantra) विषय को कहते हैं। ‘साऽस्य देवता’ (४।२।२४) पाणिनि-सूत्र पर ‘सिद्धान्तकौमुदी’ में भी कहा है- ‘त्यज्यमानद्रव्ये उद्देश्यविशेषो देवता, मन्त्रस्तुत्या च।’
इस सिद्धान्त के कुछ उदाहरण भी देख लेने चाहिएँ। ऋग्वेद शाकल संहिता में ‘यमयमी-सूक्त’ प्रसिद्ध है। वहाँ जिस मन्त्र का यम प्रतिपादक है, वहां यम ‘ऋषि’ है, देखिये – १०।१०।२,४,८-१०,१२,१४। इनमें यम ‘प्रतिपादकं’ होने से ‘ऋषि’ है; और ऋग्वेद १०।१०।१, ३, ५-७, ११, १३ मन्त्रों में ‘प्रतिपाद्य’ होने से ‘वैवस्वत यम’ ‘देवता’ है।
और १०।१०।१, ३, ५-७, ११, १३ में प्रतिपादक होने से ‘वैवस्वती यमी’ ऋषि है, तथा १०।१०।२, ४, ८-१०, १२, १४ में प्रतिपाद्य होने से वैवस्वती यमी ‘देवता’ है। इस पर देखिये अजमेर वैदिक-यन्त्रालय की ‘ऋग्वेदसंहिता’ (प्राचीन संस्करण) (पृष्ठ ५४५-५४६)।
इसी प्रकार ऋग्वेद १०।९५ सूक्त में १, ३, ६, ८-१०, १२,१४, १७ मन्त्रों का प्रतिपादक होने से पुरूरवा ऐल ‘ऋषि’ है, और १, ३, ६, ८, १०, १२, १४, १७, इन्हीं मन्त्रों में उर्वशी प्रतिपाद्य है; अतः वह मन्त्रों की ‘देवता’ है। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ प्रतिपादक होने से उर्वशी ‘ऋषि’ है; और इन्हीं मन्त्रों के प्रतिपाद्य होने से पुरूरवा ऐल देवता है। इस पर देखिये अजमेरी वैदिक-यन्त्रालय की ऋग्वेदसंहिता (प्राचीन संस्करण) (पृष्ठ ६१२) ।

(२४) पाठकगण इस कसौटी को अपने पास रखें, इससे उन्हें मन्त्र में ऋषि एवं देवता का ज्ञान होगा। अब इस कसौटी से ‘यथेमां वाचं कल्याणीम्’ इस मन्त्र के ‘ईश्वर देवता’ की परीक्षा कीजिये। जबकि -‘यथेमां वाचं’ मन्त्र का देवता ‘ईश्वर’ है; तब वह इस मन्त्र में प्रतिपाद्य होगा, प्रतिपादक नहीं। ऋषि से स्तोतव्य, सम्बोध्यमान अथवा प्रार्थनीय होगा, स्वयं स्तोता, सम्बोधयिता अथवा प्रार्थक न होगा। पर यदि इस मन्त्र में ‘ईश्वर’ देवता न होकर ‘ऋषि’ होता, तब वह ‘प्रतिपादक’ होता ‘प्रतिपाद्य’ नहीं, सम्बोधक होता, ‘सम्बोध्य’ नहीं। पर अब वह ईश्वर इस मन्त्र में देवता होने से अन्य से प्रतिपाद्य है, प्रार्थ्यमान है, अन्य के प्रति प्रार्थयिता वा प्रतिपादक नहीं। यह बात अवश्य याद रखने की है। इसलिए ‘यथेमां’ से पूर्व के मन्त्र के भाष्य में उवट ने कहा है- ‘परमात्मा उच्यते’ (२६।१) श्रीमहीधर ने भी कहा है- ‘परमात्मानं प्रति उच्यते’ परमात्मानं प्रति उच्यते ।’
अब इससे स्पष्ट हुआ कि – इमां कल्याणी वाचं जनेभ्यः आवदानि’ इस क्रिया का कर्ता, अथवा प्रार्थना का प्रतिपादक ‘ऋषि’ है, ईश्वर नहीं, क्योंकि ईश्वर तो उक्त मन्त्र में ‘देवता’ होने से ‘प्रतिपाद्य’ है। भला वह प्रतिपादक कैसे हो सकता है ? तब ‘इमां कल्याणीं वाचं’ का ‘उवट-महीधर’ के भाष्य में ‘अनुद्वेजिनीं ‘दीयतां भुज्यताम्’ इत्येवमादिकां वाचं ब्रवीमीत्यर्थः’ यह जो अर्थ किया है; सो इसका प्रतिपादक ‘लौगाक्षि’ ऋषि ही है, ईश्वर नहीं, क्योंकि ईश्वर तो इस मन्त्र का देवता अर्थात् प्रतिपाद्य है, ऋषि अर्थात् प्रतिपादक नहीं ।

(२५) प्रथम-मन्त्र में ‘अष्टमी भूतसाधनी’ (२६।१) कही गई है। उसका व्याख्यान उवट ने ‘अष्टमी च वाक् भूतसाधनी’ भूत-प्रज्ञप्तिकरी’ महीधर ने ‘भूतानि साधयति, वशीकरोति भूतसाधनी वाक्’ प्राणियों को वश करने वाली वाणी’ यही किया है, प्रकरण भी उसी का है। ‘यथेमां’ मन्त्र में ‘इमां’ इस सर्वनाम पद से उसी सन्निकृष्ट (सनिहित) वाणी का ग्रहण होता है वेदवाणी का नहीं। क्योंकि वह सारी की सारी वेदवाणी इस समय निकट नहीं कि ‘इदम्’ से उसका बोध हो जाय। ‘इदम्’ शब्द सन्निकृष्ट (निकट) का ही बोध कराता है। जैसा कि यह अभियुक्तोक्ति प्रसिद्ध है-

“इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरत्वात् चैतदो रूपम् ।
अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ।”

यह उक्ति निर्मूल भी नहीं है। इसलिए ‘निरुक्त’ में भी कहा है – ‘अयमेततरो (आगततरः, आसन्नतरो) ऽमुष्मात् (दूरस्थात्) । असौ अस्ततरः (दूरतरः) अस्माद् (निकटस्थात्, विप्रकृष्टत्वात्)’ (३।१६।९)। ‘इमां’ से ‘वेदवाणी’ तब गृहीत होती जब यह मन्त्र आदिम-वेद का आरम्भिक मन्त्र होता । उस समय वेदवाणी बुद्धिस्थित होने से ‘इमां’ से गृहीत हो जाती । ‘अथवा उक्त मन्त्र अन्तिम वेद का अन्तिम मन्त्र होता। उस समय वेदवाणी समक्ष उपस्थित होती। पर अब ऐसा नहीं है। अतः ‘इमां’ से उसका ग्रहण भी नहीं होता। अब तो ‘यथेमां’ मन्त्र के ‘इमां’ से पूर्व मन्त्र के अन्त में कही हुई ‘अनुद्वेजिनी वाक्’ ही ली जावेगी। क्योंकि वही इस मन्त्र के निकट है, उससे पूर्व की और इस मन्त्र के बाद की वाणी नहीं । सो वह परमात्मा से आदिष्ट ‘भूतसाधनी वाक्’ ‘दीयताम् भुज्यताम्’ इस प्रकार की यज्ञ में कही जाती हुई वाणी- जिसकी स्पष्टता आगे की जाने वाली है ऋषि की है, ईश्वर की नहीं; क्योंकि- ‘आवदानि’ का प्रवक्ता वहाँ पर ईश्वर नहीं है। वह ईश्वर उस मन्त्र का ऋषि (प्रतिपादक) नहीं; वह तो उस मन्त्र का देवता-प्रतिपाद्य है। तब उस (प्रतिपाद्य) परमात्मा की वाणी यहाँ इष्ट नहीं हो सकती ।
तब इस मन्त्र से ईश्वर के प्रति ऋषि द्वारा यह प्रार्थना की जा रही है कि-‘हे ऋतप्रजात ! (यज्ञार्थं प्रजात इति वेङ्कटमाधवः) यज्ञ की पूर्ति के लिए प्रकट हुए बृहस्पति ! बृहती भूतसाधनी वाक् ‘दीयतां भुज्यताम्’ वाणी के स्वामी उसका प्रयोग करने वाले ईश्वर ! (वाग् वै बृहती) जिस प्रकार मैं यजमान-ऋषि यज्ञ में ‘दीयतां मुज्यताम्’ इस मनुष्यों को सुखी करने वाली वाणी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अपने पराये सभी के प्रति कह सकूं… इस प्रकार का चित्र धन मुझे दीजिये (तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्) यह बात अग्रिम मन्त्र में कही है- क्योंकि इन दोनों ही मन्त्रों का देवता ईश्वर है।

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