“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ६

(२६) यहाँ ‘दीयतां, भुज्यताम्’ इसी यज्ञ में कही जाने वाली वाणी का बोध होता है, इसमें लिङ्ग है ‘इहे यज्ञे दक्षिणायै-दक्षिणाया दातुः’ (षष्ठ्यर्थे चतुर्थी)। भाव यह है कि ऋषि लोग बड़े-बड़े यज्ञ किया करते थे. उनमें सबको खूब दिल खोलकर भोजन कराया जाता था; चाहे वे ब्राह्मण हों, वा शूद्रादि । उन सबको इष्ट वस्तुएँ भी दी जाती थीं। जैसे कि-‘जाम्बूनदं कोटिसंख्यं ब्राह्मणेभ्यो ददौ तदा। दरिद्राय द्विजायाऽय हस्ताभरणमुत्तमम् । कस्मैचिद् याचमानाय ददौ राघवनन्दनः’ (बाल्मीकि-रामायण १।१४।५४-५५) ‘दीयतां दीयतामन्नं वासांसि विविधानि च’ (१।१४।१४) । उन यज्ञों के लिए बहुत धन-दक्षिणा की आवश्यकता पड़ती थी, जिससे सब अन्न-वस्त्रादि खुले तौर से दिया जा सके, इसलिए ऋषि लोग ईश्वर से वा कभी राजा से प्रार्थना करते थे। जैसे कि इस विषय में एक मन्त्र देख लीजिये-‘नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र ! दक्षिणा मघोनी । शिक्षा स्तोतृभ्यो माऽतिधग्, भगो नो, बृहद् वदेम विदथे सुवीराः’ (ऋग्वेद संहिता २।११।२१) इसमें ऋषि-द्वारा धन के लिए, प्रार्थना की गई है कि हे इन्द्र ! हमें इतना धन दो कि हम विदथ-यज्ञ (निघण्टु ३।१७) में ‘बृहद बदेम’ बड़ा बोल बोल सकें अर्थात् ‘दीयतां, भुज्यताम्’ यह बड़ी वाणी (बृहती) बोल सकें। श्री दुर्गाचार्य ने भी निरुक्त में इस मन्त्र का यही भाष्य किया है- ‘सा दक्षिणा यजमानाय प्रतिदुग्धाम्, धनं नोऽस्तु, येन किं कुर्याम ? बृहद् वदेम-महद् ऊर्जितम् बदेम- दीयतां, भुज्यतामिति, क्व ? विदथे-यज्ञे’ (निरुक्त १।७।१) यह मन्त्र संहिता में बहुत बार आया है। इसी प्रकार ‘अस्मभ्यं तद् वसो! दानाय राघः (धन) समर्थयस्व बहु वसव्यम् । इन्द्र ! यच्चित्रं श्रवसा अनुद्यून् (प्रतिदिनं) बृहद् वदेम विदथे सुवीराः (ऋग्वेद संहिता २।१३।१३) इसका भी वही पूर्व जैसा अर्थ है।

(२७) इस मन्त्र का चौथा पाद ‘बृहद् वदेम विदये सुवीराः’ बहुत स्थानों में आया है। श्री सायणाचार्य ने प्राचीन भाष्यकार श्रीवेंकटमाधव ने भी २।१।१६ मन्त्र में इसका यही अर्थ किया है-‘राति-दानम् उदाराः प्रयच्छन्ति… ‘यज्ञे दीयतां भुज्यताम्’ इति बृहद् वचनं वदेम सुपुत्राः ।’ इस प्रकार के सभी मन्त्रों में धन की प्रार्थना की गई है; उसका कारण पूर्व बताया जा चुका है। धन होने से ही बड़ा बोल बोला जाता है। इस कारण इस मन्त्र से अग्रिम मन्त्र ‘बृहस्पते अति’ में द्रविण (धन) मांगते हुए उसे ‘क्रतुमत्’ कहा है-‘क्रतवः यज्ञा विद्यन्ते येन तत्, येन यज्ञाः क्रियन्ते, तादृशं धनं देहि’ अर्थात् ऐसा चित्र, द्युमत्’ चमकदार धन दो जिससे यज्ञ सम्पादित किये जाते हैं। इसी प्रकार ‘यथेमां वाचं कल्याणीं’ मन्त्र में भी यह बात है। यजमान ऋषि ‘प्रियो दक्षिणाया दातुरिह भूयासम्’ इसीलिए कहता है कि मैं इह-इस यज्ञ में दक्षिणादाता का ऐसा प्रिय बन जाऊं, मेरी यह धनादि-प्राप्ति की कामना पूर्ण हो जाय, और वह धन मेरे पास उपस्थित हो जाय, जिससे में यज्ञ में ‘दीयतां, मुज्यताम्’ यह कल्याणी वाणी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अपने एवं पराये के लिए कह सकूं।

(२८) यज्ञ की विशेषता यह होती है कि उसकी समाप्ति में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य. शूद्र अपना, पराया आदि जो भी आवें; उसे यज्ञशेष (भोजन) खिलाया जाए। जो-जो भी मांगे, उसे वही दिया जाए। इस वाणी ‘दीयतां भुज्यताम्’ को भूतसाधनी-भूतवशीकरणी इसलिए कहा है कि इससे अपने तथा पराये सभी वश हो जाते हैं। यज्ञ ही उनके वश करने का समय होता है, ‘यज्ञेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति (नारायणोपनिषद ७९) इसलिए महाराज-दशरथ के किये यज्ञ के लिए कहा गया है-ब्राह्मणाः [त्रैर्वाणकोपलक्षणम्, द्विजत्वात् इति रामाभिरामः ] भुञ्जते नित्यं, नाथवन्तः (शूद्रा इति रामाभिरामः) श्च भुञ्जते । तापसा भुञ्जते चापि श्रमणाः (संन्यासिन) श्चापि भुञ्जते’ (वाल्मीकि रामायण १।१४।१२) वृद्धाश्च व्याधिताश्चैव स्त्री-बालाश्च तथैव च’ । (१३) दीयतां दीयतामन्नं वासांसि विविधानि च (१४) । महाभारत सभापर्व में भी यज्ञ के समय यही कहा है ‘आमन्त्रयध्वं राष्ट्रेषु ब्राह्मणान् भूमिपानथ । विशश्च मान्याञ्शूद्रांश्च, सर्वानानयतेति च’ (२।३३।४१) यहाँ शूद्रों को भी खाने आदि के लिए बुलाना कहा है। फिर ‘भुञ्जतां चैव विप्राणां वदनात् च महास्वनः। अनिशं श्रूयते तत्र मुदितानां महात्मनाम् । दीयतां दीयतामेषां भुज्यतां भुज्यतामिति । एवं प्रकाराः संजल्पाः (वाचः) श्रूयन्ते स्मात् नित्यशः’ (३३।५०-५१) । इस प्रकार वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड में अश्वमेधयज्ञ में भी कहा गया है- ‘दीयतां भुज्यतां चेष्टं दिवारात्रमवारितम्’ (६२।८५,८८) ।
इस प्रकार महाभारत आश्वमेधिक पर्व में भी ऋषि अगस्त्य का द्वादश वार्षिकी दीक्षा में भी कहा है-‘अगस्त्यो यजमानोऽसौ ददात्यन्नं विमत्सरः’ (१४।९२।१३) ‘विमत्सरः’ का भाव यह है कि अन्न देने में ब्राह्मण और शूद्रादिक में भी पक्षपात नहीं करता था। इसलिए उन लोगों को बुलाया जाता था कि-‘पञ्चजना ! मम होत्र जुषध्वम्’ (ऋग्वेद १०।५३।४) इसे आगे स्पष्ट किया जावेगा। फलतः ‘इमां कल्याणीं वाणीम् जनेभ्यः आवदानि, ब्रह्मराजन्याभ्यां, शूद्राय च, अर्याय, स्वाय च, अरणाय च’ मन्त्र की ‘वाचम्’ से वही ‘दीयतां भुज्यताम्’ आदि यज्ञ में कही जाती हुई भूतसाधनी वाणी ही ब्राह्मणादि-शूद्रान्तों को कहना इष्ट है; वेदवाणी का उनको अधिकार देना इष्ट नहीं। यजुर्वेद का यह २६वां अध्याय यज्ञ-प्रतिपादक है। जैसे कि उव्वटने भी कहा है- ‘अग्निष्टोम- सौत्रामणी अश्वमेध-सर्वमेध-पितृमेध प्रवग्योंप-उपनिषत्सम्बद्धाः मन्त्राः व्याख्येयाः; ते इह उच्यन्ते।’ २६वां अध्याय अश्वमेध तथा अग्निष्टोम का शेष-परिशेष है; इसलिए इसे ‘खिल’ कहा जाता है। तो अन्तिम कर्म में दूसरों को अन्नदान दक्षिणादानादि दिया जाता है। फलतः ‘यथेमां वाचं’ में वही ‘दीयतां भुज्यतां’ वाली याज्ञिक वाक् हो इष्ट है; वेदवाक् नहीं ।
इस मन्त्र में ‘इमां कल्याणीं वाचमावदानि’ ‘आवदानि’ में लोट् लकार है; जो ‘लोट् च’ (पाणिनि ३।३।१६२) ‘आशिषि लिङ्‌लटौ’ (पाणिनि ३।३।१७३) इन सूत्रों से प्रार्थना वा आशीः अर्थ में है। उसका अर्थ है – ‘मैं कहूं’। ‘मैं कहता हूँ’ यह अर्थ ‘आवदानि’ का नहीं हो सकता, क्योंकि ‘आवदामि’ इस प्रकार लट्लकार यहाँ पर नहीं कहा गया। अर्थ भी यहां लट्लकार का विवक्षित नहीं; किन्तु लोट्लकार का ही है। इसी के प्रमाणस्वरूप यहां देखिये कि उसके साथ वाली सभी क्रियाएँ भी वैसी हैं- ‘आवदानि, भूयासम्, समृध्यताम्, उपनमतु’। यह सभी लोट् वा लिङ् की समानार्थक क्रियाएँ हैं। अब इन क्रियाओं के कर्म देखिए ‘इमां वाणीम् आवदानि’ मैं इस वाणी को कहूं, ‘इह प्रियो देवानां भूयासम्’ इस यज्ञ में मैं देवताओं का प्यारा बनूं, ‘दक्षिणायै दातुः प्रियो भूयासम्’ यज्ञ में दक्षिणा देने वाले का मैं प्यारा बनूं। ‘अयं मे कामः समृध्यताम्’ यह मेरी कामना पूरी हो। ‘माम् अद उपनमतु’ यह फल वा धन मेरे पास प्राप्त हो’ ।

(२९) ‘आलोक’ पाठकों ने यह अनुभव किया होगा कि पूर्व-उत्तर सभी क्रियाएँ समान अर्थ वाली हैं। अब यह प्रार्थनाएँ किसके प्रति की जा रही हैं – यह विचार उपस्थित है। उसका उत्तर ‘देवता’ देता है।’ देवता है इस मन्त्र का ‘ईश्वर’। तो यहां सभी प्रार्थनाएँ वा आशीष परमात्मा से वा राजा से माँगी जा रही हैं, क्योंकि प्रतिपाद्य वही ईश्वर है।
अब शेष रह गया इन प्रार्थना-क्रियाओं का कर्त्ता, तो कर्त्ता अथवा इनका प्रतिपादक हुआ ऋषि ‘लौगाक्षि’ । सो वह लौगाक्षि ऋषि ही परमात्मा से प्रार्थना कर रहा है कि ‘हे ईश्वर ! मैं यज्ञ में ‘दीयतां भुज्यताम्’ इस प्रकार की वाणी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अपने वा परायों को कहनेवाला बनूं, मैं यज्ञ के स्वामी देवताओं का तथा यज्ञ में सहायक दक्षिणा देनेवाले को प्यारा बनूं, मेरी यह कामनाएं पूरी हों, मेरे आगे धन आकर उपस्थित हों ।
अब पाठकों ने यह भली भांति समझ लिया होगा कि इस मन्त्र का वक्ता ईश्वर नहीं, तथा हो सकता भी नहीं। तब ‘बाच’ से ‘ईश्वर की वाणी’ भी विवक्षित नहीं; क्योंकि वह प्रकृत नहीं, किन्तु याज्ञिकी ‘दीयतां, भुज्यताम्’ रूप यजमान की प्रकृत वाणी ही विवक्षित है। यह बात सोलहों आने वा सौ पैसे ठीक है। जब ईश्वर इस मन्त्र में ‘देवता’ अथवा प्रतिपाद्य हैं, क्योंकि ‘देवता’ शब्द मन्त्र-प्रतिपाद्य में रूढ होता है, तो वह प्रतिपादक कैसे हो सकता है ? यह बहुत मोटी बात है, आश्चर्य है कि-वादियों की बुद्धि में क्यों न समा सकी ! इसमें पहले यम-यमी वा पुरूरवा-उर्वशी के सूक्त से यह बात उदाहृत की जा चुकी है। इसी कारण ‘सर्वानुक्रमणी’ की वेदार्थ-दीपिका में षड्गुरुशिष्य ने कहा है-‘इति ऐलस्य पुरूरवसो वाक्यम्, शिष्टा शिक्त उर्वश्या वाक्यम् । यस्य वावयं स ऋषिः; या तेन उच्यते सा देवता’ । इस प्रकार प्रकृत-मन्त्र में भी जब ईश्वर देवता है, तो वह प्रतिपाद्य ही होगा-प्रतिपादक कैसे हो ? क्या वादी नहीं सोच सकते कि-‘मैं यह वाणी लोगों को /कहूं, मैं देवताओं का प्यारा बनूं, दक्षिणादाता का प्यारा बनूं, यह मेरी मनःकामना पूर्ण हो, वह धनादि मुझे मिले’ इस प्रकार की प्रार्थना को आप्तकाम वा समर्थ ईश्वर दूसरे के प्रति कैसे कर सकता है ?

(३०) अब हम इस विषय में ऐसा प्रबल प्रमाण उपस्थित करते हैं— जिसे सभी वादी स्वीकार करेंगे, और फिर ‘यथेमां वाच’ के अर्थ को कभी बदलने में सक्षम न हो सकेंगे- ‘आलोक’ पाठक यह बात सावधानता से
देखें-
‘यथेमां वाचं कल्याणीम्’ यह शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिन संहिता के २६वें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है। आर्यसमाज के मूलभूत ‘वैदिक यन्त्रालय अजमेर’ में प्रकाशित मूल यजुर्वेद संहिता में इसका ‘ईश्वर’ देवता लिखा है। उससे अग्रिम मन्त्र वहां है- ‘बृहस्पते ! अति यदर्यः… तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्’ (२६।३) इस मन्त्र का देवता भी आर्यसमाज से छपाई हुई उसी मूल यजुर्वेद संहिता में ‘ईश्वर’ माना गया है। तब यदि २६।३ मन्त्र में ईश्वर, देवता होने से प्रतिपाद्य है, तो उससे पूर्व के २६।२ मन्त्र में भी ईश्वर ‘देवता’ होने से प्रतिपाद्य ही होगा। यदि ‘बृहस्पते… तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्’ (२६।३) मन्त्र में ईश्वर प्रतिपादक है, तो ‘यथेमां वाचं’ (२६।२) में भी देवता ‘ईश्वर’ होने से ईश्वर प्रतिपादक होगा ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ के अधिकारानधिकार-विषय ३३१ पृष्ठ में संस्कृत तथा हिन्दी भाषा में यह लिखा है- ‘अस्य । यथेमा-मिति मन्त्रस्य ] अयमेव [ईश्वर-सम्बन्धी] अर्थोऽस्ति, कुतः ? ‘बृहस्पते ! अति यदर्यः’ ‘इत्युत्तरस्मिन् मन्त्रे हि ईश्वरार्थस्यैव प्रतिपादनात्’- ‘यही इस [यथेमां] मन्त्र का अर्थ ठीक है, क्योंकि इससे अगले मन्त्र ‘बृहस्पते अति’ में भी परमेश्वर ही का ग्रहण किया है (पृष्ठ ३३२) । यदि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ऐसा स्वीकार करते हैं, तो वे ‘बृहस्पते अति’ मन्त्र में भी ईश्वर को प्रतिपादक क्यों नहीं मानते ? यदि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ‘बृहस्पते ! अति’ इस मन्त्र के अनुरोध से ‘यथेमां वाचं’ मन्त्र को भी ईश्वरविषयक ही मानते हैं, तो जिस प्रकार वे अपने भाष्य में ‘बृहस्पते !’ इस मन्त्र में ईश्वर को प्रतिपाद्य मानते हैं-जैसे कि उनका भाष्य आगे उद्धृत किया जावेगा, वैसे ही उसके अनुरोध से ‘यथेमां वाचं’ में भी स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को ईश्वर प्रतिपाद्य ही मानना होगा, प्रतिपादक नहीं। इसमें भी उन्हें ‘बृहस्पते’ को अनुषक्त करना पड़ेगा।

(३१) अब विज्ञ पाठक देखें कि ‘बृहस्पते… तदस्मासु द्रविणं धेहि
चित्रम्’ (२६।३) यहाँ ऋषि ईश्वर से प्रार्थना कर रहा है कि- ‘मुझमें ‘अस्मदो द्वयोश्च’ (पाणिनि १।२।५९) सूत्र से यहाँ एक में बहुवचन है, अथवा पुत्रादि सहित हममें तू धन का आधान कर। क्या कोई वादी साहस कर सकता है कि इस मन्त्र का अर्थ यह करे कि ईश्वर कहता है-हे बृहस्पति ! मुझे धन दे’ । जब कोई ऐसा अर्थ नहीं कर सकता, क्योंकि इस मन्त्र में देवता ‘प्रतिपाद्य’ ईश्वर है (कारण कि-देवता शब्द मन्त्रों की देवतादिन् सूची में प्रतिपाद्य अर्थ में ही रूढ़ होता है) और न ईश्वर कभी दूसरे से ‘अस्मासु द्रविणं धेहि’ लोट्लकार द्वारा ऐसी प्रार्थना कर सकता है, किन्तु यज्ञ-प्रेमी ऋषि ही ‘दीयतां भुज्यताम्’ इस भूतप्रज्ञप्तिकरी वाणी को अपनाने के लिए तदर्थ अवश्य-अपेक्षित धन की प्रार्थना कर सकता है, तब इस मन्त्र से पूर्व के ‘यथेमां वाच’ (२६।२) मन्त्र में भी ‘जिसका देवता-प्रतिपाद्य ईश्वर है’ कोई भी विद्वान् ईश्वर को प्रतिपादक सिद्ध नहीं कर सकता, न ही ईश्वर ‘अहम् इमां वाचं जनेभ्य आवदानि, अहं प्रियो देवानां, दक्षिणादातुश्च प्रियो भूयासम्, अयं ये कामः समृध्यताम्’ इत्यादि प्रार्थना कर सकता है। वह ईश्वर ही कैसा, जो अन्य से लोट् लिङ् आदि लकारों द्वारा ऐसी प्रार्थनाएँ करे ।

(३२) हम पहले कह चुके हैं कि- यथेमां वाचं (यजुर्वेद २६।२) इस मन्त्र का देवता ईश्वर है, उसके आगे के ‘बृहस्पते ! अति यदर्यो… तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्, उपयामगृहीतोसि’ यजुर्वेद (२६।३) इस मन्त्र का भी देवता ईश्वर है। यह वैदिक यन्त्रालय अजमेर-मुद्रित मूल-यजुर्वेद-संहिता में भी देखा जा सकता है, स्वामी दयानन्द सरस्वती के यजुर्वेदसंहिता-भाष्य में भी । वहाँ लिखा है- ‘यथेमां इत्यस्य लौगाक्षिऋषिः, ईश्वरो देवता’ (२६।२) ‘बृहस्पते। इत्यस्य गृत्समद ऋषिः ईश्वरो देवता’ (२६।३) । इस प्रकार जब दोनों ही एक-दूसरे के साथ के मन्त्रों का देवता ‘ईश्वर’ है, तो दोनों ही मन्त्रों को अर्थ भी समान ही शैली से होगा। मन्त्रों के विनियोग में ‘देवता’ मन्त्र-प्रतिपाद्य ही होता है, मन्त्र-प्रतिपादक ऋषि ही’ होता है यह पहले कहा जा चुका है। जब इस प्रकार दोनों मन्त्रों का देवता ईश्वर ही है, दोनों ही मन्त्रों में प्रार्थनाभिधायक लोट्-लिङ् लकार हैं, तो दोनों ही मन्त्रों में ईश्वर प्रतिपाद्य ही होगा; प्रतिपादक [वक्ता] नहीं। अब ‘बृहस्पते! अति यदर्यो… तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् उपयामगृहीतोसि’ (यजुर्वेद २६।३) इस मन्त्र को ही लीजिए । इसका देवता ईश्वर है – यह कहा ही जा चुका है। यहाँ यह देखना चाहिये कि यहाँ ईश्वर प्रतिपाद्य है, ईश्वर से प्रार्थना की जा रही है-‘हे बृहस्पते ! तत् चित्र धनमस्मभ्यं मह्य वा देहि’। इस प्रकार इससे पूर्व के ‘यथेमां वाचं कल्याणीम्’ (२६।२) मन्त्र का भी देवता ‘ईश्वर’ है। यहाँ भी ईश्वर ‘देवता’ होने से प्रतिपाद्य है, प्रतिपादक नहीं। उत्तर मन्त्र से यहां भी ‘बृहस्पते !’ का समान-देवतावश अध्याहार करना पड़ता है।

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