“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ (तर्करत्नजी के आक्षेप) ~ भाग ९

(तर्करत्नजी के आक्षेप)

(३) ‘अछूतोद्धार-निर्णय’ (पृष्ठ ३०-३१-३३-३४ पृष्ठ) में श्री ‘तर्करत्न’ जी ने भी सनातनधर्मियों से किये जाते हुए ‘यथेमां वाचं’ के अर्थ में कई आक्षेप किये हैं, उन पर भी विचार कर लेना चाहिए। आप लिखते हैं कि- (क) ‘वेद में कल्याणकारी-वाणी से सर्वत्र भाष्यकारों ने ‘वेदवाणी’ का ग्रहण किया है, पर यह बात उनकी प्रमाण-रहित होने से सिद्ध नहीं । उन्हें चाहिये था कि ‘कल्याणी वाक्’ शब्दधारी कुछ मन्त्र देते-जहाँ भाष्यकारों ने ऐसा अर्थ किया हो, पर उन्होंने एक भी ‘कल्याणीं वाचं’ का उदाहरण नहीं दिया। उवट-महीधर ने यहाँ स्पष्ट वेद का संकेत देखकर ‘दीयतां भुज्यताम्’ यह कल्याणकारिणी याज्ञिक-वाणी का ही ग्रहण किया है, हम इसे पूर्व स्पष्ट कर भी चुके हैं, उसमें वेद एवं शास्त्रों के प्रमाण भी दिये जा चुके हैं, अतः सर्वत्र ‘वाक्’ शब्द से वेदवाणी गृहीत नहीं हो जाती ।
(ख) यदि श्रीमहीधर २३।६१-६२ मन्त्र में ‘वाचः’ का ‘त्रयी-लक्षणायाः’ अर्थ लिखने से मान्य है, तो ‘यथेमां’ मन्त्र में वेदवाणी का प्रकरण न होने से, प्राकरणिक ‘दीयतां भुज्यताम्’ आदि वाणी का अर्थ करते हुए भी वे मान्य हैं। यात्रा के समय ‘सैन्धव’ का ‘लवण’ अर्थ कोई भी मान्य नहीं करता। और फिर ‘पृच्छामि वाचः’ मन्त्र में ‘कल्याणी वाक्’ शब्द भी नहीं है, तब तर्करत्नजी की ‘वेद में कल्याणकारी वाणी से वेदवाणी का ग्रहण है’ यह बात कैसे घट सकी ?
(ग) “अजीर्ण के रोगी को तो ‘भुज्यताम्’ यह वाणी कल्याणकारिणी नहीं, प्रत्युत अकल्याणकारिणी है” यह आक्षेप भी व्यर्थ है । अजीर्ण का रोगी उस याज्ञिक ‘भोजन’ में आने ही क्यों लगा, और भोजन भी कई प्रकार के होते हैं, उसे दधिका भोजन भी कल्याणकारी रह सकता है, उसे यज्ञ में वही दिया जा सकता है, इसमें आक्षेप क्या ? यज्ञ में खाद्य, पेय, लेह्य, चूष्य सब प्रकार के भोजन होते हैं। (घ) ‘इससे ब्राह्मण एवं शूद्र का सह-भोज सिद्ध हो गया’ यह भी आक्षेप ठीक नहीं। साहचर्य नियम सर्वत्र माना गया है, ब्राह्मण ब्राह्मणों की पंक्ति में होंगे, शूद्र शूद्रों की पंक्ति में। यज्ञ में सबके अधिकारानुसार पृथक्-पृथक् स्थान बनाने पड़ते हैं, पृथक्-पृथक् प्रबन्ध करने पड़ते हैं। इस मन्त्र में एक पंक्ति में सबको जिमाना तो कहीं लिखा नहीं । तब यह आक्षेप भी निस्सार है। (ङ) “क्या यज्ञ-परक अर्थ हो जाने के बाद अन्य अर्थ जो वेद के निकलते हैं, वे मान्य ही नहीं हैं ? किन्तु ऐसा नहीं। यजुर्वेद के ‘चत्वारि शृङ्गा’ इस यज्ञ-प्रतिपादक मन्त्र का महाभाष्यकार ने ‘शब्द’ अर्थ भी किया है। यह अशुद्ध होना चाहिए’ यह आक्षेप भी ठीक नहीं। मन्त्र का अर्थ देवतावाद के अनुसार होता है। ‘चत्वारि शृङ्गा’ का देवता ‘गावः’ भी है, उसका ‘बैल-गाय’ अर्थ तो यहाँ सम्भव नहीं, ‘गो’ का अर्थ ‘वाणी’ भी होता है, सो शब्दात्मक वाणी का अर्थ करते हुए श्रीपतञ्जलि ने कोई अपराध नहीं किया। पर यहाँ जब ईश्वर देवता है- प्रतिपाद्य है, तो उसकी वाणी यहाँ इष्ट नहीं, किन्तु यज्ञ के प्रकरण होने से उसमें प्रयुक्त की जाती हुई यजमान-ऋषि की ‘दीयतां भुज्यताम्’ यही वाणी इष्ट है।
(च) (प्रश्न) ‘जिससे वाणी का सम्बन्ध न हो वह ‘अरण’ है, फिर जिससे बात ही नहीं, उससे ‘दो और खाओ’ यह वाणी कैसे कही जा सकती है ? (उत्तर) जब ऐसा व्यक्ति भी यज्ञ में आ जाता है, तो उसे
भी ‘भुज्यताम, दीयताम्’ कहा जाता है, क्योंकि याज्ञिक-भोजन में शत्रु-मित्र वा तटस्थ की दृष्टि नहीं रखनी पड़ती। इसी कारण अगस्त्य ऋषि की यज्ञ की दीक्षा में ‘अगस्त्यो यजमानोसौ ददात्यन्नं विमत्सरः’ (महाभारत १४।९२।१३) बिना मत्सर [भेदभाव] के अन्नदान कहा है। ऐसा व्यक्ति भी उस समय अपने वश में हो जाता है। ‘नारायणोपनिषद्’ में भी कहा है-‘यज्ञेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति (७९) इसलिए तो इस वाणी को इससे पूर्व मन्त्र में स्मरण करते हुए उसे भूतसाधनी-भूतवशीकारिणी’ कहा है। इन्हीं यज्ञों में शत्रुताएं मिटती हैं, अपने पराये का भेद हटता है।
(छ) (प्रश्न) ‘यजमान स्वयं यज्ञकर्ता और दक्षिणा का देनेवाला है, फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि मैं दक्षिणा देनेवाले का प्रिय होऊं । (उत्तर) हम पूर्व कह चुके हैं कि यह यजमान [यज्ञकर्ता] ऋषि-लौगाक्षिकी उक्ति है। इसलिए उसे यज्ञार्थ धन के लिए ईश्वर-परमात्मा वा राजा को प्रार्थना करनी पड़ती है, क्योंकि ऋषियों के पास धन कहाँ ? अतः याज्ञिक-दक्षिणा राजा को देनी पड़ती है, सो यहाँ यजमान [याज्ञिक] ऋषि का अभिप्राय यह है कि मैं दक्षिणा-दाता राजा वा परमात्मा का प्यारा बनूं, जिससे मुझे इतना ऋतुमत्-यज्ञोपकारक (२६।३) धन प्राप्त हो कि मैं उसे यज्ञ के होत्रकर्म तथा अन्नदान, दक्षिणादानादि कर्म में विनियुक्त कर सकूं । वादी के आक्षेप समाप्त हो गये ।
(ज) आगे. तर्करत्नजी ने ‘यथेमां’ मन्त्र के स्वामी दयानन्द सरस्वती के किए अर्थ की आलोचना ३१-३२ पृष्ठ में की है, वह वस्तुतः बहुत युक्तियुक्त है। आगे आप अपना अर्थ रखते हैं कि आचार्य अपने शिष्य को वेदाध्ययन कराता हुआ कहता हूँ कि ‘हे शिष्यो ! ‘जिस प्रकार मैं इस वेदवाणी को सबके लिए कहता हूँ’ इत्यादि, इसका खण्डन “एक सिद्धान्तालङ्कार” जी ने अपने पूर्वोक्त पुस्तक में किया है कि ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने इसे ईश्वर की उक्ति माना है, उसके लिए उन्होंने ‘बृहस्पते अति’ इस अगले मन्त्र का प्रमाण दिया है, जहाँ परमात्मा को बृहस्पति नाम से स्मरण किया है’ इससे वादी ने
तर्करत्नजी का तथा अपना भी खण्डन किया है। इसमें सिद्ध हो गया कि- ‘यथेमां वाचं’ में आचार्य-शिष्य का संवाद भी नहीं, और परमात्मा दोनों ही मन्त्रों में प्रतिपाद्य है, अथवा दोनों का प्रतिपादक ही है। पर ‘प्रतिपादक’ अर्थ दोनों ही मन्त्रों में न घटने से और ‘प्रतिपाद्य’ अर्थ दोनों ही में समन्वित हो जाने से यही अर्थ ठीक बैठता है।
वेदमन्त्रों का अर्थ ऋषिवाद एवं देवतावाद के अधीन होने से तथा उक्त मन्त्र का गुरु-शिष्य ऋषि-देवता न होने से यह तर्करत्नजी से प्रोक्त संवाद ठीक नहीं। गुरु-शिष्य संवाद वेद की शैली भी नहीं। यदि ऐसा होता, तो यह बात वेद के अन्त में कही जाती। ‘आवदानि’ का अर्थ ‘कहता हूँ’ करना भी ठीक नहीं, ‘कहूं’ यह करना चाहिये। ‘वैसा तुम भी करो’ कहना प्रक्षिप्त है ।
(झ) पूर्वपक्ष-यह उपदेश चारों वर्णों को वेद पढ़ाना महाभारत शान्तिपर्व ३२७ अध्याय में व्यासजी ने वैशम्पायन आदि शिष्यों को दिया है, (पृष्ठ ३२) ‘कुछ विद्वानों ने भ्रमवश ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान्कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः’ (३२७।४९) इसी वचन के प्रमाण पर यह मत प्रकट किया है कि, स्त्री-शूद्रों को न केवल वेद सुनाने का अधिकार नहीं, किन्तु यह भी कि-बिना ब्राह्मण को आगे बिठाए स्त्री-शूद्रों को इतिहास-पुराण भी नहीं सुनाना चाहिये । यह सर्वथा भूल है। वेदव्यासजी ने तो यह उपदेश दिया था कि-वेदों को चारों वर्ण के प्राणियों को सुनाओ, ब्राह्मण को आगे बिठाकर; यह वचन वेद के विषय में कहा गया है, ऐसा ‘भवन्तो बहुलाः सन्तु वेदो विस्तार्यतामयम्’ । ‘वेदस्याध्ययनं हीदं तच्च कार्यं महत्स्मृतम्’ इस प्रकरण से स्पष्ट है। (पृष्ठ १०८-१०९-११२)
(उत्तर) किसी ग्रन्थस्थ वचन का अर्थ उस ग्रन्थकार के हृदय के अनुसार ही लगा हुआ ठीक माना जाता है, अन्यथा किया हुआ ठीक नहीं माना जा सकता । ‘मन्त्रः शूद्रे न विद्यते (महाभारत शान्तिपर्व ६०।३७) ‘न च तां प्राप्तवान्मूढः (शिशुपालः) शूद्रो वेदश्रुतीमिव (सभापर्व ४५।१६)
‘नाधीयीत प्रतिषिद्धोऽस्य यज्ञः । नित्योत्थितो भूतयेऽतन्द्रितः स्यादेष स्मृतः शूद्रधर्मः पुराणः’ (उद्योगपर्व २९।१६) इत्यादि महाभारत के बहुत से प्रमाण हैं, जिनसे शूद्र को वेदाधिकार निषिद्ध सिद्ध होता है। तब यहाँ श्रीव्यासजी शूद्र को साक्षात् वेद का अधिकार कैसे दे सकते हैं ? इसी ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान्’ की स्वामी शंकराचार्य ने यह व्यवस्था पुराणेतिहासपरक लगाई है। १।३।३८ ब्रह्मसूत्र के भाष्य में उन्होंने लिखा है ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान्’ इति च इतिहासपुराणाधिगमे चातुर्वर्ण्यस्य अधिकारस्मरणात् । वेदपूर्वकस्तु नास्त्यधिकारः शूद्राणामिति स्थितम्’ इसका भाव यह है कि शूद्र वेद को सीधा नहीं सुन सकता, किन्तु पुराणेतिहास के द्वारा वेद को सुन सकता है। इसलिए पुराणेतिहास को भी पञ्चम वेद ही कहा जाता है, जैसे कि छान्दोग्योपनिषद् में ‘इतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदम्’ (७।१।२) न्यायदर्शन ४।१।६२ सूत्र के वात्स्यायनभाष्य में भी यही कहा गया है- ‘ते वा खल्वेते अथर्वाङ्गिरसः एतद् इतिहास-पुराणमभ्यवदन्-इतिहास-पुराणं पञ्चमं वेदानां वेदम्’ । इसलिए शतपथ में भी ‘पुराणवेद, इतिहासवेद’ आया है। प्रकृत-पद्य में भी इसीलिए ‘अयम्’ आया है।
महाभारत में भी ‘महाभारत’ को ‘कार्ष्णं वेदमिमं सर्वं शृणुयाद्यः समाहितः’ (१५।५।४१) कार्ष्ण वेद कृष्ण-द्वैपायन ‘वेदव्यास’ का वेद’ कहा गया है। ‘इतिहासमिमं पुण्यं महार्थं वेदसंमितम् । व्यासोक्तं श्रूयते येन कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः’ (५।५७) ‘य इमां संहितां पुण्यां पुत्रमध्यापयत् शुकम् (५।५९) यहाँ पर उसे वेदसम्मत एवं संहिता कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में भी ‘तान् (मत्स्यघ्नः) उपदिशति इतिहासो वेदः’ (१३।४।३।१२) ‘तानुपदिशति पुराणं वेदः’ (१३) यहाँ पर पुराण-इतिहास को भी वेद कहा गया है, सो यहाँ शूद्रों के लिए वही पुराणेतिहासात्मक वेद, कार्ष्ण वेद- कृष्ण द्वैपायन-व्यास का इतिहास-वेद महाभारत सुनना ही इष्ट है। वह भी ब्राह्मण को आगे करके। कौटलीय अर्थशास्त्र में भी ‘अथर्ववेदेतिहासवेदौ च वेदाः’ (१।३।२) तथा ‘इतिहासवेदधनुर्वेदौ’ (राजशेखर की कव्यमीमांसा २ अध्याय) यहाँ इतिहास को भी वेद कहा है। सो ऐसा वेद, पुराण-महाभारतादि ही इष्ट है। स्वामी शंकराचार्य की साक्षी इस पर दी जा चुकी है। ‘इतिहास’ से पुराण का भी ग्रहण हो जाता है, जैसे कि कौटल्य ने लिखा है – ‘पुराणेति वृत्तम्… धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं च इति इतिहासः’ (१।५।१४) श्रीतर्करत्न ‘कौटल्य अर्थशास्त्र’ पर इस विषय में अपनी टीका भी देख सकते हैं। वास्तविक वेद तो उसी प्रकरण में ‘ब्राह्मणाय सदा देयं ब्रह्म शुश्रूषवे तथा’ (शान्तिपर्व ३२७/४३) ब्राह्मण को देना कहा है। ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान् कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः । वेदस्याध्ययनं हीदं तच्च कार्यं महत् स्मृतम्’ (३२७।४९) यहाँ भी ब्राह्मण को ही साक्षात् सभी वेदों का देना कहा है, फिर ब्राह्मण शेष-वर्णों को सुनावे-सो वह वेद का शब्द वहाँ इष्ट नहीं, किन्तु अर्थ ही इष्ट है। वह भी वेद होता है, ऐसा वेद, पुराण-इतिहास ही है। तब ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान्’ श्लोक भी पुराणेतिहासात्मक-वेद के लिए प्रतिफलित हुआ, तभी तो सभी निबन्धकारों ने उसे वैसा ही व्यवस्थापित किया है। वेद का भी इसी पक्ष पर अनुग्रह है, यह पूर्व सिद्ध किया जा चुका है। तर्करत्नजी की ‘वैश्य’ से शूद्र का ग्रहण हो जाना, और शूद्र का पतित-पर्यायवाची सिद्ध करना – यह कल्पना आपात-मनोहर तो है, पर शास्त्रानुगृहीत नहीं, शास्त्र का वैसा अभिप्राय नहीं, जैसा कि उन्होंने वैसा सिद्ध करने की चेष्टा की है। इस पर हमने ‘आलोक’ (९) पृष्ठ ३६४-३६५ में संक्षेप से लिखा है।

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