“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग २

(२) १. यदि ‘यथेमां वाचं’ यह मन्त्र स्त्री-शूद्रादि को वेदाधिकार देनेवाला होता, तो ‘वेदान्त-दर्शन’ के ‘अपशूद्राधिकरण’ (१।८) में वेद के पूर्ण विद्वान् श्रीवेदव्यास, ‘यागे शूद्रस्यानधिकाराधिकरण’ (६-७) में श्रीमान् वेदके अपश्चिम विद्वान् जैमिनि मुनि, संस्कार-प्रकरणमें वेद के प्रकाण्ड पण्डित सूत्रकार पारस्कर आदि, तथा वेद-विषयनिष्णात मन्वादि-स्मृतिकार एवं रामायण-महाभारतादि-प्रणेता श्रीवाल्मीकि-व्यास आदि, दर्शनोंके भाष्यकार श्रीशंकराचार्य, श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीवल्लभाचार्य आदि, तथा वेदोंके भाष्यकार श्रीवेङ्कटमाधव, श्रीसायणाचार्य आदि स्त्री-शूद्र आदि को वेदानधिकारी कैसे मानते ? यह तो असम्भव है कि उनकी दृष्टि से यह मन्त्र च्युत हो गया हो। तब स्पष्ट है कि उक्त मन्त्र का यह अर्थ नहीं ।
२. “एक विद्यालङ्कार” का ‘सार्वदेशिक (सितम्बर १९४६ के अङ्क) में शंकराचार्य जी के अतिरिक्त उक्त आचार्यों में किसी ने भी स्त्री-शूद्रादि को वेद का अनधिकारी नहीं माना’ यह कहना प्रत्यक्ष का अपलाप करना है। हम दिग्मात्र उनके वचन उद्धृत करते हैं ! १ पहले स्वामी दयानन्द सरस्वती जी से मान्य ‘मनुस्मृति’ देखें। चार वर्णों के कर्म बताते हुए मनुजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का अध्ययन लिखा है, स्त्री-शूद्र का सर्वथा नहीं। उनका केवल सेवा करना ही कर्म लिखा है, सेवा से अतिरिक्त उन्होंने स्त्री-शूद्र का सब कर्म निष्फल बतलाया है। देखिये ‘एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् । एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया’ (१।९ १) ‘यद् अतोऽन्यद्धि कुरुते तद् भवत्यस्य निष्फलम्’ (१०।१२३) ‘परिचर्यः स्त्रिया साध्ब्या सततं देववत् पतिः’ (५।१५१) ‘नास्ति स्त्रीणां पृथग् यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् । पतिं शुश्रूषते येन तेन स्वर्ग महीयते’ (५।१५५) ‘वरं स्वधर्मो विगुणो न पारक्यः स्वनुष्ठितः’ (१०।९ ७) । स्त्री के लिए रोटी पकाने की सेवा ही मनुने मानी है, वेदाध्ययन नहीं- ‘अर्थस्य संग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयेत् । शौचे धर्मेऽन्न-पक्त्यां च (९ ।११) ।
३. जब यही स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के सत्यार्थ प्रकाश ११ वें समुल्लास के आरम्भ में सृष्टि की आदि में बनी हुई मनुस्मृति स्त्री-शूद्रादि के लिए उपनयन नहीं मानती, तब उनको वेदाधिकार ही कैसे देगी ? देखिये ‘अमन्त्रिका, तु कार्येयं स्त्रीणामा वृदशेषतः’ (२।६६) ‘वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः। पतिसेवा गुरौ वासो, गृहार्थोऽरिनपरिक्रिया’ (२।६७) यज्ञोपवीत सर्वत्र तीन वर्णों का आया है, स्त्री-शूद्र का नहीं । तब स्त्री शूद्र को मनु के मत में वेद का अधिकार सिद्ध न हुआ। यह ‘मनुस्मृति’ सृष्टि के आदि में बनी हुई मानी गई है। यह श्रीयास्क भी लिखते हैं- ‘विसर्गादौ [सृष्टघादौ] मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्’ (३।४।२) । इस पर वादियों का विश्वास न हो, तो वे अपने ‘ऋषि’ की बात तो मानेंगे ही। वे लिखते हैं- ‘यह मनुस्मृति जो सृष्टि के आदि में बनी हुई है, उसका प्रमाण है, (सत्यार्थप्रकाश ११वें समुल्लास का आरम्भ १७२ पृष्ठ ) । जब मनु के २।१६८ पद में वेद का अध्ययन न करने वाले द्विज को अर्थवाद से शूद्र कहा गया है, तब इससे भी शूद्र को वेद का अनधिकार सिद्ध हुआ।
४. इस प्रकार अन्य स्मृतियाँ भी निषेध करती हैं, जैसे कि- व्यास-स्मृति (१।१६), ‘वसिष्ठ-धर्मसूत्र’ (४।३), ‘गौतमधर्मसूत्र’ (२।३।४) आदि। इसी प्रकार ‘महाभारत’ शान्तिपर्व (६०।३७), सभापर्व (४।५।१६), उद्योगपर्व (२९।२६), सभापर्व (३६।८-९) में शूद्र को वेद का अधिकार निषिद्ध किया गया है। अनुशासनपर्व (४०।११) में स्त्री को वेदशास्त्र का अधिकार नहीं दिया गया। वाल्मीकि रामायण (१।६।१९) में शूद्र का स्वधर्म सेवा दिलाई गई है। तद्विरुद्ध वैदिक तपस्या करने वाले शूद्र शम्बूक को श्रीराम ने दण्ड दिया। तब शूद्र तद्विरुद्ध वेद पढ़ने के अधिकारी कैसे हो सकते हैं? रामायण में किसी भी स्त्री का उपनयन, वेदाध्ययन, गुरुकुल-निवास नहीं दिखलाया गया। रामायण की नायिका श्रीसीता का छठे वर्ष में विवाह हो गया था, उसका कहीं भी उपनयन एवं वेदाध्ययन नहीं दिखलाया गया है। इससे रामायण के मत में भी स्त्री-शूद्रों का वेदाध्ययन निषिद्ध सिद्ध हुआ। वाल्मीकि रामायण ३।५६।१८ में यज्ञवेदी में द्विजाति का अधिकार, तथा चाण्डाल का अनधिकार बताकर हमारा पक्ष सिद्ध कर दिया गया है।

(३) अब पारस्करादि-गृह्यसूत्रों का मत भी देख लीजिए। उन्होंने तीन वर्णों को ही यज्ञोपवीत दिया है; शूद्र को उपनयन एवं वेदाध्ययन नहीं दिया। देखिये ‘पारस्कर गृह्यसूत्र’ (२।१,२,३); ‘द्राह्यायण गृह्यसूत्र’ (३।४।१।३।५), जैमिनि-गृह्यसूत्र (१।१२), आपस्तम्बगृह्यसूत्र (४।१०।२,३), गोभिल गृह्यसूत्र (२।१०।१,२,३), ‘आग्निवेश्य गृह्यसूत्र’ (१।१।१), ‘काठक गृह्यसूत्र’ (४१।१,२,३), वैखानम गृह्यसूत्र (२।३) इत्यादि। हिरण्यकेशीय – सत्याषाढ – सूत्र के उपनयन (१९।१।१) सूत्र में मातृदत्त ने लिखा है – ‘उपनयन त्रैवणिकानामेव स्यात्’, न तु शूद्राणाम् उपनयनं वेदाध्ययनम्’, इति शूद्रादीनां प्रतिषेधात्। ‘तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम्’ इत्यादिना तत्समीपे अध्ययन-प्रतिषेधाच्च। पुंसाम् एव क्रियते, न स्त्रियाः। स्त्रिया नाध्येयम्, न स्त्री-शूद्र-समीपे ब्रह्म श्रावयेत् इति स्त्रीणाम् अध्ययन-प्रतिषेधात्। ‘पाणिग्रहो विधिः स्त्रीणाम् औपनायनिकः परः, इत्युपनयनभक्तित्वाच्च विवाहस्य’। इस प्रकार स्त्री को भी अधिकार नहीं दिया गया, क्योंकि गृह्यसूत्रकारों ने पुंल्लिङ्ग शब्द (कुमार) लिया है, इधर उपनयनादि में उनको जातिपक्ष इष्ट नहीं। जब ऐसा है तो सूत्रकारों के मत में भी स्त्री-शूद्र को वेद का अधिकार सिद्ध न हुआ; क्योंकि उपनयन संस्कार होकर उसके बाद ही वेदारम्भ संस्कार होता है। ‘लाट्यायन श्रौतसूत्र’ (४।३।५) में शूद्र का यज्ञ-वेदी में अधिकार नहीं माना गया। जब ऐसा है तो विद्यालङ्कारजी किस मुख से कह सकते हैं कि ‘शंकराचार्यजी के अतिरिक्त किसी ने भी स्त्री-शूद्र को वेद का अनधिकार नहीं दिया।’

(४) अब जैमिनिजी का भी मत सुन लीजिए- ‘अपि वा वेदनिर्देशाद् अपशूद्राणाम् ‘प्रतीयेत’ (मीमांसा. ६।१।३३)। यहाँ पर श्रीजैमिनिजी को वेद के निर्देश से शूद्र का उपनयन इष्ट न होने से शूद्र का वेदाधिकार भी इष्ट नहीं। इधर जबकि जैमिनिजी ने ‘मीमांसादर्शन’ के छठे अध्याय के प्रथम पाद में सप्तम अधिकरण ही ‘यागे शूद्रस्य अनधिकाराधिकरणम्’ रखा है; तब उनके मत में शूद्र का वेदानधिकार सिद्ध हो गया; क्योंकि यज्ञ वेद का विषय है। इस पर ‘आलोक’ (६) में ‘ब्राह्मणभाग की वेदता’ में देखो। इसलिए यज्ञ विषय वाले वेद के लिए अधिकारपट्ट भी यज्ञोपवीत रखा गया है। तब शूद्र के सर्वथा तथा स्त्री के स्वतन्त्र यज्ञ तथा यज्ञोपवीत न होने से तथा दोनों की अविद्या स्वीकृत होने से श्रीजैमिनिजी के मत में भी स्त्री-शूद्र का वेद में अनधिकार सिद्ध हो गया। ‘वेदान्तदर्शन’ का अपशूद्राधिकरण (१।३।३४।३८,३९) तो बहुत ही प्रसिद्ध है। इस का सभी भाष्यकारों ने शूद्र का वेदानधिकार में अपना एकमत्य ही प्रस्फुट किया है। इस विषय में ‘सन्मार्ग दैनिक’ दिल्ली (६।५२४-५३३) में हमारी लेखमाला प्रकाशित हो चुकी है। जब वेद के मर्मज्ञ इन प्राचीन आचार्यों ने ऐसा माना है; और ‘यथेमां वाचं’ मन्त्र इन की दृष्टि से दूर नहीं था; तब स्पष्ट है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रोक्त इस का अर्थ ठीक नहीं ।

(५) इस के अतिरिक्त इस मन्त्र के तथाकथित अर्थवाला होने पर वेद में स्वयं व्याघात उपस्थित हो जायगा। ‘वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्’ (अथर्ववेद शौनक संहिता १९।७१।१) यह मन्त्र वेद में द्विज का अधिकार मानता है। तो यदि ‘यथेमां’ मन्त्र सभी को वेदाधिकार दे दे; तव आपस में व्याघात हो जाने से ‘तदऽप्रामाण्यमनृतव्याघात पुनरुक्तेभ्यः’ (न्यायदर्शन २।१।५७) के अनुसार वेद अप्रमाण हो जाय। और फिर इस मन्त्र में ‘वेद’ शब्द और ‘द्विज’ शब्द स्पष्ट है; ‘यथेमां वाच’ मन्त्र में ‘वेदवाचं’ शब्द नहीं है; ‘वेद’ शब्द वाले मन्त्र में ‘द्विज’ शब्द है, केवल ‘वाचं’ वाले मन्त्र में सभी वर्ण हैं; इस से स्पष्ट है कि वेद में तो ‘द्विज’ का ही अधिकार है; और साधारण वाणी में सब का अधिकार है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के अनुसार स्मृत्यादि-ग्रन्थों में वेद का अधिकारी ‘द्विज’ कहा है; उक्त ‘वेद’ शब्द वाले मन्त्र में भी उस का अधिकारी ‘द्विज’ कहा है- इन का ‘श्रुतेरिवाऽर्थं स्मृतिरन्वगच्छत्’ इस प्रकार सामानाधिकरण्य सिद्ध हो जाने से स्पष्ट है कि – ‘यथेमां वाचं’ मन्त्र में बलात् ‘वेदवाणी’ अर्थ करना स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का ठीक नहीं। इस से यह भी सिद्ध हुआ कि जो स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने स्मृत्यादिके वचनों में ही द्विज को वेदाधिकारी समझा है; वेद में इन्हें वेद का अधिकारी ‘द्विज’ नहीं दिखा: इस का कारण ‘वेदमाता… द्विजानाम्’ (अथर्ववेद १९।७१।१) ‘अयं स होता यो द्विजन्मा’ (ऋग्वेद संहिता १।१४९।५) इत्यादि मन्त्रों का स्वाध्याय न करना ही है।

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