“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ३

(६) स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को ही स्त्री-शूद्रादि के वेदाधिकार का इस मन्त्र में भ्रम क्यों हुआ, इस पर भी विचार कर लेना चाहिये । उस में कारण यह है कि उक्त मन्त्र में उत्तम पुरुष की क्रिया ‘आवदानि’ का प्रयोग है और इस मन्त्र का देवता ‘ईश्वर’ है। परन्तु ऐसा करने पर उक्त मन्त्र का अपने अन्तिम अंश से तथा अन्य मन्त्रों से विरोध पड़ना है, अतः स्वामी दयानन्द सरस्वती सम्मत अर्थ भी ठीक नहीं, यही इस निबन्ध में दिखलाया जायगा ।

(७) स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने यहाँ पर यह भी विचार नहीं किया कि जब हम अपनी ‘संस्कारविधि’ के उपनयन तथा वेदारम्भ संस्कार में ८,११,१२ वर्ष की अवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बालक का ही उपनयन एवं द्विजत्व तथा वेदारम्भ लिख रहे हैं, तव स्त्री-शूद्र का उपनयन तथा वेदारम्भ न होने से वे वेद पढ़ ही कैसे सकेंगे? केवल स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने ही क्या, किसी भी स्मृतिकार वा गृह्यसूत्रकार ने स्त्री तथा शूद्रादिको उपनयन वा वेदारम्भ नहीं माना, इस पर आर्यसमाजी विद्वान् श्री पंडित नरदेवशास्त्रीजी की सम्मति आगे दी जावेगी, तब वे द्विज न होने से वेद पढ़ ही कैसे सकते हैं ? उन्हें सेवा से अतिरिक्त वेदादिपठन किसी भी शास्त्र ने नहीं दिया ।

(८) इस के अतिरिक्त वेदमन्त्र में उत्तमपुरुष की क्रिया आ जाने से क्या उस का वक्ता ईश्वर हो जायगा ? यदि ऐसा है; तो क्या ‘अग्निमीले पुरोहितम्’ (ऋग्वेद शाकल संहिता १।१।१) में यही अर्थ किया जायगा कि मैं परमात्मा अग्नि की पूजा करता हूं ? अन्य मन्त्र भी ऐसे दिये जा सकते हैं। अग्नि का अर्थ उस का अधिष्ठाता परमात्मा माना जाता है, अग्नि, देवता होने से यहां प्रतिपाद्य है। यदि ‘अहं’ से यहाँ परमात्मा लिया जाय; तो स्तोता तथा स्तूयमान दोनों परमात्मा होने से दो परमात्मा मानने पड़ेंगे। परन्तु वादी भी यहाँ जीव को प्रतिपादक तथा ईश्वर को प्रतिपाद्य मानते हैं; वैसे ही ‘यथेमां वाचं’ में भी समझ लेना चाहिये। इस मन्त्र के अर्थ में पंडित नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ की सम्मति देखिये –

(९) ‘इस बात के मानने में हमको नितान्त संकोच है कि यह मन्त्र ‘यथेमां वाचं’ मनुष्यमात्र को वेदज्ञानाधिकार देने का विधान करता है। वस्तुतः यह मन्त्र राजधर्म-प्रकरण का है। सत्यार्थ प्रकाश में उद्धृत भाग मन्त्र का केवल अर्द्धभाग है। मन्त्र का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध मिलाकर देखने से हमारे कथन की उपयुक्तता सिद्ध होगी। इस मन्त्र का देवता ‘ईश्वर’ है, परन्तु ‘ईश्वर’ से यहाँ ‘परमेश्वर’ अभिप्रेत नहीं; किन्तु राजा अभिप्रेत है। प्रायः जहाँ देवता ईश्वर आया है; वहाँ ‘राजा’ ही लिया गया है। परमेश्वर के लिए ‘परमेश्वर साक्षात् आया है, अर्थात् ‘परमेश्वर’ देवता लिखा गया है। यह राजधर्म-प्रकरण का क्यों है ? इसलिए कि-१ प्राचीन मन्त्रद्रष्टाओं ने इस मन्त्र का देवता ‘राजा’ माना है। २ राजा को देवता [वर्णनीय विषय] मान लेने से मन्त्र के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के अर्थ में विरोध नहीं आता। ३ स्पष्ट रूप से ‘राजा’ ही देवता है, ईश्वर से वहाँ ‘राजा’ ही अभिप्रेत है। ४ परमेश्वर को देवता मानने में उत्तरार्द्ध के अर्थ का स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत अर्थ से मेल नहीं बैठता। यह बात स्वामी दयानन्द सरस्वती के किये हुए अपने ही भाष्य से स्पष्ट हो जाती है। देखिये यजुर्वेद भाष्य, विसंगतता स्पष्ट प्रतीत होगी।” (आर्यसमाज का इतिहास प्रथमभाग १२२-१२३ पृष्ठ) ।

(१०) अन्य विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि उक्त मन्त्र का वक्ता परमात्मा होता; तो अन्तिम अंश में ‘अहं देवानां प्रियो भूयासम्’ ‘दक्षिणायाः दातुः प्रियो भूयासम्, अयं मे कामः समृध्यताम्, अदो माम् उपनमतु’ (यजुर्वेद २६।२) इस प्रार्थना को अपने लिए कभी न करता । ऐसी प्रार्थना तो कोई दक्षिणा वा धन का अभिलाषी पुरुष ही कर सकता है। देवाधिदेव कैसे कहे कि ‘अहं देवानां प्रियो भूयासम्’ ? (मैं देवताओं का प्यारा बनूं) दूसरों को धन-दक्षिणा देने-दिलानेवाला कैसे कहे-‘अहं दक्षिणायै (षष्ठ्यर्थे चतुर्थी) दातुः प्रियो भूयासम् ? (मैं दक्षिणा देनेवाले का प्यारा बनूं) पूर्णकाम कैसे कहे कि ‘अयं में कामः समृध्यताम्’ ? (यह मेरी कामना समृद्ध हो)”।
‘ब्रह्मसूत्र’ के २।१।३४ सूत्र के माध्वभाष्य में कहा है-‘मुक्ता श्रप्याप्त-कामाः स्युः किमु तस्थाखिलात्मनः’ (मुक्त भी प्राप्तकाम होते हैं, वह सर्वात्मा परमात्मा भला प्राप्त-काम क्यों न होगा ? नित्य का सुखी कैसे कहे कि ‘अदो मामुपनमतु’ । उक्त मन्त्र से पूर्व (२६।१) मन्त्र में ‘सकामान् अध्वनः कुरु, संज्ञानम् अस्तु मे अमुना’ (२६।१) ऐसी प्रार्थना नित्यज्ञानी परमात्मा कैसे कर सकता है कि मेरे मार्ग सकाम हों; इस से मुझे ज्ञान प्राप्त हो ।’

(११) वादियों को याद रखना चाहिये कि यदि वे हठधर्म से ‘येन केन प्रकारेण’ अपने पक्ष को सिद्ध करने की चेष्टा में नहीं तो उन्हें जानना चाहिये कि वेद के अधिकारी-वर्ग की सूचना तो वेद के आदि या अन्त में ही घट सकती है; तभी ‘इमां वाचं’ में ‘इदम्’ शब्द उपपन्न हो सकता है। सारी ऋग्वेदसंहिता बन गयी; आधी से अधिक यजुर्वेदसंहिता बन गई; उस के भी २६वें सूक्त के, उस के भी प्रथम मन्त्र में नहीं, किन्तु दूसरे मन्त्र में परमात्मा को अप्रासंगिक वेद के अधिकारिवर्ग की चिन्ता कैसे उपस्थित हो गई ?

(१२) फलतः यहां पर ‘ईश्वर’ का परमात्मा अर्थ मानने पर और ‘वाचम्’ का ‘वेदवाणी’ अर्थ मानने पर बड़े-बडे दोष प्राप्त हो जाते हैं; परन्तु पहले ‘ईश्वर’ शब्द के विषय में आर्यसमाजी-विद्वान् डाक्टर मंगलदेव जी शास्त्री अध्यक्ष गवर्नमेंट कालेज बनारस का भी मत हम उपस्थित करते हैं। डाक्टर महाशय ने ‘संस्कृत-रत्नाकर’ (जयपुर) पत्र के ‘दर्शनांक’ में ‘ईश्वर’ शब्द का इतिहास दिखलाते हुए लिखा है कि-‘ऋग्वेद-संहिता’ में तो ‘ईश्वर’ शब्द एक बार भी नहीं आया। ‘शुक्ल-यजुर्वेद संहिता’ में भी ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग सर्वथा नहीं किया गया। ‘सामवेद’ में भी ‘ईश्वर’ शब्द एक बार भी नहीं आया। अथर्ववेद-संहिता’ में ‘ईश्वर’ शब्द पाँच बार आया है, परन्तु वहाँ ‘स्वामी’ का अर्थ है, ‘परमात्मा’ अर्थ नहीं। निघण्टु में भी ‘राष्ट्री, अर्यः’ इत्यादि ईश्वर के नाम आये हैं- वे भी स्वामी वा राजा के अर्थ में प्रयुक्त हैं, परमात्मा अर्थ में नहीं। इसी प्रकार ‘निरुक्त’ में भी ‘ईश्वर’ स्वाम्यर्थक है, परमेश्वरार्थक नहीं। ब्राह्मण-ग्रन्थों में भी ईश्वर शब्द समर्थ-वाचक है, परमात्म-वाचक नहीं । श्रौतसूत्रों में प्रायः ईश्वर शब्द मिलता ही नहीं। जहाँ है भी, वहाँ परमात्मा अर्थ नहीं। इसी प्रकार धर्मसूत्रों में भी। ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में भी राजार्थक ही ईश्वर शब्द देखा गया है, परमात्मा अर्थ में नहीं। इसी प्रकार अष्टाध्यायी-महाभाष्य में भी ‘ईश्वर’ शब्द स्वामी वा राजा अर्थ में है, परमात्मा अर्थ में नहीं। यह ‘ईश्वर’ शब्द के इतिहास का पहला युग है। मध्ययुग ‘मनुस्मृति’ में ईश्वर शब्द का अधिकतर अर्थ राजा है, कहीं-कहीं परमात्मा भी । अन्तिम युग में ‘भगवद्गीता’ आदि तथा दर्शनों में ईश्वर शब्द परमात्मार्थक ही है”।
यद्यपि इसमें हम पूर्णतया सहमत नहीं; तथापि इससे यह तो सिद्ध हुआ कि वेदकाल में ईश्वर का अर्थ ‘परमात्मा’ नहीं था, तब ‘यथेमां वाचं’ इस मन्त्र में ‘ईश्वर देवता’ में परमात्मा का अर्थ कैसे हो सकता है ? जब परमात्मा का अर्थ न हुआ; तब स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रोक्त अर्थ भी सिद्ध न हुआ ।

(१३) अब यह दिखलाया जाता है कि उक्त मन्त्र में ‘परमात्मा’ अर्थ करने पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के मत में बड़े-बड़े दोष आते हैं। १. उक्त अर्थ कहनेवाले स्वामी दयानन्द सरस्वती के मत में ईश्वर सर्वथा निराकार है; तव कण्ठ तालु आदि न होने से ‘सृष्टिनियम से विरुद्ध’ उसने अक्षरात्मक वाणी ही कैसे उपदिष्ट की ? क्या उपदेशक निराकार होते हैं ? ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, के पृष्ठ ११ के अनुसार उसका ‘सर्वशक्तिमत्ता का ध्याज तो व्यर्थ है; नहीं तो वह सर्वशक्तिमत्ता से साकार ही क्यों नहीं हो जाता ? स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है- ‘जो-जो सृष्टिक्रम से अनुकूल, वह-वह सत्य और उससे विरुद्ध असत्य है, (३ समुल्लास पृष्ठ ३१) ‘परन्तु क्या सर्वशक्तिमान् वह कहाता है कि जो असम्भव बातों को भी कर सके ?…… जो स्वाभाविक नियम हैं…… उनको विपरीत गुण वाले ईश्वर भी नहीं कर सकता (सत्यार्थ प्रकाश ८ पृष्ठ १३३) ‘ईश्वर भी पूर्वकृत नियम को उल्टा नहीं कर सकता’ (सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ३१७) यदि परमात्मा सृष्टि-नियम-विरुद्ध कुछ कर नहीं सकता; तो बिना शरीर तथा मुखादि अवयव के सृष्टिक्रम-विरुद्ध बोल भी नहीं सकता; (श्री बुद्धदेव विद्यालङ्कार ने भी यही माना है , यह आगे दिखलाया जायगा ।) फिर वेद भी उसकी वाणी नहीं बन सकते ।
२. यह भी पृष्टव्य है कि जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अतिशूद्र, स्त्री आदि परमात्मा के पास स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार वेद पढ़ने गये, वे निराकार थे या साकार ? क्या ईश्वर उन व्यक्तिविशेषों को किसी सीमित स्थान में पढ़ाता था; वा सर्वव्यापकता में ? यदि सीमित स्थान में पढ़ाता था, तब परमात्मा भी एकदेशी सिद्ध हो गया । यदि सर्वव्यापकता में वेद पढ़ाता था; तो पढ़ने वाले ब्राह्मणादि भी क्या उसकी तरह अविच्छिन्न रूप से सर्वव्यापक थे, जैसे कि मूर्तिपूजा-खण्डन के समय में स्वामी दयानन्द सरस्वती वा उनके अनुयायियों का कथन होता है; नहीं तो उसी तरह मूर्तिपूजा भी मान लीजिये ।
३. वह जगत्भर के सब ब्राह्मण, शूद्रादि को पढ़ाता है वा थोड़ेसे ब्राह्मण, शूद्रादि को ? यदि थोड़ों को, तो उनकी सूची उपस्थित कीजिये । यदि सबको वेद पढ़ाता था, तो बहुतसे वेद-पराङ्‌मुख कैसे हो गये ?
४. उसने भूतकाल के ब्राह्मणों को पढ़ाया था, या वर्तमानकाल के ब्राह्मणादि को भी ? यदि वर्तमानकाल के, तो यह प्रत्यक्ष-विरुद्ध है। यदि उसने भूतकालीन-ब्राह्मणादि को पढ़ाया, वर्तमानकाल के नहीं, जैसा कि-स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के पृष्ठ १३ में लिखा है कि – ‘न सृष्टेरारम्भसमये पठन-पाठन-क्रमो ग्रन्थश्च कश्चिदपि आसीत्, तदानीमीश्वरोपदेशमन्तरा न च कस्यापि विद्यासम्भवो बभूव’ तब वेद में भूतकाल का इतिहास भी सिद्ध हो गया । तब स्वामी दयानन्द सरस्वती के सिद्धान्तानुसार वेद अनित्य भी सिद्ध हो गये। क्योंकि परमात्मा वर्तमानकाल के ब्राह्मण-शूद्रादि को वेद का उपदेश देता नहीं दीखता। उस समय वेद पढ़ाने के समय वेद में ‘यथेमां वाचम्’ मन्त्र था या नहीं? यदि था, तो ‘इतिहास जिसका हो उसके जन्म के पश्चात् लिखा जाता है, वह ग्रन्थ भी उसके जन्म के पश्चात् होता है , (सत्यार्थ प्रकाश ७ समुल्लास १२७ पृष्ठ) स्वामी दयानन्द सरस्वती की इस अपनी उक्ति से विरोध पड़ता है। यदि वह मन्त्र उस समय वेद में नहीं था, अब दिखाई पड़ रहा होने से वेद में प्रक्षिप्तता भी सिद्ध हो गई। तब तो उनके अनुसार वेद के प्रामाण्य में भी सन्देह उपस्थित हो गया ।
५. यदि परमात्मा सदा ही ब्राह्मण-शूद्रादिको वेद पढ़ाता है, तो करोड़ों पुरुष वेदानभिज्ञ क्यों हैं? अभिज्ञों में भी अर्थों में विवाद क्यों ? या फिर वेद पढ़ाने के लिए गुरुकुलों में करोड़ों रुपया व्यर्थ व्यय क्यों किया जा रहा है ? क्या परमात्मा वेद की पाठन-शैली से अनभिज्ञ है कि उसका पढ़ाया तो लोग भूल जाते हैं, पर आर्यसमाजी विद्वानों से पढ़ाया उन्हें याद रह जाता है ? तब परमात्मा सर्वशक्तिमान् कैसा ?
६. परमात्मा वेद आर्यों को पढ़ाता है, अथवा ईसाई, मुसलमान आदियों को भी ? यदि आर्यों को ही, तो वह संकुचिताशय हो गया, ‘महाशय’ क्यों नहीं हुआ ? ऐसा होने पर यदि वह द्विज से भिन्नों को वेद का अधिकार नहीं देता, तो इसी में वह संकुचिताशय क्यों माना जाता है ? यदि वह मुसलमान-ईसाई आदि का पढ़ाता है, तो उनका नाम मन्त्र में क्यों नहीं ? ‘आवदानि जनेभ्यः’ कहकर भी पृथक् ब्राह्मणादि नाम कहने उससे भिन्न मुसलमान-ईसाई आदि यहाँ से हटा दिये गए, नहीं तो ‘जनेभ्यः’ कहने से ही सब पुरुषों का ग्रहण सम्भव होने से फिर ब्राह्मण आदि का नामग्रहण व्यर्थ एवं असाभिप्राय हो जाता है। तब इस मन्त्र में ईसाई-मुसलमानादि न आने से इस मन्त्र से ‘सबको’ अर्थात् मनुष्यमात्र को वेद का वादिसम्मत अधिकार सिद्ध न हुआ। तब इससे वेद का अधिकार सीमितों का सिद्ध होने से यदि वह परमात्मा सनातनधमियों के अभिमत-अनुसार द्विजों के अतिरिक्त अन्यों को वेद का अधिकार नहीं देता, तब वह उपालम्भयोग्य सिद्ध न हुआ ।
७. अथवा यदि परमात्मा सभी को वेद पढ़ाता है, अथवा यदि पहले केवल आर्य ही थे, तब मुसलमान आदि वेद को न माननेवाले कहाँ से निकल पड़े ? क्या परमात्मा में अपने शिष्यों के अनुकूल करने की शक्ति भी नहीं ? यदि नहीं, तो जैसे स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ईश्वर-मूर्ति से मूषक द्वारा नैवेद्य उठा लेने पर उसकी साकारता खण्डित कर दी, वैसे अब उसके अदशक्तिमान् सिद्ध होने पर उसकी निराकारता हटाकर नास्तिकता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने क्यों नहीं अपनाई ? क्या उनकी सब जगह अपनी इच्छा ही प्रमाण है ? यदि ऐसा है तो उन्हें स्वेच्छाधर्मी ही माना जाएगा, वैदिकधर्मी नहीं ।
८. इस मन्त्र में स्वामी दयानन्द सरस्वती ‘स्त्री और सेवक’ का नाम भी कहते हैं, पर इस मन्त्र में उनका नाम दिखाई नहीं पड़ता । तब इस मन्त्र के अर्थ में उनका प्रक्षेप कैसे ? स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘स्वाय’ इस पद का ‘स्त्री, सेवक’ अर्थ किया है, परन्तु वह अर्थ ‘स्वाय’ का कैसे हो सकता है ? क्या वादी लोग निराकार को स्त्री तथा नौकर भी मानते हैं ? ‘अरण’ का अतिशूद्र अर्थ कैसे ? वस्तुतः ‘स्वाय’ का अर्थ है ‘अपने कुल में उत्पन्न हुए के लिए’ ‘अरणाय’ का अर्थ है ‘अन्य कुलजात’ जैसे कि- ‘निरुक्त’ में ‘परिपद्य ह्यरणम्य रेक्णो’ (ऋग्वेद ७।४।७) इस तथा ‘नहि ग्रमाय अरणः’ (ऋग्वेद ७।४।८) इस मन्त्र में।

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