3.4 रूसोके विचार
१७८९ की फ्रांसकी राज्यक्रान्तिका प्रवर्तक रूसो दस वर्षकी अवस्थामें ही एक पादरीके यहाँ नौकरी करने लगा। बुरी आदतोंके कारण वहाँसे उसे हटा दिया गया। बादमें वह दूसरी नौकरीमें लग गया। वहाँ वह पूरा झूठा, चोर और आवारा बन गया। उसे मित्रोंसे सदा ही सहायता मिलती रही। बादमें एक धनाढॺ स्त्रीके सहारे उसे पढ़नेकी सुविधा मिली। फिर वह गरीबोंमें रहने लगा। वहाँ उसने शराबकी दूकान की, नौकरानीसे मैत्री कर ली और बिना विवाहके ही पाँच बच्चे पैदा किये। पीछे १७४९ में उसने ‘विज्ञान और कलाकी उन्नतिसे नैतिकताकी वृद्धि हुई या अवनति’ इस विषयपर निबन्ध लिखकर पारितोषिक प्राप्त किया। इसी निबन्ध लिखनेके प्रसंगसे उसके जीवनमें परिवर्तन हुआ। उस निबन्धमें उसने बताया कि ‘विज्ञान और कलाकी वृद्धिसे नैतिकताकी वृद्धि नहीं हुई, प्रत्युत पतन हुआ।’ पश्चात् उसने अनेक पुस्तकें लिखीं और आवारा रूसो एक दार्शनिक बन गया। १७५४ में असमानताके जन्मपर उसने पुस्तक लिखी। इसमें उसने प्राकृतिक स्थिति और राज्यका जन्म बतलाया। एक लेखमें उसने ‘आदर्श सामान्य इच्छा’ और ‘आदर्श राज्य’ का वर्णन किया। अपनी शिक्षासम्बन्धी पुस्तकमें उसने ‘धर्मप्रभावित शिक्षा’ का विरोध किया। इससे तात्कालिक पादरियों एवं सरकारने उसका विरोध किया। रूसोके समयमें किसानोंकी दशा बहुत शोचनीय थी। मध्यम वर्गमें निराशा एवं उदासीनता छायी हुई थी। रूसोके मतानुसार ‘मानवमें भावनाका स्तर विवेकसे भी ऊँचा है।’ उसके अनुसार ‘आधुनिक सभ्यताने मनुष्यको अनैतिक एवं व्यभिचारी बनाया है। सभ्यताके पूर्व व्यक्तिका जीवन आदर्शमय था।’ उस समयके अन्य विचारक कुशलताको महत्त्व देते थे, परंतु रूसोने स्वतन्त्रताको सर्वोच्च स्थान दिया। वह राजतन्त्रका कट्टर विरोधी था, सुतरां गरीबों और किसानोंका आदर्श दार्शनिक था।
रूसोकी प्राकृतिक स्थितिमें ‘मनुष्य नेक, सुखी, सीधे, चिन्तारहित, स्वस्थ, शान्तिप्रिय, एकान्तप्रिय एवं सन्तुष्ट थे। कोई निजी घर न था और न सम्पत्ति ही थी। विवाह-प्रथा भी नहीं थी और न कुटुम्ब ही था। भूमिके उत्पादनसे ही भौतिक इच्छाओंकी पूर्ति हो जाती थी। पूर्ण समानता, स्वतन्त्रता व्यापक थी। कोई वस्त्र-समस्या भी न थी।’ उसके मतानुसार ‘प्राकृतिक युगमें आधुनिक बुराइयाँ नहीं थीं, परंतु आधुनिक भलाइयाँ भी न थीं। संक्षेपमें वह एक नेक जंगलीकी भाँति था। प्राकृतिक मनुष्योंको न्याय, अन्याय और मृत्युका भी ज्ञान नहीं था। उसमें बुराई समाजके सम्पर्कसे ही आयी।’ उसके मतानुसार ‘नैतिकता समाजकी देन है।’ हॉब्सके विचारोंका उसने खण्डन किया था।
भारतीय आर्ष इतिहासके अनुसार हॉब्स और रूसो दोनोंकी ही प्राकृतिक स्थितिका वर्णन असंगत है; क्योंकि अपने यहाँके मतानुसार सत्त्वगुणके विकासके समय नैतिकता और सभ्यता थी। सत्त्व-ह्रासके पश्चात् हॉब्सका चित्रण ठीक ही है। ‘असमानताका जन्म’ पुस्तकमें उसने बताया है कि ‘एक मनुष्यने एक भूमिके टुकड़ेको घेरा और कहा कि ‘यह मेरा है।’ उसने अन्य भोले मनुष्योंसे उस टुकड़ेपर अपना अधिकार स्वीकार करवाया। उसके अनुसार यह मनुष्य ही सभ्यताका जन्मदाता बना। उसी तरह अन्य मनुष्योंने भी धीरे-धीरे भूमिके टुकड़ोंको अपनाया और दूसरोंसे अपना स्वामित्व स्वीकार करवाया। इस तरह व्यक्तिगत सम्पत्ति और असमानता ही सभ्यताकी जन्मदात्री है।’
वस्तुत: कई शब्दोंका दुर्भाग्य भी कभी आया करता है। उनका अर्थ सुन्दर होते हुए भी अधिकांश लोगोंद्वारा उनका प्रयोग कभी बुरे अर्थोंमें होने लगता है। ‘सम्प्रदाय’ ‘साम्राज्य’ ‘सभ्यता’ आदि शब्द इसी ढंगके हैं। इनका अर्थ बहुत श्रेष्ठ होनेपर भी पाश्चात्य देशोंमें इनका बहुत दुरुपयोग हुआ और इनका ‘फिरकापरस्ती’ ‘शोषण’ एवं ‘असमानता’ आदिमें प्रयोग होने लगा। वस्तुत: समष्टि, व्यष्टि, अभ्युदय एवं परम नि:श्रेयस, अपवर्गके अनुकूल ज्ञान-क्रिया-सम्पन्न शिष्ट-व्यक्ति या समाज ही सभ्य कहा जाता है। तदनुकूल परम्परा ही सम्प्रदाय एवं उसका व्यवस्थापक ही धर्मनियन्त्रित साम्राज्य था। रामराज्यका साम्राज्य इसी कोटिका था। तभी केवल मनुष्योंके लिये ही नहीं, किंतु पशु-पक्षीको भी वहाँ सरल-सस्ता न्याय मिलता था। रूसोके अनुसार ‘उसी असमानताकी रक्षाके लिये पुलिस-सरकार आवश्यक हुई। इन सबके द्वारा अमीरोंके अत्याचारोंको स्थायी बननेमें सहायता मिली। समाजके जन्मसे ही दु:ख एवं दरिद्रताका जन्म हुआ। समाज और सभ्यताकी वृद्धिसे गरीबी, भूख, शोषण, हत्या, बीमारीकी वृद्धि हुई। रूसोने अपनी ‘सामाजिक अनुबन्ध’ (सोशल कंट्राक्ट) पुस्तकमें लिखा है कि ‘मनुष्य स्वतन्त्र जन्मा, परंतु सभी ओर जंजीरोंसे जकड़ा हुआ।’ उसकी ‘येमिल’ पुस्तकमें भी ऐसे ही विचार हैं। आधुनिक लोग भी मानते हैं कि ‘रूसोकी अपनी व्यक्तिगत अनुभूतिका ही यह चित्रण है। अपमान और दु:खकी प्रतिक्रियास्वरूप ही उसने यह विचार व्यक्त किया है।’ सुतरां इसमें तात्त्विक सत्यताकी अपेक्षा प्रतिक्रियाकी भावना ही अधिक है। उसका विश्वास था कि ‘वह नेक था, किंतु समाजकी परिस्थितियोंने उसे आवारा बनाया।’ उसने ‘सामाजिक अनुबन्ध’ में लिखा है कि किस प्रकार एक ऐसी संस्था स्थापित हो, जिससे प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियोंके साथ संघटित होते हुए भी केवल अपनी-अपनी इच्छाका पालन करे अर्थात् स्वतन्त्रता सुरक्षित रखते हुए कैसे सुव्यवस्था स्थापित की जाय। किंतु रामराज्यीय दृष्टिकोणसे बिना इच्छाओंपर नियन्त्रण किये अर्थात् बिना उन्हें सीमित बनाये कोई भी संघटन हो ही नहीं सकता। समान उद्देश्यकी पूर्तिके लिये एक सूत्रमें सबके मन और इच्छाओंका आबद्ध होना ही वास्तविक संघटन है।
कहा जाता है कि ‘रूसोकी समस्या स्वतन्त्रता और सुव्यवस्थाका समन्वय थी। इसकी पूर्तिके लिये उसने परम्परागत अनुबन्धका प्रयोग किया। हॉब्सके अनुसार वह व्यक्तियोंद्वारा अपने सभी अधिकारोंका समर्पण आवश्यक समझता था और लॉकके अनुसार इन अधिकारोंको एक ऐसे आदर्श संघको दिया जाना ठीक मानता था, जो व्यक्तियोंकी एक राशि हो।’ रूसोके अनुसार ‘अ, ब, स, द व्यक्तियोंको अपने सब अधिकार अ+ब+स+द संघको इकरारनामा (अनुबन्ध)-के द्वारा समर्पण करना चाहिये। इसी व्यवस्थासे प्रत्येक व्यक्तिके अधिकारोंकी सुरक्षा हो सकती है। इस संघ-राज्यके नियम प्रत्येक व्यक्तिकी स्वीकृतिसे निर्मित होंगे।’ परंतु हॉब्सके समान ‘दीर्घकायको अधिकारोंका समर्पण’ उसकी दृष्टिमें ‘स्वतन्त्रताका त्याग या मानवताका त्याग है। इस समर्पणसे व्यक्ति दासतुल्य हो जाता है। दीर्घकाय ही सर्वेसर्वा बन जाता है। अत: ऐसा त्याग सिवा पागलपनके और कुछ नहीं।’ इसी तरह रूसो लॉककी प्रतिनिधि-सभाका भी विरोधी था। ब्रिटेनकी निर्वाचन-प्रथाका भी वह समालोचक था। निर्वाचनके बाद भी व्यक्ति दासतुल्य ही हो जाता है। उसके मतानुसार ‘आलस्यके कारण व्यक्ति या व्यक्तिगत समूह न स्वयं सुरक्षित रह सकता है, न राज्यद्वारा ही सुरक्षित रह सकता है। करोंके रूपमें धन देकर, सेनाद्वारा व्यक्तिगत रक्षा और प्रतिनिधियोंद्वारा सुव्यवस्थाका प्रबन्ध करना मूर्खता ही है।’ लॉकके मतानुसार ‘सभ्यतासे पहले भी व्यक्ति विवेकशील एवं न्याय-अन्यायका ज्ञाता था।’ यही विचार रूसोके समयके व्यक्तिवादियोंका था। रूसोने उसका खण्डनकर यूनानी ग्रीक दर्शनके अनुसार बतलाया कि ‘यह सब राज्यद्वारा ही सम्भव हो सकता है। राज्यके द्वारा ही व्यक्ति व्यक्तित्वको भी पा सकता है। उसके बिना मनुष्य मक्खीके तुल्य है। अधिकार, कर्तव्यपरायणता, स्वतन्त्रता, आत्मोत्थान, सम्पत्ति, नैतिकता और न्याय-अन्यायका ज्ञान राज्यद्वारा सम्भव है।’ यह सब व्यक्तिवादका उत्तर था।
यहाँ भी रूसोके कथनमें पूर्वापरविरोध है। एक ओर वह समाज और सभ्यताको तथा राज्यसरकार आदि संस्थाओंको गरीबी, भुखमरी, अत्याचारका सहायक मानता है। उसके पहले व्यक्तिको नैतिक एवं नेक मानता है और दूसरी ओर राज्यके बिना व्यक्तियोंको मक्खीतुल्य बतलाता है। रूसो आदर्श राज्यको ही सत्ताधारी मानता था। अर्थात् इस राज्यकी सामान्य इच्छाको सत्ताधारी मानता था। लॉकका राज्य संरक्षक मात्र था, सत्ताधारी नहीं। हॉब्सका ‘दीर्घकाय’ ही सब कुछ था। रूसोने अपने जनवादी राज्यको एक अवयवीकी भाँति माना है। ‘सत्ताधारी जनसभा या धारासभा इसका सिर है। नियम एवं परम्परा मस्तिष्क; न्यायाधीश, सरकारी कर्मचारी मस्तिष्कके स्नायु; व्यापार-व्यवसाय और कृषि मुख और उदर; आय रक्त और नागरिक शरीरके अंगोंकी भाँति हैं। राज्य एवं नागरिकोंके सम्बन्ध अवयव एवं अवयवीके सम्बन्धके तुल्य हैं। अवयवोंकी सुव्यवस्था अवयवीकी सुव्यवस्थापर एवं अवयवीकी सुव्यवस्था अवयवोंकी सुव्यवस्थापर निर्भर है। अर्थात् राज्य एवं नागरिकोंकी सुव्यवस्था एवं प्रगति अन्योन्याश्रित है।’ उसके अनुसार ‘सामान्य इच्छा सदा ही नागरिकोंकी सामान्य इच्छाका प्रतिनिधित्व करेगी और वह उनके स्थायी हितका प्रतिनिधित्व करेगी।’ इसी आधारपर रूसोने यह भी कहा था कि ‘नागरिक सदा ही राज्यहितमें व्यक्तिगत हित देखेगा, सदा राज्यकी सामान्य इच्छाके अनुसार ही सोचेगा। ऐसा न करनेवाला नागरिक भ्रान्त है। ऐसे भ्रान्तको राज्यकी इच्छाका अनुसरण करनेके लिये बाध्य किया जायगा, अर्थात् उसे स्वतन्त्र होनेके लिये राज्यद्वारा बाध्य किया जाना चाहिये।’
वस्तुत: यह सामान्य इच्छा एक प्रत्यक्ष जनवादी संघ हॉब्सके दीर्घकायके ही तुल्य सर्वेसर्वा है और वह निरपेक्ष है। मनुष्यकी सद्भावनापर रूसोका अटूट विश्वास था। उसके अनुसार ‘राजनीति और प्रचारकोंद्वारा विशुद्ध मनुष्य प्रवंचनामें डाला जाता है। राजनीतिक दल, समाचारपत्र आदि यन्त्र ऐसी प्रवंचनाके स्रोत हैं। ये यन्त्र नागरिकोंको कृत्रिमरूपसे संस्थाओंमें विभक्त कर देते हैं। दलोंकी इच्छासे उसके सदस्य प्रभावित भी होते हैं। इन दलों या यन्त्रोंद्वारा कई सामान्य इच्छाएँ बन जाती हैं। अत: ऐसे राजनीतिक दल या संघ आदर्श सुव्यवस्थामें अनावश्यक ही नहीं, किंतु बाधक भी होते हैं। इनके न रहनेपर राज्य और नागरिकोंमें सीधा सम्बन्ध रहता है, नागरिक सदा ही दल या संस्थाओंकी अपेक्षा राज्यके हितमें ही अपना हित समझेंगे। वे सामान्य इच्छाके अनुसार जीवन-यापन करना ठीक समझते हैं।’ इसीलिये रूसो ‘अद्वैतवादी दार्शनिक’ समझा जाता है। ‘संघों, दलोंको समाप्त करनेके लिये उनकी संख्या बहुत बढ़ा देनी चाहिये। इससे वे स्वयं अस्तित्वहीन हो जाते हैं।’ रूसो प्राचीन नैसर्गिक स्वतन्त्रताकी प्राप्ति सम्भव नहीं समझता था, परंतु एक उच्च नैतिक नागरिक स्वतन्त्रताकी प्राप्ति सम्भव मानता था।
इसके मतानुसार ‘नागरिकोंकी सभा भी नियमनिर्णयकी अधिकारिणी है; प्रतिनिधि-सभा नहीं। नियमोंको कार्यान्वित करनेके लिये कार्यपालिका होती है। कार्यपालिका नागरिकोंकी सभाके प्रति पूर्ण उत्तरदायी होती है। यह कार्यपालिका ही सरकार होती है।’ रूसोके मतानुसार ‘ऐसा जनवाद अपने सदस्योंसे स्थायी सतर्कताकी आशा रखता है। यद्यपि ऐसे जनवादको सदा ही खतरा रहता था। उसका आदर्श वाक्य था ‘मैं खतरनाक स्वतन्त्रताको शान्तिपूर्ण दासत्वसे अच्छी समझता हूँ।’ ऐसे नागरिक ही इस व्यवस्थाको स्थायी बना सकते हैं।’ रूसोका यह ऐतिहासिक वाक्य है कि ‘जनवाणी ही देववाणी है।’ उसने सामान्य इच्छाको निरपेक्ष, अदेय, अविभाज्य, स्थायी एवं सत्य माना है। उसने हॉब्सकी ‘निरपेक्षता’ और लॉककी ‘जनस्वीकृति’ का मिश्रण किया है। उसने हॉब्सकी निरपेक्षताको जनवादी रूप और लॉककी जनस्वीकृतिको सक्रिय रूप दिया। रूसोकी पुस्तकोंसे क्रान्तिकी ज्वाला धधक उठी, परंतु वह स्वयं क्रान्तिकारी नहीं था। उसने १७५२ के अपने एक भाषणमें कहा कि ‘क्रान्तिको उतना ही भयानक मानना चाहिये, जितना कि उन बुराइयोंको—जिन्हें क्रान्ति दूर करना चाहती है। उसने जेनेवाके नागरिकोंको लिखा था कि ‘आप स्वतन्त्रता अवश्य प्राप्त कीजिये; परंतु मानव-हत्याके विरुद्ध दासताको पसन्द कीजिये।’ नियम बनानेका कार्य किसी राष्ट्रके सम्पूर्ण नागरिकोंद्वारा हो सकना सम्भव नहीं होता। जनताद्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियोंद्वारा ही वह सम्भव होता है। अत: प्रतिनिधिसभाका विरोध भी रूसोका अयौक्तिक है। ‘सभ्य समाजने व्यक्तिको दु:खी, अनैतिक, व्यभिचारी बनाया’ यह भी रूसोकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। विशिष्ट विचारशील लोग ही मार्गदर्शक हो सकते हैं।’
राब्सपीयरने रूसोको ‘राज्यक्रान्तिका देवता’ घोषित किया था। रूसो व्यक्तिवादका समर्थन करते हुए पूर्ण अराजकतावादी स्वतन्त्रताका समर्थक बन जाता है और सभ्य समाजका कट्टर विरोधी प्रतीत होता है। वह स्वतन्त्रता, नैतिकता एवं समाजका विरोध मानता था। इसी आधारपर फ्रांसीसियोंने तत्कालीन समाजका विरोध किया, व्यक्तिगत सुरक्षाके लिये संघर्ष किया और क्रान्तिके पश्चात् ‘राष्ट्रिय सभा’ की घोषणा हुई। यह विचारधारा भविष्यके व्यक्तिवादियोंकी पृष्ठभूमि बनी; क्योंकि व्यक्तिवादी भी स्वतन्त्रता तथा समाजका परस्पर विरोध मानते थे। वार्करने रूसोके लेखको ‘व्यक्तिवादका प्राण’ कहा था, परंतु अन्यत्र रूसो अधिनायकवादका भी समर्थक प्रतीत होता है, जैसा पहले दिखाया जा चुका है कि ‘राज्य बिना व्यक्ति मक्खी-तुल्य है।’ राज्यद्वारा व्यक्तिको स्वतन्त्र होनेके लिये बाध्य किया जाना वह ठीक मानता था। राज्यद्वारा निर्मित नागरिक धर्मका उल्लंघन करनेवाले नागरिकको फाँसीका दण्ड देना उचित समझता था। इसीलिये व्हानने रूसोको ‘व्यक्तित्वका शत्रु’ भी कहा है। हाँ, वह यह अवश्य कहता है कि ‘सामान्य इच्छाका स्रोत जनमत है।’ एक तरफ वह कहता है—‘मनुष्य जन्मा स्वतन्त्र परंतु सभी ओर जंजीरोंसे जकड़ा हुआ’ और उसी पुस्तकमें राज्यकी निरपेक्षताका भी वर्णन करता है। उसका यह भी कहना है कि ‘पूर्ण स्वतन्त्रता किसी देशमें ही सम्भव है, सब जगह नहीं।’ वह स्वतन्त्रताका जलवायुसे भी घनिष्ठ सम्बन्ध मानता है। व्यक्तिगत सम्पत्तिको उसने समाज और राज्यकी धात्री बताया और उसे ही दरिद्रता और दासताकी जननी भी। किंतु वही अन्यत्र सम्पत्तिको भली वस्तु भी बताता है। ‘येमिल’ में भी उसने व्यक्तिगत सम्पत्तिके आधारको न्याययुक्त माना है। उसकी रक्षा राज्यका कर्तव्य बताया है और ‘कार्सिका’ पुस्तकमें कहा है कि ‘व्यक्तिगत सम्पत्तिका अन्त नहीं किया जा सकता है। इस तरह कहीं वह इस ‘सम्पत्तिका शत्रु’ प्रतीत होता है और कहीं उसका ‘पुजारी’। इसी तरह कही ‘स्वतन्त्रताका अग्रदूत’ तो कहीं ‘दासताका अग्रदूत’। जनवादके विपरीत वह सीमित राजतन्त्रका भी समर्थक बना। कहीं शिक्षाकी स्वतन्त्रताको ठीक कहा तो कहीं उसका राजतन्त्र होना ठीक कहा। कहीं कलाकी निन्दा की तो कहीं प्रशंसा। कहा जाता है कि ‘रूसोका जीवन जैसे अव्यवस्थित था, वैसा ही उसका दर्शन भी।’
रामराज्यकी दृष्टिमें खल प्राणीकी सम्पत्ति अवश्य शोषणका कारण होती है; परंतु शिष्ट, सभ्य, पुरुषकी सम्पत्ति सदा ही परोपकारके काममें आती है। व्यक्तिद्वारा समाज बनता है और समाजसे व्यक्तिको उन्नत होनेमें सुविधा प्राप्त होती है। अत: व्यक्ति और समाजका विरोध नहीं; किंतु समन्वय ही उचित है। इसी तरह सभी लोग सब विषयके ज्ञाता नहीं हो सकते। सब विषयमें सबकी सम्मति लेनेकी अपेक्षा जिस विषयका जो जानकार हो, उस विषयमें ही उनकी सम्मति लाभदायक होती है। अत: व्यक्ति और समाजका विरोध नहीं; किंतु समन्वय ही उचित है। इसी तरह सभी लोग सब विषयके ज्ञाता नहीं हो सकते। सब विषयमें सबकी सम्मति लेनेकी अपेक्षा जिस विषयका जो जानकार हो उस विषयमें ही उसकी सम्मति लाभदायक होती है। अत: सम्पूर्ण नागरिक संघको नियमनिर्माणमें लगना व्यर्थ ही है। स्पष्ट ही है कि एक शिशु-चिकित्सामें एडवोकेट या इंजीनियरकी सम्मति लेना व्यर्थ है। कुछ लोग इन सब बातोंको इसीलिये महत्त्व देते हैं कि इनके द्वारा राज्यको ईश्वरीय संस्था माननेका अन्धविश्वास दूर हुआ। वे लोग इस मान्यताको अवैज्ञानिक कहनेका भी साहस करते हैं, परंतु यदि विज्ञानका अर्थ सत्यज्ञान ही है, तब तो युक्ति, तर्क और अपौरुषेय वेदादि शास्त्र-सिद्ध ईश्वर एवं ईश्वरीय व्यवस्थाओंको अवैज्ञानिक कहना केवल साहसमात्र है। राजनीतिशास्त्रोंके द्वारा वस्तुत: शाश्वत सत्य सिद्धान्तकी अभिव्यक्तिमात्र होती है। मानवीय संस्थाकी अपेक्षा दैवी संस्थामें कहीं अधिक जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होता है। मध्यकालीन योरोपीय लोगोंका यह विश्वास कि ‘ईश्वरका प्रतिनिधित्व करनेवाला अत्याचारी शासक भी मान्य होना चाहिये; क्योंकि पापी नागरिकोंको दण्ड देनेके लिये ईश्वरने दुष्ट शासनकी नियुक्ति की है’ अप्रामाणिक है। शास्त्रोंका स्पष्ट मत है कि मात्स्यन्यायसे पीड़ित जनताकी माँगपर ही विशिष्ट शक्ति एवं गुणसम्पन्न शासक ईश्वरद्वारा नियुक्त हुआ था। जनरंजन करना उसका परम कर्तव्य है। अत: जनवादका धर्म-नियन्त्रित रामराज्य-जैसे शासनमें पूर्ण उपयोग है। केवल व्यक्तियोंद्वारा जन्म होनेमात्रसे राज्य अच्छा नहीं हो सकता। हॉब्सका दीर्घकाय राज्य व्यक्तियोंद्वारा होनेपर भी निरपेक्ष होनेसे लॉक एवं रूसोने उसे हानिकारक बताया है। आधुनिक आलोचक ही ‘सोशल कंट्राक्ट’ सामाजिक समझौता या इकरारनामाको अप्रामाणिक मानते हैं।
बेन्थम आदिकोंका कहना है कि ‘व्यक्तिको संघोंमें रहना हितकर प्रतीत होता है, इसीलिये फिर संघ उपयोगिताकी दृष्टिसे राज्य बनाता है। कहा जाता है कि राज्यको ‘कृत्रिम संस्था माननेसे मनुष्य उसमें रद्दोबदल करना सम्भव समझता है।’ परंतु ‘राज्य ईश्वरीय संस्था है’—इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं कि उसमें गड़बड़ी नहीं हो सकती और उसमें सुधार नहीं हो सकता। मनुष्यका शरीर ही ईश्वरीय है। हीगेलके अनुयायी मार्क्सने उसके द्वन्द्ववादको ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ का रूप दिया। हीगेल जैसे निरपेक्ष आदर्श राजतन्त्रका समर्थक था, वैसे ही मार्क्सने भी सर्वहाराकी अधिनायकताका समर्थन किया। रूसमें वही निरपेक्षता स्थिर हुई। कहा जाता है कि हीगेलवादी या मार्क्सवादी अधिनायकवादका रूसमें बोलबाला है। इससे जनतन्त्रवादका कोई मेल नहीं हो सकता है। सोवियत रूसकी उन्नति अवश्य हुई है, परंतु व्यक्तिगत स्वतन्त्रता-जैसी बहुमूल्य वस्तु वहाँ समाप्त हो गयी। जब एक पक्षी भी सोनेके पिंजड़ेमें मीठे फल खाकर और ठण्डा पानी पीकर बन्द रहना पसन्द नहीं करता, बल्कि आजादीसे खट्टे फल खाकर और खारा पानी पीकर भी स्वतन्त्र रहना ही पसन्द करता है, तब क्या मनुष्य उस पक्षीसे भी गया बीता है, जो ऐसी स्वतन्त्रता पसंद करेगा?’
मार्क्सवादियोंके अनुसार राज्य दो ही प्रकारका होता है—एक सर्वहाराका अधिनायकत्व और दूसरा पूँजीपतियोंका अधिनायकत्व। रूसी राज्य राजनीति-शास्त्रकी परम्पराके विपरीत भी है। प्रजातन्त्रके अंग—भाषण, कार्य, संगठन आदिकी स्वतन्त्रताका वहाँ कोई मूल्य नहीं है। सोवियत व्यवस्थाके विरुद्ध वहाँ कोई मत व्यक्त नहीं कर सकता और न कोई संगठन ही हो सकता है। फिर भी मार्क्सवादी रूसी राज्यको पूर्ण जनतन्त्रवादी कहनेकी धृष्टता करते हैं। जॉन लॉककी जन-स्वीकृतिका भी रूसमें कोई महत्त्व नहीं है। एकदलीय व्यवस्था ही वहाँ सब कुछ है।
स्टालिनके मतानुसार पूँजीवादी देशोंमें भिन्न-भिन्न वर्गोंके वर्गीय अर्थैक्यका प्रतिनिधित्व राजनीतिक दलोंद्वारा होता है अर्थात् एक राजनीतिक दल एक वर्गके या कुछ वर्गोंके अर्थैक्यका प्रतिनिधित्व करता है। सोवियत रूसमें वर्गोंका अन्त हो गया है, अत: वहाँ राजनीतिक दलोंकी आवश्यकता ही नहीं है; परंतु राज्य-शास्त्रमें राजनीतिक दल जनतन्त्रके प्राणतुल्य माने जाते हैं। उन्हें वर्गीय संस्था कहकर अनावश्यक बतला देना जनतन्त्रीय विचारके विपरीत है। विरोधी दलकी अनुपस्थितिमें वास्तविक जनवाद असम्भव ही है। फिर ‘वर्गका अन्त हो गया’ यह तो तभी विदित हो सकता है, जब भाषण, प्रकाशन और संगठनकी स्वाधीनता हो। मार्क्सवादियोंके अनुसार ‘सर्वहाराका अधिनायकत्व संक्रमणकालकी ही वस्तु है। अन्तमें उत्पादन, वृद्धि एवं सुव्यवस्थाके द्वारा राज्यका अत्यन्त लोप होकर वर्गविहीन, राज्यविहीन समाजकी स्थापना होगी।’ परंतु स्टालिनने बतलाया है कि ‘सोवियत राज्य पूँजीवादी राज्योंसे घिरा हुआ है। शायद एंजिल्सको, जिसने राज्यलोपकी बात कही, अन्ताराष्ट्रिय परिस्थितिका अनुमान नहीं था।’ मार्क्सवादी ऐतिहासिक मास्कोके मुकदमोंको सोवियतविरोधी षडॺन्त्रोंका प्रतीक बतलाकर कहते हैं कि ‘सोवियत राज्यको शस्त्रास्त्र-सम्पन्न गुप्तचर पुलिस सेनासे पूर्ण दृढ़ बनाना ही आवश्यक है।’ अत: राज्यलोपकी कल्पना मनोराज्यमात्र रह गयी।
चाणक्यने ठीक ही कहा है कि शक्ति-मदसे बड़ा कोई मद नहीं है। ‘प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं’ यह तुलसीदासजीकी उक्ति भी सभी व्यवस्थाओंपर लागू होती है। धर्मनियन्त्रित रामराज्य-प्रणाली ही ऐसी व्यवस्था है, जिसमें राज्यमदका संचार नहीं हो पाता। राज्यमदका पानकर वे ही मत्त होते हैं, जिन्होंने साधु-सभाका सेवन नहीं किया—
जो अचवँत नृप मातहिं तेई।
नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥
भरत-जैसे साधु पुरुषोंको तो विधि-हरि-हर-पद पानेपर भी मद नहीं हो सकता है। क्या कभी नगण्य तक्र-बिन्दुसे क्षीर-समुद्र फट सकता है—
भरतहि होइ न राजमदु
बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि
छीरसिंधु बिनसाइ॥
अस्तु! धर्महीन सोवियत-शासन शक्तिमदका अपवाद नहीं कहा जा सकता। समाजवादी ढाँचेमें आर्थिक सत्ताका तो अन्त हो गया, परंतु सर्वहारा-दलके अधिनायकत्वमें राजनीतिक तथा सामाजिक सत्ताका अन्त नहीं होता। नये सत्ताधारी शक्तिमदके अपवाद नहीं होते। क्रान्तिके उपरान्त ये शक्तिशाली व्यक्ति अपने स्थानोंसे अलग नहीं होना चाहते। फलत: न जनतन्त्र ही सम्भव होता है और न राज्यका लोप ही। मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘राष्ट्रियता भी पूँजीवादका ही परिणाम है। सर्वहाराकी क्रान्तिमें सभी प्रकारके शोषणोंका अन्त होता है, फिर राष्ट्रिय शोषण भी नहीं रहेगा।’ परंतु क्या सोवियत रूसमें सभी शोषणोंका अन्त हो गया? क्या अब वहाँ राष्ट्रियता समाजवादी ढाँचेमें नहीं पनप रही है? मार्क्सवादके अनुसार विश्वक्रान्तिके अन्तमें भी राज्य तो आवश्यक होंगे ही। फिर इन राज्योंका परस्पर सम्बन्ध क्या होगा? यदि मध्यकालीन पोप या सम्राट्के तुल्य एक ही अधिनायक या शासक संचालक होगा, तब तो उसकी अपेक्षा एक धर्मनियन्त्रित राम-जैसा सार्वभौम राजा या राज्योंके धर्मनियन्त्रित प्रतिनिधियोंकी सभाद्वारा संचालन हो तो भी क्या हानि है?
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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