3.5 महाभारतमें सामाजिक अनुबन्ध ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.5 महाभारतमें सामाजिक अनुबन्ध

महाभारत शान्तिपर्वमें शरशय्यास्थ भीष्मजीने अन्य धर्मोंके साथ राजधर्मका भी उपदेश किया है। उसमें उन्होंने अराजकताको बड़ा पाप बताया है और कहा है कि ‘राज्यस्थापनाके लिये उद्यत बलवान‍्के सामने सबको ही झुक जाना चाहिये। अराजक राज्यको दस्यु नष्ट कर देते हैं—‘अनिन्द्रमबलं राज्यं दस्यवोऽभिभवन्त्युत।’ अराजक राज्य निर्वीर्य होकर नष्ट हो जाते हैं। अराजकतासे अधिक कोई पाप नहीं।’
अराजकाणि राष्ट्राणि हतवीर्याणि वा पुन:॥
न हि पापात् परतरमस्ति किञ्चिदराजकात्॥
(शां० प० ६७।६-७)
कुछ लोग भीष्मद्वारा वर्णित मात्स्यन्यायकी हॉब्सकी प्राकृतिक स्थितिसे तुलना करते हैं। कहा जाता है कि जिस युगमें मनुष्य प्राकृतिक जीवन व्यतीत करता था, वह ‘स्टेट ऑफ नेचर’ (प्राकृतिक दशा) है। जिसमें प्राकृतिक युगके बन्धनसे मुक्त होकर सामाजिक जीवनमें प्रवेश करता है, उसे ‘स्टेट ऑफ सोसाइटी’ कहते हैं और जिसमें राज्य निर्माण करके राजनीतिमें प्रवेश करता है, वह है ‘स्टेट ऑफ पोलिटिकल सोसाइटी।’ जैसे जलमें प्रबल मत्स्य निर्बल मत्स्योंका भक्षण कर लेता है, वैसे ही प्रबल मनुष्य दूसरे निर्बल मनुष्योंके वित्त, कलत्र आदि सब कुछ छीन लेते हैं, एक-दूसरेकी हत्या कर देते हैं—
अराजका: प्रजा: पूर्वं विनेशुरिति न: श्रुतम्।
परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशान्॥
(शां० प० ६७।१७)
इसे ही ‘लॉजिक ऑफ फिश’ (मात्स्यन्याय) कहते हैं। इसी मात्स्यन्यायसे पीड़ित होकर मनुष्योंने एकत्र होकर सदाचारसम्बन्धी कुछ नियम बनाये। जैसे कठोर वाणी, पर-स्त्री, पर-धन-हरण आदिके त्यागका नियम बनाया गया। इससे काम, क्रोध, लोभ, मोहादिसे छुटकारा मिलता है और मनुष्य घृणित नारकीय यातनामय, भयभीत एवं सशंक क्षणिक जीवनसे हटकर सभ्य जीवनमें प्रवेश करता है।
वाक्शूरो दण्डपरुषो यश्च स्यात् पारजायिक:॥
य: परस्वमथादद्यात् त्याज्या नस्तादृशा इति।
समेत्य तास्ततश्चक्रु: समयानिति न: श्रुतम्।
(शां० प० अ० ६७)
हॉब्सने भी ‘स्टेट ऑफ नेचर’ (प्राकृतिक राज्य)-का इसी प्रकार वर्णन किया है, परंतु हॉब्सके अनुसार मनुष्यमें केवल भय-वृत्ति थी। इसी भयसे बचनेके लिये स्वार्थमयी वृत्तिसे राज्यका विकास हुआ। परंतु भीष्मके अनुसार लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद, मत्सर—ये छ: प्रधान आसुरी वृत्तियाँ मात्स्यन्यायके कारण हैं। अत: इन सबसे छुटकारा पाना सामाजिक जीवन-निर्माणका उद्देश्य है। इन वृत्तियोंपर विजय प्राप्त करना ही सभ्यता है।
पर ये सामाजिक नियम (मॉरल लॉज) ही बने रहे, वास्तविक नियम (पाजिटिव लॉ) न बन सके; क्योंकि उन नियमोंका पालन करनेके लिये विवश करनेवाली कोई सत्ता न थी। जनताकी स्वीकृतिमात्र ही उसका आधार था। भीष्मका यह समाज-निर्माण सामाजिक अनुबन्ध या पारस्परिक समझौता था; किंतु नियम-निर्माणके बाद उन नियमोंका कोई नियामक न होनेसे पालन न हो सका। लोग मनमानी उन नियमोंका उल्लंघन करने लगे, तब उन्हें एक शासककी आवश्यकता हुई। जिसके नियन्त्रण या दण्ड-भयसे प्रजाको नियम-पालनके लिये विवश होना पड़े। एतदर्थ प्रजाने ब्रह्माजीके पास जाकर विनय की कि एक राजा या शासकके बिना हमलोग नष्ट हो जायँगे, अत: हमलोगोंके लिये कोई समर्थ योग्य शासक दीजिये, जिसका कि हमलोग सम्मान करें और वह हमलोगोंका रक्षण करे।
सहितास्तास्तदा जग्मुरसुखार्ता: पितामहम्।
अनीश्वरा विनश्यामो भगवन्नीश्वरं दिश॥
यं पूजयेम सम्भूय यश्च न: प्रतिपालयेत्।
(शां० प० ६७।२०-२१)
तब ब्रह्माजीने प्रजाके सामने अष्टलोकपालोंके दिव्य प्रताप, तेज आदिसे युक्त मनुको प्रस्तुत किया, परंतु मनुने शासक बनना अस्वीकार कर दिया और कहा कि राज्य चलानेमें पापका डर रहता है, राज्य चलाना बहुत कठिन काम है। राजाको दण्ड देना पड़ता है। विशेषत: मिथ्याचारमें संलग्न प्रजाका पालन तो बहुत ही कठिन है। इसपर प्रजाने कहा कि ‘तुम डरो मत; दण्ड देना पाप नहीं; वह तो पाप करनेवालोंके पापोंका ही फल है और हमलोग पशु तथा सुवर्णके लाभका पचासवाँ भाग तथा धनका दसवाँ भाग राजकोष-वृद्धिके लिये तुम्हें देते रहेंगे। उत्तम वस्तु तुम्हें भेंट की जायगी। शस्त्रोंसे सुसज्जित शूर तुम्हारा अनुसरण करेंगे। इस तरह तुम दुष्प्रधर्ष और प्रतापयुक्त होकर विजयी होओगे। राजासे सुरक्षित होकर प्रजा जो पुण्यकर्म करेगी, उस धर्मका चतुर्थांश भी तुम्हें मिलता रहेगा। इस तरह सुखसे प्राप्त धन, धर्म एवं बलसे उपबृंहित होकर तुम हमलोगोंका उसी तरहसे पालन करोगे, जैसे इन्द्र देवताओंका। तुम सूर्यकी भाँति चमकते हुए विजयके लिये प्रस्थान करो। शत्रुओंका मान-मर्दन करो, तुम्हारी सदा जय होगी।’
तमब्रुवन् प्रजा मा भै: कर्तॄनेनो गमिष्यति।
पशूनामधिपञ्चाशद्धिरण्यस्य तथैव च॥
धान्यस्य दशमं भागं दास्याम: कोशवर्धनम्।
मुखेन शस्त्रपत्रेण ये मनुष्या: प्रधानत:।
भवन्तं तेऽनुयास्यन्ति महेन्द्रमिव देवता:॥
विजयाय हि निर्याहि प्रतपन् रश्मिवानिव॥
मानं विधम शत्रूणां जयोऽस्तु तव सर्वदा।
(शां० प० रा० ६७।२३—२५,२९)
इस तरह राजाका वरण करके प्रजाने राज्यका निर्माण किया। यहाँ सामाजिक संघटन तथा सामाजिक नियमोंको स्थायी एवं अक्षुण्ण रखनेके लिये ही राज्यका निर्माण हुआ है। अत: राजाको उतने ही अधिकार दिये गये हैं, जितने कि उक्त कार्यके लिये आवश्यक थे।
हॉब्सके कल्पनानुसार ‘राजाको प्रजाने अपने सभी अधिकार नहीं सौंपे। अतएव हॉब्सके ‘लेबियाथन’ (दीर्घकाय)-के तुल्य यह राजा निरंकुश नहीं था। उसके अधिकार सीमित थे। यदि वह अधिकारोंका दुरुपयोग करे तो जनताको उसे पदच्युत करनेका भी अधिकार था।’ हॉब्सके अनुसार ‘दीर्घकायका विरोध करना कथमपि न्यायसंगत नहीं है।’ परंतु भीष्मके अनुसार ऐसा नहीं। यहाँ उद्धत वेन-जैसे राजाको प्रजाप्रतिनिधि ऋषियोंने पदच्युत ही नहीं; उसे नष्ट भी कर दिया था। यही भीष्म-सम्मत सामाजिक समझौताका सिद्धान्त या सोशल कंट्राक्टकी थ्योरी है।
कुछ लोग भीष्मद्वारा वर्णित मात्स्यन्यायके युगको हॉब्सका प्राकृतिक युग ही मानते हैं, परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है; क्योंकि भारतके अनुसार वस्तुत: कृतयुगमें सभी प्रजा धर्मनिष्ठ तथा परम विवेक, विज्ञान, संयम-सम्पन्न थी। कालक्रमसे सत्त्वगुणके ह्रास होनेपर धर्म-ह्रास होनेसे रज, तम एवं तदुद‍्भूत अधर्म बढ़नेपर ही मात्स्यन्यायका आविर्भाव हुआ। मात्स्यन्यायकी स्थिति प्राकृतिक अवस्था नहीं है। वह विकृतिभूत अवस्था है। शास्त्रीय सिद्धान्तानुसार विकासकी अपेक्षा ह्रासका ही पक्ष तथ्य है। इसीलिये विष्णुके पुत्र ब्रह्मा सर्वज्ञ हुए। ब्रह्माके पुत्र वसिष्ठ आदि भी सर्वज्ञकल्प हुए। जिनकी सृष्टि जितनी कारणके समीप थी, उनमें उतनी ही स्वच्छता थी। फिर जितनी-जितनी कारणसे दूर होती गयी, उतनी ही स्वच्छता कम होती गयी। अत: कारणके अव्यवहित समीपस्थ प्रजा (प्राणी) सात्त्विक, धर्मात्मा, विचारशील तथा नियन्त्रित थी। वैसे भी हर एक कृतयुगमें सत्त्वका विकास अधिक ही होता है। जैसे प्रत्येक ग्रीष्म, हिम आदि ऋतुमें गर्मी, जाड़ा आदिका प्रादुर्भाव होता है। उसी तरह कृतयुगमें सत्त्वका विशेषरूपसे विकास होता है। इस तरह मात्स्यन्यायकी अवस्था विकार ही है, स्वाभाविक नहीं। इसीलिये दूसरे प्रसंगमें उसी राजधर्ममें भीष्मने बतलाया है—
नियतस्त्वं नरव्याघ्र शृणु सर्वमशेषत:।
यथा राज्यं समुत्पन्नमादौ कृतयुगेऽभवत्॥
न वै राज्यं न राजासीन्न च दण्डो न दाण्डिक:।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥
पाल्यमानास्तथान्योन्यं नरा धर्मेण भारत।
खेदं परमुपाजग्मुस्ततस्तान् मोह आविशत्॥
ते मोहवशमापन्ना मनुजा मनुजर्षभ।
प्रतिपत्तिविमोहाच्च धर्मस्तेषामनीनशत्॥
नष्टायां प्रतिपत्तौ च मोहवश्या नरास्तदा।
लोभस्य वशमापन्ना: सर्वे भरतसत्तम॥
अप्राप्तस्याभिमर्शं तु कुर्वन्तो मनुजास्तत:।
कामो नामापरस्तत्र प्रत्यपद्यत वै प्रभो॥
तांस्तु कामवशं प्राप्तान् रागो नामसमस्पृशत्।
रक्ताश्च नाभ्यजानन्त कार्याकार्ये युधिष्ठिर॥
अगम्यागमनं चैव वाच्यावाच्यं तथैव च।
भक्ष्याभक्ष्यं च राजेन्द्र दोषादोषं च नात्यजन्॥
विप्लुते नरलोके वै ब्रह्म चैव ननाश ह।
नाशाच्च ब्रह्मणो राजन् धर्मो नाशमथागमत्॥
नष्टे ब्रह्मणि धर्मे च देवांस्त्रास: समाविशत्।
ते त्रस्ता नरशार्दूल ब्रह्माणं शरणं ययु:॥
(महा० शां० प० राजधर्म० ५९।१३—२२)
‘आदि कृतयुगमें जिस तरह राज्य उत्पन्न हुआ वह सुनो, उस समय राज्य, राजा, दण्ड देनेवाला कुछ भी नहीं था। समस्त प्रजा धर्मके अनुसार चलती थी और उसी धर्मसे परस्पर रक्षा कर लेती थी। (उस समय अनन्त विद्याओंका उद‍्गमस्थान वेद तथा तदनुसारी अर्थशास्त्र सबको अभ्यस्त थे। अत: धर्म, अर्थ, काम, मोक्षकी उचित विवेकपूर्वक सभी व्यवस्थाएँ चल रही थीं। सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञानकी उन्नति पराकाष्ठापर पहुँची थी। रूसो तथा मार्क्स आदिद्वारा कल्पित भविष्यके स्वर्णयुग उसके सामने नगण्य थे।) धर्मनीतिसे अन्योन्य-पालन-संलग्न प्रजा कालक्रमसे खेद या थकावटको प्राप्त हो गयी, फिर उसमें मोहका प्रवेश हुआ। मोहके कारण स्मृतिभ्रंश हुआ और फिर धर्मका लोप होने लगा। स्मृतिभ्रंश होनेसे लोग लोभके वश होकर विचारहीन हो गये और फिर रागकी प्रवृत्ति हुई और फिर कामका प्रादुर्भाव हुआ। उससे कार्याकार्यका ज्ञान भी न रहा, फिर तो अगम्यागमन, भक्ष्याभक्ष्य, वाच्यावाच्य, दोषादोषका विचार नष्ट हो गया। ऐसी दशामें वेद जो कण्ठस्थ हो गये थे, विस्मृत हो गये। वेदके विस्मरणसे वेदोक्त धर्मकर्मका भी लोप हो जाना स्वाभाविक था। (इससे स्पष्ट है कि पहले वेदादि शास्त्रों एवं तदुक्त धर्म-कर्म, विवेक-विज्ञानोंका पूर्णरूपसे प्रकाश था।) इस स्थितिको देखकर देवतालोग त्रस्त होकर ब्रह्माकी शरण गये और उस भयको दूर करनेका उपाय पूछा।’ ब्रह्माजीने सोच-विचारकर सबके कल्याणार्थ धर्म, अर्थ, कामका बोधक तथा प्रापक एक लाख अध्यायोंका दण्डनीति-शास्त्र बनाकर देवताओंको दिया। उसे सर्वप्रथम शंकरजीने ग्रहण किया। उनसे बृहस्पति, शुक्र, इन्द्रादिने ग्रहण किया और उसका संक्षेप भी किया—
ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थ: कामश्चैवाभिवर्णित:॥
उपकाराय लोकस्य त्रिवर्गस्थापनाय च।
नवनीतं सरस्वत्या बुद्धिरेषा प्रभाविता॥
(शां० प० ५९।२९, ७६)
यद्यपि यह शास्त्र भी वेदाभ्यासजन्य संस्कृत ब्रह्मबुद्धिसे प्रादुर्भूत होनेके कारण वेदमूलक ही था, फिर भी उस परिस्थितिके लोगोंमें विशेषरूपसे प्रभावशाली हुआ। प्रभुसम्मत वेदवाक्योंकी अपेक्षा सुहृद्-सम्मत वाक्योंके रूपमें व्यक्त होकर यह अधिक उपकारी सिद्ध हुआ। फिर भी इसे पूर्णरूपसे कार्यान्वित करनेके लिये दण्डकी अपेक्षा थी। दण्डसे युक्त होकर निग्रहानुग्रहद्वारा लोकरक्षणका हेतु बनकर ही यह दण्डनीति प्रचलित हो सकती थी। अत: योग्य समर्थ दण्डप्रणेता प्राप्त करनेके लिये देवता विष्णुके पास गये और उनसे श्रेष्ठ शासक माँगा। भगवान् नारायणने उन्हें श्रेष्ठ लोकपालोंके दिव्य सद‍्गुणोंसे सम्पन्न एक निर्दोष विरजा (रजोगुणसे रहित) राजा निर्माण करके दिया।
तत: सञ्चिन्त्य भगवान् देवो नारायण: प्रभु:।
तैजसं वै विरजसं सोऽसृजन्मानसं सुतम्॥
(८८)
वह राजा प्रभुत्व-निरपेक्ष होकर त्याग-वैराग्यकी ही ओर रुचि रखता था। उसका पुत्र कीर्तिमान् और पौत्र कर्दम हुआ। क्रमेण अंग, फिर वेन राजा हुआ। वह उत्पथगामी था। इसीलिये ऋषियोंने उसे पदच्युत कर दिया और अभिमन्त्रित कुशोंसे मार डाला। उसका पुत्र पृथु हुआ। वह बहुत ही योग्य एवं धर्मात्मा हुआ। उसने ऋषियोंसे प्रार्थना की कि मुझे आपलोग आज्ञा दें, क्या करूँ? ऋषियोंने उससे प्रतिज्ञा करायी ‘तुम नियत होकर, नि:शंक होकर धर्मका आचरण करो। स्वयं प्रिय, अप्रिय छोड़कर सब काम-क्रोध, लोभ एवं मानको दूरसे ही त्यागकर सब प्राणियोंका समानरूपसे हिताचरण करो। जो भी धर्मसे विचलित हो शास्त्रधर्मके अनुसार उसका निग्रह करो और यह भी प्रतिज्ञा करो कि मन, वचन, कर्मसे तुम भौम ब्रह्म (पृथ्वीके ब्राह्मणों)-की रक्षा करोगे। जो भी धर्मनीतियुक्त होगा, नि:शङ्क होकर उसका पालन करोगे और मनमानी कुछ न करोगे। यह भी प्रतिज्ञा करो कि ब्राह्मणोंको प्राणदण्ड नहीं दोगे और सभी लोकोंको सांकर्यसे बचाओगे।’
पृथुने वैसी ही प्रतिज्ञा की और कहा कि ‘ब्राह्मण सदा ही हमारे नमस्य होंगे।’ इस तरह परस्पर वचनबद्ध होकर राज्य व्यवस्थित किया गया। इसे ही ‘सोशल कन्ट्राक्ट्स’ कहा जा सकता है। शुक्राचार्य पृथुके पुरोहित हुए। बालखिल्य ऋषिगण मन्त्री हुए। देवताओं तथा इन्द्रके साथ विष्णुने पृथुका अभिषेक किया। पृथुने प्रजाका रंजन किया और इसलिये वे राजा कहे गये—
तमूचुस्तत्र देवास्ते ते चैव परमर्षय:।
नियतो यत्र धर्मो वै तमशङ्क: समाचर॥
प्रियाप्रिये परित्यज्य सम: सर्वेषु जन्तुषु।
कामं क्रोधं च लोभं च मानं चोत्सृज्य दूरत:॥
यश्च धर्मात् प्रविचलेल्लोके कश्चन मानव:।
निग्राह्यस्ते स्वबाहुभ्यां शश्वद् धर्ममवेक्षता॥
प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा।
पृथुरुवाच—
पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत्॥
यश्चात्र धर्मो नित्योक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रय:।
तमशङ्क: करिष्यामि स्ववशो न कदाचन॥
अदण्डॺा मे द्विजाश्चेति प्रतिजानीहि हे विभो।
लोकं च सङ्करात् कृत्स्नं त्रातास्मीति परन्तप॥
ब्राह्मणा मे महाभागा नमस्या: पुरुषर्षभा:॥
पुरोधाश्चाभवत् तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधि:॥
स विष्णुना च देवेन शक्रेण विबुधै: सह॥
ऋषिभिश्च प्रजापालैर्ब्राह्मणैश्चाभिषेचित:।
रञ्जिताश्च प्रजा: सर्वास्तेन राजेति शब्द्यते॥
(महा० शां० प० ५९।१०३—११०, ११६-११७, १२५)
कुछ लोग सत्ययुगके धर्मराजको लॉक या रूसोके प्राकृतिक युगसे तुलना करते हैं और कहते हैं कि ‘उस समय राज्यकी परिपाटीका ज्ञान लोगोंको नहीं था। उस समयके मनुष्य राजनीतिक जीवनसे अनभिज्ञ थे।’ परंतु यह सर्वथा असंगत है। वस्तुत: भीष्मद्वारा वर्णित कृतयुगके राज्य-विहीन प्रजाका वर्णन अविवेक एवं अज्ञानमूलक न होकर धर्मज्ञानोत्कर्षमूलक था। रूसो एवं मार्क्स जिस स्वर्णयुगको उन्नतिकी पराकाष्ठा मानते हैं, उनसे भी उत्कृष्ट कोटिकी यह भीष्मोक्त स्थिति है। वह धर्मराज्य सर्वज्ञता, ब्रह्मनिष्ठताकी आधारभित्तिपर स्थित था और राजदण्डादिसे मुक्त था; क्योंकि सभी विवेकी थे, वेद उन्हें कण्ठस्थ थे। उन्हें कोई वस्तु अविदित थी, यह नहीं कहा जा सकता।
शंका हो सकती है कि ‘जब वे इतने ज्ञानसम्पन्न थे, तब इतने भीषण अनाचारी होकर मात्स्यन्यायके शिकार कैसे हो गये?’ इस बातका समाधान लॉक एवं रूसोके मतसे भले न हो सके, किंतु धर्मवादी भीष्मके मतानुसार जीव अनादि होता है। उसके कर्मोंकी परम्परा भी अनादि है। उन्हीं कर्मोंके अनुसार सत्त्व, रज, तममें ह्रास-विकास होता रहता है। कालक्रमसे वैसे कर्मोंके उद‍्भूत होनेपर खेद, तम, मोह, प्रतिपत्ति, विनाश, राग, काम, धर्म-लोप आदिका विस्तार हुआ और प्राणी पतित हो गया। आज भी हम देखते हैं कि कोई अच्छा आदमी भी परिस्थितियों, घटनाओं और कर्मके वश होकर खराब हो जाता है और कभी खराब आदमी अच्छा हो जाता है। जैसे मार्क्सके स्वर्णयुगकी कल्पनामें ‘राजा—राज्यादि नहीं होते’ यह अज्ञतामूलक नहीं, किंतु विज्ञतामूलक है। उसी तरह भीष्मके कृतयुगका राज्यादिविहीन धर्मराज्य अज्ञतामूलक नहीं था, किंतु विज्ञतामूलक था। सुतरां लॉकके ‘सिविल गवर्नमेंट’ पुस्तकमें वर्णित ‘ओरिजिनल स्टेट ऑफ नेचर’ और भीष्मके धर्मराज्यमें पर्याप्त अन्तर है। हॉब्सके प्राकृतिक युगसे तो इसका महान् भेद है ही। हाँ, हॉब्सके प्राकृतिक युगका भीष्मके विकृत युगके मात्स्यन्यायसे कथंचित् मेल बैठता है।
रूसोके प्राकृत युगका मनुष्य भावुक था। विवेकहीन होनेके कारण उसे सुख-दु:ख नहीं होता था, परंतु भीष्मका आदिम पुरुष पूर्ण विवेकी तथा सुखी था। भारतीय शास्त्रोंमें कहा गया है कि दो ही ढंगके पुरुष सुखी रह सकते हैं—एक अत्यन्त विवेकहीन मूढ़, दूसरा परम विवेकी तत्त्ववेत्ता। दूसरे सभी लोग मध्यवर्ती दु:खी ही रहते हैं—
यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धे: परङ्गत:।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जन:॥
(श्रीमद्भा० ३। ७। १७)
रूसोका ‘प्राकृत पुरुष’ पहली कोटिका था, भीष्मका ‘कृतयुगी पुरुष’ दूसरी कोटिका। लॉक एवं रूसोका ‘प्राकृत स्वर्णयुगसे पतित समाजके पुरुष’ तथा हॉब्सका ‘प्राकृतिक पुरुष’ अपनी सुख-शान्तिके लिये आपसी विचारसे ही राज्य-निर्माण करते हैं, परंतु भीष्मके ‘धर्मराजसे पतित मनुष्य’ ब्रह्माकी शरण जाकर राजनीतिशास्त्र प्राप्त करते हैं और विष्णुसे योग्य शासक प्राप्त करते हैं। फिर उससे समझौता करते हैं कि वह कभी भी नीतिशास्त्रके नियमोंका उल्लंघन नहीं करेगा। रूसोद्वारा कथित राज्यकी आधारशिला लोगोंकी ‘सामान्येच्छा’ है, किंतु भीष्मके राज्यकी आधारशिला ब्रह्माद्वारा निर्मित ‘विधिशास्त्र।’ इस तरह भीष्मके राज्यका आधार पवित्र एवं श्रेष्ठतम विधि है।
भीष्मके दोनों ही वर्णनोंकी एकवाक्यता करके ही उनकी व्यवस्था समझी जा सकती है। दोनों वर्णनोंका दो अर्थ मानना सर्वथा असंगत है। दोनोंकी एकवाक्यतासे यही निष्कर्ष निकलता है कि प्रथम कृतयुगमें वेदादि शास्त्र तथा तदुक्त ज्ञान-विज्ञानसम्पन्न मनुष्य राजादिविहीन धर्मराज्यमें ही रहते थे। सब धर्म-नियन्त्रित वेदज्ञ तथा धर्म-ब्रह्मज्ञ थे। सब सुखी, शान्त, सन्तुष्ट एवं विविध वैभवोंसे पूर्ण थे। कालक्रमसे प्राक्तन कर्मानुसार आसुरी वृत्तियोंका जागरण हुआ। दैवी वृत्तियोंके अभिभव हो जानेसे उनका पतन हुआ और फिर उस अवस्थासे खिन्न होकर पुन: धर्मनियन्त्रित राज्यकी स्थापनाके लिये ब्रह्माकी रायसे राजनीति-शास्त्र ग्रहण किया। फिर उसे पूर्णरूपसे कार्यान्वित करनेके लिये विष्णुसे राज्य प्राप्त किया और उसको तथा अपनेको वचनबद्ध करके सीमित शर्तोंके साथ सामाजिक समझौता या सोशल-कंट्राक्ट-थ्योरीके अनुसार धर्म-नियन्त्रित राजाका राज्य स्थापित किया।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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