3.9 एकसत्तावाद
एकसत्तावाद भी एक राजनीतिक वाद है। इसके अनुसार एक प्रादेशिक राशिमें केवल एक ही सर्वोच्च सत्ताधारी व्यक्ति-विशेषोंका व्यक्तिसंघ होता है। सभी नागरिक एवं संस्थाएँ इस सत्ताधारी संस्थाके अधीन होती हैं। राज्यको राजसत्ताधारी संस्था माननेवाले दार्शनिक ‘अद्वैतवादी’ या ‘एकसत्तावादी’ कहलाते हैं। ‘राजसत्ता’ शब्द श्रेष्ठता अर्थमें प्रयुक्त होता है। तदनुसार श्रेष्ठता-राज्यकी विशेषता है, अन्य किन्हीं भी संस्थाओंका कोई भी स्वतन्त्र अस्तित्व मान्य नहीं होता। राज्यके पास ही पुलिस, जेल, न्यायालय होते हैं। आज्ञोल्लंघनका दण्ड राज्य देता है। इसकी सदस्यता भी सबके लिये अनिवार्य है। राज्य ही नियम-निर्मात्री संस्था होती है। वह राज्य-संस्था किसी नियम या परम्पराके अधीन नहीं होती। राजाज्ञापालन नागरिकोंके लिये अनिवार्य है। बहुलवादी दर्शन राज्यको राजसत्ताधारी तो मानता है, परंतु वह सत्ताको सप्रतिबन्ध मानता है। १६वीं शतीके एकसत्तावादने ही विवादास्पद राज्यसत्ताकी व्याख्या की है। गियर्क राजसत्ताको एक ‘जादूकी छड़ी’ मानता है। राज्यका सर्वश्रेष्ठ संचालक ही राजसत्ताका प्रतिरूप है। वह पूरे देशपर अपनी नीति और योजनाओंको लाद सकता है। सभी दल निर्वाचनमें नागरिकोंसे मत प्राप्त करके कर्णधार बनना चाहते हैं। तरह-तरहकी प्रतिज्ञा करते हैं। राज्य राजसत्ताधारी है। इसी आधारपर यह सब होता है। जो भी राज्याधिकारी होगा, वह राज्यसत्ताका उपयोग अपनी योजनाओंकी पूर्तिके लिये करता है, जैसे मदारी जादूके डंडेद्वारा पिटारीसे अनेक चीजें निकालता है। नागरिक जादूके डंडेके तुल्य ही कुछ समझ नहीं पाता और राजनीतिज्ञोंके जालमें फँस जाता है।
यूरोपभरमें १६वीं शतीसे पूर्व धार्मिक विषयोंमें पोपका तथा अन्य विषयोंमें रोमन सम्राट्का सर्वोच्च स्थान होता था। राष्ट्रीयताके आन्दोलनसे सामन्तवादका ह्रास हुआ, केन्द्रीय सरकार शक्तिशाली हुई और प्रत्येक राष्ट्रमें स्वतन्त्र सत्ताधारी सरकारों और नेताओं (राजाओं)-का जन्म हुआ। बोदाँके धर्मसुधार-आन्दोलनसे ईसाई-धर्ममें कई शाखाओं, उपशाखाओंका जन्म होनेसे पोपके एकाधिकारका अन्त हो गया। राजनीतिमें रोमन सम्राट्की भी सर्वोच्चताका अन्त हो गया। इस समय पुरानी परम्पराका अन्त होनेसे जनतामें कुछ अनिश्चितता एवं व्याकुलता उत्पन्न हो रही थी। उस समय बोदाँने राज्यकी आज्ञाका पालन करना नागरिकोंका परम कर्तव्य बतलाया; क्योंकि प्रादेशिक राशिमें राज्य ही एक राजसत्ताधारी है। राजसत्ता निरपेक्ष, अदेय, अविभाज्य, व्यापक एवं स्थायी है। जादूके डण्डेके तुल्य राज्यों एवं नरेशोंने इसका दुरुपयोग भी किया और अपनी निरपेक्षताको राज्यकी एक विशेषता बतलाया, फिर भी बोदाँका ‘राजसत्ताधारी राज्य’ नैसर्गिक नियमोंके परतन्त्र था, परंतु हॉब्सका ‘लेबियाथन’ (दीर्घकाय) तो सर्वथा निरपेक्ष था। वह सभी नियमोंको राजाकी तलवारसे ही सार्थक समझता था। लाकके प्रयत्नसे ब्रिटेनमें सीमित राजतन्त्र स्थापित हुआ। उसके मतानुसार नैसर्गिक नियम, सभ्य समाज और वैयक्तिक सम्पत्ति सर्वोपरि है। फिर भी व्यवहारमें राज्यसरकार ही सत्ताधारी अधिकारोंका प्रयोग करती है। यह विचारधारा हॉब्सके एकसत्तावादसे भिन्न थी। उसका प्रभाव फ्रांसके मांटेस्क्यूपर भी पड़ा। रूसो भी हॉब्सके एकसत्तावादका समर्थक था। उसके अनुसार भी राज्यकी राजसत्ता निरपेक्ष, अविभाज्य, व्यापक एवं स्थायी है। हॉब्सके अनुसार ‘राजसत्ता’ एक ‘लेबियाथन’ में निहित है और रूसोके अनुसार एक प्रत्यक्ष जनतन्त्रीय राज्यकी सामान्य इच्छामें। रूसोने हॉब्सकी निरपेक्षता और लाककी जनस्वीकृतिका समन्वय किया। वेन्थमने भी उपयोगितावादके लिये ‘एकसत्तावाद’ अपनाया।
जान आस्टिनने एकसत्तावादी ‘राजसत्ता’ नामक प्रामाणिक परिभाषा की। वह वेन्थमका शिष्य था। उसकी परिभाषा यह है कि ‘यदि एक निश्चित जन-श्रेष्ठ किसी अन्य जनश्रेष्ठकी आज्ञा स्वभावत: पालन न करता हो और एक बहुसंख्यक समाज स्वभावत: उसकी आज्ञाका पालन करता हो, तो वह जनश्रेष्ठ उस समाजमें राजसत्ताधारी है और उस जनश्रेष्ठके सहित वह समाज राजनीतिक दृष्टिसे स्वतन्त्र है।’ आस्टिनकी उक्त परिभाषाके मीमांसा और राजनीति—ये दो दृष्टिकोण हैं। प्रथमके अनुसार प्रत्येक राज्यमें एक निश्चित जनश्रेष्ठ होता है, वही राजसत्ताधारी होता है। राजसत्ताकी विशेषताएँ निरपेक्षता आदि हैं। मीमांसाके दृष्टिकोणसे राजसत्ताधारीकी आज्ञा ही कानून है। दैवी, नैसर्गिक, लौकिक नियम तथा संघोंके नियम एवं परम्परा कानून है। दैवी, नैसर्गिक, लौकिक नियम तथा संघोंके नियम एवं परम्परा कानून नहीं माने जा सकते। उसके अनुसार प्रत्येक नियमका निश्चित स्रोत होना आवश्यक है। नियम आज्ञासूचक होना चाहिये। नियमकी पृष्ठभूमिमें कोई प्रमाण भी चाहिये। इस प्रमाणसे ही दण्डविधान होता है।
भले ही एकसत्तावादी राज्य-व्यवस्थासे राज्य-सरकारोंकी दृढ़ता हुई और यह अच्छी चीज है; परंतु इसमें अत्यन्त अपेक्षित धर्म-नियन्त्रण भी समाप्त हो जाता है। अनियन्त्रित जनश्रेष्ठ अनियन्त्रित यन्त्रके समान ही भीषण हो सकता है, यद्यपि आधुनिक विवेचक इसे एक प्रगतिशील कदम मानते हैं और समय-समयपर एक सत्तावादी मीमांसाने अनिश्चितता दूर की है। दैवी नियम, नैसर्गिक नियम, राज्य नियम या लौकिक नियम, इन नियमोंमें कौन नियम सर्वोच्चरूपसे मान्य हो, इस विप्रतिपत्तिमें हॉब्सने ‘दीर्घकाय’ का, रूसोने ‘सामान्येच्छा’ का, आस्टिनने ‘जनश्रेष्ठ’ का अनुसरण ही ठीक बताया। एकसत्तावादी मीमांसाने राज्यको ही एकमात्र ‘नियम-विधायिका’ संस्था माना। कितनी भी अच्छी व्यवस्था क्यों न हो, जबतक उसके योग्य संचालक नहीं मिलते, तबतक वह व्यर्थ ही सिद्ध होती है। धर्मनियन्त्रित शासनतन्त्र हो या नैसर्गिक नियमतन्त्र, निरपेक्ष दीर्घकाय सामान्येच्छातन्त्र हो या आधुनिक जनतन्त्र, योग्य संचालकके बिना सर्वत्र ही त्रुटियाँ आती हैं। आधुनिक जनतन्त्रकी दरिद्रता, भ्रष्टाचार, बेकारी किसीसे छिपी नहीं है। लोकतन्त्र-निर्वाचनमें कितना भ्रष्टाचार और कितना धन-जन-शक्तिका क्षय होता है, यह भी स्पष्ट है। वीनोग्राडोफके अनुसार भी एकसत्तावादी मीमांसा अपूर्ण ठहरती है। अपर्याप्त इसलिये कि यह ‘संघात्मक राज्य’ पर लागू नहीं हो सकती। एकात्मक राज्यमें भी राजसत्ताधारीका पता लगाना कठिन हो जाता है। अपूर्ण इसलिये कि राज्यका कार्य केवल आज्ञा देना ही नहीं, किंतु समन्वय भी है; नागरिकके सामने कर्तव्य-पालन ही नहीं, किंतु अधिकारोंकी सुरक्षा भी है। न्यायालयोंके निर्णयों एवं लौकिक नियमोंसे असम्बद्ध तथा अन्ताराष्ट्रिय नियमोंपर लागू न होनेसे भी यह अपर्याप्त एवं अपूर्ण है। जनतन्त्रमें वह सुप्तसत्ताधारी होनेमात्रसे सन्तुष्ट नहीं, किंतु सक्रियसत्ताकी प्राप्ति चाहती है। यहाँ निश्चित जनश्रेष्ठको ही वह सब कुछ नहीं मान सकती। अमेरिका आदिकी संघात्मक शासन-प्रणालीके भी यह विरुद्ध है।
एकात्मक संविधानमें केन्द्रियकरण होता है। ब्रिटेन एवं फ्रांसमें यह व्यवस्था थी और है। वहाँ सभी अधिकार एक संस्था—प्रतिनिधि संस्थामें निहित होते हैं। ऐसी संस्थाको ‘दीर्घकाय’ या ‘जनश्रेष्ठ’ कहा जा सकता है। परंतु अमेरिकाके ‘संघात्मक’ विधानमें राज्यके वैज्ञानिक अधिकार केन्द्रिय सरकार एवं उपराज्योंमें विभक्त होते हैं; क्योंकि वहाँ शक्ति-विभाजनका सिद्धान्त स्वीकृत है। कई अन्य देशोंने भी इस व्यवस्थाको अपनाया है, इस ढंगसे संविधानोंमें कोई ऐसी संस्था नहीं है, जिसमें राज्यके सब अधिकार निहित हों। एकात्मक राज्यमें भी निश्चित जनश्रेष्ठका पता लगाना कठिन होता है। आस्टिनने ही तत्काल ब्रिटेनमें राजा, लार्डों और निर्वाचकोंको सत्ताधारी बतलाया था, परंतु दूसरी बार उसने राजा, लार्ड और लोकसभामें राजसत्ताका निहित होना बताया। दोनों ही स्थितिमें राजा और लार्डगणका सामान्य ही स्थान है। लोकसभामें सदस्योंको जब निर्वाचक सप्रतिबन्ध मतदान करते हैं, तब वे स्वयं ही राजसत्ताधारीके अंग बन जाते हैं। अप्रतिबन्ध मतदान करते हैं तो छोटी लोकसभा (कामन्स सभा) राजसत्ताधारीका अंग बन जाती है। अत: ‘राज्यमें एक निश्चित जनश्रेष्ठ सत्ताधारी है’ यह न्यायसंगत नहीं। आस्टिनके मतमें ‘कार्यपालिका एवं नौकरशाहीको कोई स्थान नहीं और न जनताकी सत्ताका ही कोई स्थान है।’ परंतु आजकी स्थितिमें राज्यके कार्य नि:सीम हो गये हैं। सभी विषयोंमें उसका हस्तक्षेप होता है। फिर उसमें अनियन्त्रित ‘दीर्घकाय’ या ‘जनश्रेष्ठ’ को न्याय-संगत कैसे कहा जा सकता है? आधुनिक जनवादमें प्रतिस्पर्द्धा एवं सहयोग चलता है। यह सब विभिन्न जाति, वर्ग, विचार और संस्थाद्वारा होता है। अतएव कभी कोई, कभी कोई संस्था प्रभुता स्थापित करती है। इस प्रभुताका प्रभाव नियम-निर्माणपर पड़ता है। राष्ट्रमें कभी किसी संस्था या वर्गका बोलबाला होता है, कभी किसीका। कभी संसद् कार्यपालिकापर प्रभुता स्थापित करती है, कभी कार्यपालिका संसद्पर। संघीय राज्योंमें कभी संघीय न्यायालय राज्यसत्ताधारी होता है, कभी एक दल पूरे राज्यपर हावी होता है। प्रेस-आन्दोलन तथा विभिन्न संघ भी राज्यको प्रभावित करते रहते हैं। कभी-कभी अन्ताराष्ट्रिय जनमत नैतिकता परम्परा तथा सन्धियाँ भी राज्यके एकाधिकारको सीमित करती हैं। इस स्थितिमें राजसत्ताको निरपेक्ष, अविभाज्य कहना असंगत ही है।
आजकी स्थितिमें राज्यकी इच्छा एवं जनश्रेष्ठका निर्णय असम्भवप्राय है। ‘जनश्रेष्ठका आज्ञा देना, जनताका सीधे पालन करना’ यह आस्टिनकी व्यवस्था आज मान्य नहीं हो सकती। प्राचीन कालमें कर्तव्यपरायणतापर जोर था, परंतु आज तो अधिकारोंकी ही प्रधानता है। आज अन्य संस्थाओंका भी महत्त्व कुछ कम नहीं होता। राज्य सर्वश्रेष्ठ संघ है, परंतु निरपेक्ष नहीं। यह श्रेष्ठता सप्रतिबन्ध है। श्रेष्ठ लक्ष्यद्वारा ही राज्यकी श्रेष्ठता निर्धारित होती है। राष्ट्रिय जीवनका समन्वय तथा जनसेवासे ही नागरिक राज्यको आदर देते हैं। एक प्रधानमन्त्री असफल होनेपर पदत्याग कर देता है। ठीक यही स्थिति राज्यकी होती है।
मीमांसाके विश्लेषणवादी, इतिहासवादी, राष्ट्रवादी, विकासवादी, समाजशास्त्रवादी, दर्शनवादी, कई दृष्टिकोण हैं। एकसत्तावादसे सम्बन्ध मीमांसा विश्लेषणवादी है। इन प्रथाओंके अनुसार नियमोंके दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होते हैं। विश्लेषणवादके अनुसार नियम-निर्मात्री राज्यसत्ता ही सब नियमोंका स्रोत है। राजसत्ताधारीकी आज्ञा ही नियम है, रीति-रिवाज आदिका कुछ महत्त्व नहीं, परंतु वस्तुस्थिति यह है कि राष्ट्रकी विविध विशेषताओं, ऐतिहासिक प्रवृत्तियों, सामाजिक जीवन आदिका नियम-निर्माणमें महत्त्वपूर्ण स्थान होना अनिवार्य है। अनेक संघोंका भी नियम-निर्माणपर प्रभाव होता है। सभी देशोंमें न्यायालयोंके निर्णयोंको नियमतुल्य ही माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालयका निर्णय अन्य न्यायालयोंका मार्गदर्शक होता है। ब्रिटेनके भी संविधानमें न्यायालयके निर्णयका महत्त्वपूर्ण स्थान है। वहाँके अलिखित संविधानके ये निर्णय महत्त्वपूर्ण अंग हैं। ब्रिटिश नागरिकके मूल अधिकार किसी एक ग्रन्थमें संगृहीत नहीं। ये अधिकार राज्य-विधियों, लौकिक नियमों तथा न्यायालयके निर्णयों—जूरी तथा व्यक्तिगत अधिकारपर ही आधारित हैं। अनेक लौकिक विधियाँ ऐसी हैं, जिनका निरपेक्ष शासन भी लंघन नहीं कर सकता। ब्रिटिश संविधानमें इनका भी प्रमुख स्थान है।
१७वीं शतीके ऐतिहासिक ‘नरेश संसद्’ संघर्षमें इन नियमोंके अस्तित्वका महत्त्वपूर्ण स्थान था। संसदीय नेताओं एवं न्यायाधीशोंका कहना था कि ‘राजा लौकिक नियमोंका लंघन नहीं कर सकता।’ ये नियम अभीतक अलिखितरूपमें ही चले आ रहे हैं। आस्टिनने अपने देशकी इस परम्परासे भी आँख मूँद ली थी। भारत एवं अन्यत्र अनेक जातियोंका जीवन परम्पराके अनुसार ही चला है। भारतीय शासन-व्यवस्थामें सदासे ही धर्म-विधियों एवं सदाचारपरम्पराका सर्वाधिक महत्त्व था। ‘तदेतत् क्षत्रस्य क्षत्रम्’ (बृहदा० उप० १।४।१४)-के अनुसार धर्मपर राजाका शासन नहीं, किंतु राजापर ही धर्मका शासन होता था। मध्यकालिक यूरोपमें धार्मिक एवं नैसर्गिक नियम सर्वोपरि माने जाते थे। वस्तुत: एकसत्तावादी मीमांसा राज्य संघटन मात्रसे सम्बन्धित है, प्राचीन समाजसे नहीं। समाजमें सदा ही लौकिक, धार्मिक एवं नैसर्गिक नियमोंकी ही प्रधानता थी। आस्टिनवादने भी इनका अस्तित्व स्वीकार कर लिया; परंतु ये नियम तभी मान्य होते हैं, जब कि ‘दीर्घकाय’ इनका निषेध न करता हो। वस्तुतस्तु ‘दीर्घकाय’ इनका निषेध न कर स्वीकार ही करता है और उसे स्वयं भी इनका पालन करना पड़ता है। हीयर्न शॉने कहा है कि ‘आस्टिनकी मीमांसामें हवलदारीकी गन्ध मिलती है।’
आधुनिक जनवादमें प्रत्यक्ष या परोक्षरूपसे जनस्वीकृति एवं नैतिकताके आधारपर ही राज-सत्ताधारीकी आज्ञा नियमका रूप धारण कर सकती है। शासनके लिये शक्ति आवश्यक है, परंतु डण्डेके बलसे नियम नहीं लागू किये जा सकते। संवैधानिक नियमोंका स्रोत क्रान्ति, सक्रिय या असहयोग आन्दोलन एवं जनमत है। निश्चित जनश्रेष्ठकी आज्ञा उसका आधार नहीं। ‘नमनीय’ और ‘अनमनीय’—ये दो प्रकारके संविधान होते हैं। संवैधानिक परिवर्तनोंके लिये परोक्ष या अपरोक्ष रूपसे जनस्वीकृति आवश्यक होती है। नमनीय संविधानमें संवैधानिक तथा साधारण नियम-निर्माणकी पद्धति एक-सी होती है। नमनीय संविधानके सम्बन्धमें ही डी लोमका ऐतिहासिक कथन है कि ‘ब्रिटिश संसद् सभी विषयोंपर नियम-निर्माण कर सकती है। केवल पुरुषको स्त्री और स्त्रीको पुरुष नहीं बना सकती।’ यद्यपि अब यह भी नहीं रह गया। फिर भी वह संसद् मनमानी नियम नहीं बनाती। लास्कीके अनुसार ‘यदि वह ऐसा करे तो संसद् ही नहीं, क्योंकि संसदीय सरकारका सार है जनमतद्वारा शासन।’ ब्रिटेनमें संवैधानिक नियमोंके निर्माणमें जनताकी स्वीकृति प्राप्त की जाती है।
अन्ताराष्ट्रिय नियमोंका स्रोत भी किसी जनश्रेष्ठकी आज्ञा नहीं हो सकती। किंतु विश्व-शान्तिकी भावना मानवता एवं सामाजिकता है। यातायातकी वृद्धिसे आजकल अन्ताराष्ट्रिय जनमत सम्भव हो गया। कोई भी निरपेक्ष शासक जनमतका उल्लंघन नहीं कर सकता। कोई भी निश्चित जनश्रेष्ठ अन्ताराष्ट्रिय नियमों, संधियों एवं नैतिकताको कुचल नहीं सकता। विश्वजनमतका विरोध करके किसी राज्यकी स्थिरता नहीं हो सकती। एकतावादके अनुसार ‘निरपेक्षता राज्यकी सर्वश्रेष्ठ विशेषता है। यह निरपेक्षता आन्तरिक तथा बाह्य—इन दो दृष्टियोंसे होती है। आन्तरिक दृष्टिकोणसे राज्यका विरोध कोई व्यक्ति या समूह नहीं कर सकता, सभी उसके अधीन होते हैं।’ वर्जेसके मतानुसार राज्य नागरिकोंको उनकी इच्छाके विरुद्ध बाध्य कर सकता है अन्यथा अराजकता ही समझी जायगी। बाह्य नीतिकी दृष्टिसे राजसत्ताधारीका राज्यपर कोई नियन्त्रण सम्भव नहीं। अन्य राज्य भी उसे आज्ञा नहीं दे सकता। अन्ताराष्ट्रिय नैतिकता, सन्धियाँ और नियम राजसत्ताधारी राज्यको बाध्य नहीं कर सकते। उनका अनुकरण करना राज्यकी इच्छापर निर्भर है। एक सत्तावादियोंके दृष्टिकोणसे अन्ताराष्ट्रिय नियमोंको नियम नहीं माना जा सकता; क्योंकि उसकी पृष्ठभूमिमें राज्यकी तलवार नहीं होती। एकसत्तावादी दार्शनिक राज्योंके पारस्परिक सम्बन्ध हॉब्सके प्राकृतिक मनुष्योंके सम्बन्धसे होता है। अर्थात् एक राज्य दूसरे राज्योंके शत्रु होते हैं।
भारतीय नीति-शास्त्रोंके अनुसार स्वभावसे ही पड़ोसी राष्ट्रके साथ संघर्षकी सम्भावना होती है और पड़ोसीके पड़ोसीके साथ मैत्रीकी सम्भावना होती है।
अरिर्मित्रमरेर्मित्रं मित्रमित्रमत: परम्॥
तथारिमित्रमित्रं च विजिगीषो: पुर: स्मृता:।
पार्ष्णिग्राह: स्मृत: पश्चादाक्रन्दस्तदनन्तरम्॥
आशारावनयोश्चैवं विजिगीषोश्च मण्डलम्।
अरेश्च विजिगीषोश्च मध्यमो भूम्यनन्तर:॥
अनुग्रहे संहतयोर्निग्रहे व्यस्तयो: प्रभु:।
मण्डलाद् बहिरेतेषामुदासीनो बलाधिक:॥
अनुग्रहे संहतानां व्यस्तानां च वधे प्रभु:॥
(अग्निपुराण २४०।१—५)
शत्रु, मित्र, शत्रुका मित्र, मित्रका मित्र और शत्रुके मित्रका मित्र—ये पाँच विजिगीषुके आगे तथा पार्ष्णिग्राह, आक्रन्द, पार्ष्णिग्राहासार और आक्रन्दासार—ये चार विजिगीषुके पीछे रहते हैं। अरि तथा विजिगीषुमें यदि संधि हो जाय तो उन दोनोंपर निग्रह-अनुग्रह करनेकी क्षमता रखनेवाला तथा परस्पर समझौता न होनेपर दोनोंको दण्ड देनेकी क्षमता रखनेवाला ‘मध्यम’ होता है। इन सबसे उदासीन और इनके मण्डलसे बाहर सबके मिलनेपर अनुग्रह और सबमें फूट पड़नेपर निग्रह करनेवाला सबसे अधिक शक्तिशाली नाभि नामक राजा होता है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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