3.15 बोदाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.15 बोदाँ

बोदाँ (१५३०—१५९६) ने कहा था कि ‘मनुष्यजातिका इतिहास प्रगतिका इतिहास है।’ दो शती बाद हीगेलने इसी सिद्धान्तकी व्याख्या की और उसने बताया कि यदि कभी इसके विपरीत अवनति-सी दृष्टिगोचर होती है तो भी उसे अवनति नहीं मानना चाहिये; किंतु यह घटना प्रगतिकी पृष्ठ-भूमि है। हीगेलके अनुसार मानव-इतिहास केवल कुछ घटनाओंका वर्णन नहीं है; किंतु प्रगतिकी कहानी है। उसका कहना है कि ‘संसारमें प्रत्येक वस्तुकी प्रतिवादी वस्तु अवश्य होती है। पहले वाद होता है, तब उसका प्रतिवाद और दोनोंके संघर्षसे जो तीसरी वस्तु उत्पन्न होती है, उसे ही संवाद कहते हैं। संवादमें वाद-प्रतिवादकी विशेषताओंका समावेश होता है, साथ ही वह दोनोंका अतिक्रमण भी करता है। इस तरह संवाद एक नयी परिस्थिति है। प्रगतिके दौरानमें कुछ दिनोंमें वह भी वाद बन जाता है; क्योंकि उसके भी कुछ विरोधी होते ही हैं। उनका संघटन होते ही वह प्रतिवाद बन जाता है। इस संघर्षके फलस्वरूप एक दूसरा संवाद उत्पन्न होता है। यह पहले संवादसे उच्चकोटिका होता है। तात्पर्य यह कि सर्वप्रथम संघटित शक्ति अपना कार्यक्रम रखती है। उसी कार्यक्रमके अनुसार वह विश्वका संचालन करती है। यह कार्यक्रम एक वाद है; परंतु प्रत्येक व्यक्तिके अनुकूल उसका कार्यक्रम नहीं हो सकता। अत: प्रतिकूलोंकी संख्या बढ़ती है, उसका संघटन होता है और उस संघटनद्वारा कार्यक्रमका विरोध करते हुए एक नवीन कार्यक्रम उपस्थित किया जाता है। इसीको प्रतिवाद कहा जाता है। कुछ समयतक इनमें संघर्ष चलता है, तब इन दोनोंकी विशेषताओंका समन्वयकर कुछ नवीनका योगकर एक नया दल संघटित होता है। वह अपना नवीन कार्यक्रम उपस्थित करता है, इसे ही संवाद कहा जाता है। आगे इस संवादके भी प्रतिद्वन्द्वी तत्त्व प्रकट होने लगते हैं, तब यही संवाद वाद बन जाता है। इस तरह यह आवर्तन निरन्तर चलता रहता है। इस द्वन्द्वात्मक संघर्षद्वारा ही मानवकी प्रगति होती आयी है। यह क्रिया इतिहासमें व्यापक है।’
यह द्वन्द्ववाद यूनानमें हीगेलसे पहले भी प्रचलित था, परंतु उसके अनुसार प्रगति वृत्तात्मक थी। हीगेलके अनुसार ‘वह चक्रव्यूहके तुल्य’ है। समाज, राज्य, दर्शन आदिमें भी हीगेलने इसी तर्कका प्रयोग किया। यह हीगेलकी विशिष्ट देन समझी जाती है। मार्क्सने हीगेलके इसी द्वन्द्ववादको ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ का रूप दिया। इसी तर्कके आधारपर हीगेलने बताया कि राज्य मानवकी सामाजिक प्रगतिकी चरम सीमा है। पहले कुटुम्ब होता है, यही वाद है। उसकी विशेषता प्रेम तथा त्यागमें होती है। कुछ समय पश्चात् समाजका जन्म हुआ, यह प्रतिवाद हुआ। उसकी विशेषता कुटुम्बके विपरीत स्पर्धा थी। वाद और प्रतिवादमें संघर्ष होनेसे संवादरूपी राज्यका जन्म हुआ। इस संवादमें वादप्रतिवादका समन्वय हुआ। उसमें कुटुम्ब एवं समाजकी विशेषताके साथ कुछ अन्य विशेषताओंका भी समावेश है। इसीलिये यह राज्य, कुटुम्ब एवं समाज दोनोंसे ही ऊँची संस्था है। हीगेल इसे विश्वात्माके प्रतिबिम्ब-तुल्य कहता है। अति प्राचीन कालमें स्वेच्छाचारी राज्यवाद था। इसके बाद जनतन्त्रका जन्म हुआ, यह प्रतिवाद हुआ। दोनोंके संघर्षके फलस्वरूप संवैधानिक राजतन्त्रका जन्म हुआ। यही सर्वोच्चतन्त्र है। इसके बाद प्रतिवादके गुण आ जाते हैं।
हीगेल जर्मनीके तत्काल शासनको संवैधानिक राज्य मानता था। वह एक राष्ट्रिय राज्यभक्त था। इसीलिये कहा जाता है कि वह दार्शनिकोंका सम्राट् होते हुए सम्राटोंका भी दार्शनिक था। काण्ट एवं फिक्टेने राज्यको अन्ताराष्ट्रिय नैतिकताके अधीन माना और अन्ताराष्ट्रिय शक्तिका समर्थन किया, परंतु हीगेल राष्ट्रसे बड़ी कोई संस्था नहीं मानता। हीगेल युद्धका समर्थक और जनवाद-विरोधी था, परंतु काण्ट शक्ति और जनवादका समर्थक। फिक्टेके कल्पित भविष्यके आदर्श राज्यको हीगेलने उच्च तर्कोंके द्वारा जर्मनीके राज्यको ही आदर्श बतलाया। उसका दार्शनिक विवेचन बहुत गम्भीर समझा जाता है। उसके दर्शनको कई लोग विशिष्टाद्वैतके समीप, कई लोग अद्वैतके समीप मानते हैं।
‘मनुष्य-जातिका इतिहास प्रगतिका इतिहास है’ इस कथनका अर्थ यदि डार्विनका उत्तरोत्तर विकास है, तब तो कहना पड़ेगा कि हीगेल वर्तमान अनाचार, पापाचार एवं भ्रष्टाचारको ही प्रगति मानता है। कारण—
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यप:।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुत:॥
(छान्दो० उप० ५।११।५)
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
—की स्थिति जो रामराज्य एवं कृतयुगकी स्थिति थी, वह तो आज है ही नहीं। उस स्थितिकी अपेक्षा वर्तमान समय प्रगतिका है या पतनका, यह कोई भी विचार सकता है। रामराज्यके अनुसार ‘चक्रनेमिक्रमेण’ प्रगति-अवनति संसारका धर्म है। अत: फिर भी कृतयुग रामराज्य युग आ सकता है। वैज्ञानिक आविष्कारकी दृष्टिसे भी वर्तमान उन्नतिको ‘अपूर्व’ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इससे अधिक आविष्कार पूर्व युगमें हो चुके हैं और उनपर प्रतिबन्ध लगानेकी आवश्यकताके अनुसार प्रतिबन्ध लगाया जा चुका था। राज्य और राजाका महत्त्व मनुने भी बहुत कहा है; परंतु उसपर भी धर्मका नियन्त्रण उन्होंने आवश्यक समझा। अनियन्त्रित शोषक राजाओंकी वही गति होनी उचित है, जो वेन, रावण आदिकी हुई। इसी तरह स्वतन्त्रताका अर्थ यद्यपि उच्छृंखलता नहीं तथापि तानाशाही शासन-यन्त्रका नगण्य पुर्जा बनकर व्यक्तिगत, लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय साधनोंमें पराधीन हो जानेको भी स्वतन्त्रता नहीं कहा जा सकता। शासकोंका व्यक्तिगत, धार्मिक एवं सामाजिक स्वतन्त्र जीवनमें अल्पतम हस्तक्षेप होना हर दृष्टिसे व्यक्ति एवं समाजके विकासका मूलमन्त्र है। सीमित व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा लौकिक, पारलौकिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक नियमोंका पालन राजा-प्रजा, शासक-शासित सभीके लिये अनिवार्यरूपसे अपेक्षित एवं लाभदायक होता है।
हीगेलके मतानुसार एलेक्जेण्डर (सिकन्दर), नेपोलियन-जैसे शूरवीरोंद्वारा ही मानवकी प्रगति होती है। फिक्टे राज्यको अन्ताराष्ट्रिय नैतिकताके अधीन रहना उचित समझता था, परंतु हीगेल राज्यको स्वतन्त्र मानता था। रामराज्यकी दृष्टिमें व्यष्टि-समष्टिके समन्वयसे ही सुव्यवस्था हो सकती है। हीगेलके मतानुसार युद्ध ‘न्यायसंगत’ है। वह इससे देशप्रेम एवं नैतिकताकी वृद्धि मानता है। रामराज्य यद्यपि युद्धके द्वारा धन-जन एवं शक्ति-क्षय होनेसे युद्धको हानिकारक ही समझता है तथापि साम, दान, भेद आदि अन्य नीति सफल न होनेपर सभ्यता, संस्कृति तथा न्यायकी रक्षाके लिये उपस्थित धर्मसंग्रामसे पराङ्मुख होनेको क्लैब्य एवं पाप मानता है और ऐसे समुपस्थित धर्मसंग्रामको स्वर्गका खुला द्वार समझकर स्वागत करता है। हीगेल राज्यकार्य-संचालन, शिक्षा, जनोपयोगी कार्य, स्वास्थ्य, निर्धनोंकी सहायता, व्यवसाय, व्यापार-संचालन आदि सभी कार्योंमें पुलिसका प्रयोग उचित समझता था। न्यायालय एवं पुलिसको राज्यकी उच्च एवं व्यापक संस्था मानता था। वह मान्टेस्क्यूके शक्ति-विभाजन सिद्धान्तका भी विरोधी था। हीगेलका सीमित राजतन्त्र ब्रिटेनके राजतन्त्रसे भिन्न था। ब्रिटेनमें संसद्‍द्वारा सीमित राजतन्त्र होता है; किंतु उसपर नौकरशाहीका कुछ नियन्त्रण होता है। राज्यके किसान, व्यापारी एवं सर्वव्यापकवर्ग—इन तीन वर्गोंमें सर्वव्यापकवर्ग ही समाजका नेता होता है। इसी वर्गसे योग्यतानुसार नियुक्ति होनी चाहिये। इसी वर्गद्वारा राजतन्त्रकी शक्ति सीमित होनी चाहिये। हीगेलके आदर्श व्यवस्थापक मण्डलमें दो सभाएँ होनी चाहिये। बड़ी सभा कुलीनोंकी प्रतिनिधि और छोटीमें समाजकी अन्य संस्थाओंके प्रतिनिधि होने चाहिये। हीगेलके आदर्श समाजमें सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक संघोंका भी स्थान है। एकसत्तावादी दर्शनोंमें राज्य और प्रजाके बीच इन संघोंका कोई स्थान नहीं, परंतु हीगेलके राज्यके नियन्त्रणमें ही इन संघोंका संचालन हो सकता है। रामराज्यवादीकी दृष्टिसे शास्त्रोक्त धर्मनियन्त्रण प्रत्येक संस्थापर आवश्यक है। इसी ढंगसे सब व्यवस्थाएँ निर्दिष्ट हो सकती हैं अन्यथा व्यक्तियों एवं समाजको तानाशाहीका शिकार बनना पड़ता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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