3.20 समष्टिवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.20 समष्टिवाद

समष्टिवादका भी मार्क्सवादसे अंशत: मतभेद है। उसका स्रोत है फेवियनवाद और संशोधनवाद। इसे ही ‘समाजवादी जनतन्त्र’ या ‘जनतन्त्रीय समाजवाद’ कहा जाता है। द्वितीय अन्ताराष्ट्रिय मजदूर-संघके कई दल इसके समर्थक थे। इसे ही सुधारवादी या विकासवादी समाजवाद भी कहा जाता है। इंग्लैण्डका मजदूर-दल इसी विचारधाराका है। मिल इस वादका उद‍्गम है। वार्करने मार्क्सवादसे बचकर ब्रिटेनमें समाजवादी दर्शनका निर्माण किया है। उसने ब्रिटिश व्यक्तिवादी परम्पराके अनुसार सुधारवादी समाजवादकी रूपरेखा प्रस्तुत की है। पीजका कहना था कि ‘हम समाजवाद बनाना चाहते हैं, समाजवादी नहीं।’ बर्न स्टाइन (१८५०—१९२२)-ने मार्क्सवादका संशोधन करते हुए बतलाया था कि ‘संसदीय नीतिद्वारा समाजवादकी स्थापना सम्भव है।’ मार्क्सने भी अमेरिका और इंग्लैण्डमें संसदीय व्यवस्थाद्वारा भी समाजवादकी स्थापनाको सम्भव बतलाया था। एक तरहसे यह दर्शन विधानवादका समर्थक है। इनके अनुसार व्यक्ति विवेकशील होता है, अत: निर्वाचक समाजवादके पक्षमें मतदान करेंगे।
इसलिये प्रचारद्वारा उन्हें यह बतलाना ही पर्याप्त है कि आधुनिक कुरीतियोंका अन्त समाजवादसे ही सम्भव है। निर्वाचनकी सफलतासे समाजवादी सरकार बनेगी। वह शनै:-शनै: पूँजीवादी व्यवस्थाको समाजवादमें परिवर्तन करेगी।
मैकडानल्डके अनुसार समाजवाद अवश्यम्भावी है, अत: संसदीय नीति और प्रचारद्वारा क्रमेण सुधार करना इनकी नीति है। मार्क्सवाद सुधारवादको सड़ियल मानता है। समष्टिवादियोंका समाजवादकी स्थापनाका एक ही लक्ष्य होना चाहिये, फिर अन्य विषयोंमें मतभेद रखनेवाले भी उसमें सम्मिलित हो सकते हैं। इनके यहाँ संघटनकी एकतापर जोर है, मार्क्सवादियोंकी तरह दर्शनकी एकता आवश्यक नहीं है। अन्य समाजवादियोंके विपरीत समष्टिवादियोंका यह भी कहना है कि सामन्तों तथा पूँजीपतियोंके अनुपार्जित लाभको राज्यद्वारा समाजहितके लिये प्रयोगमें लाना चाहिये, परंतु परोपजीवी पूँजीवादका अन्त वह भी चाहता है। किंतु इस कार्यमें समष्टिवादी शीघ्रता नहीं करना चाहते। इनके मतानुसार खजाना, खान, इस्पात, विद्युत् , यातायात आदि व्यवसायोंका शीघ्र ही राष्ट्रियकरण कर लेना चाहिये। साबुन, तेल, वस्त्र आदि व्यवसायोंके परिपक्व होनेपर ही उनका राष्ट्रियकरण होना चाहिये। नाई, बढ़ई, होटल आदि व्यवसायोंका व्यक्तिगत संचालन ही वे लाभदायक मानते हैं। शनै:-शनै-वादी नीति अनुभवकी दृष्टिसे हितकर है। इनके अनुसार पूँजीपति आदिकी पूँजी लेनेपर उन्हें उसका मुआविजा देना उचित है। एटलीके मतानुसार ऐसा न करना अन्याय है। जनमत-निर्वाचन ही उनके परिवर्तनका आधार है। डॉक्टर डाल्टनके अनुसार पूँजीवाद एवं समाजवादमें गुणात्मक नहीं, अपितु परिमाणात्मक भेद है। समष्टिवादके अनुसार व्यक्तिगत क्षेत्र धीरे-धीरे कम होना और सामाजिक क्षेत्र बढ़ना चाहिये। इनके मतानुसार आधुनिक जनवाद अपूर्ण है। इसकी पूर्णता होनेपर ही राष्ट्रियकरण समाजके लिये हितकर होगा। ब्रिटिश-मजदूर दल राजतन्त्रको उपयुक्त सुधारोंद्वारा जनतन्त्रीय बनाना चाहता है। बड़ी धारा-सभाको भी वह जनवादीरूप देना चाहता है। उसके अनुसार छोटी धारा-सभाकी सत्ताका वास्तवीकरण जनवादके लिये नितान्त आवश्यक है। यह कमेटियोंकी संख्यामें वृद्धिमें सम्भव है। निर्वाचन तथा प्रचार आदिद्वारा जनतन्त्रकी पुष्टि होती है। ये न राज्यकी एकवर्गीय संस्था मानते हैं और न वर्ग-संघर्षको समाजका आधार मानते हैं। इनके अनुसार राज्य एक अवयवी है। नागरिकका एवं राज्यका हित अन्योन्याश्रित है। श्रमिकों एवं पूँजीपतियोंका हित अवश्य वर्गीय है तथापि सामाजिक जीवनमें वर्ग-सहयोगकी भी प्रधानता होती है। ये लोग वैयक्तिक स्वतन्त्रताका भी पूर्ण सम्मान करते हैं, परंतु यह व्यक्तिवादके विपरीत समाजवादी व्यवस्थामें ही सम्भव मानते हैं। ये साम्राज्यके स्थानमें राष्ट्रमण्डलका समर्थन करते हैं। औपनिवेशिक देशोंमें भी ये आर्थिक, राजनीतिक प्रगति तथा औपनिवेशिक स्वराज्य स्थापित करना चाहते हैं। सर क्रिप्सने राष्ट्र मण्डलको प्रजातन्त्रीय विकासशील संस्था बना दिया था। यह संस्था केन्द्रीकरण एवं विकेन्द्रीकरणका प्रतीक है। समष्टिवाद, पूँजीवाद एवं साम्राज्यवादके एकाधिकारका और व्यक्तिवाद तथा रूढिवादका भी विरोधी है। साथ ही मार्क्सवाद पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य एवं श्रमिक एकाधिकारका और अधिनायकवाद एवं पूर्ण नवीन समाजका भी विरोधी है। वह डार्विनकी पूँजीवादी दुनियाके वैयक्तिक स्वतन्त्रता और साम्यवादी दुनियाकी अर्थयोजनाका समन्वय करना चाहता है। एक तरहसे समष्टिवाद विभिन्न मतोंकी खिचड़ी है। रामराज्य-प्रणालीके अनुसार निश्चित शास्त्रानुसारी सिद्धान्तोंके बिना स्थिरता नहीं हो सकती। मार्क्सवादियों तथा समष्टिवादियोंका सुन्दोपसुन्दन्यायानुसारी विरोध इन दोनों ही सिद्धान्तोंकी त्रुटियोंको स्पष्ट करता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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