4.8 कृत्रिम चुनाव
कृत्रिम चुनावके भी तीन नियम हैं—(१) अमुक मर्यादातक कृत्रिम होनेपर संतति होती है, (२) अमुक मर्यादाके बाद अपनी पहली पीढ़ियोंके रूपको ही हो जाती है और (३) अमुक मर्यादाके बाद वंश बन्द हो जाता है। पहला नियम प्राय: सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसीके अनुसार मनुष्य पशुओं एवं वृक्षोंके अच्छे बीज पैदा करते हैं। नीरोग, बलवान् माता-पितासे अच्छी संतति पैदा होती है। इनमें माताका अंश अधिक होनेपर संततिमें माताके अंश अधिक व्यक्त होते हैं और पिताका अधिक होनेसे संततिमें उसके अंश अधिक व्यक्त होते हैं। साँड़का अंश अधिक होनेसे बछड़ेमें सींग आदि बड़े होते हैं और गायका अंश अधिक होनेसे छोटे सींगवाले या मुण्डे बच्चे होते हैं। फिर भी सींगका असर रहता है। इसीसे मुण्डेकी संतानमें भी सींग होते हैं। इसी नियमानुसार काँटेदार नागफनी और सिंघाड़ेसे बिना काँटेवाली नागफनी और सिंघाड़े बना लिये जाते हैं। यहाँ कृत्रिम उपायोंसे पितृ-शक्ति कम कर दी जाती है। इसीलिये कभी-कभी उनसे फिर काँटेदार नागफनी आदि उत्पन्न हो जाते हैं। इन्हीं सिद्धान्तोंसे कबूतरोंकी विचित्रता बनती है।
दूसरे नियमका उदाहरण कलमी आम है। कलमी आम बोनेसे दो पीढ़ियोंमें वह साधारण आम हो जाता है। भेड़िये-कुत्ते और चीते-सिंहके संयोगसे यदि संतान होती है, तो भी कुछ ही पीढ़ियोंके बाद वह कुत्ते और चीतेकी-सी हो जाती है। यही सिद्धान्त सन् १९२२ के ‘न्यू एज’ में प्रकाशित है। हेनरी डमंड्रसका भी यही मत है। मेन्डलके ‘कभी-कभी बच्चोंका पिताकी अपेक्षा पितामहके साथ बहुत मेल दिखलायी पड़ता है’, इस कथनका भी यही अभिप्राय है। यदि कोई व्यक्ति अपनेमें कुछ अमर्यादित हेर-फेर कर डाले तो भी उसकी संतानमें वे चिह्न प्रकट नहीं होते, किंतु वह पितामहके गुणोंकी ही होती है। इससे पता लगता है कि प्रकृति पुरानी जातियोंकी ही रक्षा चाहती है।
तीसरे नियमके अनुसार बेहिसाब (अमर्यादित) परिवर्तन होते ही वंश रुक जाता है, जैसे घोड़े-गधेके संयोगसे खच्चर उत्पन्न होते हैं, परंतु उनका वंश नहीं चलता है। जापानके मुर्गोंका भी वंश बन्द हो जाता है। पाँच पैरकी गाय, पेबन्दी बेर आदिका वंश भी बन्द हो जाता है। लामार्कने चूहोंकी दुम काटकर बिना दुमके चूहे पैदा करना चाहा था। अनेकों पीढ़ियोंतक वह प्रयत्न करता रहा, परंतु बिना पूँछके चूहे नहीं हुए। लेसिस्टर शायरके कुछ भेड़ चरानेवाले अपनी कुछ भेड़ोंको घोड़ेके बराबर और कुछ भेड़ोंको चूहोंके बराबर बनाना चाहते थे, परंतु दोनों प्रयत्न विफल हुए, उनका घटना-बढ़ना सीमित ही रहा। प्राकृतिक चुनावके नमूने तो प्राय: सभी हैं, सामान्य भेद इन सबमें होता है। समान जातिमें समान उमरकी स्त्रियों, पुरुषों तथा पशुओं आदि सबमें भेद पहचाना जाता है। भेदके बिना तो पहचान और व्यवहार ही नहीं चल सकता। विकासवादी कहते हैं कि ‘हममें और आपमें जो भेद है, यही आगे चलकर गिलहरीको रीछ बना देता है।’ परंतु यह असत्य है। सामान्य भेद तो व्यवहारमें अत्यन्त उपयोगी और ईश्वरदत्त ही है। हिन्दू लाखों वर्षोंसे कान छिदवाते हैं; मुसलमान सैकड़ों वर्षोंसे खतना कराते हैं; चीनकी स्त्रियाँ हजारों वर्षोंसे अपने पैर छोटे बनानेका प्रयत्न करती हैं; परंतु उनसे वैसी संतानें कभी नहीं हुईं। अत: कहना होगा कि कृत्रिम विकास अमर्यादित नहीं होता। विलायतकी विधाओंसे गायोंकी वृद्धिसे भी नवीन जातिकी उत्पत्ति सिद्ध नहीं होती।
डार्विनका सिद्धान्त है कि ‘माता-पिताके प्रत्येक अंगसे सार एकत्रित होकर संततिका जन्म होता है।’ वाइजमैनका कहना है कि ‘इस सारके एकत्रित होनेमें यदि बीचमें कोई परिवर्तन उद्भूत हो तो वह संततिमें संक्रमित न होगा।’ मेन्डलका मत है कि ‘कभी लड़का पिताकी अपेक्षा पितामहके गुणका संग्रह करता है।’ ह्वाइजकी राय है कि ‘कभी-कभी नयी-नयी जातियाँ अकस्मात् उत्पन्न हो जाती हैं।’ ये सिद्धान्त तथा हेतुवाद और अज्ञात-ज्ञेय आदि सिद्धान्त मिलकर विकासके विरुद्ध ही ठहरते हैं। इनमेंसे पहली बात ‘अङ्गादङ्गात्सम्भवसि’ इत्यादि वेदोंकी ही हैं। पुत्रमें नया परिवर्तन नहीं आता। ऐसे स्थलमें पुत्र पितामहके ही गुणोंको ग्रहण करता है। इससे जातिकी स्थिरता ही सिद्ध होती है। नवीन जलकृमियोंकी उत्पत्तिमें भी किसी शरीर बननेके लिये विकास आवश्यक नहीं। हेतुवाद और अज्ञात-ज्ञेयशक्तिसे तो यही निश्चय किया जा सकता है कि ईश्वर ही कर्मानुसार प्राणियोंकी रचना करता है, क्रम-विकास आवश्यक नहीं है।
‘विकासवाद’ पुस्तकमें भी लिखा है कि ‘प्राणियोंकी उत्पत्ति विकासद्वारा हुई या नहीं, एक प्रकारके प्राणीसे भिन्न-भिन्न प्रकारके प्राणी बनते हैं या नहीं, इस प्रकार निरीक्षण करनेवाला मनुष्य भी विकास-क्रियाके किसी अत्यन्त सूक्ष्म भागको भी प्रत्यक्ष होते हुए पूर्णतया नहीं देख सकता। कई प्रश्नोंके सम्पूर्ण उत्तर प्राप्त करनेकी आशा भी नहीं करनी चाहिये।’ अत: विकासवाद एक कल्पना ही है, सिद्धान्त नहीं। ‘समाजमें निर्बलोंको जीनेका हक नहीं है’, यह कल्पना कितनी भीषण है। मनुष्य और रीछ अथवा भैंसकी तुलना करें तो यह स्पष्ट ही है कि शरीर, बलमें रीछ और भैंस दोनों अधिक ठहरेंगे। मनुष्य इनसे शरीर, बलमें अवश्य हार जायगा तथापि मनुष्य बुद्धिके कारण अधिक बलवान् सिद्ध होता है। मनुष्योंमें भी अधिक बुद्धिमान् ही प्रबल ठहरता है। नीतिबल, बुद्धि और शरीर-बलसे भी अधिक महत्त्वका है। सोडम और गभोरानिवासी अनीतिके कारण ही नष्ट हो गये। नीतिमान्, शान्त, निर्व्यसन अधिक दीर्घजीवी होते हैं। जो जाति परमार्थ-बुद्धिकी अपेक्षा अधिक स्वार्थ-बुद्धि रखती है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। जानवरोंमें भी परमार्थ-बुद्धि पायी जाती है। शेर, व्याघ्र-जैसे खूँखार प्राणी भी अपने बच्चोंको दूध पिलाते हैं, प्यार करते हैं। मनुष्यका स्वार्थ-त्यागी होना ही महत्त्व है। अत: ‘जीवन-संग्राममें बलवानोंकी ही विजय होती है, यह कहना सत्य नहीं। कई लोग पुराणोंकी चौरासी लक्ष योनियोंके वर्णन और मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह आदि अवतारोंके द्वारा भी विकासवाद सिद्ध करनेकी चेष्टा करते हैं। इसी तरह कई लोग कुछ वेद-मन्त्रोंको भी विकास-सिद्धिके लिये उद्धृत करते हैं, परंतु वेदों और पुराणोंसे डार्विनका विकास कथमपि सिद्ध नहीं हो सकता। पुराणोंके अनुसार एक प्राणीसे दूसरे प्राणीका विकास सिद्ध नहीं होता। किंतु सभी योनियाँ स्वतन्त्र मानी गयी हैं। अवतारोंमें भी मत्स्य; कच्छपादि स्वतन्त्र अवतार हैं। ‘मत्स्यसे कच्छपका विकास हुआ है’ यह पुराणोंसे नहीं सिद्ध होता। ‘क्रिश्चियन हेरल्ड’ में छपे अनुसार ‘ब्रिटिश साइन्स सोसाइटी’ के आस्ट्रेलिया अधिवेशनमें सभापति-पदसे प्रो० विलियम वेटसनने कहा था कि ‘डार्विनका विकासवाद बिलकुल असत्य और विज्ञानके विरुद्ध है।’ अमेरिकाकी कई रियासतोंने स्कूलोंमें डार्विन-सिद्धान्तकी शिक्षाको कानूनके विरुद्ध ठहराया। वहाँके एक जजने अपने एक फैसलेमें लिखा था कि ‘ऊँचे दरजेके विद्वान् अब विकासवादपर विश्वास नहीं करते।’ प्रो० पेट्रिक गेडिसका कहना है कि ‘मनुष्यके विकासके प्रमाण संदिग्ध हैं। साइन्समें उनके लिये कोई स्थान नहीं।’ सर जे० डब्ल्यू० डासनका कहना है ‘विज्ञानको बन्दर और मनुष्यके बीचकी आकृतिका कुछ भी पता नहीं है। मनुष्यकी प्राचीनतम अस्थियाँ भी वर्तमान-जैसी ही हैं।’ प्रसिद्ध विद्वान् बुड जोन्सका कहना है कि ‘डार्विनसे गलती हुई है। मनुष्य बन्दरसे उत्पन्न नहीं हुआ, किंतु बन्दर मनुष्यसे उत्पन्न हुए हैं।’ सिडनी कालेटका कहना है कि ‘साइन्स स्पष्ट साक्षी है कि मनुष्य अवनत दशासे उन्नत दशाकी ओर चलनेके स्थानमें उलटा अवनतिकी ओर जा रहा है। उसकी आरम्भिक दशा उत्तम थी।’
प्रागुत्तर अश्मकालकी एक खोपड़ी मिली है। यह खोपड़ी जिस सिरकी है, वह यूरोपमें सबसे बड़ा समझा जाता है। यह खोपड़ी एक सौ चौदह क्यूबिक (घन) इंच है। यूरोपमें छोटे-से-छोटे सिर ५० क्यूबिक इंच और बड़े-से-बड़ा ७५ क्यूबिक इंचका पाया गया है। इससे स्पष्ट है कि वर्तमान यूरोपनिवासियोंकी दिमागी ताकत बढ़ नहीं रही है। सन् १८८३ में एक सिर हालैण्डमें निकला, जो यूरोपनिवासियोंके औसत घेरेसे बड़ा है। इसका घेरा १५० क्यूबिक इंच है। भूगर्भशास्त्रियों और पुरातत्त्वज्ञोंने ‘हालींग सेक्शन’ को २५ हजार वर्ष पुराना बतलाया है। इसका घेरा भी १५० क्यूबिक इंच है। इन सब बातोंसे सिद्ध होता है कि प्राचीन मनुष्योंका विकास हीनमस्तिष्क बन्दरोंसे नहीं हुआ, किंतु वे परमात्माकी विशिष्ट रचना थे। आजके उत्तम-से-उत्तम मनुष्योंकी अपेक्षा वे अधिक उन्नत थे। विकासवादी शंका करते हैं कि ‘यदि क्रमोन्नतिका सिद्धान्त न माना जाय तो फिर दीर्घकाय प्राणियोंकी उत्पत्ति कैसे सम्भव हो सकती है? इतना बड़ा मनुष्य एकाएक आदि कालमें कैसे पैदा हो गया?’ परंतु वे एक कोष्ठके अमीबाकी एकाएक उत्पत्ति मान लेते हैं; परंतु अनेक कोष्ठसंयुक्त मनुष्य प्राणीका आप-से-आप उत्पन्न होना नहीं मानते। परंतु बात सरल है, जिस महाशक्तिके प्रभावसे एक कोष्ठवाला अमीबा उत्पन्न हो सकता है, उस शक्तिको अनेक कोष्ठवाले मनुष्यके उत्पादनमें क्या कठिनाई है? जो बड़े-बड़े सूर्य, चन्द्र और छोटे-छोटे अमीबाको बना सकती है, वही शक्ति गाय, बैल, हाथी, बन्दर, मनुष्य सबको बना सकती है। आरम्भिक सृष्टिको नये-पुराने सभी विद्वान् ‘अमैथुनी सृष्टि’ नामसे कहते हैं। प्रो० मैक्समूलर लिखता है—‘कहा जाता है कि आदिमें एक ही मनुष्य नहीं था, किंतु हम हर प्रकारसे यह ख्याल कर सकते हैं कि आदिमें कुछ पुरुष और स्त्रियाँ उत्पन्न हुई थीं।’ मद्रास हाईकोर्टके जज टी० एल० स्ट्रेन्ज अपनी ‘दि डेव्लप्मेंट ऑफ क्रियेशन् ऑन दी अर्थ (पृथ्वीपर सृष्टिका विकास)’ पुस्तकमें लिखते हैं कि ‘आदि सृष्टि अमैथुनी होती है। इस अमैथुनी सृष्टिमें उत्तम और सुडौल शरीर बनते हैं।’ ‘वैशेषिक दर्शन’ का भी कहना है कि ‘शरीर दो प्रकारका होता है—योनिज और अयोनिज’—‘तत्र शरीरं द्विविधं योनिजमयोनिजं च।’ इसपर ‘प्रशस्तपादीय भाष्य’ है—
‘तत्रायोनिजमनपेक्षितशुक्रशोणितं देवर्षीणां शरीरं धर्मविशेषसहितेभ्योऽणुभ्यो जायते।’
अर्थात् देवता और ऋषियोंके शरीर शुक्र-शोणितके बिना ही धर्मविशेषसहित अणुओंसे उत्पन्न होते हैं। इन सब बातोंसे सिद्ध होता है कि विकासवाद अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण वाद है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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