6.10 संघटनकी कुंजी ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.10 संघटनकी कुंजी

यह तो हुई विघटनकी बात। अब जहाँ ‘सङ्घे शक्ति: कलौ युगे’ की बात आजकल बहुत होती है, वहाँ भी संघटनकी योजनाएँ कैसे सफल हों, इस विषयमें सभी परेशान हैं। वास्तवमें जो संघटनपर रातों-दिन व्याख्यान दे और लेख लिख रहे हैं, जो स्वयं प्रान्त, समाज, राष्ट्रके संघटनपर जमीन-आसमानके कुलाबे एक किया करते हैं, उनके स्वाभाविक स्वार्थसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी काम प्राय: विघटनके मूल होते हैं। सौहार्द, सामंजस्य, सौमनस्य, मनुष्यत्वकी बातें वहींतक होती हैं, जहाँतक उनके निजी स्वार्थमें बाधा नहीं आती। फिर बाहरकी तो बात ही दूसरी है, पहले उनके घरोंमें ही कितना संघटन है? कुटुम्बियों, बन्धु-वर्गों, स्त्री, पुत्र, माता-पितामें क्या सौहार्द है? यदि नहीं तो बाहर कैसे होगा? वस्तुत: यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है कि व्यक्तियोंके सुधार बिना सामूहिक सुधार हो जायगा। यह सच है कि राष्ट्र, प्रान्त, समाजके वातावरणका प्रभाव व्यक्तियोंपर पड़ता है, पर व्यक्तियोंके ही समूहको तो समाज, राष्ट्र आदि कहा जाता है। यदि सभी व्यक्ति आत्मसुधारकी ओर ध्यान न देकर केवल समूह-सुधारके लिये प्रयत्नशील होंगे तो क्या स्वप्नमें भी वैयक्तिक या सामूहिक सुधार हो सकता है? कुछ व्यक्तियोंके समूहको कुटुम्ब, कुछ कुटुम्बके समूहको ग्राम या नगर कहा जाता है और उनके समूहको ही प्रान्त एवं राष्ट्र कहा जाता है। अत: जबतक वैयक्तिक, सामूहिक दोनों ही सुधारकी ओर ध्यान न दिया जाय, तबतक सफलताका स्वप्न देखना बेकार है। इसीलिये भगवान् मनु इस राष्ट्रिय, सामाजिक व्यवस्थाको ही लक्ष्यमें रखकर कौटुम्बिक, सामाजिक व्यवस्थापर जोर देते हैं और कुटुम्बपतिको वैयक्तिक नियन्त्रणके लिये यह बतलाते हैं कि धर्मबुद्धिसे ऐसा नियन्त्रण करे कि जिससे कुटुम्ब और समाजके विघटनका मूल विवाद ही न उठने पाये।
असहिष्णुता, अक्षमता, स्वार्थपरायणता आदि दोष ही विवाद और कटुता फैलाकर विघटन करते हैं। मनुका कहना है कि प्रति व्यक्तिको चाहिये कि वह ऋत्विक्, पुरोहित, आचार्य, मातुल, अतिथि, आश्रित, बालक, बूढ़े, रोगी, वैद्य, जातिवालों, सम्बन्धी, बान्धव, माता, पिता, बहन, भाई, पुत्र, स्त्री, बेटी तथा नौकर-चाकरोंके साथ विवाद न करे—
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितै:।
बालवृद्धातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवै:॥
मातापितृभ्यां जामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्॥
(४।१७९-८०)
अगर उपर्युक्त व्यक्तियोंमें एक व्यक्तिके चलते विवाद और विघटन न हुआ तो कौन कह सकता है कि ‘उसीके दृष्टान्तसे दूसरे भी वैसा कर एक महासंघटनका सूत्रपात न करेंगे? पर सहवाससे खटपट होना स्वाभाविक है। राग, रोष, ईर्ष्या, मद, मोह आदि बड़े-बड़े योग्योंके मनमें भी विकार, अपराग पैदा कर देते हैं। संघर्षसे बचना तो बड़ा कठिन है, स्वार्थोंके सम्बन्धसे पिता-पुत्रादिमें भी विवाद खड़ा होता है, फिर दूसरोंमें तो कहना ही क्या? अतएव मनु इसे धर्म बतलाकर इसके पालनसे परलोक-सिद्धि बतलाते हैं। धार्मिक पुरुष कठिन-से-कठिन कष्ट सहकर भी धर्मको बचाते हैं। धर्म-बुद्धिसे एक सम्राट् भी अपने गुरुका सेवक बनता है। उनके किये हुए अपमानोंको श्रद्धासे सहन करता है और उसके मनमें विकारका लेश भी नहीं आता। इसलिये मनुका कहना है कि इनके साथ झगड़ा बचाकर गृहस्थ सब पापोंसे छूट जाता है—
एतैर्विवादान् सन्त्यज्य सर्वपापै: प्रमुच्यते।
एभिर्जितैश्च जयति सर्वांल्लोकानिमान् गृही॥
(मनु० ४।१८१)
कुटुम्बमें विघटन, वैमनस्यसे नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक सभी प्रकारका पतन और पातक हो सकता है। पर उपर्युक्त लोगोंसे झगड़ा टालनेमें ये विषय उपस्थित ही नहीं होते। अत: समाजके संघटन, धारण-पोषणमें कोई बाधा नहीं पड़ती। धर्मके ही सम्बन्धसे बालक, बूढ़े, दुर्बल, रोगियोंके आग्रहों, बातों और चिड़चिड़ापनको सहना पड़ता है, जो भौतिक और स्वार्थ-दृष्टिके संघटनमें असम्भव है। ज्येष्ठ भ्राताको पिताके समान और भार्या तथा पुत्रको अपना शरीर समझकर उनसे विवाद बचाना चाहिये। दासवर्गको अपनी छायामें और कन्याको परम दयाका पात्र जानकर उन सबका सहन करना चाहिये।
भ्राता ज्येष्ठ: सम: पित्रा भार्या पुत्र: स्वका तनु:॥
छाया स्वो दासवर्गश्च दुहिता कृपणं परम्।
तस्मादेतैरधिक्षिप्त: सहेतासञ्‍ज्‍वर: सदा॥
(मनु० ४।१८४)
वास्तवमें इस तरह जो अपने सहवासियोंद्वारा अपनी निन्दा सह लेगा, वही व्यापक संघटनका अधिकारी होगा। किसी भी समाज या राष्ट्रको वशमें लानेके लिये बड़ी सहिष्णुता तथा स्वार्थ-त्यागकी अपेक्षा है। अपने कुटुम्बको कुटम्ब बनानेके बाद ही प्राणी वसुधाको कुटम्ब बना सकता है। जिसका अपने कुटुम्बमें ही सहयोग नहीं, जो अपने कुटुम्बके ही अधिक्षेपोंको नहीं सह सकता, वह दूसरोंके अधिक्षेपोंको कैसे सहेगा और कैसे उनके लिये स्वार्थ त्याग करेगा?
अधिक क्या? दैहिक संघटन भी कम चमत्कारपूर्ण नहीं है। हस्त, पाद, मुख, नेत्रादि एक-दूसरेकी विपत्तियोंमें कैसे भाग लेते हैं? पलकें, हाथ आदि नेत्रकी सारी विपत्तिको स्वयं लेना चाहती हैं। पैरमें काँटा लगनेपर नेत्र देखनेको उतावले हो उठते हैं; हाथ निकालनेको और मुँह फूँकनेको प्रस्तुत हो उठता है। देहीकी तो बात ही निराली है। यदि कहीं अपने दाँतोंसे जीभ कट जाय तो क्या दाँत पत्थरसे तोड़ डाले जायँ? एक अंगसे दूसरे अंगपर आघात हो तो क्या देही उसे काट दे? वह तो यही समझता है कि सब मेरे ही हैं। इस दृष्टिसे सर्वत्र व्यापक अनन्त एक आत्माको देखनेवाला पुरुष तो सब देहोंको अपना ही अंग समझता है, फिर अपनी देहपर प्रहार करनेवालेको क्या करे; क्योंकि वह भी तो अपना ही है—
‘जिह्वां क्वचित् सन्दशति स्वदद्भि-
स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत्।’
(श्रीमद्भा० ११।२३।५१)
‘सब अपना ही कुटुम्ब है या अपना ही अंग या स्वरूप है’, इस दृष्टिसे समाज और राष्ट्र एवं विश्वका हित चाहना बड़ी ऊँची बात है। बिना ऐसे भावोंके क्या संघटन सम्भव है?


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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