7.7 अतिरिक्त श्रम और मुनाफा
मार्क्सवादियोंका कहना है कि ‘मजदूरको मेहनतके फलका वह भाग जिसका दाम मजदूरको नहीं मिला, मालिकका मुनाफा है।’ मजदूर जितने समयतक मेहनत कर परिश्रमकी शक्तिका दाम पैदा करता है, उससे जितना भी वह अधिक करेगा, वह सब मालिकका मुनाफा होगा। यदि वह पाँच घंटे काम करके अपने परिश्रमकी शक्तिका दाम पूरा कर लेता है तो दिनभरके मेहनतके शेष घंटे मालिकके मुनाफेमें जाते हैं, वही अतिरिक्त श्रम है। अपनी श्रम-शक्तिको कायम रखनेके लिये मजदूरको जितना श्रम करना जरूरी है, उससे जितना भी अधिक मजदूरको करना पड़ता है, वह आवश्यक या अतिरिक्त श्रम है। उसका दाम अतिरिक्त मूल्य है। यह अतिरिक्त श्रम एवं अतिरिक्त मूल्य ही मालिकका मुनाफा है।
मार्क्सके आर्थिक सिद्धान्तोंकी यही आधारशिला है। उसके मतानुसार ‘इस अतिरिक्त श्रम एवं अतिरिक्त दामको पानेका आन्दोलन ही मजदूर आन्दोलन है। इसके फलस्वरूप समष्टिवाद या समाजवाद स्थापित होगा। जिसमें प्रत्येक व्यक्ति शक्तिभर परिश्रम करे और अपनी आवश्यकताके अनुसार पदार्थोंको प्राप्त करे। इससे शोषणका अन्त होगा, किसीको अपनी इच्छाविरुद्ध जीवन-निर्वाहके लिये विवश न होना पड़ेगा। फिर न उसके लिये नियन्त्रणकी जरूरत होगी, न शासन रहेगा और न सरकार रहेगी।’
अतिरिक्त दामके सम्बन्धमें लेनिनका कहना है कि सौदेके विनिमयसे अतिरिक्त दाम (मुनाफा) प्राप्त नहीं हो सकता; क्योंकि उसे तो समान लागतके सौदोंको एक-दूसरेसे बदला जाता है। सौदेका दाम न बढ़ने या घटनेसे भी अतिरिक्त दाम पैदा नहीं हो सकता; क्योंकि उसका तो इतना ही अर्थ होगा कि समाजके कुछ आदमियोंके हाथसे दाम निकलकर दूसरोंके हाथमें चला जायगा। समाजमें जो आज खरीदनेवाला है, वही कल बेचनेवाला और जो आज बेचनेवाला है, वही कल खरीदनेवाला बन जाता है। अत: अतिरिक्त दाम प्राप्त करनेके लिये पूँजीपतिको बाजारमें एक ऐसे सौदेकी खोज करनी पड़ती है, जिसे व्यवहारमें लाकर उसपर खर्च किये गये दामसे अधिक दाम प्राप्त किया जा सके। बाजारमें ऐसा सौदा मनुष्यकी श्रम-शक्ति ही है। मनुष्यकी श्रम-शक्तिका उपयोग है परिश्रम। परिश्रमका मूल है दाम। पूँजीपति मनुष्यकी मेहनतकी शक्तिको बाजार दामपर खरीद लेता है। दूसरे सब सौदोंकी तरह मनुष्यकी परिश्रम करनेकी शक्तिका दाम भी उसे पैदा करनेके लिये आवश्यक सामाजिक श्रमसे निश्चित करना पड़ता है। मनुष्यकी मेहनत-शक्तिको दस घंटेके लिये पूँजीपति उसे कामपर लगा देता है। मजदूर पाँच घंटे काम करके ही उतने दामका सौदा पैदा कर लेता है, जितना उसे दस घंटे काम करनेके बाद मिलता है। शेष पाँच घंटेमें मजदूर अतिरिक्त दाम या सौदा पैदा करता है, जो पूँजीपतिकी जेबमें जाता है। मार्क्सके मतानुसार अतिरिक्त श्रम या अतिरिक्त दाम ले सकना ही शोषणकी शक्ति और अधिकार है। समाजमें जहाँ कहीं शोषण होगा, इसी शक्ति एवं अधिकारके बलपर होगा। मनुष्यकी आदिम अवस्थामें पैदावारके साधन बहुत कमजोर थे; अत: दिनभर कठिन परिश्रमके बाद निर्वाहके लायक पदार्थ प्राप्त होते थे। उस समय मनुष्यद्वारा मनुष्यके शोषणकी गुंजाइश न थी। ज्यों-ज्यों पैदावारके साधनोंमें उन्नति होने लगी, मनुष्य पैदावार आसानीसे करने लगा और जितना उसके निर्वाहके लिये नितान्त आवश्यक था, उससे अधिक पैदा करने लगा; अर्थात् परिश्रमकी शक्तिको कायम रखनेके लिये जितना बिलकुल ही जरूरी था, उससे अधिक पैदा करने लगा तो यह पैदावार जमा होने लगी। यही धन हो गया और यही पैदावारका सबसे बड़ा साधन है।
इस कथनसे स्पष्ट है कि ‘पैदावारके सबसे बड़े साधन धनको उन्नत साधनके द्वारा व्यक्तिने स्वयं कमाया। ऐसा विकास होनेके बाद कुछ आदमियोंके परिश्रमका अतिरिक्त भाग दूसरोंके पास जमा होने लगा। वे अधिक साधन-सम्पन्न और बलवान् श्रेणीके बन गये।’ परंतु पूर्वोक्त युक्तिसे तो सिद्ध हो गया कि वस्तुके मूल्यका आधार श्रम ही नहीं; कच्चा माल, मशीन आदि भी है और कच्चे मालके समान ही श्रम भी खरीदा जाता है। श्रमका मूल्य माँग और पूर्तिके आधारपर अथवा पंचायत या न्यायालयद्वारा निर्धारित किया जाना उचित है और ऐसा होता भी था। भारतीय धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा आधुनिक भारतीय शासकोंके इतिहाससे भी वह सिद्ध है। ऐसी स्थितिमें अतिरिक्त श्रम, अतिरिक्त मूल्यका कोई अस्तित्व ही नहीं ठहरता। अतएव शोषणकी कहानी भी अतिरंजित ही है। हाँ, यह अवश्य है कि भारतीय दृष्टिकोणसे यदि ८ घंटे काम करनेके लिये ८ हृष्ट-पुष्ट बैल आवश्यक होते हैं तो अवश्य ही एक मजदूरसे बराबर दस घंटे काम लेना अनुचित है। साथ ही पूँजी और मुनाफाको ध्यानमें रखते हुए मजदूरोंका वेतन कम-से-कम इतना तो अवश्य ही होना चाहिये, जिससे मजदूरोंकी उचित शिक्षा एवं स्वास्थ्यकी उन्नति हो सके। अर्थात् भारतीय दृष्टिकोणसे यदि पशुके सम्बन्धमें उसके स्वास्थ्य और कामके घंटोंका इतना ध्यान रखा जाता है, तो मनुष्यके लिये जो सर्वोच्च कोटिका प्राणी है, शिक्षा-स्वास्थ्यका ध्यान रखते हुए कामके घंटोंकी कमी और पारिश्रमिककी अधिकताका ध्यान होना स्वाभाविक ही है। अत: कामके घंटे और मजदूरीका निष्पक्ष न्यायालयद्वारा तय होना उचित है। पैदावारके साधनोंकी उन्नति यदि दोष नहीं है तो उसका होना उचित ही है और जो पैदावारके साधनोंकी उन्नति कराता है, उसे उसका फल भी मिलना उचित ही है। फिर दूसरेकी उन्नतिसे दूसरेके पेटमें दर्द हो, इसे सिवा ईर्ष्याके और दूसरा क्या कहा जा सकता है?
कामके घंटोंमें कमी होनेसे अधिकाधिक लोगोंको काम मिलेगा, बेकारी घटेगी, इससे जनतामें क्रय-शक्ति बनी रहेगी, मालकी खपत बढ़ेगी, जिससे उत्पादनमें बाधा न पड़ेगी। जिन वस्तुओंका उत्पादन उपभोक्ताओंकी आवश्यकतासे अधिक होने लगे, उनपर प्रतिबन्ध लगाकर अन्य उपयोगी वस्तुओंके उत्पादन एवं तदुपयोगी उत्पादन-साधनोंके निर्माणका प्रयत्न होना चाहिये। इससे सभीका हित है। अत: इसके अनुकूल सरकारी प्रोत्साहन, प्रेरणा तथा आवश्यक आदेश भी होना चाहिये। इस तरह बेकारी भी रुकेगी, मालके खपतमें भी बाधा नहीं पड़ेगी और उपभोक्ताओंको आवश्यक उपभोग-सामग्री भी मिल सकेगी। यान्त्रिक विकासमें भी बाधा नहीं पड़ेगी और किसीकी व्यक्तिगत भूमि, सम्पति भी नहीं छीननी पडे़गी। इसके अतिरिक्त भी अधिक असन्तुलन दूर करनेके लिये दान, यज्ञ, सहायता आदिका प्रयोग किया जा सकता है। स्वकर्तव्य-पालनविमुख लोगोंकी सम्पत्तिका अपहरण करके भी बेरोजगारों, बेकारोंकी बेरोजगारी और बेकारी दूर करनेका प्रयत्न करना उचित है।
इसी तरह आजकल वकीलों, बैरिष्टरोंकी भी फीस, इंजीनियरोंके बड़े पैमानेके वेतन, डॉक्टरोंकी लम्बी फीस, विद्यार्थियोंकी पढ़ाईपर लम्बी फीस, हर व्यापार, हर धन्धेपर बढ़े हुए सरकारी टैक्स, मेलाके टैक्स, चुंगी-टैक्स, विक्रय-टैक्स आदि भी समाप्त होने चाहिये। इससे भी जनताकी गरीबी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। मकान भाड़ोंमें भी कमी होनी चाहिये। कई लोग ऐसे हैं, जिनके पास हजारों मकान तथा दूकानें हैं। वे ज्यादा भाड़ाके साथ-साथ एक लम्बी रकम घूस या पगड़ीकी लेते हैं, जो खुले आम चोरी है। उसपर भी नियन्त्रण होना आवश्यक है। ऐसी अधिक आमदनियोंपर सरकारी टैक्स आदि देनेके बाद अतिरिक्त आमदनीमें पाँच भाग करके क्रमेण धर्मार्थ, यशोऽर्थ, मूल सम्पत्तिकी रक्षार्थ एवं वृद्धॺर्थ, भोगार्थ तथा स्वजनार्थ उपयोग किये जानेसे आर्थिक असन्तुलन मिटता है। आधुनिक लोग दूसरोंकी सहायताके नामपर दूसरोंकी बपौती मिलकियत छीन लेते हैं; परंतु यह सहायता नहीं है। एक अंगकी सहायताके लिये कभी-कभी दूसरे अंगके मांस एवं हड्डीकी भी सहायता ली जाती है, परंतु जिससे सहायता ली जाती है, उसे स्वस्थ बनानेका यत्न किया जाता है। किसी व्यक्तिसे खूनकी सहायता लेकर उसे दूध-घी पिलाकर स्वस्थ बनानेका प्रयत्न किया जाता है। जिस गायसे दूध लिया जाता है, उसको इस लायक रखा जाता है कि वह कल भी सहायता देने योग्य रहे। यह नहीं कि एक दिन दूध लेकर उसे सदाके लिये मिटा दिया जाय। वस्तुस्थिति तो यह है कि आधुनिक मार्क्सवादियोंने यह स्थिति उत्पन्न कर दी है कि छीनाझपटी करनेवाले लोगोंकी बहुतायत हो गयी है। वे कहते हैं कि लेंगे, मरकर लेंगे, मारकर लेंगे, जहन्नुममें जाकर, जहन्नुममें भेजकर लेंगे, लूटकर-मारकर हर तरहसे लेंगे, लेंगे; किंतु फलस्वरूप देनेवाले कहते हैं कि मर जायँगे, मिट जायेंगे, परंतु नहीं देंगे, नहीं देंगे। ठीक इसके विपरीत रामराज्यकी स्थिति यह है कि देनेवाला हर तरहसे देनेकी चेष्टा करता है। शास्त्र कहते हैं कि श्रद्धासे, प्रेमसे, लज्जासे, भयसे, हर तरहसे देना चाहिये। लेनेवालेको हर तरहसे बचना चाहिये। मुफ्तखोरीका माल हरामखोरीका माल है। उससे वंशवृद्धि, समृद्धि तथा बरक्कत रुक जाती है। इस दृष्टिसे देनेवाला हर तरहसे देना चाहता है और लेनेवाला हर तरहसे बचना चाहता है। मार्क्सवादमें ‘दो दो’, ‘नहीं नहीं’ का उद्घोष होता है। रामराज्यमें ‘लो लो’ ‘नहीं नहीं’ का उद्घोष होता है। मार्क्सवादमें सब वस्तुएँ सरकारी हो जाती हैं, व्यक्तिकी कोई मिलकियत नहीं रहती है; किंतु रामराज्यमें व्यक्तियोंकी बपौती सम्पत्ति सुरक्षित रहती है और उसपर उचित धर्मनियन्त्रण रहता है। इस पक्षमें धन, धर्म या जान-मालकी रक्षा जो कि राज्य-स्थापनाका प्रमुख उद्देश्य है, सुरक्षित रहती है। मार्क्सको छोड़कर प्राच्य, प्रतीच्य सभी राजनीतिज्ञोंने धर्म एवं धनकी रक्षा या जान-मालकी रक्षा ही सभ्य व्यवस्थाका उद्देश्य माना है। इसीलिये व्यक्तियोंने अपने अधिकार शासनको सौंपा था, जिसके पूरा न होनेपर राज्य-सत्ताको उलट देना जनताका जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है। मार्क्सवादी व्यवस्थामें धर्म, धन एवं जान-मालका प्रत्यक्ष अपहरण होता है। वैध सम्पत्ति, बपौती आदिका कुछ भी महत्त्व मार्क्सके मतमें नहीं है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें