7.8 अतिरिक्त मूल्य और शोषण ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

7.8 अतिरिक्त मूल्य और शोषण

कहा जाता है कि ‘कला-कौशल उद्योग-धन्धोंके विकासके पहले जब दास-प्रथा थी, तब दासोंका भी शोषण अतिरिक्त श्रमके रूपमें होता था। दास एवं गुलामको केवल अन्न और वस्त्र दिया जाता था। वह भी उतना ही जितना कि उसके शरीरमें परिश्रम करनेकी शक्ति कायम रखनेके लिये पर्याप्त था। दासद्वारा कराये गये परिश्रमके सम्पूर्ण फलको मालिक लोग भोगते थे। यही बात सामन्तशाही एवं जागीरदारीके जमानेमें थी। सामन्तों एवं जागीरदारोंकी प्रजा कठिन परिश्रमसे जो पैदावार आदि उपज भूमि या भूमिकी पैदावारसे सम्बन्ध रखनेवाले दूसरे कामोंसे करती थी, उसमेंसे इन लोगोंके शरीरमें परिश्रम-शक्ति बनाये रखनेके लिये अत्यन्त आवश्यक भागको छोड़कर शेष भाग दाम, कर, लगान या नजरानाके रूपमें मालिकके पास चला जाता था, परंतु उस समय शोषण होता था मालिकोंके उपयोग और उपभोगके लिये। उस समय व्यवहारमें लाना ही धनका उपयोग होता था। इसलिये शोषण भी उतना ही होता था, जितनेसे मालिकोंकी आवश्यकता पूरी हो जाती थी। मालिक भी शोषणद्वारा प्राप्त धनको अपने व्यवहारमें खर्च कर देते थे, जिससे वह धन दूसरी श्रेणियोंके पास पहुँचकर फिर बाजारमें पहुँच जाता था और दूसरोंके उपयोगमें आता रहता था, परंतु पूँजीवादके युगमें धनको पूँजी बनाकर उसका उपयोग खर्चके लिये नहीं, बल्कि अधिक धन पैदा करनेके लिये किया जाता है। उसके पैदावारके साधन बढ़ाये जाते हैं। पूँजीपतियोंके लिये मुनाफेका क्षेत्र बढ़ाया जाता है। मुनाफेका बहुत छोटा भाग पूँजीपतियोंके खर्चमें आता है। शेष पूँजी बनकर मुनाफा कमानेके ही काममें आता है। जितना-जितना अधिक मुनाफा होता है, उसमें और अधिक मुनाफा कमानेका यत्न किया जाता है। इस तरह पूँजीपतिके मुनाफा कमानेसे सन्तुष्ट होनेकी कोई सीमा नहीं रहती।’
वस्तुत: अंग-अंगीभाव तथा शेष-शेषी-भावसे ही सेव्य-सेवक-भाव है। सेवक, दास आदि शब्द लगभग समानार्थ हैं। संसारमें ये भाव किसी-न-किसी रूपमें सदा ही बने रहते हैं। भले ही कहा जाय कि आज राजा-प्रजाका भाव मिट गया, आज प्रजा ही राजा है, सरकार या सरकारी आदमी सेवक हैं। फिर भी सिवा शब्दोंके व्यवहारके कोई भी अन्तर नहीं आया। आज केवल वोट डालनेके समय तक भले ही कुछ अंशोंतक जनताका सम्मान किया जाय; परंतु व्यवहारत: जिन लोगोंके हाथमें शासनसूत्र आता है, भले ही अपना नाम वे सेवक रखें; किंतु वे सत्ताधारी राजेका भी कान काटते हैं। वस्तुत: आज सेवकों (शूद्रों)-का ही राज्य है। मालिक कही जानेवाली जनता जो चाहती है, उसीकी पूर्ण अपेक्षा की जाती है। आज भारतीय जनता गोहत्या-बन्दी चाहती है। धर्महत्या, शास्त्रहत्याका विरोध करती है; परंतु सेवक कहे जानेवाले सरकारी अधिकारी उसकी कुछ भी परवा नहीं करते। कहनेके लिये आज दास या गुलामी-प्रथा समाप्त हो गयी; परंतु खास साम्यवादी देश रूसमें ही विरोधियोंके साथ दासों एवं गुलामोंसे भी अधिक बुरा व्यवहार किया जाता है। कहनेके लिये भारतमें बेगारी-प्रथा समाप्त हो गयी; किंतु वही श्रमदानके रूपमें जोरोंसे प्रचलित है, जिसे इच्छा न होनेपर भी करना पड़ता है। बड़े-बड़े अध्यापक, प्रिंसिपल तथा उच्च श्रेणीके लोग इच्छा न रहनेपर भी सरकारी आज्ञानुसार श्रमदानमें लगते हैं। इतना ही नहीं, कहीं तो झूठे तौरपर भी रजिस्टरोंकी खानापूरी की जाती है। प्राचीनकालमें बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी अपने आपको ईश्वरका, महापुरुषोंका, भगवद्भक्तोंका दास बननेमें गौरव अनुभव करते थे। धर्मराज युधिष्ठिरको हरिदासवर्य कहा जाता था—‘हरिदासस्य राजर्षे:’ (श्रीमद्भा० १०।७५।२७)। वैष्णवोंमें बड़े-बड़े महापुरुष अपनेको दासानुदास कहते हैं, तथापि यहाँ स्वामी भगवान्, गुरुजन दासोंके शोषक नहीं होते। वे दासोंको कृतकृत्य करनेवाले होते थे। साक्षात् भगवान् विष्णु कहते हैं कि मैं भक्तोंके परतन्त्र हूँ—‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज’ (श्रीमद्भा० ९।४।६३)। आजका दासत्वसे मुक्त कहा जानेवाला नागरिक अन्न एवं वस्त्रके लिये तड़पता हुआ मरता है। जब वह काम करने लायक नहीं रहता तो उसका बेटा-पोता भी उसे नहीं पूछता। पर दासत्व-प्रथा-कालमें भी दास भले काम करने लायक न हो, उसके और उसके कुटुम्बका उत्तरदायित्व उसके स्वामीपर रहता था। रहा यह कि उत्पादन साधन-पूँजी बढ़ानेका उत्तरोत्तर प्रयत्न बढ़ता है, तो अगर यह औद्योगिक विकास गुण है, तब तो भला ही है। आज भी ऐश-आरामसे धन बचाकर उत्पादन-वृद्धिके काममें लगाना गुण समझा जाता है। रामराज्यवादी तो फिर भी महायन्त्रोंके निर्माणपर प्रतिबन्ध लगाना उचित समझता है, परंतु मार्क्सवादी तो महायन्त्रोंका उत्तरोत्तर विकास ही चाहता है।
यदि मुनाफाका विस्तार एवं विकास न होता तो आजकी वैज्ञानिक उन्नति भी असम्भव हो जाती। फिर रामराज्यकी दृष्टिमें तो सदा ही काम-दाम-आरामका उचित वितरण आवश्यक है। श्रमके अनुसार दाम आरामकी व्यवस्था तो होनी ही चाहिये, किंतु कभी यदि व्यक्ति श्रमके लायक न रहे तो भी मनुष्यताके नाते उसके भी दाम-आरामकी व्यवस्था होनी चाहिये और वह दास-प्रथाके समय भी थी। वस्तुत: उस समयके वे दास नाममात्रके ही दास थे। वे तो कुटुम्बके एक प्रकार सदस्य समझे जाते थे। इसीलिये कुटुम्बपति ऐसे दासोंकी भोजन-व्यवस्थाके अनन्तर ही अपने भोजन-वस्त्रकी व्यवस्था करता था। उसके भोजन करनेपर ही कुटुम्बपति भोजन करता था।
पूँजीवादके समाजमें पैदावारका काम पूँजीके आधारपर होता है। पूँजीपतिके पास पैदावारके जितने साधन हैं, वे सब उसकी पूँजी हैं। पूँजीवादके समर्थक कहते हैं—‘यदि पूँजीवादी प्रणालीको समाजसे हटा दिया जायगा, पूँजी न रहेगी, मुनाफा कमानेकी प्रणाली न रहेगी तो समाजमें पैदावार बढ़ानेके लिये साधनोंको किस प्रकार बढ़ाया जायगा?’ परंतु मार्क्सवादके अनुसार वही धन पैदावारका साधन, पूँजी है, जिससे मुनाफा कमाया जाता है। जिसके उपयोगके पदार्थ तैयार किये जाते हैं, वह धन पूँजी नहीं है। जो भेद पदार्थ एवं सौदेमें है, वही भेद पैदावारके साधनों और पूँजीमें है। गेहूँकी बोरी यदि परिवारके व्यवहारके उपयोगके लिये है तो वह उपयोग पदार्थ है और यदि वह बिक्रीके लिये है तो वह सौदा है। कोई भी वस्तु सौदा है या पदार्थ वह इस बातपर निर्भर करता है कि वह वस्तु किस प्रयोजन या उपयोगमें आयगी? इसी प्रकार पैदावारके साधनोंके बारेमें भी उनका प्रयोजन यह निश्चय करता है कि वह जरूरत पूरी करनेका साधन है या मुनाफा कमानेका साधन? किसी मशीनसे यदि उपयोग पदार्थ बनाये जाते हैं, तो वह पैदावार साधन तो अवश्य है, पर मुनाफा कमानेका साधन नहीं। अत: मार्क्स उसे पूँजी नहीं कहता। परंतु यदि उस मशीनपर दूसरे लोगोंसे श्रम कमाकर मुनाफा कमाया जायगा तो वह पूँजी कहलायेगा। समाजवादी समाजमें बड़ी-बड़ी मिलें रहेंगी, पैदावार और नये साधन जारी करनेके लिये बड़ी मात्रामें धन इकट्ठा किया जायगा, परंतु उसका उद्देश्य व्यक्तियों या श्रेणियोंके लिये मुनाफा कमाना न होकर जनताके उपयोगके लिये उपयोगी पदार्थ और साधन पैदा करना होगा। इसीलिये वह पूँजी न कहलायेगा। वह होगा समाजकी आवश्यकताओंको पूरा करनेका साधन-धन।
वस्तुत: उपयोग पदार्थ एवं सौदामें भी पारमार्थिक भेद नहीं है। उपयोग, उद्देश्य या प्रयोजनके भेदसे पदार्थमें भेद नहीं हो सकता। वही विष चन्द्रोदय आदि औषध बनानेके काम आता है, वही मृत्युके काममें आता है। यह सदुपयोग-दुरुपयोगका भेद है। बिजलीसे प्रकाश भी होता है, दूसरे भी कितने काम होते हैं, मृत्यु भी हो जाती है। फिर भी बिजली बिजली ही रहती है, उसमें मौलिक अन्तर नहीं होता। गेहूँकी बोरी स्वार्थ भी हो सकती है, परार्थ भी; किंतु इससे गेहूँकी बोरीमें अन्तर नहीं आता। इसी तरह उपयोग या मुनाफेके लिये गेहूँकी बोरीमें प्रयोग-भेद होनेपर भी उसमें कोई अन्तर नहीं होता।
बड़े-बड़े साधनोंके लिये बड़ी मात्रामें धन जुटाना आवश्यक ही होगा। फिर डाका डालकर, छीना-झपटीकर, जबरदस्ती टैक्स लगाकर, इंगालवृत्तिसे धन नहीं बटोरना है तो उचित मुनाफाद्वारा ही साम्यवादी सरकारको भी धन जुटाना होगा। नीतिशास्त्रोंका मत है कि इंगालकार (कोयला बनानेवाले)-की वृत्तिसे (अर्थात् जैसे वह वृक्षको जड़-मूलसे काटकर उसे जलाकर कोयला बनाता है, उसी तरह) प्रजाको लूटकर, उसकी भूमि सम्पत्ति छीनकर धनसंग्रहकी नीति न अपनायी जाय; मधुकर-वृत्तिसे ही धनसंग्रह उचित है। जैसे मधुमक्खी वृक्षों, पौधों, पुष्पों, स्तबकों, फलोंको बिना नष्ट किये ही उनमेंसे रस संग्रहकर मधु बना लेती है, उसी तरह प्रजाको बिना नष्ट किये ही उसकी सम्पत्तिको बिना छीने ही आवश्यक धन-संग्रह करना उचित है।
व्यापार-कौशलसे प्राणी मृतमूषिकामात्रके आधारपर धनवान् बन सकता है। इससे किसीका नुकसान भी नहीं होता और धनसंग्रह भी हो जाता है। कई स्थानोंमें मूर्खतावश सरकारें गरीबोंकी गाढ़ी कमाईका लाखों रुपया खर्च करके भी कोई लाभ नहीं उठा पातीं। भाखरा आदि बाँधोंके भ्रष्टाचारोंकी कहानियाँ अभी ताजी ही है। ऐसे उदाहरण कितने हैं।
जैसे कोई मतवादी या सरकारें धन-संग्रहका उद्देश्य प्रजाका उपयोग बताकर पूँजी एवं पैदावारके साधनोंके भेद सिद्ध करनेका प्रयत्न करती हैं, उसी तरह मुसोलिनी तथा हिटलर सम्पत्ति बढ़ानेके नामपर दूसरे राष्ट्रोंको कुचलकर उनपर अधिकार जमाना उचित समझते थे। वैसे ही मार्क्सवादी पैदावारके साधन संग्रहके नामपर प्रजाकी वैधसम्पत्तियोंका भी अपहरण करते हैं। दान, इनाम तथा क्रयद्वारा मिली, दायमें मिली बपौती सम्पत्तियोंको भी छीन लेते हैं। कई सद‍्गृहस्थ अपनी सम्पूर्ण कमाईको धर्मार्थ; परोपकारार्थ ही लगाते हैं। रामराज्यकी दृष्टिसे कमाईका यही सदुपयोग है। सत्पुरुषोंकी विद्या ज्ञानके लिये, धन दान तथा परोपकारके लिये होता है। खलकी विद्या विवाद, धन घमण्ड एवं शक्ति परोत्पीड़नके लिये होती है—
विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्ति: परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेत-
ज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
(गुणरत्नम् ७)
ऐसी स्थितिमें रामराज्यके अनुसार वैध धनोपार्जन प्रथम दानार्थ, परोपकारार्थ, यज्ञार्थ है, पश्चात् भोगार्थ। मुनाफा कमानेका भी उद्देश्य यज्ञार्थ-परोपकारार्थ ही है। अत: समाजवादी अर्थव्यवस्था सिवा अपहरण और लूटपाटके और कोई व्यवस्था नहीं है। इसके अनुसार जनता धनहीन, धर्महीन, शक्तिहीन होकर मुट्ठीभर तानाशाहोंकी गुलाम बन जाती है। दासोंकी जैसी भी स्वतन्त्रता उसे नहीं मिलती। बोलने, विचार व्यक्त करने, अपनी कमाईका सदुपयोग करनेके अधिकार भी जनतासे छिन जाते हैं। मनु, शुक्र, बृहस्पति, कामन्दक, कौटल्य, सुकरात, अरस्तू, अफलातून सभी जान-मालकी रक्षा राज्यविधानका उद्देश्य मानते हैं; किंतु मार्क्सवादी व्यवस्थामें राज्य ही जान-मालका विध्वंसक बन जाता है। जनताकी स्वतन्त्रता सर्वथा नष्ट हो जाती है।
लेनिन एवं स्तालिन बड़े गर्वके साथ कहा करते थे कि ‘रूसमें गैरसरकारी पार्टीका न होना दूषण नहीं भूषण है। जिन देशोंमें वर्गभेद विद्यमान होते हैं, उनमें विभिन्न वर्गोंका प्रतिनिधित्व करनेवाली अनेक राजनीतिक पार्टियाँ अपेक्षित हो सकती हैं, किंतु रूसमें तो वर्गभेद समाप्त हो चुके हैं, फिर तो यहाँ किसी अन्य राजनीतिक पार्टीका न होना गुण ही है। पर उनका यह गर्व सिवा दम्भके और कुछ नहीं था। वस्तुत: पुलिस-पल्टन तथा गुप्तचर विभागका जाल बिछाकर, मतभेद रखनेवाले लोगोंकी जबानपर ताला लगाकर उसे दबा रखा गया था। यदि वहाँ वर्गोंका अवशेष न होता, तो लेखन-भाषण एवं प्रेसों तथा पत्रोंकी स्वतन्त्रतापर प्रतिबन्ध क्यों लगा रखा जाता? यदि विरोधीवर्ग नहीं थे तो खतरा किनसे था? प्रेसों, पत्रोंकी स्वतन्त्रता आज संसारके सभी देशोंमें मान्य है, पर रूसमें उसकी भी स्वतन्त्रता नहीं। वहाँ कोई व्यक्ति सरकारके विरुद्ध न भाषण दे सकता है, न लेख ही लिख सकता है और न कोई सरकारके विरुद्ध नोटिस-पोस्टर निकाल सकता है। फिर स्वतन्त्र अखबार निकालना, सरकारी पार्टीके विरुद्ध चुनाव आदि लड़ना तो दूरकी बात है। नाटकके लिये मतगणनाके समय सरकारी प्रेरणासे कुछ स्वतन्त्र व्यक्ति खड़े हो जायँ, यह अलग बात है। ऐसी स्थितिमें यह कहना कि ‘रूसमें वर्गभेद समाप्त हो गया है और वहाँ दूसरी राजनीतिक पार्टीका न होना भूषण है’, सिवा दम्भके और क्या है?’
लेनिन तथा स्तालिनने संक्रमणकालके नामपर रूसी समाजवादी शासनमें सर्वहाराके डिक्टेटरशिपका जोरदार समर्थन किया था। इन डिक्टेटरोंके भीषण डिक्टेटरशिपमें कंटकशोधनके नाम एक-एक विरोधीको चुनकर समाप्त कर दिया गया था। ट्राटस्की, बुखारिन आदि हजारों कामरेड तथा उनके लाखों अनुयायियोंको मौतके घाट उतार दिया गया था। स्तालिनके विरोधियोंकी इन बातोंको मिथ्या प्रचार कहकर उन काले कारनामोंको छिपानेका प्रयत्न किया जाता था, परंतु अब खुश्चेव तथा बुल्गानिन जो स्तालिनके पक्‍के अनुयायी थे, उसके भीषण डिक्टेटरशिपकी निन्दा कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि १९३६ से १९३८ तक पाँच हजारसे अधिक उच्च सोवियत अधिकारियोंको नष्ट कर दिया गया था। स्तालिनके चित्रोंको हटाने और उसके प्रति श्रद्धा-भक्ति मिटानेका यत्न कर रहे हैं। वस्तुत: यह तो मार्क्सवादी व्यवस्थाका ही दोष है। जहाँ ईश्वर और धर्मका सम्मान नहीं होगा; लोगोंको लिखने, बोलनेकी आजादी न होगी, वहाँ भीषण डिक्टेटरशिपका होना अनिवार्य है। स्वयं बुल्गानिन तथा खुश्चेव भी डिक्टेटर ही हैं। बेरियाको गोली मारकर मालेनकोवको पार्टी एवं शासनसमितिके प्रधान पदसे हटाकर मोलोटोवको दबाकर अपने अधिकारोंको दृढ़ रखना ही उनका लक्ष्य था। इसके लिये अभी भीषण उलट-फेर एवं हत्याओंकी आवश्यकता पड़ सकती है। जैसे स्तालिनने लेनिनके अनुयायियोंको नष्ट किया था, अब उसी प्रकार स्तालिनके साथियोंका सफाया करनेका प्रयत्न चल रहा है।
अधिकार-प्राप्तिके लिये चलनेवाले इन संघर्षोंका कभी भी अन्त नहीं हो सकता। जर्मनीके हिटलरका नात्सीवाद, इटलीके मुसोलिनीका फासिस्टवाद, रूसी समाजवादियोंका डिक्टेटरवाद सब एक-ही-जैसा है। भारतमें भी समाजवादी ढंगकी समाज-रचनाका प्रयत्न चल रहा है, जिसका अन्तिम रूप यही डिक्टेटरशिप होनेवाला है। व्यक्तियोंकी भूमि, सम्पत्ति, उद्योग, छीनकर उन्हें विरोधी शक्तिरहित बनानेका भीषण षडॺन्त्र चल रहा है। अध्यादेशी आर्डिनेन्सोंद्वारा जीवन-बीमा-कम्पनी-जैसी एक-एक वस्तुका सरकारीकरण हो रहा है। एक संसद्-सदस्यने बताया कि यदि अधिवेशनोंके दिन निकाल दिये जायँ तो प्रतिदिन एक अध्यादेशका औसत पड़ता है। इस तरह भारतका वर्तमान काँग्रेसी शासन भी डिक्टेटरशिपकी ओर ही बढ़ रहा है। विरोधियोंके दमन करनेकी नीतिमें यहाँ भी तेजी आ रही है।
भारतमें उस मार्क्सवादका विस्तार होने जा रहा है, जिसमें आत्मा-परमात्माका खण्डन किया जाता है। शून्यवादी तो जड़-चेतन सभीका खण्डन करके शून्यताका ही प्रतिपादन करते थे। आस्तिकोंने उनका खण्डन कर आत्मा और परमात्माका अस्तित्व प्रतिपादित किया। आज भी दृढ़ अध्यवसायके साथ विचार करनेसे मार्क्सवादकी निस्सारता स्पष्ट हो जाती है। अर्थपरायण प्राणी अर्थको ही सबका मूल समझता है। जहाँ धार्मिक, आस्तिक लोग धर्मको ही सम्पूर्ण जगत‍्की प्रतिष्ठा कहते हैं, वहाँ चार्वाकोंका अनुसरण करते हुए मार्क्सवादी अर्थको ही सम्पूर्ण जगत‍्की प्रतिष्ठा कहते हैं। ‘धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा’ के मुकाबिलेमें ‘अर्थो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा’ कहते हैं। अर्थका माहात्म्य महाभारतादि ग्रन्थोंमें पर्याप्तरूपोंमें वर्णित है तथापि आस्तिकजन अर्थका भी मूल धर्मको ही मानते हैं। इसी अभिप्रायसे कहा गया है—‘धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।’ धर्मसे ही अर्थ एवं कामकी भी प्राप्ति होती है। देखते ही हैं बड़े-बड़े अर्थशास्त्री हजारों प्रकारके प्रयत्न करते हुए भी भाग्यहीन होनेसे दरिद्र ही बने रहते हैं। स्वयं मार्क्स ही इसका उदाहरण है। मार्क्स जितना अर्थशास्त्रका विचार कर सका, उतना अर्थार्जन नहीं कर पाया। जैसे निपुण चिकित्सकके लिये रोगी रहना एक बिडम्बना ही है, वैसे ही एक अर्थनिष्णातका अर्थविहीन दशामें पड़े रहना भी विडम्बना ही है। अत: धर्ममूलक ही अर्थ-काम भी होते हैं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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