7.19 सामाजिक संकट
जो कहा जाता है कि ‘सम्पूर्ण उत्पादन-साधनों या मुनाफा कमानेके साधनोंका समाजीकरण हो जानेसे कोई वस्तु मुनाफाके लिये कमायी ही न जायगी, उपयोगके लिये आवश्यकताके अनुसार ही सब वस्तुओंका उत्पादन होगा, अतएव क्रय-शक्तिके घटने और बाजारमें माल न खपत होनेका प्रश्न ही नहीं उठेगा। पूँजीवादमें कल-कारखाने व्यक्तिगत होते हैं, अत: पूँजीपतिके सामने मुनाफा कमाना ही मुख्य लक्ष्य रहता है। वह आवश्यकताभर उपयोगी वस्तु पैदा करके कारखानोंको बन्द नहीं रख सकता; क्योंकि इससे उसका आर्थिक नुकसान होता है। वह बराबर कारखाना चलाकर माल पैदा करता है और दूसरे देशोंके बाजारोंको माल खपतके लिये ढूँढ़ता है। बेकार मजदूरोंकी परवा भी उसे नहीं होती; परंतु बेकारीसे यदि ९५ प्रतिशत मजदूरोंकी क्रय-शक्ति घट जायगी तो बाजारोंमें मालकी खपत न होनेसे पूँजीवादके सामने गतिरोध अनिवार्य होगा। जब सब कारखाने एवं उत्पादन-साधन मजदूर सरकारके हाथमें होंगे, तब मुनाफा कमाना उसका लक्ष्य ही नहीं होगा। वह तो उपयोगके लिये ही वस्तु-निर्माण करायेगी। उपयोगी वस्तु पैदा हो जानेपर कारखानोंको बन्द भी रख सकती है। उसके यहाँ मजदूरोंको अन्य उपयोगी वस्तु-निर्माणमें लगाया जा सकता है। सभी नागरिकोंके लिये अच्छी मोटर, अच्छे मकान, अच्छा भोजन, अच्छा वस्त्र आदि उपयोगी वस्तुओंके निर्माणके लिये नये-नये कारखाने बनाये जायँगे। उनमें सब लोगोंको काम दिया जायगा। यन्त्रोंके पूर्ण विकास हो जानेपर जब फिर थोड़े ही समयमें थोड़े ही आदमियोंद्वारा सब उपयोगी वस्तुओंका निर्माण हो जायगा तो भी बारी-बारीसे थोड़ा-थोड़ा काम सबसे लिया जायगा। सप्ताहमें एक दिन या मासमें एक दिन ही सबको काम करना पड़ेगा। शेष समय साहित्य, विज्ञान, कला आदिके सीखनेमें लोग लगा सकते हैं। इस तरह जो समस्या पूँजीवादमें हल नहीं हो सकती, वह सब कम्युनिज्ममें हल हो जायगी।’
परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि जहाँ भी ईमानदारीपूर्वक उत्पादन एवं ईमानदारीसे वितरणकी व्यवस्था होगी, वहीं उक्त समस्याका समाधान हो सकता है। किसी भी अच्छे शासनका यही लक्ष्य होता है कि राष्ट्रकी जनताको योग्यता एवं आवश्यकताके अनुसार काम, दाम, आराम मिले। किसीको काम, दाम, आरामके अभावमें बेकारीका मुकाबला न करना पड़े—यह बात कम्युनिष्ट सरकार बन जाने मात्रसे सम्पन्न नहीं हो सकती। कम्युनिष्ट सरकार भी कोई समस्या जादूकी छड़ीसे नहीं सुलझा सकती; किंतु काम, दाम, आरामके वितरणमें ईमानदारी लानेसे ही समस्याओंका समाधान हो सकता है। ईमानदारीके बिना वितरणमें वैषम्य, पक्षपात होना स्वाभाविक है। कम्युनिष्टोंमें भी पदाधिकारके लिये होड़ चलती ही है। इसीसे जारशाही खतम होते ही क्रान्तिकारियोंमें दलबन्दियाँ हुईं और पक्षपात, मारकाट शुरू हो गयी। ईमानदारी होनेके कारण ही धर्म-नियन्त्रित राम-राज्य या कोई भी शासन उक्त समस्याका समाधान कर सकता है। अर्थात् किसीका वैध स्वत्व एवं अधिकार बिना छीने भी आमदनी एवं उसके उपयोगपर नियन्त्रण किया जा सकता है। पूर्वोक्त ढंगसे अन्यायोपार्जित बड़ी-बड़ी पूँजीको ग्रहणकर बेरोजगारोंको रोजगार दिया जा सकता है। कर्तव्य-विमुखोंका भी धन लेकर बेकारी दूर की जा सकती है। वैध, अतिरिक्त आयके भी पाँच हिस्सेमें चार हिस्सा राष्ट्रीय काममें लगाया जा सकता है। दान एवं सहायताकी परम्परा उद्बोधितकर बेकारी एवं असन्तुलन मिटाया जा सकता है। विपत्तिकालमें जैसे राज्य-कोषसे राष्ट्रकी सहायता की जाती है, वैसे ही विशेष विपत्-कालमें संग्राम या अन्य उपयोगी कामके लिये व्यक्तिगत कोष या पूँजी, भूमि अन्य साधनोंका भी राष्ट्रहितके लिये उपयोग किया जा सकता है। जैसा कि अब भी संग्रामके समय सभी राष्ट्रोंके शासकोंको विशेषाधिकार होता है कि वे किसी नागरिकके मकान, मोटर, रुपया आदि सरकारी कामके लिये ले सकते हैं। साथ ही जबतक महायन्त्रोंपर नियन्त्रण नहीं होता, तबतक पूँजी, श्रम एवं लाभ तथा राष्ट्रहितको ध्यानमें रखकर व्यवसायियों, समाज तथा राज्यसंचालकोंद्वारा उचित श्रम-मूल्य निर्धारण किया जायगा। जैसे-जैसे उत्तमोत्तम यन्त्रोंका विकास होगा, कम-से-कम लोगोंके द्वारा अधिक-से-अधिक माल पैदा होने लगेगा, वैसे-वैसे कामके घण्टोंमें कमी की जायगी, मजदूरोंकी संख्या बढ़ायी जायगी। इस पक्षमें यह भी हो सकेगा कि मासभरमें प्रत्येक मजदूरको एक घण्टा ही काम करना पड़ेगा और उतने ही काम करनेके बदले उसे उच्चस्तरीय जीवन-निर्वाहयोग्य धन मिल जायगा और उसकी क्रय-शक्ति बनी रहेगी तथा मालकी खपत न घटेगी।
राष्ट्रहित तथा अपना घाटा रोकनेके लिये व्यवसायी भी उतना ही माल बनायेंगे, जितनेकी खपत होगी। अपना शेष धन और मजदूर अन्य उपयोगी वस्तु बनानेमें लगायेंगे। यदि जडवादी, ईश्वर-धर्म-विमुख देहात्मवादी कम्युनिष्टोंमें ईमानदारी हो सकती है, पक्षपातशून्य होकर सबका हित सोचकर ईमानदारीसे उत्पादन और वितरणका काम ठीक चला सकते हैं तो गैरकम्युनिष्ट धर्मनियन्त्रित, ईश्वर-आत्मा, लोक-परलोक तथा धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक माननेवाले रामराज्यवादी सुतरां ईमानदार तो हो ही सकते हैं। इस पक्षमें नौकरशाही रुकेगी। यन्त्रवत् अन्य प्रेरित प्रवृत्ति मिटेगी, उत्साह रहेगा, दान, पुण्य, यज्ञ, तप, परोपकारकी भावनासे राष्ट्र एवं समाजका हिताचरण अधिक सम्भव होगा। नरकका डर, स्वर्गका लोभ भी बुरे कर्मोंका निवर्तक एवं अच्छे कर्मोंका प्रवर्तक होगा। आस्तिकका भविष्य विशाल है। अन्तमें वैकुण्ठ या परम अपवर्ग उसका ध्येय रहता है, जिसके लिये सर्वस्व-त्याग भी सम्भव होता है। इसके विपरीत जड कम्युनिज्ममें यह सब असम्भव ही है। मान भी लिया जाय कि कम्युनिष्टोंका स्वप्न पूरा हुआ और पूर्णरूपसे यान्त्रिक विकास सम्पन्न हुआ और सबके लिये ही मोटर, वायुयान, भोजन, वस्त्रादि मिलने लगा। पर यदि महीनाभर या वर्षभरमें एक दिन एक घण्टा काम करना पड़ा, तो भी शारीरिक श्रमका प्रतिदिन काम न मिलनेपर सबके शरीर अनेक प्रकारके रोगोंके शिकार हो जायँगे। कोई विरोधी या दुश्मन होता है, तभी शस्त्रास्त्रका अभ्यास, मल्ल-युद्ध तथा व्यायामादिमें प्रवृत्ति होती है। यदि वर्गभेद समाप्त हो जाय तो विरोध एवं युद्धकी सम्भावना ही न रहेगी और फिर खाली मस्तिष्कमें शैतानका राज्य होगा। दुराचार, पापाचार, विलासिताकी वृद्धि होगी, जिससे स्वास्थ्य-नाशके साथ शान्ति-भंग होकर भीषण क्रान्ति होगी। विलास एवं आधिपत्यकी उद्दाम कामनाकी पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। अध्यात्मभावना बिना अखण्ड भूमण्डलकी सुन्दरियाँ तथा सुन्दर भोग-साधन एक व्यक्तिको भी तृप्त करनेमें समर्थ हो नहीं सकते—
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशव: स्त्रिय:।
सर्वं नैकस्य पर्याप्तमिति मत्वा शमं व्रजेत्॥
अध्यात्मशास्त्रोंके अनुसार अध्यात्मविचार एवं शान्तिसे ही तृष्णाका अन्त होता है, अन्यथा नहीं। कम्युनिष्टके लिये कोई भी काम करनेके लिये न मिलनेसे अनाचार, पापाचारमें ही प्रवृत्त होना पड़ेगा; क्योंकि कोई भी बिना कुछ किये क्षणभर भी रह नहीं सकता—
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
(गीता ३।५)
अध्यात्मवादमें पूर्ण यान्त्रिक विकास, अनन्त धन-धान्य एवं उपभोग-सामग्री मिलनेपर संयम, योगाभ्यास, उपासना तथा विविध कर्मकाण्ड करनेके लिये पूर्ण अवकाश रहेगा। आसन, प्राणायामादि तथा श्रौत-स्मार्त विविध कर्मकाण्डोंके करनेमें परिश्रम करनेका अवकाश रहेगा। व्याधिहीन शरीर स्वस्थ रहेगा। चित्त उपास्यब्रह्मकी उपासना एवं ब्रह्मज्ञानमें दीर्घकालके लिये स्थिर रह सकेगा। चंचलता, तृष्णा आदिकी प्रशान्ति होकर समाधि-सम्पत्ति हो सकेगी। अध्यात्मवादीका भविष्य उज्ज्वल एवं उत्साहप्रद रहेगा। जडवादी कम्युनिष्टका भविष्य अन्धकारपूर्ण एवं नैराश्य व्याप्त होगा। जड़वादीके मरते ही उसका सब कुछ समाप्त हो जायगा, परंतु अध्यात्मवादीको मरने अर्थात् देह-त्यागनेके अनन्तर इस लोकसे भी अधिक दिव्य ऐश्वर्य एवं भोग-सामग्री मिलेगी। यदि दिव्य भक्ति एवं ज्ञानसे सम्पन्न होकर देह-त्याग किया गया, तब तो सर्वसाधनापेक्ष, अचिन्त्य, अनन्त, परमानन्दस्वरूपावस्थानलक्षण, मोक्ष या भगवत्प्राप्ति सिद्ध होगी। निरंकुश एवं अनन्त तृप्ति अनन्तरूपसे प्राप्त होगी। रामराज्यवादीकी दृष्टिमें ईश्वर एवं धर्मके विरोधी मार्क्सवादी तथा धर्मनियन्त्रणरहित पूँजीवादी—दोनों समाज एवं विश्वके लिये हानिकारक हैं और उन्हींके आपसी संघर्षसे सार्वजनिक धर्म, सुख एवं शान्ति खतरेमें पड़ सकती है। ऐसे पूँजीवाद एवं साम्यवाद दोनों ही हानिकारक हैं। इन दोनोंमें ही शोषण होता है। इनमें यदि साम्यवादीके यहाँ समष्टिके नामपर मुट्ठीभर तानाशाहोंकी तानाशाहीमें विश्वके नागरिकोंका धन, धर्म, स्वतन्त्रता, शान्ति संकटग्रस्त होती है तो धर्म-नियन्त्रणरहित शोषक पूँजीवादी तथा उच्छृंखल साम्राज्यवादी व्यष्टिके नामपर समष्टिका शोषण करके जनतामें त्राहि-त्राहिका आर्तनाद फैला देते हैं। किंतु रामराज्यवादी अर्थात् धर्मनियन्त्रित शासन-तन्त्रवादी समष्टि-व्यष्टि दोनोंका ही समन्वय करके सर्वत्र सुख, धर्म, शान्ति एवं स्वतन्त्रताका साम्राज्य स्थापित करते हैं। उनके यहाँ प्रथम तो बेकारी एवं शोषण फैलानेवाले महायन्त्रका ही बहिष्कार होता है, अत: सभीको स्थायीरूपसे योग्यता एवं आवश्यकताके अनुसार काम, दाम, आरामकी व्यवस्था होती है। सबको विकासका पूर्ण स्वातन्त्र्य रहता है। सुख-शान्ति, लोक-परलोक, परम नि:श्रेयसका मार्ग सभीके लिये प्रशस्त रहता है। दैव-दुर्विपाकसे महायन्त्रोंके विकास हो जानेपर भी पूर्वोक्त प्रकारसे शोषण हटाकर आर्थिक सन्तुलन स्थापित किया जाता है, जिससे आर्थिक संकट एवं गतिनिरोधका कोई प्रसंग ही नहीं आता।
शोषकोंके अन्यायोपार्जित द्रव्य तथा कर्तव्य-विमुख लोगोंके न्यायोपार्जित या दायप्राप्त द्रव्य राष्ट्रके हितार्थ छीन ही लिये जाते हैं, परंतु कर्तव्यपरायण लोगोंके न्यायोपार्जित द्रव्यके भी अतिरिक्त आयका स्वल्पांश ही स्वामीके काममें उपयुक्त होता है। पाँच हिस्सेमें चार हिस्सा राष्ट्रके ही काममें लगानेका नियम होता है। उसमें दान, पुण्य, यज्ञ, परोपकारका पूर्ण स्थान रहनेसे कथमपि आर्थिक असन्तुलन हो ही नहीं पाता। किसीकी बेकारी या क्रय-शक्तिका ह्रास तथा मालके खपत न होने आदिका प्रसंग ही नहीं उपस्थित होता। ‘पञ्चधा विभजन् वित्तम्’ के अनुसार पाँच हिस्सेमें चार हिस्सेका राष्ट्र-हितार्थ जो उपयोग कहा गया है, उसका यह तात्पर्य नहीं है कि चार भाग ही राष्ट्र-हितार्थ उपयुक्त हो, किंतु उसका तात्पर्य यह है कि सामान्य-जीवन-यात्रोपयोगी अंशसे अधिक सम्पूर्ण धन राष्ट्र-हितार्थ प्रयुक्त किया जाय। तभी तो कहा गया है कि जितनेमें पेट भरे उतना ही ग्रहण करना ठीक है, अधिकमें अभिमान करनेवाला चोरके तुल्य दण्डभागी है—
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति॥
(श्रीमद्भा० ७।१४।८)
धनवान् होकर दान न करना पाप है और दरिद्र होकर सदाचारी तपस्वी न होना भी पाप है। ये दोनों ही दण्डके योग्य हैं—
द्वावम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्॥
(विदुरनीति)
अतएव उत्तरोत्तर यन्त्रोंके विकाससे जैसे-जैसे अल्प श्रम एवं अल्प व्ययसे उत्पादन बढ़ता जायगा, जैसे-जैसे लाभ बढ़ता जायगा, वैसे-वैसे बेकारी एवं आर्थिक असंतुलन दूर करनेके लिये कामके घण्टोंकी कमी, वेतनकी अधिकता एवं मजदूरोंकी संख्या भी बढ़ती चली जायगी। साथ ही अतिरिक्त आय (यहाँ मार्क्सवादियोंके अर्थमें अतिरिक्त आयका प्रयोग नहीं है, किंतु टैक्स एवं निर्वाहोपयोगी खर्च आदिसे बचा हुआ लाभ ही अतिरिक्त आय है) से चार हिस्सा ही नहीं, किंतु उससे अधिक भी राष्ट्र-हितार्थ प्रयुक्त किया जा सकेगा।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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