7.21 मार्क्सवाद एवं राष्ट्र
परंतु जबतक सभी राष्ट्र एवं समाज इस उच्चकोटिके सिद्धान्तको मान नहीं लेते, तबतक क्या किसी सज्जन व्यक्ति या राष्ट्रको किसी कूटनीतिक व्यक्ति या राष्ट्रकी कूटनीतिका शिकार बन जाना चाहिये? रामराज्यवादी ऐसे अवसरके लिये अनिवार्यरूपसे आनेवाले युद्धका स्वागत करता है। मायावीके साथ निरी साधुतासे काम नहीं चलता—
यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्य-
स्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्म:।
मायाचारो मायया बाधितव्य:
साध्वाचार: साधुना प्रत्युपेय:॥
(महा० शां० प० १०९।३०)
संसारमें जब कृतयुगके प्रारम्भमें सत्त्वगुणका पूर्ण प्रभाव था, सभी धर्म-नियन्त्रित थे, तब युद्धकी आवश्यकता नहीं थी, परंतु संसार त्रिगुणात्मक है, इसमें रज और तम भी हैं ही। फिर कभी उनका भी उद्भव सम्भव है। जब अत्यन्त तामस, राजस आदमीपर उपदेशका असर नहीं पड़ता, तब वहाँ दण्डविधान अनिवार्य ही होता है। तभी तो प्रत्येक राष्ट्रमें कानून, दण्डविधान, पुलिस, थाना, जेल आदिकी व्यवस्था है। ये ही व्यष्टिके उपद्रव समष्टिमें भी फैलते हैं। तब बड़े युद्धोंका रूप बन जाता है। समाजवादियोंको ही अपने विरोधियोंके दमनार्थ क्या-क्या नहीं करना पड़ता है। कितने गुप्तचर, कितनी पुलिस, पर्ज (सफाया)-में संलग्न है। रामराज्यमें अन्यायी रावणको भी पहले अन्यायसे विरक्त होनेके लिये समझाया-बुझाया गया था। जब अनेक प्रकारसे समझाने-बुझानेपर भी रावण रास्तेपर नहीं आया, तब उसे दण्ड देना अनिवार्य हो गया। यही रामराज्यका युद्ध है। ऐसा युद्ध साक्षात् स्वर्गका निरावरणद्वार है, इससे पराङ्मुखकी अकीर्ति तथा पुण्यलोकोंका नाश ध्रुव है—
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥
(गीता २।३३)
समष्टि-हितके लिये महायन्त्रका प्रवर्तन बन्द होना चाहिये। रामराज्यशासनमें उत्पादनमें मुनाफाको प्राथमिकता न देकर राष्ट्रकी आवश्यकताको प्राथमिकता दी जायगी। सरकारद्वारा निर्धारित राष्ट्रहितानुकूल योजनाका अनुसरण करना सभी उद्योगपतियोंका कर्तव्य होगा। अत: आधुनिक जडवादियोंके समान बाजारों, यन्त्रों, पेट्रोल आदिके लिये रामराज्यमें युद्ध नहीं होंगे। धर्म, संस्कृति तथा गरीबोंके हित-स्वत्वोंकी रक्षाके लिये अनिवार्य होनेसे युद्धका स्वागत किया जायगा। संसारमें आर्तनाद न हो, अन्याय-अत्याचार न हो, किसीकी बहू-बेटियोंके सम्मानपर आँच न आये, इसीलिये बलवानोंका बल एवं अस्त्र-शस्त्र आदि अपेक्षित होते हैं और अपेक्षित होते रहेंगे।
मार्क्सवादी कहते हैं, ‘आज मजदूरोंके लिये देशभक्तिकी बात व्यर्थ है। जब कोई पूँजी देशमें लगती थी, तब कुछ मजदूरोंको लाभकी सम्भावना भी थी, परंतु जब पूँजीपति अपनी पूँजीको उन विदेशोंमें लगाना पसन्द करते हैं, जहाँ मजदूरी कम देनी पड़े और कच्चे माल सस्ते पड़ें, तब ऐसे पूँजीपतियोंके देशके मजदूर देशभक्तिके नामपर अपनी जान क्यों दें?’ मार्क्सवादीकी दृष्टिमें ‘जिसकी कोई सम्पत्ति नहीं, उसका कोई खास देश नहीं होता। केवल दो हाथ ही उसकी अपनी सम्पत्ति है। जहाँ मजदूरी मिल जाय, वही उसका देश है। पूँजीपति भी अपने लाभके लिये लाखों किसानों-मजदूरोंको तोपकी आगमें झुलसा डालते हैं। इनकी जीतोंमें मजदूरोंका कोई लाभ नहीं होता।’
उपर्युक्त बातें किसी देश-कालके लिये सही हो सकती हैं; परंतु यह व्यापक सत्य नहीं है। आस्तिक लोग जननी, जन्मभूमिको स्वर्गसे भी श्रेष्ठ मानते हैं—‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ उंछशिल वृत्तिवाले अकिंचन महर्षि—जिनकी भौतिक सम्पत्ति कुछ नहीं—उन्हें भी मातृभूमिकी भक्ति मान्य होती है। देशधर्मकी रक्षा और कल्याणके लिये वे भी अपने सर्वस्वका त्याग करते ही रहते हैं। भारतीयोंमें तो प्रात:काल ही धरित्रीपर पाद-विन्यास करनेके पहले धरित्रीकी वन्दना की जाती है; परंतु वे मातृभूमिको भक्तिके साथ मातृपति परमेश्वरको नहीं भूलते। उनकी मातृभक्ति संकीर्ण एवं किसीको हानि पहुँचानेवाली नहीं होती। इसीलिये वे समुद्रवसना पर्वतस्तनमण्डला धरित्रीको विष्णुपत्नी मानते हैं—
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥
कहींके भी मजदूर कोई राष्ट्रसे बाहरकी वस्तु नहीं—विशेषतया भारतमें उच्च खानदानके ब्राह्मण, क्षत्रियादि ही मजदूर बनकर अपना जीवन बिता रहे हैं। उनको अपने देश, धर्म, जातिका ध्यान रहता है, उसका रक्षण उन्हें अभीष्ट है। पूँजीपतिके लिये नहीं, अपने लिये, अपने धर्मके लिये भी उन्हें देशभक्ति आवश्यक होती है। वस्तुत: इसीलिये धार्मिक तथा सांस्कृतिक इतिहासोंके संस्कारोंसे ओतप्रोत भावनाके बिना राष्ट्रियताका कोई महत्त्व नहीं होता। जो जडवादी विश्वस्रष्टाको ही नहीं मानता; अपने माता-पिताका ही महत्त्व नहीं मानता, वह देशका महत्त्व क्या मानने लगा? जिनका मत है कि ‘माता अपने स्वार्थसे दूध पिलाती है; क्योंकि दूध बिना निकले उसे कष्ट होता है। शिशु भी क्षुधासे पीड़ित होकर स्तन पीने लगता है’, उन्हें देशभक्तिसे क्या लेना? पर जलमें मेढक भी होता है, मीन भी होती है। मेढकका जल-स्नेह नगण्य है, परंतु मत्स्य जलका अनुरागी है। जडवादियोंको जहाँ रोटी मिले, वही उनका देश है; परंतु धार्मिक-सांस्कृतिक भावनावाले तो अपने पूर्वजों तथा अपनी जन्मभूमिके प्रदेशको; अपने पावन तीर्थों, अवतारों, देवताओं, महापुरुषोंकी तप:पूत लीलाभूमिको बड़ी आदरकी दृष्टिसे देखते हैं और उसकी रक्षा तथा सम्मानके लिये उन्हें आत्मबलिदान करनेमें कुछ भी संकोच नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदासके राम कहते हैं—
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना।
बेद पुरान बिदित जगु जाना॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ।
यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि।
उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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