7.23 अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें पूँजीवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

7.23 अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें पूँजीवाद

मार्क्सके अनुसार ‘वैज्ञानिक साधनोंके विकाससे पैदावारकी शक्तिके बहुत अधिक बढ़ जानेपर जब भिन्न-भिन्न देशोंके पूँजीपति अपनी पैदावारको अपने देशमें नहीं खपा सकते, तब उन्हें दूसरे देशोंके बाजारोंमें अपना माल पहुँचाना पड़ता है। पूँजीपति अपना माल दूसरे देशोंमें बेचकर मुनाफा उठाना तो पसन्द करते हैं; परंतु अपने देशमें दूसरे देशके पूँजीपतियोंका माल आकर बिकना पसन्द नहीं करते; क्योंकि इससे उनके मुनाफेका क्षेत्र घट जाता है। इसके अतिरिक्त प्रकृतिने उपयोगी पदार्थोंको सभी देशोंमें समानरूपसे नहीं बाँट दिया है या प्रकृतिने अलग-अलग देशोंको अपना-अपना निर्वाह अकेले कर सकनेके योग्य नहीं बनाया। व्यापार, व्यवसाय और पैदावारके कुछ पदार्थ एक देशमें बहुत अधिक मात्रामें मिल सकते हैं और कई ऐसे पदार्थ हैं, जो उस देशमें नहीं मिल सकते। जापानमें लोहा नहीं मिलता, इंग्लैण्डमें रूई नहीं पैदा होती, जर्मनीको पेट्रौल बाहरसे लेना पड़ता है। स्वीडनको अपना लोहा बाहर भेजना जरूरी है। कनाडा अपनी लकड़ीको नहीं खपा सकता; अमेरिका अपनी रूईको बेचनेके लिये जगह ढूँढ़ता रहता है। ये पदार्थ इन देशोंको दूसरोंसे लेने-देने पड़ते हैं। कोई देश अकेले अपना निर्वाह नहीं कर सकता, परंतु प्रत्येक देशके पूँजीपति अपने-अपने व्यवसायमें मुनाफा कमानेके लिये दूसरे देशोंके व्यापारिक आक्रमणसे बचाना चाहते हैं और दूसरे देशोंपर आक्रमण करना चाहते हैं।’
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘साम्राज्यवादके ऐतिहासिक विकासकी तुलना हम पूँजीवादसे इस प्रकार कर सकते हैं। पूँजीपति व्यक्तिकी ही तरह किसी उन्नत देशके पूँजीपति अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें कम हैसियतके पूँजीवादी राष्ट्रोंको कुचलकर शोषण-क्षेत्रपर अपना एकाधिकार कायम करनेका यत्न करते हैं। जिस प्रकार पूँजीपति एक व्यापारीकी अवस्थासे औद्योगिक साधनोंद्वारा पैदावारके पदार्थोंको बनानेवाला बनकर मुनाफेके जरिये भारी पूँजी इकट्ठी कर चुकनेके बाद स्वयं कुछ भी न कर, रुपयेके रूपमें अपनी पूँजीकी शक्तिको उधार देकर पैदावारका मुख्य भाग स्वयं खींचता रहता है, उसी प्रकार पूँजीपति देश अन्ताराष्ट्रिय बाजारमें पहले केवल व्यापार, वाणिज्यद्वारा पूँजी इकट्ठी करते हैं। उसके बाद अपनी औद्योगिक पैदावार दूसरे देशोंपर लादते हैं और इस अवस्थासे उन्नति कर दूसरे देशोंको अपनी पूँजीमें जकड़ना आरम्भ करते हैं। ऐसी अवस्थामें पहुँचकर पूँजीपति देश स्वाधीन देशों और उपनिवेशोंकी पैदावारमें कोई भाग नहीं लेते। वे देश पैदावारका मुख्य साधन पूँजी उन देशोंमें लगाकर मुनाफेका भाग खींचते रहते हैं और उन देशोंकी आर्थिक प्रगति और राजनीतिपर अपना नियन्त्रण रखते हैं। जिस प्रकार पैदावारके साधनोंके मालिक, पूँजीपति और परिश्रम करनेवाली साधनहीन श्रेणीके हितोंमें विरोध होता है, पूँजीपतिश्रेणी परिश्रम करनेवाली श्रेणीके परिश्रमको मुनाफेके रूपमें निगलती रहती है, उसी प्रकार अन्ताराष्ट्रिय पूँजीवाद अर्थात् एक देशके पूँजीपतियोंद्वारा दूसरे देशपर अधिकारका अर्थ हो जाता है—पराधीन देशके परिश्रमका शोषण।’
‘जिस प्रकार परिश्रम करनेवाली श्रेणीके शोषणसे पूँजीपति अपनी शक्तिको बढ़ाकर अपने शोषणका क्षेत्र बढ़ाता है, उसी प्रकार अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें साम्राज्यवादी देश एक देशका शोषणकर दूसरे देशोंको पराधीन बनाकर शोषण करनेकी शक्ति प्राप्त करते हैं। मार्क्सवादके अनुसार जिस प्रकार पूँजीवादी-व्यवस्थाका अन्त एक देशमें उसे समाप्त कर देनेसे नहीं हो सकता, उसी प्रकार साम्राज्यवादका अन्त भी किसी एक देशके प्रयत्नसे नहीं हो सकता। उसके लिये साधनहीनोंके संगठित अन्ताराष्ट्रिय प्रयत्नकी आवश्यकता है। जिस प्रकार एक देशमें पूँजीवाद साधनहीन श्रेणीको पैदाकर अपनी विरोधी शक्ति पैदा कर लेता है, उसी प्रकार अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें साम्राज्यवादी देश शोषणके क्षेत्रको घेरकर नये शोषित देश पैदाकर अपना विरोध करनेवाली शक्ति पैदा कर देते हैं। जिस प्रकार पूँजीपति अपने देशमें पैदावारके साधनोंपर अधिकार जमाकर मेहनत करनेवाली श्रेणीको जीवन-उपायोंसे हीन कर देता है, उसी प्रकार एक पूँजीवादी देशके साम्राज्यका विस्तार व्यापारके क्षेत्रोंको अपने वशमें कर नये उगते हुए राष्ट्रों और पराधीन राष्ट्रोंके जीवनको असम्भव कर देता है। जिस प्रकार एक देशमें आर्थिक संकट लाकर पूँजीवादी व्यवस्थाकी अयोग्यताको स्पष्ट कर देता है और नयी व्यवस्था लानेकी आवश्यकता उपस्थित कर देता है, उसी तरह अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें साम्राज्यवादी देश साम्राज्यवादके आगे विस्तारको असम्भव कर देते हैं और नयी व्यवस्था लानेको बाध्य करते हैं।’
काट्स्कीका कहना है कि ‘साम्राज्य-विस्तारका यत्न पूँजीवादका आवश्यक परिणाम नहीं। साम्राज्य-विस्तार नीतिकी जिम्मेदारी पूँजीवादी देशोंके कुछ एक पूँजीपतियोंपर है। इस विषयमें यदि पूँजीवादी देश समझौता करके अपने मालको खपानेके लिये और कच्चा माल प्राप्त करनेके लिये संसारको बाँट लें तो सभी पूँजीवादी राष्ट्रोंकी आवश्यकता पूरी हो सकती है और अन्ताराष्ट्रिय युद्धोंका होना जरूरी नहीं रहेगा।’
परंतु मार्क्सवादियोंके विचारमें काट्स्कीका यह सिद्धान्त न तो इतिहासके अनुभवपर पूरा उतरता है और न पूँजीवादके विकासके मार्गके अनुकूल ही है। काट्स्की इस बातको भूल जाता है, जिस प्रकार एक देशमें आर्थिक हितोंकी रक्षाके लिये श्रेणियाँ राजनैतिक शक्तिका व्यवहार करती हैं, उसी प्रकार अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें पूँजीवादी राष्ट्र अपने आर्थिक हितोंकी रक्षाके लिये अपने राष्ट्रोंकी सैनिक शक्तिका व्यवहार करते हैं। जबतक पूँजीवादी राष्ट्रोंके सामने अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें मुनाफा कमानेका प्रश्न है, उनमें समझौता हो ही नहीं सकता। प्रत्येक राष्ट्र इस लूटमें सबसे बड़ा भाग लेनेका यत्न करेगा। जबतक बलवान् पूँजीवादी देशोंका भय रहेगा, निर्बल पूँजीवादी देश लूटके बाजारमें कम भाग लेना स्वीकार करेंगे, परंतु अन्ताराष्ट्रिय लूटद्वारा उनकी सैनिक शक्ति बढ़ते ही वह और अधिक बाजारों और उपनिवेशोंकी माँग पेश करेंगे। विदेशोंमें घटी अन्ताराष्ट्रिय घटनाएँ इस बातको प्रमाणित कर देती हैं। अपनी पूँजीकी शक्ति और सैनिक शक्ति पहले बढ़ाकर इटलीने अबीसीनियाको हड़प लिया, बादमें अन्ताराष्ट्रिय शान्तिकी रक्षाके लिये उसका और फ्रांसका समझौता टूट गया। दूसरा उदाहरण हमारे सामने जर्मनीका है। अपनी सीमाके देशोंको अपनी पूँजीवादी लूटका क्षेत्र बना चुकनेके बाद भी जब जर्मनीकी पूँजीपति-श्रेणीकी भूख शान्त नहीं हुई, तब जर्मनीने दूर देशों और उपनिवेशोंकी माँगपर जोर देना आरम्भ किया। मानो निर्बल और पिछड़े हुए देशोंका जन्म जर्मनीके अन्ताराष्ट्रिय पूँजीवादका शिकार बननेके लिये ही हुआ हो।
‘यदि काट्स्कीके अन्ताराष्ट्रिय पूँजीवादी साम्राज्यवादके सिद्धान्तके अनुसार पूँजीवादी राष्ट्र परस्पर समझौतेद्वारा संसारके निर्बल राष्ट्रोंको शोषणके लिये परस्पर बाँट भी लें तो भी वह समझौता संसारमें चिरशान्ति स्थापित नहीं कर सकता; क्योंकि शोषित राष्ट्रोंकी जनताका भी अपने जीवनके अधिकारोंके लिये प्रयत्न करना आवश्यक और स्वाभाविक है और इस कारण उपनिवेशों तथा पराधीन देशोंमें अन्ताराष्ट्रिय अशान्तिका कारण बना ही रहेगा।’
पर धर्मनियन्त्रित रामराज्यवादीके दृष्टिकोणसे व्यष्टि-समुदाय ही समष्टि है, जैसे वृक्षोंका समुदाय ही वन है। प्रत्येक वृक्षके ह्रास, विकास व्यक्तिगत होते हुए भी परिणामत: वनका ह्रास, विकास बन जाता है। व्यक्तिगत विकास-शक्ति नष्ट हो जानेपर वन कभी भी टिक नहीं सकता। इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति बुद्धिमानी, सावधानीसे व्यक्तिगत एवं सामूहिक विकासका प्रयत्न करे तो कुटुम्ब, समाज एवं राष्ट्र विकसित हो जाता है। समाजके हितका ध्यान रखते हुए ही व्यक्तिगत विकासका प्रयत्न उचित है। कितने कार्य ऐसे भी होते हैं, जिनमें व्यक्तिगत प्रयत्नसे काम नहीं चलता, वहाँ सामूहिक तौरपर ही कार्य किया जाता है। शुभ, अशुभ कर्मोंका फल व्यक्तिगतरूपसे प्राणियोंको भोगना पड़ता है। छोटी-छोटी इकाइयोंमें कार्य करनेमें सुविधा होती है। भोजन-वस्त्रादिका प्रबन्ध भिन्न-भिन्न कुटुम्बोंमें बँटे रहनेसे स्वास्थ्य तथा रुचिकी अनुकूलता अधिक होती है। करोड़ों या लाखों आदमियोंका एक स्थानमें भोजन बनाना, बाँटना असम्भव है। पूँजीवादी राज्योंमें भी जनसंख्या, उसकी आवश्यकता तथा पैदावारकी मात्रा और उसके सन्तुलनका विचार किया जाता है।
उत्पादन-उपयोग, आय-व्यय, आयात-निर्यात आदि सब बातोंका ज्ञान और उनके आँकड़े सभी राज्योंमें रखे जाते हैं। अत: ‘पूँजीवादी राज्यमें भोक्ताओं एवं खाद्यकी मात्राका परिज्ञान नहीं रहता’—यह कहना असंगत है। जहाँ व्यक्तिगत सम्पत्तिका सिद्धान्त मान्य है, वहाँ स्वाभाविकरूपसे उत्पादक या व्यापारी दोनों ही मुनाफा चाहेंगे और यही सहज वितरणका मार्ग भी है। व्यापारी जहाँ जिस वस्तुकी बहुतायत है, वहाँसे उसे खरीदकर जहाँ कमी है, वहाँ पहुँचा देता है। इसके बदले उसे कुछ लाभ भी हो जाता है। प्राचीन समयमें प्रत्येक कार्य इसी ढंगसे होते रहे हैं, जिससे समाजका भी कार्य चले और व्यक्तिका लाभ भी होता चले। अध्यापन, याजन, प्रतिग्रह, व्यापार, कृषि, गोरक्षा, शिल्प आदि सभी कामोंसे निर्माता, प्रयोक्ता सभीको लाभ होता है।
राम-राज्य-प्रणालीके अनुसार कभी आर्थिक सन्तुलन न होनेसे बेकारी, बेरोजगारी न होगी और राष्ट्रके प्रत्येक नागरिकका जीवनस्तर ऊँचा होगा। क्रयशक्तिके घटनेका कोई प्रश्न ही न रहेगा, फिर मालके खपत न होनेकी भी शिकायत न होगी। जो कहा गया है कि ‘समाजमें मेहनत करनेवाले ही पैदावार करते हैं और वे ही तैयार मालकी खपत करते हैं, अत: समाजमें जो पैदावारके लिये परिश्रम करनेवाले हैं, वे ही पैदावारको खर्च करनेवाले हैं। यदि परिश्रम करनेवालोंको अपने परिश्रमका पूरा फल मिल जाय तो पैदावार फालतू पड़ी नहीं रह सकती।’ यह ठीक नहीं है; क्योंकि पैदा करनेवालों और उपभोक्ताओंकी श्रेणियोंमें भेद है। यों तो राष्ट्रका कोई भी नागरिक कुछ-न-कुछ करता ही है। बिना कुछ किये तो कोई क्षणभर भी टिक नहीं सकता। फिर मिल-मजदूरोंद्वारा की गयी पैदावारका उपभोग किसान भी करता है। किसानद्वारा की गयी पैदावारका मिल-मजदूर भी उपभोग करता है। अध्यापक, इंजीनियर, छात्र, सिपाही, सरकारी कर्मचारी, फिल्म-कार्यकर्ता तथा विभिन्न कार्य करनेवाले होते हैं। इस तरह समाजके घटक विभिन्न व्यक्तियोंके कार्यों और शक्तियोंमें भेद होता है। इसीलिये उन्हें काम, दाम, आराममें भी कुछ वैषम्य मानना पड़ता है। अध्यापक, इंजीनियर उत्पादन कार्य नहीं करते, फिर भी उत्पादकोंसे अधिक उपभोग-सामग्री उन्हें मिलती है। एक फावड़ा चलानेवालेको इंजीनियरके बराबर वेतन कहीं भी नहीं दिया जाता। यदि सम्पूर्ण लाभ उत्पादकका ही है, उसे ही मिल जाय, तब तो भूमि, मशीन, मकान तथा मुद्रा लानेवालेको लाभमें कुछ भी हिस्सा न मिलेगा, परंतु उत्पादनमें इन वस्तुओंका महत्त्वपूर्ण स्थान है—ये सब बातें विस्तारसे पहले सिद्ध की जा चुकी हैं। परिश्रम करनेवालेका वही फल है, जो मजदूर और मालिकके समझौते या पंचायत अथवा न्यायालयद्वारा वेतन निर्धारित होता है। मुनाफा श्रमका फल नहीं; किंतु कच्चे माल, मशीन तथा पूँजीका फल है। श्रमका फल श्रमिकको वेतनके रूपमें मिल चुका।
यदि सम्पूर्ण मुनाफा मजदूरको दे दिया जाय तो पैदावार करनेके साधन; नये यन्त्र, कल, कारखाने आदि विकसित न हो सकेंगे, न बढ़ ही सकेंगे। मजदूरको जो मिलेगा, वह खर्च कर डालेगा। मजदूर-सरकार भी यदि लागत खर्च निकालकर सब लाभ मजदूरोंको बाँट दे तो वह भी कल, कारखानोंका विकास न कर सकेगी। अत: मजदूर सरकार भी विकासके लिये लाभांश बचाती है और वह विकास भी समाजके हितके लिये ही होता है। यही बात दूसरे पक्षमें भी कही जा सकती है। अतएव पूँजीवादी भी तो लाभका उपयोग कल, कारखानोंके विस्तारमें—उद्योगोंके विस्तारमें लगाता है। उससे समाजका जीवनस्तर विकसित होता है। कोई भी पूँजीपति रुपयोंको निश्चल जमा रखनेमें लाभ नहीं समझता। पूँजीपतिका अपना निजी खर्च मजदूर-देशके मन्त्रियोंसे कम ही होता है। रूसी नेता बुल्गानिन और क्रुश्चेवके स्वागतमें करोड़ों रुपये खर्च हो गये। वे भी मजदूर ही हैं। कहा जा सकता है कि यह सम्मान व्यक्तिका नहीं; किंतु एक राष्ट्रका था। इसपर दूसरे लोग भी कह सकते हैं कि एक राजाका भी स्वागत उसके व्यक्तिगत न होकर राज्यका ही होता है। किसी भी विद्वान् या धनवान‍्पर जो खर्च होता है, वह राष्ट्र एवं उसकी विद्या तथा सम्पत्तिपर ही खर्च होता है। जिन पुराने बादशाहोंका हजारों रुपये रोजका खर्च था, वह भी क्या था? उनके हजारों नौकरोंकी जीविका इसीसे चलती थी। उत्तमोत्तम वस्तुके खरीदनेमें जो रुपये खर्च होते थे, वह कारीगरों, कलाकारों और निर्माताओंके पास जाता था।
अस्तु, रामराज्य-प्रणालीसे उत्पादनवृद्धिके अनुसार कामके घण्टोंमें कमी, मजदूरोंकी संख्या और वेतनवृद्धिका क्रम लगा रहता है। अत: समाज या मजदूरोंके क्रय-शक्तिके घटनेका कोई भी प्रश्न नहीं खड़ा होता। बेकारी एवं भूखे, नंगे रहनेका किसीको अवसर ही नहीं होगा। व्यक्ति और समाज सबका कर्तव्य है कि समाजमें कोई भी भूखा, नंगा, बेरोजगार, बेकार न रहने पाये। पूँजीपति, उत्पादन-साधन, उत्पादक, श्रमिक तथा अन्य बुद्धिजीवी लोगोंके हितके स्वत्वरक्षणका प्रयत्न होगा।
‘मार्क्सवादियोंके अनुसार प्राकृतिक अवस्थाओंके कारण सभी देशोंमें औद्योगिक विकास समानरूपसे नहीं हो पाता। औद्योगिकरूपसे जिन देशोंका विकास कम हुआ है, उनमें खेतीद्वारा कच्चे मालकी पैदावार अधिक होती है और वह देश अपने कच्चे मालकी पैदावारको खपा सकनेमें असमर्थ रहते हैं। इन देशोंमें कच्चा माल सस्ता मिल सकता है और औद्योगिक मालको बेचकर मुनाफा कमानेकी गुंजाइश रहती है। इसलिये औद्योगिकरूपसे उन्नत देश कम उन्नत देशोंपर प्रभुत्व जमाकर आर्थिक लाभ उठानेका यत्न करते हैं। कम उन्नत देश पूँजीवादी देशद्वारा अपने शोषणको रोक न सकें या दूसरे उन्नत पूँजीवादी देश उन देशोंमें आकर उनका बाजार खराब न कर सकें, वहाँ उनका पूरा एकाधिकार और ठेका कायम रहे, इसलिये औद्योगिकरूपसे उन्नत पूँजीवादी देश कम उन्नत देशोंको अपने राजनैतिक अधिकारमें रखनेका यत्न करते हैं। कम उन्नत देश या तो उन्नत पूँजीपति देशोंके अधीन हो जाते हैं या उन्हें उपनिवेश बना लिया जाता है या उन्हें संरक्षणमें ले लिया जाता है। इस प्रकार यूरोपके कुछ देशोंने औद्योगिक विकास और पूँजीवादकी उन्नतिके बाद सन् १८७६ से लेकर १९१४ के महायुद्धसे पूर्व कम उन्नत देशों अफ्रिका, एशिया आदिमें यूरोपके क्षेत्रफलसे दुगुनी भूमिपर अपना अधिकार कर लिया। इसमें सबसे अधिक भाग था इंग्लैण्ड और फ्रांसका। इंग्लैण्ड इससे पूर्व भी भारत, ब्रह्मा आदि देशोंको अधीन कर चुका था और कनाडा, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रिकामें अपने उपनिवेश बसा चुका था। जर्मनी और इटलीमें पूँजीवादका विकास बादमें होनेके कारण उनके होश सँभालनेसे पहले ही इंग्लैण्ड और फ्रांस पृथ्वीका बड़ा भाग सँभाल चुके थे। भूमिकी एक सीमा है, उसे पूँजीवादी देशोंके शोषणके लिये आवश्यकतानुसार बढ़ाया नहीं जा सकता; इसलिये पूँजीवादी देशोंमें झगड़ा होना आवश्यक हो जाता है।’


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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