7.25 अशान्तिकी जड़—आर्थिक विषमता
मार्क्सवादके दृष्टिकोणसे ‘वर्तमान संसारमें व्यक्तिके जीवनसे लेकर अन्ताराष्ट्रिय परिस्थितितक सभी संकटोंका कारण आर्थिक विषमता ही है। समाजमें पैदावार समाजके हितके लिये नहीं की जाती, बल्कि कुछ व्यक्तियोंके मुनाफेके लिये ही की जाती है। इसीलिये ऐसी विषमता पैदा हो जाती है। इस विषमताको कायम रखनेके लिये पूँजीवादी-समाजमें सरकारकी व्यवस्था और अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें साम्राज्यकी व्यवस्था करनी पड़ती है। मार्क्सवाद समाजमें एक नयी व्यवस्था लानेके लिये यत्न करना चाहता है, जिसमें ये सब विषमताएँ और बन्धन न रहें, जो व्यक्ति और समाजके विकासको असम्भव बना रहे हैं। मार्क्सवादके सिद्धान्त इसी प्रकारकी नयी व्यवस्था कायम करनेकी शक्ति रखते हैं या नहीं, इस बातको स्पष्ट करनेके लिये उन्हें उनके वास्तविक रूपमें रख देनेका यत्न किया गया है। समाजमें शान्ति और व्यवस्था कायम करनेके लिये समय-समयपर अपने सिद्धान्तोंका जन्म हुआ है। इन सिद्धान्तोंका समुच्चय ही समाजशास्त्र है। मार्क्सवाद आदि कालसे संकलित होते हुए समाज-शास्त्रका सबसे नवीन अध्याय है।’
परंतु उनका यह कथन पिष्टपेषणमात्र है। यदि कोई व्यक्ति, वर्ग अथवा राज्य स्वतन्त्रता चाहता है, तानाशाही कम्युनिष्ट शासनयन्त्रका नगण्य कल-पुर्जा नहीं बनना चाहता; तो वह स्वयं ही परिश्रम कर, सम्पत्ति-विपत्तिका खतरा उठाकर, प्रमाद, आलस्यपरित्यागपूर्वक तत्परतासे विद्वान्, बलवान्, धनवान् बननेके प्रयत्नसे अच्छी स्थितिमें पहुँच सकता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
जैसे किसी दासको स्वतन्त्ररूपसे अपने परिवार चलानेके लिये चिन्ता नहीं होती थी, मालिक अपनी परिस्थितियोंके अनुसार उनकी व्यवस्था करता था, उसी तरह कम्युनिष्ट-शासनमें दासके तुल्य जनसामान्यको निश्चिन्त रहना सम्भव हो सकता है, खान-पान-वस्त्रकी निश्चिन्तता रह सकती है, परंतु स्वाधीनतापूर्वक अपनी जीवन-व्यवस्थाके संचालनकी दृष्टिसे यह स्थिति नगण्य है। यों तो अच्छे मालिकके कुत्तेकी भी खान-पान, आराम-शिक्षण आदिकी अच्छी व्यवस्था होती है, किंतु क्या वह आदर्श स्थिति कही जा सकती है? स्वाधीनतापूर्वक जीवननिर्वाहके लिये व्यक्तिगत भूमि-सम्पत्ति, रोजगारोंकी भी स्वतन्त्रता अपेक्षित होगी। उसमें एकको दूसरेकी सहायता अपेक्षित होगी। इसलिये एकको दूसरेसे ऋणके रूपमें सहायता लेनी पड़ती है। किसीसे भूमि भी कर देकर लेनी पड़ती है। अपनी कमाईसे ही उस अंशको चुकाना पड़ता है। इसे कोई भी सभ्य समाज शोषण नहीं कह सकता। हाँ, यदि अनुचितरूपमें कर या सूद देना पड़े तो अवश्य शोषण कहा जा सकता है; परंतु जहाँ सरकार या न्यायालय या पंच अथवा आर्ष शास्त्रोंद्वारा सूद या करकी दर निश्चित होती है, वहाँ शोषणकी बात नहीं कही जा सकती। ठीक इसी तरह अधिक विकसित देश कम विकसित देशोंको मुद्रा अथवा कल-कारखानोंकी सहायता दें और उससे उसके बदले कच्चा माल या अन्य कुछ लें तो यह भी शोषण नहीं कहा जा सकता। किंतु आपसी समझौताके आधारपर ही यह सब होता है। विकसित देशोंकी सहायतासे ही अविकसित देशोंका विकास सम्भव है। कम्युनिष्ट राज्य भी आपसमें सहायता करते हैं और बदलेमें कोई दूसरी चीज प्राप्त करते हैं। यदि इसे ही पोषण कहा जाय तो कम्युनिष्ट राज्य भी शोषक हैं। यदि छोटे-से मजदूरसे राज्यका मिनिस्टर या फील्डमार्शल बन जाना अपराध नहीं है तो छोटे व्यापारीसे बड़ा धनवान् या पूँजीपति बन जाना भी अपराध नहीं है।
कोई राज्य-सरकार कभी धनहीन होती है, दूसरोंसे कर्ज लेती है; पर वही सदुद्योगसे बहुधन-सम्पन्न हो जाती है और दूसरोंकी भी सहायता करनेवाली हो जाती है, पर यह कोई अपराध नहीं गिना जाता। हाँ, यदि दूसरोंको नुकसान पहुँचाकर, दूसरोंके साथ अन्याय करके ऐसा किया जाता है तो अवश्य अपराध है और ऐसा अपराधी चाहे व्यक्ति, चाहे वर्ग, चाहे सरकार हो, वह दण्डनीय है। रहा यह कि पूँजीपति बिना कुछ किये ही यह लाभ उठाता है तो यह भी कथन व्यर्थ है। फावड़ा चलाना ही काम नहीं है, महाव्यापारका संचालक भी काम करता है। सैनिक बन्दूक चलाता है, युद्ध-मन्त्री केवल नीति-निर्धारण करता है।
व्यापार-संचालनसे होनेवाला महान् लाभ भी राष्ट्रकी ही सम्पत्ति होगी। आवश्यकता पड़नेपर राष्ट्रके हितार्थ सहायताके रूपमें उसका उपयोग हो सकता है। रामराज्यप्रणालीका मुख्य आदर्श यही है कि न कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्तिका शोषक हो, न कोई वर्ग दूसरे वर्गका शोषक हो और न कोई राष्ट्र दूसरे राष्ट्रका शोषक हो; किंतु सब एक-दूसरेके पोषक होने चाहिये। जहाँतक दूसरेको सहायता पहुँचानेका प्रश्न है, वह ठीक है। नाममात्रका उससे अपना भी लाभ निकालना हो तो भी कोई हर्ज नहीं; किंतु सहायता पहुँचानेके नामपर दूसरे वर्गों या राष्ट्रोंका शोषण करना सर्वथा अपराध है। उत्तम सिद्धान्त तो यह है कि परार्थ ही अपना स्वार्थ माना जाय। मध्यम बात यह है कि स्वार्थके अविरोधेन परार्थ किया जाय। दूसरेका नुकसान कर अपना स्वार्थ-साधन तो विशुद्ध आसुरी प्रकृति है और इससे संघर्ष और विनाश ध्रुव होता है। शोषक व्यक्ति, शोषक वर्ग या शोषक राज्यविरोधी शोषितसमूह अवश्य होगा। इसी तरह शोषित राज्यों तथा वर्गोंमें भी प्रबल निर्बलके शोषक ही होते हैं।
मार्क्सवादी भी मानेंगे कि पराधीन राष्ट्रोंमें भी सामन्त तथा पूँजीपति किसान-मजदूरोंके शोषक होते हैं। बड़े मजदूर तथा बड़े किसान छोटे मजदूर तथा किसानोंके शोषक होते हैं। इसीको मात्स्यन्याय कहते हैं। इसीका अन्त करनेके लिये धर्मनियन्त्रित शासन धर्मराज्य या रामराज्य अपेक्षित होता है। मार्क्सवादी वर्गसंघर्ष, वर्गविध्वंसद्वारा समस्याका समाधान चाहते हैं। रामराज्यवादी धर्म, अहिंसा, सत्य, सामंजस्य, समन्वयद्वारा तथा अचिकित्स्य अन्यायीको दण्डद्वारा वर्गविद्वेष रोककर वर्गसद्भाव एवं सामंजस्यद्वारा समस्याका समाधान चाहता है। वर्गके भीतर पुन: नये वर्ग सम्भव होते हैं। एक वर्गमें भी शतश: संघर्ष देखा जाता है। अत: सद्भावके बिना कभी भी शोषण तथा अशान्तिका अन्त नहीं हो सकता। अत: रामराज्यवादीकी धर्म-नियन्त्रण अंगीकारके बिना दूसरी गति नहीं है। जैसे शोषक-श्रेणीमें भी एक-दूसरेके शोषक होते हैं, वैसे शोेषित-श्रेणीके लोग भी एक-दूसरेके शोषक होते हैं। साँपके मुँहमें पड़ा हुआ मेढक शोषित-उत्पीड़ित ही है, तो भी वह मच्छरोंके खानेके लिये जीभ लपलपाता ही है। इस तरह शोषित ही दूसरोंका शोषक होता है। मालिकका खैरख्वाह बड़ा कर्मचारी एक तरहका मजदूर ही है। वही दूसरे मजदूरोंको वेतन कम देकर कामके घण्टोंको बढ़ाकर शोषण करता है। मार्क्सवादी मजदूरोंके इस कार्यको अज्ञानमूलक कहकर समाधान करते हैं, परंतु कोई भी शोषण वस्तुत: अज्ञानमूलक ही होता है। अपने स्वार्थके सामने जैसे बड़ा मजदूर समाजका हित भूल जाता है, वैसे ही अपने स्वार्थके सामने पूँजीपति भी समाजके हितको भूल जाता है। इसी स्वार्थमूलक अविवेकको मिटानेके लिये ईमानदारी तथा विवेककी आवश्यकता होती है।
समाजवादी व्यवस्थामें भूमि, सम्पत्ति, उत्पादनके साधन सबपरसे स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। सरकारी वस्तु या सहकारिताके आधारपर होनेवाले उत्पादनोंमें कोई व्यक्ति इच्छानुसार उपयोग नहीं कर सकता। किसी अतिथिको भोजन कराना हो या किसी समय जाड़ेकी रात काटनेके लिये धानकी भूसीकी ही आवश्यकता हो तो भी अपनी वस्तु-जैसा उसका यथेष्ट विनियोग नहीं किया जा सकता। गेहूँ-जौके खेतसे दस बाली या बजड़े, जुआर या मक्काके कुछ बाल भी शामिलात खेतोंसे स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं लिये जा सकते। शहरकी अपेक्षा गाँवोंमें यही विशेषता है। वहाँ हर वस्तुके लिये दामकी अपेक्षा नहीं रहती। किसान स्वतन्त्रतापूर्वक वस्तु तैयार करता है। स्वतन्त्रतापूर्वक विनियोग करता है। सर्षप, वास्तुक, पालक आदिके शाक इच्छानुसार पैदा किये जा सकते हैं। थोड़े ही खेत तथा थोड़ी ही सम्पत्तिमें अपने कुटुम्बके उपयोगकी सब वस्तु तैयार कर ली जाती है—
तरुणं सर्षपशाकं नवोदनं पिच्छलानि च दधीनि।
अल्पव्ययेन सुन्दरि ग्राम्यजनो मिष्टमश्नाति॥
उसीमेंसे अन्नदान, वस्त्रदान, सुवर्ण-रजतदान, यज्ञ, तीर्थयात्रा सब कुछ कर लेता है। समाजीकरणमें यह सब कुछ नहीं बन सकता। कुत्तोंको रोटी मिल जायगी, किंतु भूँकनेकी स्वतन्त्रता न रह जायगी। बकरीको चना मिल जायगा, किंतु जुगाली करनेकी स्वाधीनता न रहेगी। ऐसे ही किसी तरह कुछ रोटी-कपड़ा मिल जायगा, पर धार्मिक आचार-विचारोंकी स्वतन्त्रता नहीं रह जायगी। रामराज्य-प्रणालीमें सब प्रकारकी स्वाधीनता एवं सामंजस्य होनेसे संघर्ष बचेगा। धर्मनियन्त्रण तथा विवेकसे अभ्युदय तथा आर्थिक सन्तुलन एवं समन्वय हो सकता है।
व्यक्तिगत-सम्पत्तिका सिद्धान्त रहनेपर ही उत्तराधिकारीकी बात चलती है। यह भी पशुओंकी अपेक्षा मनुष्योंकी ही विशेषता है कि पिता-पितामह आदिकी सम्पत्ति पुत्र-पौत्रोंकी बपौती सम्पत्ति होती है, एतदर्थ धर्मका सम्बन्ध भी अनिवार्य होता है। पिता आदिको पिण्ड-श्राद्धादि प्रदान करनेके अधिकारी ही दायाधिकारी होते हैं। इसके लिये प्रत्यक्ष-अनुमानसे भिन्न एक वचन प्रमाण भी मानना पड़ता है। पिताकी सम्पत्तिपर विवाद उठनेपर सिद्ध करना पड़ता है कि अमुक हमारे पिता हैं। इसे सिद्ध करनेके लिये प्रत्यक्षानुमान असमर्थ हैं। इसमें तो माता-पिताका वचन ही प्रमाण मानना पड़ता है। उसके बिना पिता आदिकी सिद्धि नहीं हो सकती। वचनप्रमाण माननेपर ही माता-भगिनी, पुत्री-पत्नी आदिमें भी भेद सिद्ध होता है। तदनुसार ही संसारभरमें सर्वत्र भेद-व्यवहार चलता है। पत्नी, पुत्री, भगिनी सभी स्त्री हैं, फिर भी पत्नी, भगिनी आदिके साथ व्यवहारभेद करना पड़ता है। पशुओंमें प्रत्यक्षानुमान तो मान्य है, किंतु आगम-वचन प्रमाण मान्य नहीं है, अत: उनके यहाँ न व्यक्तिगत सम्पत्ति है, न उत्तराधिकार है और न पत्नी, भगिनी, पुत्री, माता आदिका भेद-व्यवहार ही चलता है। वह इनमेंसे किसीको भी पत्नी बनाकर संतान पैदा कर सकता है, पर यह सब मानवताके विपरीत है। जिस दिन मनुष्य भगिनी-पुत्रीसे संतान उत्पन्न करने लगेगा, उस दिन मनुष्यता-पशुतामें कोई भेद न रहेगा। कम्युनिष्ट भी ऐसा करनेका साहस नहीं कर सकता है।
इस तरह रामराज्य-प्रणालीमें आगम-प्रमाण तथा धर्मका भी आदर कर पितृपितामहादिकी सम्पत्तिका उत्तराधिकार तथा धार्मिक विवाहादिकी मान्यता होती है। स्वार्थ-परार्थका समन्वय करके व्यष्टि-समष्टिके अभ्युदयका प्रयत्न किया जाता है। यह सही है कि लोभाभिभूत व्यक्ति या राष्ट्र आत्मनाश नहीं देखते। हरित तृणके लोभमें बकरी कूप-पतनकी चिन्ता नहीं करती है, मधुलोभमें पड़कर प्राणी आत्मप्रपात नहीं देखता, पर कोई भी समझदार सर्वनाश देखकर समझौता करता ही है। अमेरिका और रूस दोनों ही एक-दूसरेका नाश चाहते हैं। दोनों ही परमाणु, हाइड्रोजनबमकी धमकी देते हैं, तथापि एक-दूसरेके भयसे नियन्त्रित हैं; तभी तो आज सह-अस्तित्वका राग अलापा जा रहा है। यदि रूसी साम्राज्यवादियोंके साथ सह-अस्तित्व सम्भव समझते हैं, तब तो साम्राज्यवादी भी परस्पर तथा आत्महितकी कामनासे अपने लोभकी मात्राको संकुचित कर सकते हैं। इस समय संयुक्तराष्ट्रसंघद्वारा भी बहुत कुछ नियन्त्रण और समन्वय हो सकता है। मार्क्सवादियोंके मतानुसार भी जब अन्ताराष्ट्रिय मजदूर-राज्य स्थापित हो जायगा, तभी सब संघर्षोंका अन्त हो सकता है। धर्मनियन्त्रित रामराज्यवादीके सार्वभौम शासनमें तो स्पष्ट ही उसके द्वारा सब अन्यायोंका निराकरण हो जायगा। इसे ऐतिहासिक अनुभवोंके विपरीत नहीं कहा जा सकता। भले ही आधुनिक मनगढ़ंत मिथ्या इतिहासके अनुसार रामराज्य ऐतिहासिक तथ्य न हो, परंतु आर्ष प्राचीन इतिहासके अनुसार अखण्ड भूमण्डलव्यापी सार्वभौम रामराज्य परम ऐतिहासिक तथ्य है। हाँ, मार्क्सका सर्वहारा राज्य अभीतक निराकार स्वप्न ही है। इतिहास साक्षी है कि धर्महीन, जडवादी राज्य कभी पनप नहीं सका है। शान्ति और समन्वय तो धर्महीन राज्यमें असम्भव है। काट्स्कीका अन्ताराष्ट्रिय पूँजीवादी साम्राज्यवाद तथा मार्क्सका विश्वव्यापी सर्वहारा राज्य मुकाबलेकी ही चीज है। किंतु रामराज्यवादीका धर्मनियन्त्रित सार्वभौम राज्य सहस्रश: अनुभूत प्रयोग है। मान्धाता, दिलीप, अज, रामचन्द्र, नहुष, पुरूरवा, अलर्क आदिका अखण्ड भूमण्डलवर्ती धर्मराज्य पूर्णतया शान्तिके स्थापक रह चुके हैं। लाखों वर्षोंके अनुभवोंके सामने सौ-दो सौ वर्षके मार्क्सवादी अनुभव कुछ भी मूल्य नहीं रखते। मार्क्सवादी सर्वहारा राज्य या पूँजीवादियोंका अन्ताराष्ट्रिय साम्राज्यवाद किसी पथको अपनायें, उसमें धर्म-नियन्त्रणके बिना लूट-खसोटका अन्त नहीं हो सकता।
मार्क्सवादमें यह भी कहा जा सकता है कि वहाँ किसीके पास कुछ चीज नहीं रह जायगी, फिर कौन किसकी क्या चीज लूटेगा? इसमें तो सभी फाँकेमस्त ही होंगे, परंतु रामराज्य-प्रणालीमें सार्वभौमका नाममात्रका ही नियन्त्रण होगा, वस्तुत: सर्वोपरि धर्मका ही नियन्त्रण मुख्यरूपसे रहेगा। मार्गमें पड़े हुए दो लाखके नोट पाकर जिसका है, उसे लौटा देनेकी सलाह मार्क्सवादी नहीं दे सकता। यह तो रामराज्यवादी ही कह सकता है। परान्न या परद्रव्य मार्गमें हो चाहे गृहमें ही पड़ा हो, विधिपूर्वक बिना पाये नहीं लेना चाहिये। यहाँ तो बाजारोंमें माल भेजनेका उद्देश्य केवल मुनाफा नहीं, किंतु वितरण ही है। लाभ भी अवश्य हो सकता है, किंतु वह आनुषंगिक है, मुख्य नहीं। अतएव किसीके द्वारा किसी राष्ट्रके शोषणकी भी बात नहीं आयेगी; क्योंकि समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताके दृष्टिकोणसे जैसे एक व्यक्ति दूसरेका पोषक होगा, वैसे ही एक राष्ट्र, एक वर्ग भी दूसरे राष्ट्र, दूसरे वर्गोंका शोषक न होकर पोषक ही होगा।
मार्क्सवादियोंका यह आरोप पाश्चात्य पूँजीवादियोंके लिये सही हो सकता है कि पैदावार समाजके हितार्थ नहीं होती, मुनाफा कमानेके लिये ही होती है, किंतु रामराज्यवादियोंके लिये यह आरोप सर्वथा निराधार ही है; क्योंकि रामराज्यवादीके मतमें तो बलवान्का बल शोषणके लिये नहीं रक्षणके लिये है। धनवान्का धन शोषणके लिये नहीं, दानके लिये होता है। उत्पादनसे समाजको वस्तु मिलेगी। उत्पादकको लाभ भी मिल सकता है। आम्रका सिंचन भी हो जाय, पितरोंका तर्पण भी हो जाय—‘एकक्रिया द्वॺर्थकरी’ का उदाहरण स्पष्ट है।
मार्क्सवादियोंका यह कथन भी सही नहीं कि ‘आर्थिक शोषणके कारण ही संग्राम होते हैं’। सदा अनेकों कारणोंसे संग्राम होते ही रहे हैं। जैसे समान लक्ष्य रहनेपर भी कम्युनिष्टोंमें पदाधिकार-लिप्सासे मारकाट होती रहती है, उसी तरह सार्वभौम बननेकी इच्छासे भी अनेकों युद्ध हुए हैं। मनुष्योंमें ही क्या, पशु-पक्षियोंमें भी तो विभिन्न कारणोंको लेकर संघर्ष तथा युद्ध होते रहते हैं, कहीं सम्पत्तिके लिये, कहीं भूमिके लिये, कहीं कन्याके लिये, कभी धर्मके लिये, कभी मान-प्रतिष्ठा, इज्जत-आबरूके नामपर भी संग्राम हुए हैं। देवताओं-असुरोंका संग्राम, कौरव-पाण्डवोंका संग्राम, राम-रावणका संग्राम केवल आर्थिक विषमताके लिये नहीं हुए।
संसारमें प्रतिस्पर्धासे उन्नति होती है। आजकल भी अन्नोत्पादनमें, पशुपालनमें, तैरनेमें, उड़नेमें, चलनेमें—हर बातोंमें प्रतियोगिता चलती है। प्रतियोगिता उन्नतिका मूल है, एतदर्थ पुरस्कार भी वितरण किया जाता है। प्राणीका यह स्वभाव भी है कि लाभके लोभ और हानिके भयसे उत्प्रेरित होकर वह तन्मयतासे काम करता है; अत: उत्पादनमें होड़ होना अनुचित नहीं है। फिर भी रामराज्यकी नीतिका अनुवर्तन करनेसे आर्थिक असन्तुलन नहीं हो सकता। धनका धर्मार्थ, यशोऽर्थ, अर्थार्थ, कामार्थ और स्वजनार्थ इस तरह पंचधा विभाग होनेसे आर्थिक असन्तुलन अवश्य ही दूर हो सकता है। यज्ञादि प्रसंगसे भी अर्थका वितरण होनेसे आर्थिक असन्तुलन दूर होता है। रामराज्यकी दृष्टिमें एक वर्ग दूसरे वर्गका पोषक होता है, शोषक नहीं। रामराज्यमें कोई भी दरिद्र, दु:खी, अबुध और लक्षणहीन नहीं था—
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छनहीना॥
सब प्राणी परस्पर प्रेम करते थे, सब स्वधर्म निरत थे और सब श्रुतिके अनुसार चलते थे—
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
हाथी और शेर प्रेमसे साथ-साथ विहार करते थे—
‘चरहिं एक सँग गज पंचानन।’
धन, विद्वान् और शक्तिमानोंका बाहुल्य होना राष्ट्रका भूषण है, दूषण नहीं। जब सभी समानरूपसे बलवान्, बुद्धिमान् एवं समान क्रियावान् नहीं होते, तब सभीके समान धनवान् होनेकी कल्पना भी व्यर्थ है। निर्बल बलवान्का सहारा चाहता है, अल्पबुद्धि विपुल बुद्धिकी अपेक्षा करता है। इसी तरह सब लोग समानरूपसे धनार्जन नहीं कर सकते, अत: अल्पधन भी विपुलधन-सम्पन्नकी अपेक्षा कर सकता है। इसीलिये योग्यता एवं आवश्यकताको ध्यानमें रखते हुए ही ‘चींटीको कणभर और हाथीको मनभर’ के अनुसार सभीके लिये समुचित काम, दाम और आरामकी व्यवस्था होनी चाहिये—यह रामराज्यका सिद्धान्त है। इससे लूले, लँगड़े, वृद्ध-अपाहिज आदिका भी निर्वाह होगा। इसी दृष्टिसे सबको सस्ता कपड़ा, सस्ती रोटी, सस्ता आवास-स्थान, सस्ती शिक्षा, सस्ती चिकित्सा और सस्ता न्याय सुलभ हो सकेगा। उद्यमोंमें होड़, बाजारों, पेट्रोल, कोयला आदिके लिये संग्राम तबतक अवश्य बने रहेंगे, जबतक एक राष्ट्रसे दूसरे राष्ट्रका भेद बना रहेगा। सिद्धान्त और शासनकी दृष्टिसे एक-दूसरेको अपनेमें मिलानेके लिये सभी प्रयत्नशील बने ही रहेंगे। सब कम्युनिष्ट हो जायँ, सब सोवियत-संघमें मिल जायँ, तभी संघर्ष रुक सकता है, परंतु फिर भी लेनिन, ट्राटस्की, स्टालिन आदिमें जैसे संघर्ष चला, वैसे ही सत्ता हथियानेके लिये संघर्ष चल ही सकता है। इस दृष्टिसे सर्वोत्तम पक्ष धर्म-नियन्त्रित शासनका है, जिसमें पृथक्-पृथक् शासन रहनेपर भी युद्ध, संघर्षसे सब दूर रह सकते हैं। यदि अखण्ड भूमण्डलका एक ही धर्म-नियन्त्रित शासक हो, तभी सब सुख-स्वप्न पूरे हो सकते हैं। जिन कम्युनिष्टोंका वर्ग-भेद, वर्ग-संघर्ष एवं वर्ग-विध्वंस ही अभ्युदयका मार्ग है, उनकी सद्भावना और भ्रातृता कैसी है—यह समझनेमें किसीको कठिनाई न होगी। सब चीजें समाजकी हों—यही कहकर सब चीजें मुट्ठीभर मजदूर-अधिनायकोंके हाथकी ही बना दी जायँगी। बैलगाड़ीवालों, ऊँटवालों, गधेवालों—सबका पूर्ण सत्यानाश तो कम्युनिज्ममें ही होगा। किसान, व्यापारी तथा बुद्धिजीवी-वर्गको भी कम्युनिष्ट-अधिनायकोंके दास बनकर ही गुलामीका जीवन बिताना पड़ता है। नमूनेके तौरपर कुछ शहरों, ग्रामोंमें अवश्य मजदूरोंको स्वर्ग दिखायी दे, परंतु व्यापक तौरपर रूसकी कहानी तो कुछ और है। जो इसे अपनी आँखों देख चुके हैं, उनके वर्णनोंको ‘पत्थरके देवता’ नामक पुस्तकमें कोई भी देख सकता है।
जो कहा जाता है कि ‘कम्युनिज्ममें हर काम हर व्यक्तिको सिखलाया जायगा’ यह भी अत्यन्त अव्यावहारिक बात है। सब काम सब नहीं कर सकते, सब काममें सबको दक्षता भी नहीं प्राप्त हो सकती है। प्रत्येक व्यक्तिको उच्चकोटिकी मोटरें, नये-नये वायुयान सुलभ कर देना कम्युनिष्टोंका दिमागी पुलावमात्र है। जब सैनिक और सेनापति, शासक और शासितका भेद न रहेगा, तब कोई भी व्यवस्था न चल सकेगी। यदि उपर्युक्त भेद रहेगा तो रूपान्तरसे वही स्वामी और सेवकका भाव आ ही जाता है। अफसर और मातहत लोगोंमें भी वही भावनाएँ चलती हैं।
धर्म और ईश्वरपर विश्वास होनेसे ही प्राणी अत्याचार, पापाचार आदिसे बचता है। अन्यथा शासकोंकी आँखमें धूल डालकर लोग मनमाना अनाचार, दुराचार कर सकते हैं। धर्म और ईश्वरकी कल्पना न होनेसे ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र परस्पर एक-दूसरेसे जाल-फरेब करते हैं। धर्म और ईश्वरपर विश्वास होनेसे प्राणिमात्रमें परमेश्वरका अस्तित्व दिखायी देता है। सब प्राणी परमेश्वरकी संतान हैं (‘अमृतस्य पुत्रा:’), फिर किससे विग्रह और किससे वैर? यह भावना सिवा अध्यात्मवादके जडवादमें कभी पनप ही नहीं सकती। अध्यात्मवादमें ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का पाठ पढ़ाया जाता है। जडवादमें तो थोड़ा-सा ही मतभेद होनेपर एक-दूसरेको मौतके घाट उतार देनेकी बात सोची जाती है। रामराज्य ही महायन्त्रोंका निर्माण रोकना और उद्योग-धन्धोंका विकेन्द्रीकरण करना चाहता है, परंतु कम्युनिज्ममें तो यन्त्रीकरणका विस्तार ही अभीष्ट है, फिर छोटे-छोटे कारीगरों या बैलों, ऊँटों, गधों आदिकी समस्या कम्युनिज्ममें कैसे हल होगी? रामराज्य-परिषद्की दृष्टिमें आर्थिक असन्तुलन दूर करनेकी पूर्ण योजना है ही। पूँजी और श्रम दोनों ही उत्पादनके मूल हैं। दोनोंकी उचित कदर की जायगी। विविध प्रकारके करों तथा आयात-निर्यातोंके सम्बन्धमें सदा ही समष्टि तथा व्यष्टिके हितोंका ध्यान रखा जाता है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व—सभी आत्मोन्नतिके उपाय कर सकते हैं, परंतु समष्टिके परस्पर हितका सामंजस्य रखना उनका अनिवार्य कर्तव्य है। यह केवल कम्युनिष्टोंकी ही बात नहीं है, किसी भी शासनमें समूचा राष्ट्र ही एक कुटुम्ब माना जाता है। सर्वत्र राष्ट्रके उन्नायकों, नेताओं तथा प्रबन्धकोंकी योग्यता और ईमानदारीके अनुसार ही उत्पादन एवं वितरणकी ठीक-ठीक व्यवस्था होती है। खपतके अनुरूप ही माल पैदा करनेका नियम रामराज्य-पद्धतिमें रहता है; क्योंकि समष्टिहितके अविरुद्ध ही व्यष्टिको प्रत्येक कार्य करनेकी स्वाधीनता मान्य है। शास्त्रों एवं तर्कोंसे किसीकी बपौती, मिल्कियत एवं गाढ़े पसीनेकी कमाई और दान या पुरस्कारमें पायी हुई सम्पत्तिका अपहरण करना अन्याय एवं पाप है।
अवश्य ही उत्पत्तिके पुराने साधनों एवं पद्धतियोंमें रद्दोबदल होनेसे उत्पादनमें विस्तार हो जाता है। उत्पन्न वस्तुओंमें सस्तापन भी आता है, आमदनीमें भी वृद्धि हो जाती है। खपतके लिये बाजारोंकी आवश्यकता, माल भेजने, मँगानेके लिये एवं कारखानोंके लिये कोयले, पेट्रोल आदिकी खानोंकी आवश्यकता, बाजारों एवं कोयले, पेट्रोल आदिके लिये संघर्ष और बेकारीकी समस्या आदि भी खड़ी हो जाती है। इसीलिये रामराज्यमें उद्योगोंका विकेन्द्रीकरण ही अभीष्ट है। छोटे-छोटे व्यवसायोंद्वारा स्वावलम्बी ढंगसे बेकारी दूर करके व्यापकरूपसे रोजगारोंकी व्यवस्था की जाती है। कम्युनिष्ट यद्यपि बड़ी-बड़ी पुस्तकोंमें कल-कारखानोंके द्वारा गरीबोंके रोजगार छिन जानेकी चीख-पुकार मचाते हैं, परंतु उन्हीं कल-कारखानोंका वे समर्थन भी करते हैं। इतना ही क्यों, वे कल-कारखानोंके विस्तारसे ही लाखोंकी संख्यामें मजदूरोंका एकत्रित एवं संगठित हो सकना और मजदूर-आन्दोलनोंके द्वारा कम्युनिष्टराज्य-स्थापनाका भी स्वप्न देखते हैं। ईश्वर एवं धर्मकी भावना दृढ़ होनेसे वैभव एवं सम्पत्तिवाले अपनी सम्पत्तिका सदुपयोग राष्ट्रके पोषण तथा जीवन-स्तर उन्नत करनेमें करेंगे। बेकारी दूर करनेके काममें उनकी सम्पत्ति उपयुक्त होगी। इसीलिये प्राचीनकालमें आजकी अपेक्षा कहीं अधिक सम्पत्ति, शक्ति, बल, विद्या और दक्षताके रहनेपर भी असन्तुलित विषमता, बेकारी, कलह आदि नहीं थे। ईश्वर एवं धर्मकी भावना घटनेसे ही मात्सीय न्याय, परस्पर भक्ष्य-भक्षकभाव, शोषक-शोषितभाव बढ़ता है और उसे ही मार्क्सवादी गुण मानते हैं। वर्ग-कलह, वर्ग-विद्वेष तथा वर्ग-विध्वंस ही जिस संस्थाके सिद्धान्त एवं आधार हों, वे ही जिसके जीवन एवं उन्नतिके एकमात्र साधन हों, उससे विश्वशान्ति एवं विश्वमें समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताकी स्थापनाकी आशा करना व्यर्थ ही है।
उत्पादन-विस्तारसे इस तरह कुछ भौतिक परिवर्तन होनेपर भी धर्म, दर्शन एवं राजनीतिक नियमों, स्वत्वोंमें रद्दोबदलका कोई प्रसंग नहीं होता। अमेरिका आदिकोंमें बिना मौलिक रद्दोबदलके भी काम चलता ही है। आर्थिक दशा सामाजिक, धार्मिक नियमोंकी नींव नहीं है, जिससे कि आर्थिक दशामें परिवर्तन होनेसे सामाजिक, धार्मिक नियमरूपी भवन ढह पड़े और उनमें रद्दोबदल करना आवश्यक हो। जो यह कहा जाता है कि ‘जिन लोगोंने उत्पादन-साधनोंमें रद्दोबदल कर लिया, उन्हें उत्पन्न हुई वस्तुओंके वितरण-सम्बन्धी नियमोंमें भी परिवर्तन कर लेनेका अधिकार मानना न्यायसंगत है। अत: पुत्र-पौत्र आदिका पिता-पितामहकी सम्पत्तिपर दायरूपसे बपौती-सम्पत्तिके रूपमें अधिकार माननेके नियममें भी हेरफेर करके तथा सभी स्वत्व-सम्बन्धी पुराने नियमोंमें परिवर्तन करके समाजीकरण या राष्ट्रीकरणका सिद्धान्त माना जाना ठीक ही है।’ परंतु यह बात विचारणीय है कि उत्पादन-साधनोंमें परिवर्तन करनेका मुख्य श्रेय किसको है? क्या साधारण मजदूर-समुदायको? नहीं, मानना पड़ेगा कि इसका पहला श्रेय बड़े वैज्ञानिकों एवं अन्वेषकोंको है। फिर ऐसे भी बहुत-से शाश्वत नियम हैं, जिनमें परिवर्तन असम्भव है। ऐसी दशामें यह सब कथन भी निस्सार है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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