9.8 ज्ञानका मूल ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

9.8 ज्ञानका मूल

मार्क्सवादी ज्ञानकी परिभाषा करते हुए कहते हैं कि ‘ज्ञान सम्बन्धोंकी चेतना, वस्तु विषय तथा आत्मविषयक जीवधारी मनुष्यके रूप हम और बाहरी दुनियाँके सम्बन्धोंकी चेतना, बाहरी दुनियाँमें व्यापक और विशिष्ट तफसीलोंके बीचका सम्बन्ध और दृष्टिभूत वस्तु तथा उसकी कल्पनाके बीचका सम्बन्ध जिसमें और जिसके द्वारा हम अस्तित्वका अनुभव करते हैं। अपना अस्तित्व और बाहरी दुनियाँका भी अस्तित्व हम दृष्टिभूत वस्तुओं उनकी कल्पनाओंमें ही अपने और बाहरी दुनियाँके बीच समता और प्रभेद दोनोंका एक साथ अनुभव करते हैं। प्राकृतिक वास्तविकताकी बाहरी दुनियाँ और मननक्रियाकी भीतरी दुनियाँमें विविध प्रकार परिणामकी समता और प्रभेदका मानस चित्रमें चित्रित कर सकना और इन सबको सम अस्तित्व (को एविजर्सास) और अनुवर्तन (सक्सेशन) क्रिया, प्रतिक्रिया, परस्परक्रिया और कार्यकारण निर्भरताके उचित सम्बन्धोंमें सजाने और व्यवस्थित करनेका नाम ही जानना है।’
‘सम्बन्धकी चेतना ही ज्ञान है, विशेषकर वस्तु-जगत‍्के अस्तित्वोंके बीचका तथा आत्मानुभूत (दृष्टिगत वस्तु, कल्पनाएँ आदि) अस्तित्वोंके बीचका सम्बन्ध तथा इन दोनों जगतोंके बीचके सम्बन्धकी चेतना ही ज्ञान है। एक और दृष्टिकोणसे व्यावहारिक अर्थमें विचार वस्तु-जगत‍्को ठीक-ठीक प्रतिफलित और प्रतिबिम्बित करता है, इसकी निश्चयता ही ज्ञान है। भौतिकवादने प्रकृतिको क्रियाशील रूपमें माना और विचारको अक्रिय रूपमें, जिसका केवलमात्र काम था इन्द्रियग्राह्य वस्तुओंको ग्रहण करना तथा उसपर मन्थन करना। यह काण्ट और काण्टके पश्चात‍्के आदर्शवादी थे, जिन्होंने मननशक्तिकी रचनात्मक क्रियापर जोर दिया, लेकिन इतना अधिक जोर दिया कि उसको बेहिसाब बढ़ा-चढ़ा दिया।’
‘अंग्रेजी और फ्रांसीसी भौतिकवादने इस मूल स्वीकृतिसे आरम्भ किया कि विचारकी वस्तु (विचारका कर्म)-का अस्तित्व विचारकर्ताके अस्तित्वसे पहले है और विचारकर्ता इसकी अनुभूति प्राप्त करता है। लेकिन वह इससे आगे न बढ़ सके। हमास् हबस‍्ने इस मतको इन शब्दोंमें रखा है। ‘मनुष्यके विचारके सम्बन्धमें अलग-अलग रूपमें इनमेंसे प्रत्येक वस्तु, हमारे शरीर और मनके बाहर किसी वस्तुके किसी गुणका प्रतीक या प्रतिनिधि है, जो वस्तुकी मनुष्यकी इन्द्रियोंपर अपनी क्रियाकी विचित्रतासे विविध दृश्योंकी सृष्टि करती है (लिवायथन)। यह प्रश्न भौतिकवादियोंके सामने इस रूपमें था कि इस ज्ञानकी उत्पत्ति इन्द्रियग्राह्य रूपोंके मूल उद‍्गमस्थानसे होकर एक विशेषशक्ति प्रज्ञाद्वारा होती है, लेकिन यह विशेषशक्ति क्या है, यही एक झगड़ेका विषय हो गया। आदर्शवादी इस मतका पोषण करते थे कि यह ‘प्रज्ञा’ धर्मपण्डितोंकी आत्मा ही है, जो एक अतिप्राकृतिक शक्ति है, जो इन्द्रियानुभूत मायावी रूपोंको परम और अनन्त सत्यमें परिणत करती है। भौतिकवादी इस मतके लिये झगड़ते रहे कि यह ‘प्रज्ञा’ कितनी ही रहस्यमयी हो, फिर भी यह प्राकृतिक ही है।’
प्रसिद्ध लेखक आनातोल फ्रांसने परिस्थितिको इस तरह चित्रित किया है ‘मठकी दीवारके नीचे जहाँ छोटे बच्चे अपना खेल खेल रहे थे, हमारे साधुमित्र वहाँ एक और खेल खेल रहे थे, जो उतना ही व्यर्थ था, लेकिन मैं वहाँ जा मिला; क्योंकि समय बिताना ही चाहिये। हमारा खेल शब्दोंका खेल था, जो हमारे गूढ मगज लेकिन सूक्ष्म दिमागके लिये सुखकर था, एक विचारशैलीको दूसरी विचारशैलीके विरुद्ध उभाड़नेवाला था और उसने सारे ईसाई समाजमें हलचल मचा दी। हम दो विरोधी दलोंमें बँट गये। एक दलका कहना था कि सेवों (फल)-के पहले सेव जाति थी, केलोंके पहले केला जाति थी, भ्रष्टचरित्र और लालची साधुओंके पहले साधु-जाति, लालच तथा भ्रष्टचरित्रता थी ही। पीठपर लात जमानेके लिये लात और पीठसे पहले पीठ जमानेवाला लात सदासे ईश्वरके अन्त:स्थलमें विद्यमान था’ और दूसरे दलने उत्तर दिया कि ‘नहीं, सेवोंसे ही सेव जातिकी धारणा होती है, केलोंसे ही केला जातिका अस्तित्व है। साधुओंसे ही साधु-जाति, लालच तथा भ्रष्ट-चरित्रताकी उत्पत्ति है। लात जमाने और खानेके बाद ही पीठपर लातका कोई अर्थ होता है। बस खिलाड़ी गरम हो गये और घूँसा चलने लगा। मैं दूसरे दलका पृष्ठ-पोषक था; क्योंकि उसका मत मेरे लिये बुद्धिग्राह्य था और सोवासोंकी बैठकने इस मतको अग्राह्य बनाया (रिवोल्ट ऑफ ऐंजिल्स)।’
‘प्रज्ञावादी दृष्टिकोणसे वैज्ञानिक ज्ञानका चिह्न है, इसके प्रतिपाद्योंकी व्यापकता और अवश्यम्भाविता। व्यापकताका अर्थ है कि सिद्धान्तका प्रयोग बिना व्यतिक्रमके हमारे सब अनुभवोंपर हो सके और अवश्यम्भाविताका अर्थ है कि सब मनुष्योंकी बुद्धि ऐसे सत्यको ग्रहण करनेके लिये उनको बाध्य करे। लेकिन प्रज्ञावादीको कार्यकारण-सम्बन्धोंका एक सूत्रबद्ध सिलसिला कहाँसे मिल जाता है, जो उनके अनुसार वस्तुओंके भ्रमपूर्ण चित्रोंके मूलमें है? इन विचारोंके स्पष्ट और स्वयं सिद्ध तथा तर्कसंगत होनेसे ही ऐसा क्यों अनुमान किया जाय कि ये बाहरी दुनियाकी सच्ची तस्वीरें हैं? लेनिनके शब्दोंमें इस रहस्यका इस प्रकार उद्घाटन हो जाता है। करोड़ों बार दुहरानेसे मनुष्यके अभ्यास और अनुभव चेतनामें तर्क संकेतका रूप धारण कर लेते हैं। तथाकथित तर्कसंगत विचारके सार्वभौमरूपोंका ऐतिहासिक आधार यही है।’
वस्तुत: यह परिभाषा अन्योन्याश्रय-दोषसे युक्त है। ज्ञानका निश्चय होनेपर ही ज्ञान-सम्बन्धका निश्चय होगा और ज्ञान-सम्बन्ध निश्चय होनेसे ज्ञानका निश्चय होगा। साथ ही ज्ञान और चेतना—दोनों एक ही वस्तु हैं; फिर ‘ज्ञान-सम्बन्धोंकी चेतना ज्ञान है,’ इसका यह अर्थ हुआ कि ज्ञान-सम्बन्धोंका ज्ञान ही ज्ञान है। इस तरह आत्माश्रय दोष भी है। जबतक ज्ञान नहीं विदित है, तबतक ज्ञान-सम्बन्धोंका भी ज्ञान कैसे होगा? इसी प्रकार ‘वस्तुविषयक, आत्मविषयक तथा जीवधारी मनुष्यके रूप और बाहरी दुनियाके चेतनाको ज्ञान कहते हैं’, यह परिभाषा भी अपूर्ण है; क्योंकि ज्ञान और चेतना दोनों एक ही वस्तु हैं। फिर ‘ज्ञानके लक्षणकी जिज्ञासा अमुक सम्बन्धकी चेतना ज्ञान है’, इतना कह देनेसे वह कैसे पूर्ण होगी? इसके अतिरिक्त सम्बन्ध-चेतना यदि ज्ञान है तो प्रश्न होगा कि वस्तु-चेतना ज्ञान है या नहीं? सम्बन्ध-चेतना ही वस्तुकी चेतना है, यह कहना भी असंगत है; क्योंकि सम्बन्ध सम्बन्धीसे भिन्न ही होता है। अतएव सम्बन्ध-सम्बन्धीका आधाराधेय भाव होता है। जैसे घट-ज्ञान पट-ज्ञानका लक्षण नहीं होता, उसी तरह वस्तु-सम्बन्ध-ज्ञान वस्तु-ज्ञानका लक्षण नहीं हो सकता। इसी प्रकार बाहरी दुनियाके व्यापक और विशिष्ट तफसीलोंके बीचका सम्बन्ध भी ज्ञान नहीं कहा जा सकता। सम्बन्ध द्विष्ठ होता है; अर्थात् दो सम्बन्धियोंमें रहता है, जैसे संयोग। जिन दो वस्तुओंका संयोग होता है, उन दोनोंमें ही सम्बन्ध रहता है। ज्ञान आत्मामें ही रहता है।
इसके अतिरिक्त सम्बन्ध स्वयं ही ज्ञेय पदार्थ है, उसका भी ज्ञान होता है, फिर वह स्वयं ही ज्ञान कैसे हो जायगा? इसी तरह ‘दृष्टिभूत वस्तु तथा उसकी कल्पनाके बीचका सम्बन्ध जिसमें और जिसके द्वारा हम अस्तित्वका अनुभव करते हैं, वह ज्ञान है’, यह भी कहना गलत है; क्योंकि अनुभव भी तो ज्ञान ही है। चेतना, अनुभव, ज्ञान आदि पर्यायवाची शब्द हैं। उसी वस्तुका लक्षण करनेमें उसीका उपयोग होना अयुक्त है। ‘अपने और बाहरी दुनियाके बीच समता और प्रभेद दोनोंका जिन दृष्टिभूत वस्तुओं और उनकी कल्पनाओंमें अनुभव करते हैं, वह ज्ञान है’, यह भी कहना अपर्याप्त है; क्योंकि दृष्टि और उनकी कल्पनाओंका भी अन्तर्भाव ज्ञानमें ही है। अत: जबतक ज्ञान या अनुभव या चेतनाका स्पष्ट लक्षण न हो जाय, तबतक इन वाक्याडम्बरोंसे काम नहीं चल सकता।
इसी तरह ‘मनन-क्रियाकी भीतरी दुनियामें विचित्र प्रकार एवं परिमाणकी समता और प्रभेदका मानचित्रमें चित्रित कर सकना और इन सबको सम अस्तित्व और अनुवर्तनक्रिया, प्रतिक्रिया, परस्परक्रिया और कार्य-कारण-निर्भरताके उचित सम्बन्धोंमें सजाने तथा व्यवस्थित करनेका नाम ही ज्ञान है’, यह कथन भी शब्दाडम्बरको छोड़कर कुछ नहीं है। वस्तुत: कल्पना, मनन-क्रिया, चित्रण करना, सजाना आदि क्रिया कर्तृतन्त्र ही होती है, परंतु ज्ञान तो कृति और इच्छासे भी पहले होता है। इसीलिये ‘जानाति, इच्छति, अथ करोति’ का व्यवहार होता है। अर्थात् कोई भी प्राणी जानता है, फिर इच्छा करता है, पुनश्च कर्म करता है। प्राणी जैसा संकल्प करता है, वैसी ही क्रिया करता है—यह पीछे कहा जा चुका है।
कोई भी क्रिया चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, कर्ताके परतन्त्र ही होती है। किंतु ज्ञान कर्ताकी इच्छापर निर्भर नहीं होता; प्रमाणकी उपस्थितिमें कर्ताकी इच्छा न होनेपर भी ज्ञान होता है। दुर्गन्ध-ज्ञानको हम नहीं चाहते, तब भी निर्दोष घ्राणकी उपस्थितिमें दुर्गन्ध रहनेपर ज्ञान अनिवार्य ही है, यहाँ कर्ताकी स्वतन्त्रता नहीं होती है। मानस परिणाम होनेपर भी मनन-क्रिया, भावना एवं ज्ञानमें यही भेद रहता है। बाहरी दुनियाकी वास्तविकता और भीतरी दुनियाकी समता तथा भिन्नताका मनमें चित्रण करना ज्ञाता या प्रमाताका काम हो सकता है। इन सबका सम अस्तित्व और अनुवर्तनक्रिया, प्रतिक्रिया और कार्य-कारणके उचित सम्बन्धमें सजाने और व्यवस्थित करने आदिका काम भी प्रमाताका ही है, ज्ञानका नहीं। भौतिकवादियोंके यहाँ जीवित मनुष्य ही प्रमाता हो सकता है। देहसे भिन्न प्रमाता कोई आत्मा मार्क्सवादियोंको मान्य नहीं है। ज्ञान स्वयं-प्रकाश है। व्यवस्थापन करना, सजाना आदि ज्ञानका काम नहीं होता। प्रमाण भी अज्ञात-ज्ञापक होता है, अकृतकारक नहीं।
इसी तरह ‘सम्बन्धकी चेतना ही ज्ञान है या वस्तु-जगत‍्के अस्तित्वोंके बीचका तथा आत्मानुभूत अस्तित्वोंके बीचका सम्बन्ध एवं इन दोनों जगतोंके बीचके सम्बन्धोंके बीचकी चेतनाका नाम भी ज्ञान है’, यह भी कथन व्यर्थ है; क्योंकि वस्तुत: अस्तित्वका स्वत: सम्बन्ध नहीं होता। अस्तित्ववाली वस्तुओंका सम्बन्ध होता है और वे सम्बन्ध ज्ञेय एवं गुणविशेष होते हैं, चेतना या ज्ञान नहीं। इसी प्रकार आत्मा मार्क्सवादमें देह-भिन्न है ही नहीं। अनुभव-ज्ञानसे भिन्न कोई वस्तु नहीं होती, फिर आत्मानुभूत अस्तित्वोंका सम्बन्ध भी स्वयं अनुभव या ज्ञानस्वरूप नहीं हो सकता। विचार वस्तु-जगत‍्को ठीक-ठीक प्रतिफलित, प्रतिबिम्बित करता है, इसकी निश्चयता ही ज्ञान है। यहाँ भी वस्तुत: वस्तुका अन्त:करणमें प्रतिफलन या प्रतिबिम्बन ही विचार या निश्चय कहलाता है। यहाँ भी निश्चय, ज्ञान, विचारादि समानार्थक हैं। यहाँ भी अन्योन्याश्रय आदि दोष उपस्थित होते हैं।
भारतीय नैयायिकोंकी दृष्टिसे सर्वव्यवहारहेतु आत्मगुणको ही ज्ञान माना जाता है। सुस्पष्ट है कि संसारके सभी व्यवहार तथा व्यापार ज्ञानमूलक हैं। संसारमें अकामकी कोई भी क्रिया नहीं होती और सभी काम संकल्पमूलक ही होते हैं। वेदान्तकी दृष्टिसे काम, संकल्प, विचिकित्सा, श्रद्धा, अश्रद्धा, ह्री, धी, भय—ये सभी मनके धर्म हैं। नैयायिकोंके तथा वैशेषिकोंके अनुसार आत्ममन:संयोगसे उत्पन्न होनेवाले ये सब आत्माके ही गुण हैं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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