9.11 समाज—विकासकी कुंजी ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

9.11 समाज—विकासकी कुंजी

‘सोशलिज्म’ का अर्थ है ‘समाजवाद’ और साम्यवादका अर्थ है समाजमें समानता लाना। समाजवादका अभिप्राय यह है कि ‘समाज ही उत्पादन-साधनोंका स्वामी हो। व्यक्तिके स्थानपर समाजका शासन होना ही समाजवाद है।’ फ्रांसके सेंट साइमन और इंग्लैण्डके राबर्ट्स ओबेनने (जिनका जन्म क्रमश: १७६० और १७७१ में हुआ था) पहले-पहल साम्यवादी विचारधारा फैलायी। उनके विचार थे कि ‘सरकारकी बागडोर महात्माओं एवं वैज्ञानिकोंके हाथमें होनी चाहिये।’ मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘चूँकि ये विचार धार्मिक भावनाके थे, इसलिये वे लोग वास्तविकतासे परिचित न हो सके।’ फ्रांसके लुई ब्लां (जिसका जन्म सन् १८११ में हुआ था) ने आधुनिक समाजवादका रूप व्यक्त किया और मजदूरोंके हाथमें राजनैतिक सत्ता देना आवश्यक समझा। फिर भी मार्क्सवादी अपने समाजवादको उन सबसे विलक्षण कहते हैं। एंजिल्सका कहना है कि ‘समाजवाद शब्दका प्रयोग अनेक बेसिर-पैरकी हवाई आयोजनाओंके लिये हुआ है। परोपकारकी भावनाओंद्वारा मजदूरोंकी अवस्था सुधारनेके ऐसे सैकड़ों प्रयत्नोंसे भी इस शब्दका सम्बन्ध रहा है, जो एक तरफ मजदूरोंके कल्याणकी फिक्र करते हैं और दूसरी ओर पूँजी तथा उसके मुनाफेको भी सुरक्षित रखना चाहते हैं।’ इसीलिये ‘कम्युनिष्ट मैनीफेस्टो’ का ‘समाजवादी मैनीफेस्टो’ नाम नहीं रखा गया।
फ्रांसके प्रौधोंने भी कहा कि ‘मजदूरोंके साधनहीन होनेसे उन्हें अपने परिश्रमका पूरा फल नहीं मिलता। साधनोंसे मालिक बिना परिश्रम किये ही मजदूरोंके परिश्रमका फल हथिया लेता है।’ अत: प्रौधोंने ‘समाजको सब सम्पत्तिका मालिक’ होना ठीक समझा। इनमेंसे अनेकोंने स्त्री-पुरुषोंके सामाजिक बन्धनोंको भी अनावश्यक समझा। फलत: इनके बहुत अनुयायी आचारहीन भी हो गये। जिसका समाजपर बुरा असर पड़ा। मार्क्सकी मुख्य विशेषता यह बतायी जा सकती है कि ‘उसने मनुष्य-समाजके इतिहासकी घटनाओंको कार्य-कारणकी शृंखलामें जोड़ दिया। प्रकृतिके समान ही मनुष्य-समाजके विकास एवं परिवर्तनके नियम हैं। समाजका रूप और संघटन किसी बाह्यशक्तिसे नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य-समाजके विचारों, निश्चयों और कार्योंसे होता है। आगे भी समाजका रूप आवश्यकतानुसार बदला जा सकता है। पूँजीवादी प्रणाली अपने विकाससे समाजमें इस प्रकारकी स्थिति उत्पन्न कर देती है कि उसका आगे बढ़ना असम्भव हो जाता है और पूँजीवादी समाजको विनाशकी ओर बढ़ाता है, अत: श्रेणी-संघर्षके द्वारा समाजवाद विकसित होता है।’
रामराज्यवादीका इसपर कहना है कि जड प्रकृतिमें समीक्ष्यकारिता नहीं बन सकती। कोई समीक्ष्यकारी व्यक्ति या समूह आक्रमणकारी या आक्रमणका सामना करनेके लिये परस्परविचारसे निश्चित कार्यक्रम बनाता है। अमुक अश्वारोही, अमुक गजारोही, अमुक रथारोही, अमुक वायुयानारोही होकर तलवार, भाला, बर्छा, बन्दूक, तोप, विस्फोटक तथा अंगार (बम्ब) आदि लेकर आक्रमण या मुकाबला करेगा। अवसर आनेपर वह पूर्वसंकेतानुसार वैसा ही करता है। पर अचेतन प्रकृति या उसके जडकार्यमें या घटनाओंमें समीक्ष्यकारिता सर्वथा असम्भव है। अतएव प्रकृति या प्रकृति-कार्य किसीमें भी स्वतन्त्ररूपसे नियमित प्रवृत्ति नहीं हो सकती। निरीश्वरवादी सांख्योंमें भी ‘नद्या: कूलं पिपतिषति’ (नदीका किनारा गिरना चाहता है)-के समान प्रकृतिके विचार या ईक्षणको गौण या औपचारिक ही माना है। नदीका किनारा जड है, उसमें गिरनेकी इच्छा नहीं हो सकती; किंतु आसन्न पतन अर्थात् शीघ्र गिरना देखकर इस प्रकारका वाक्य-प्रयोग किया जाता है। जैसे अचेतन रथादिकी प्रवृत्ति चेतन सारथ्यादिद्वारा अधिष्ठित होनेसे ही होती है, वैसे ही अचेतन प्रकृति या उसके कार्य जड-वर्गकी प्रवृत्ति भी चेतन-नियन्त्रित ही होती है। घटनाएँ उसी अचेतनकी हलचलमात्र हैं। वे स्वयं भी जड हैं। उनके नियम या कार्यकारणभाव—कुछ भी स्वतन्त्र नहीं हो सकते। मीमांसकोंका अचेतन कर्म भी ईश्वराधिष्ठित होकर ही फल देता है, उनके कार्यकारणभाव भी ईश्वरनियन्त्रित ही हैं—‘ईक्षतेर्नाशब्दम्’ (ब्रह्मसूत्र १।१।५) शांकरभाष्य आदिमें यह विषय विस्तारसे वर्णित है।
अचेतन यन्त्रोंकी नियमित प्रवृत्तिके मूलमें भी किसी चेतनको ही अनिवार्यरूपसे सबका नियामक मानना पड़ता है। किसी-किसी घटनाका परस्पर कार्य-कारणभाव होता है, यह कोई मार्क्सकी नयी बात नहीं है। दण्ड, चक्र, चीवर, कुलालादिके व्यापारकी घटना घटनिर्माण (घटना)-का कारण है। तन्तु, तूरी, वेमा, तन्तुवायादिकी हलचलें पटनिर्माणका कारण हैं। संग्रामसे धन, जन, शक्तिका अपक्षय होता है। उससे किसीकी हानि और अन्तमें किसीको लाभ भी होता है—यह कार्य-कारणभाव मान्य ही है। सब घटनाओंका कार्य-कारणभाव सर्वथा ही असंगत है। यदि सभी घटनाओंका परस्पर कार्य-कारणभाव हो तो कार्यकारणभावकी कल्पना ही समाप्त हो जाती है। किसीका कोई कारण होकर अन्यका अकारण हो, तभी कार्य-कारण-भावकी विशेषता होती है। कुलालका पिता भी यद्यपि कुलालजननद्वारा घटका कारण कहा जा सकता है तथा बाणनिर्माता भी किसीके वधमें परम्परया कारण हो सकता है, परंतु तार्किकोंने ऐसे कारणोंको ‘अन्यथासिद्ध’ कहा है। अन्यथा-सिद्धिशून्य कार्याव्यवहित पूर्वक्षणवर्तीको ही कारण कहा जाता है। कालान्तरभावी स्वर्गादिके प्रति अग्निहोत्रादि पूर्वक्षणवर्ती नहीं हो सकता। अत: बीचमें अपूर्व (अदृष्टरूप) व्यापार मानकर उसके द्वारा कार्य-कारणभाव निश्चित होता है। ‘तज्जन्यत्वे सति तज्जन्यजनकत्व’ ही व्यापार है। अग्निहोत्रादिजन्य होकर अग्निहोत्रादिजन्य स्वर्गका जनक अदृष्ट है। काकके बैठने, तालके गिरनेमें यद्यपि कार्य-कारणभाव प्रतीत होता है, तथापि ‘काकतालीयन्याय’ का अकार्यकारणभाव स्पष्ट ही है। इसके अतिरिक्त ‘इति-ह-आस’ (इतिहास) ऐसा हुआ—इस ऐतिह्यको ही इतिहास कहते हैं। ‘वटे यक्ष:’ यह प्रसिद्धि इतिहास नहीं है। अन्धपरम्पराकी प्रसिद्धि अप्रमाण और आप्तपरम्पराकी प्रसिद्धि प्रमाण होती है।
इसीलिये अतीत घटनाओंके सम्बन्धमें वचन या लेख ही प्रमाण होते हैं। कुछ अंशोंमें अनुमान भी सहायक होते हैं। करोड़ों वर्षोंकी अगणित घटनाओंका उल्लेख हो ही नहीं सकता। यदि एक-एक वर्षकी घटनाओंका एक-एक पन्नेमें भी संकलन करें तो भी करोड़ों पन्नोंका इतिहास होगा। उसे कौन कितने दिनमें पढ़ेगा, फिर कब निष्कर्ष निकालेगा? सम्पूर्ण घटनाओंका ज्ञान न होनेसे अधूरी घटनाके अधूरे ज्ञानसे निकाला हुआ निष्कर्ष भी अधूरा ही होगा। फिर घटनाओंकी सच्चाई जाननेमें भी पर्याप्त भ्रम रहता है, आँखों-देखी घटनाओंके सम्बन्धमें विभिन्न संवाददाताओं, समाचार एजेंसियोंमें पर्याप्त मतभेद रहता है। समाचारपत्रों एवं सम्पादकीय लेखोंमें जाते-जाते एक ही घटनाका रूप सैकड़ों ढंगका बन जाता है। इसीलिये पुरानी घटनाओंका पढ़ना-लिखना गड़े मुर्दोंके उखाड़ने-जैसा ही व्यर्थ होता है। म्यूनिसिपलबोर्डोंमें मनुष्योंके ही जनमने-मरनेका लेखा-जोखा होता है, मच्छरों-मक्खियोंके जीने-मरनेका लेखा-जोखा नहीं रहता; क्योंकि उनका कोई महत्त्व नहीं होता। वैसे ही प्रतिवर्ष इतिहासमें मुख्य-मुख्य व्यक्तियों एवं घटनाओंका ही उल्लेख होता है, लाखों ही नहीं, करोड़ों व्यक्तियों एवं घटनाओंका उल्लेख छोड़ दिया जाता है; क्योंकि लेखक उनका महत्त्व नहीं मानता, परंतु एतावता क्या कोई कह सकता है कि ‘उनमें कोई व्यक्ति या घटना भी महत्त्वपूर्ण नहीं?’ इसीलिये भारतीय महर्षियोंने योगज ऋतम्भरा प्रज्ञाके द्वारा ही अतीतकी महत्त्वपूर्ण आवश्यक घटनाओंका साक्षात्कारकर उनका उल्लेख किया है। ‘योगजविशेषता नहीं होती’ यह कहना मूर्खता होगी। स्पष्ट ही देखते हैं कि ‘जब चित्त शान्त, एकाग्र होता है तो सूक्ष्म ज्ञान उत्पन्न होता है। चित्तके चंचल एवं अशान्त होनेपर आँखों-देखी, कानों-सुनी बातोंका भी ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता।’ वाल्मीकीय रामायणके लिये ब्रह्माका वरदान है—‘न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति’ (वाल्मी० १।२।३३) इस काव्यमें तुम्हारा एक भी वाक्य अनृत नहीं होगा। यदि ये सब बातें झूठी हैं, तो जडवादियोंकी सम्पूर्ण ऐतिहासिक कल्पनाएँ और उनके कार्यकारणभाव भी सुतरां झूठे हैं।
मनुष्योंको विचारने, सोचने, उन्नत करनेमें अवश्य स्वतन्त्रता है, परंतु उसके लिये भी शिक्षण, मार्गदर्शन अपेक्षित होते हैं। आज भी शिक्षणादिकी आवश्यकता सूर्यके समान स्पष्ट है। सर्वज्ञ ईश्वर, आप्त, महातपा, महर्षियोंके शिक्षण मार्गदर्शनके अनुसार सोचने, विचारने, उन्नतिके प्रयत्न करनेसे सफलता निश्चित होती है, मनमानी करनेसे भटककर परेशान होना पड़ता है। आज भी न्याय, नीति, शिक्षा, शिल्पादिके सम्बन्धमें परम्परासे ही शिक्षा ली जाती है। अदालतोंमें भी पुरानी नजीरें पेश की जाती हैं। नीतिके सम्बन्धमें भी पुरानी मान्यताओंकी खोज की जाती है। यदि अतीतसे शिक्षा नहीं लेनी है, तो फिर इतिहासका महत्त्व ही क्या? अतीत घटनाओंमें कितनी ही अनिष्ट हैं, कितनी इष्ट हैं, कितनी भली हैं, कितनी बुरी हैं। अधिकांश अनाचार, पापाचार एवं बुराईकी ही घटनाएँ घटती हैं। अत: महर्षियों, शिष्टोंसे सम्मत, सत्य, लाभदायक इतिहास ही आदरणीय होता है। अत: राष्ट्रको अपने भविष्यनिर्माण करने, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक उचित शिक्षण प्राप्त करनेके लिये ही प्राप्त इतिहासोंका उल्लेख होता है।
पूँजी जड है, वह स्वयं मुर्दा है, प्रयोक्ताओंके गुण एवं दोषसे उसमें गुण या दोष आते हैं। पूँजीद्वारा होनेवाले विकाससे पूँजीपतिका ही विनाश नहीं होता, किंतु मजदूरका भी होता है, अन्यथा उसकी भी बेकारी बढ़ती है। बेकारी बढ़नेसे ही मजदूरोंका राज्य नहीं बन जाता। यदि यही बात हो तो फिर राज्य बनानेके लिये व्यक्ति या समूह बेकार ही प्रयत्न करें; परंतु ऐसा देखा नहीं जाता। इसके साथ ही यह भी समझना चाहिये कि वैज्ञानिक आविष्कारक आदि आधुनिक विकासके मूल हैं। यदि विकासके परम्परागत हेतु होनेसे पूँजीपतिका विनाश होता है, तो साक्षात् ‘संश्लिष्ट’ आविष्कारकों एवं मजदूरोंका विनाश क्यों न होगा? जैसे पूँजीपतियोंका विनाश इतिहाससिद्ध है, वैसे ही पूँजीपतियोंसे अधिक संख्यामें मजदूरोंका विनाश भी इतिहाससिद्ध है। फिर भी जैसे मजदूर रहते हैं, वैसे पूँजीपति भी हैं। यह दूसरी बात है कि मजदूरके नामपर कुछ सरकारी अधिनायक पूँजीपति बन जाते हैं। किसी भी कार्यमें आनेवाले दोषों एवं दुष्परिणामोंको बुद्धिमान्, ईमानदार मिटानेका प्रयत्न करता है और सफल होता है; कोई खास वर्ग या व्यक्ति ही ऐसा करता है; यह नहीं कहा जा सकता। फिर धर्म-नियन्त्रित शासन सुतरां ईश्वरीय एवं आर्ष सम्मतियोंके अनुसार आगत दोषोंको दूर कर ही सकता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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