9.12 श्रेणी और वृत्ति
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘जीविका पैदा करनेके क्रममें जो मनुष्य जिस स्थानपर है, वही उसकी श्रेणी है। मनुष्य जीविका उपार्जन करनेके ढंगके अनुसार अपने रहन-सहनका ढंग बना लेता है, अतएव जीविकोपार्जनका ढंग बदलनेसे समाजका रूप भी बदल जाता है। समाजमें पैदावारकी दृष्टिसे श्रेणियाँ अपना-अपना स्थान रखती हैं। पैदावारके फल या पैदावारके साधनोंपर अधिकार करनेके लिये जो संघर्ष चलता है, वही मनुष्यसमाजका इतिहास है, वही मनुष्यसमाजके विकासका मार्ग है। विकासके मार्गमें विरोध आना आवश्यक है, विरोधसे नया विधान तैयार होता है। नया विधान समाजके विकासको आगे बढ़ाता है।’ शरीरमात्रको आत्मा माननेवाले शरीरभिन्न आत्मा एवं उसका जन्मान्तर होने, ईश्वर एवं धर्माधर्मका रहस्य न समझनेवाले चार्वाकप्राय जडवादियोंकी दृष्टिमें उपर्युक्त बातें ठीक ही हैं, परंतु तद्विपरीत रामराज्यवादीको ‘पशुओं, वृक्षों-जैसी ही मनुष्योंकी भी जन्मना ही ब्राह्मणादि श्रेणी मान्य है। जीविका चलानी हर मनुष्यकी मुख्य समस्या नहीं, किंतु लौकिक-पारलौकिक विविध अभ्युदय एवं परम नि:श्रेयस ही उसका मुख्य उद्देश्य है। तदर्थ धर्म, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, शिल्प, संगीत, कला-कौशलका आविर्भाव परमावश्यक होता है। केवल मनुष्योंके लिये ही जीविका कोई असाधारण समस्या नहीं है। वह पशु-पक्षियोंके लिये भी अपेक्षित ही होती है।’
आहारनिद्राभयमैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो
धर्मेण हीना: पशुभि: समाना:॥
(हितो०)
अतएव आस्तिकोंके यहाँ वर्णानुसारिणी जीविका होती है। जीविकानुसारी वर्ण नहीं। वर्णोंके भेदसे ही शास्त्रोक्त कर्मोंका भी भेद है। राजसूय, वाजपेयादि क्षत्रिय-ब्राह्मणादिके भेदसे विहित हैं। इस तरह धर्मकी दृष्टिसे ब्राह्मणादि श्रेणियाँ ही मुख्य एवं उपादेय हैं। धनी, गरीब, पूँजीपति, मजदूर आदि वास्तविक श्रेणी ही नहीं हैं। ऐसी कृत्रिम श्रेणियाँ सदा ही हानिकारक होती हैं।
ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों—सभीमें ये अमीर-गरीब होते हैं। बुद्धिमान्, निर्बुद्धि, दुर्बल, सबल कोई जाति नहीं होती। उनके विवाह, खानदान आदि भी इन्हीं अकृत्रिम श्रेणियोंमें होते हैं। इन श्रेणियोंमें साधनोंके हथियानेके लिये कभी भी संघर्ष नहीं हुआ। मार्क्स-जैसे कुछ लोगोंद्वारा यह कृत्रिम भेद उत्पन्न किया जाता है और उनमें संघर्ष, विद्वेष फैलाकर अपना मतलब गाँठनेका प्रयत्न किया जाता है। लाखों वर्षोंके पुराने इतिहासमें किसीकी भूमि-सम्पत्ति, कल-कारखाना छीननेका श्रेणीबद्ध प्रयत्न नहीं होता था। हाँ, एक राजा दूसरे राजाका राज्य छीननेके लिये प्रयत्न करता था। कुछ व्यक्ति कुछ व्यक्तियोंकी कोई वस्तु छीननेका प्रयत्न यदि करते थे तो वे दण्डके भागी होते थे। मार्क्सवादियोंके मनगढ़न्त इतिहासकी घटनाएँ केवल हजार-पाँच सौ वर्षकी ही हैं।
सभी देशों, सभी धर्मोंके पुराने इतिहासोंमें मार्क्सवादी-क्रमकी गन्ध भी नहीं प्रतीत होती। इतना ही क्यों, युक्तियों एवं शास्त्रोंसे मालूम पड़ता है कि ऐसी क्रान्तियाँ क्षुद्रोपद्रवमात्र हैं। इनका कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं। वेदों, रामायण, महाभारत तथा पुराणोंमें करोड़ों, अरबों वर्षों एवं अगणित युगों, कल्पों तथा विभिन्न सृष्टियोंके इतिहास हैं। जैसे प्रतिवर्ष वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा आदि ऋतुओंका समानरूपसे आवर्तन होता रहता है, वैसे ही प्रतिकल्प प्रतिसृष्टिमें समानरूपसे सूर्य, चन्द्र आदि उत्पन्न होते हैं। अनेक ढंगकी प्रधान-प्रधान वस्तुएँ एक-सी ही होती हैं। कभी भी जीविकाके आधारपर श्रेणीबद्धता और संघर्षको सिद्धान्तरूपमें नहीं माना गया। जैसे कभी-कभी चोरी, डाका, दुराचार आदि उपद्रवके रूपमें आते रहते हैं, वैसे ही नास्तिकता, अराजकता, अनुचित गिरोहबन्दी एवं छीना-झपटी भी उपद्रवके रूपमें ही कभी-कभी हुआ करती हैं। प्रतिद्वन्द्विता, प्रतियोगितासे आधिभौतिक, आध्यात्मिक उन्नति होती है, परंतु छीना-झपटी एवं अपहरणके लिये संघर्ष सदा ही अपराध माना गया और उससे समाजका विकास नहीं, विनाश होता है। मार्क्सवादियोंद्वारा उपस्थापित शोषक-शोषितश्रेणी, उनके शोषण एवं संघर्षका इतिहास उन्हीं उपद्रवोंका एक अंशमात्र है, वह भी एक अत्यन्त क्षुद्र कालका एवं अति क्षुद्र देशका। जिनके अधिकांश मनगढ़न्त मिथ्या तथा दुरुद्देश्यसे कल्पित किये गये हैं। सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक इतिहासके अनुसार मनुष्योंने अपने शुभाशुभ कर्मों, तपस्याओं, आराधनाओं तथा परिश्रमोंके आधारपर धन-धान्य एवं सभ्यताकी उन्नति की है, दूसरोंको गुलाम बनाकर उनकी कमाईके आधारपर नहीं।
आस्तिक मनुष्योंने केवल मनुष्योंको ही नहीं, अपितु प्राणिमात्रको परमेश्वरकी संतान एवं परमेश्वर-स्वरूप माना है। ‘अमृतस्य पुत्रा:’ के अनुसार वे प्राणिमात्रके साथ समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताका व्यवहार पसन्द करते हैं। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ ‘वासुदेव: सर्वमिति’ ‘ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवान् स्वयम्’ ‘नानाविधैश्च नैवेद्यैर्द्रव्यैर्मे नाम्ब तोषणम्’ वे मनुष्य ही क्या किसी भी प्राणीके अपमान या शोषणसे भगवान्का ही अपमान समझते हैं। वे एक नगण्य प्राणीके लिये अपना सर्वस्व प्राणतक न्योछावर कर देते थे; शिबि, दिलीप आदि इसके उदाहरण हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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