14.4 सत्पुरुषोंसे एक निवेदन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

14.4 सत्पुरुषोंसे एक निवेदन कुछ लोग कहते हैं कि उपासना या ज्ञान तो मनकी चीज है। सब कुछ गड़बड़ होनेपर भी महात्मा या विद्वान‍्को इन टंटोंसे दूर रहकर भजन ही करना चाहिये। ठीक है, परंतु शास्त्र एवं धर्म-स्थान नष्ट हो जानेपर विद्वानों या महात्माओंका शण्डामर्कके तुल्य सरकारीकरण हो जानेपर भजन करनेका, धार्मिक होनेका मन भी… Continue reading 14.4 सत्पुरुषोंसे एक निवेदन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

14.3 राजनीतिमें किसका अधिकार? ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

14.3 राजनीतिमें किसका अधिकार? कई लोग कहते हैं कि विद्वानों, महात्माओंको राजनीतिमें नहीं पड़ना चाहिये, परंतु राजनीतिका विद्वान् होना चाहिये। वे समारोहके साथ सिद्ध करनेकी चेष्टा करते हैं कि राजनीतिका विद्वान् होना ही विद्वान‍्का अन्तिम कृत्य है, पर प्रत्यक्ष राजनीतिमें भाग लेना नहीं। वे समर्थ रामदास और चाणक्यकी प्रशंसा करते हुए भी उनके कर्तृत्वको दुर्लक्ष्य… Continue reading 14.3 राजनीतिमें किसका अधिकार? ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

14.2 शास्त्रीय शासनविधान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

14.2 शास्त्रीय शासनविधान सभी प्राणी अमृतस्वरूप परमेश्वरके ही पुत्र हैं—‘अमृतस्य पुत्रा:’ (श्वेता० उ० २।५) अर्थात् सभी देहादिभिन्न चेतन, अमल, सहज, सुखस्वरूप जीवात्मा स्वप्रकाश सच्चिदानन्द परमेश्वरके ही अंश हैं। जैसे महाकाशके अंश घटाकाश, अग्निके विस्फुल्लिंग, गंगाजलके तरंग आदि अंश हैं, वैसे ही अखण्डबोधस्वरूप परमेश्वरका बोधस्वरूप जीवात्मा अंश है। अत: सबकी सहज समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृता ही माननीय… Continue reading 14.2 शास्त्रीय शासनविधान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

14. उपसंहार – 14.1 भारतीय राजनीतिक दर्शन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

पाश्चात्य देशोंमें दर्शन एवं शास्त्र शब्द बड़ा ही सस्ता बन गया है। किसी भी विचारको, जैसे गर्भशास्त्र, प्राणिशास्त्र, मार्क्सदर्शन आदिकी वे शास्त्र संज्ञा देते हैं। किंतु विश्वविख्यात भारतीय विद्वानोंने तो शास्त्र शब्दका प्रयोग मुख्य रूपसे अनादि अपौरुषेय वेदमें ही किया है। उन्हींमें प्रत्यक्षानुमानसे अनधिगत धर्म, ब्रह्मादि तत्त्वबोधन क्षमता है—‘प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते। एनं विदन्ति… Continue reading 14. उपसंहार – 14.1 भारतीय राजनीतिक दर्शन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

13. मार्क्स और ईश्वर – 13.1 ईश्वरके सम्बन्धमें भारतीय दर्शनोंके आधारपर मार्क्सवादियोंके विचार ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

13. मार्क्स और ईश्वर मार्क्सवादी विद्वान् धर्मके समान ही ईश्वरको भी अनावश्यक समझते हैं। उनकी दृष्टिमें ‘भीरुता या भ्रान्तिके कारण कल्पनाप्रसूत भूत-प्रेत ही सभ्यताके साबुनसे धुलते-धुलते देवता बन गया और फिर वह कल्पित देवता ही विज्ञानकी चमत्कृतिसे चमत्कृत होकर ईश्वर या निर्गुण ब्रह्म बन गया। ईश्वर या ब्रह्म न तो कोई वास्तविक वस्तु है, न… Continue reading 13. मार्क्स और ईश्वर – 13.1 ईश्वरके सम्बन्धमें भारतीय दर्शनोंके आधारपर मार्क्सवादियोंके विचार ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

12.3 अहमर्थ और आत्मा ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

12.3 अहमर्थ और आत्मा देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदिसे आत्मा पृथक् है, प्रायेण यह बात अधिक दार्शनिकोंको मान्य है, परंतु अहमर्थ (मैं) आत्मा है या नहीं, इस विषयमें प्राय: विप्रतिपत्ति है। अधिकाधिक दार्शनिकोंका कहना है कि ‘अहमर्थ (मैं) ही आत्मा है, उसमें ही मैं कर्ता, मैं भोक्ता, मैं दुखी, मैं सुखी, मैं शोक-मोहसे व्याकुल, मैं… Continue reading 12.3 अहमर्थ और आत्मा ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

12.2 स्मृति और प्रमामें पार्थक्य ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

12.2 स्मृति और प्रमामें पार्थक्य स्मृति और प्रमाका यह महान् अन्तर व्यवहारमें भी अनुभूत होता है। लोग कहते हैं कि ‘हम पुत्रका स्मरण कर रहे हैं, उसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर रहे हैं, प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते हैं।’ इस तरह अनुभवसिद्ध भेदके रहते यह नहीं कहा जा सकता कि स्वप्न-प्रत्ययके तुल्य जाग्रत्प्रत्यय निरालम्बन है। स्वानुभवका… Continue reading 12.2 स्मृति और प्रमामें पार्थक्य ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

12. मार्क्स और आत्मा – 12.1 आत्मतत्त्व-विमर्श ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

12. मार्क्स और आत्मा शास्त्र-संस्कारवर्जित जनसाधारण तथा भूतसंघातवादी चार्वाक और आधुनिक मार्क्सवादी जीवित देहको ही आत्मा कहते हैं; क्योंकि ‘मनुष्योऽहं जानामि’ मैं मनुष्य हूँ, जानता हूँ, इस रूपसे ही शरीर ही ‘अहं’ प्रत्ययका आलम्बन और ज्ञानके आश्रयरूपसे आत्मा प्रतीत होता है। दूसरे लोग इन्द्रियोंको ही आत्मा कहते हैं। उनके मतसे ‘चक्षु, श्रोत्रादि इन्द्रियोंके बिना रूपादि-ज्ञान… Continue reading 12. मार्क्स और आत्मा – 12.1 आत्मतत्त्व-विमर्श ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.14 आत्मा एवं भूत ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.14 आत्मा एवं भूत मार्क्सवादी ‘आत्माकी अपेक्षा प्रकृति या भूतको ही मूल मानते हैं। भौतिक चिन्त्य वस्तुसे भिन्न चिन्तन या विचार पृथक् नहीं किया जा सकता है। चेतना या विचार चाहे कितने ही सूक्ष्म क्यों न प्रतीत हों, परंतु हैं वे मस्तिष्ककी उपज ही। मस्तिष्क एक भौतिक दैहिक इन्द्रिय ही है। यह भौतिक जगत‍्का सर्वश्रेष्ठ… Continue reading 11.14 आत्मा एवं भूत ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.13 मूल, वस्तु या चेतना? ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.13 मूल, वस्तु या चेतना? ‘मूल, भूत है या चेतना?’ इस प्रश्नके उत्तरमें आधुनिक वैज्ञानिक एडिंगटन भी कहते हैं—‘खोजते हुए अन्तमें जहाँ पहुँचा, वहाँ देखता हूँ, मनकी छायामात्र है।’ वैज्ञानिक जोन्स गणितशास्त्रके पण्डित हैं। उनका कथन है—‘अन्तमें देखता हूँ, विज्ञानकी ही विजय है। विश्वका मूलाधार, ईश्वर एक अंकशास्त्रवित् है और यह विश्व उसीके मस्तिष्कका एक… Continue reading 11.13 मूल, वस्तु या चेतना? ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

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