9.15 मार्क्स और धर्म
भौतिकवादियोंका कहना है कि ‘सभ्य मनुष्यका विश्वास है कि आध्यात्मिक शक्ति सदा मंगलमय है, लेकिन असभ्य मनुष्यके लिये यह शक्ति निष्ठुर है, इसलिये सदा ही उसको विपत्तिमें डालती रहती है। पत्थर जब गिरकर आदमीको घायल करता है, अचानक पेड़की डाल टूट जाती है, तब यह सब प्रकारके भूतों या पेड़के भूतकी शैतानीको छोड़कर और क्या है? जबतक औजार—हथियारोंके ज्ञानकी वृद्धि नहीं हुई, तबतक असभ्य मनुष्य भूतोंको वशीभूत करनेके लिये मन्त्र-तन्त्रके ही फेरमें पड़ा रहा। हथियार-औजारोंके ज्ञान बढ़नेके साथ-साथ प्राकृतिक शक्तिपर मनुष्यकी प्रभुता बढ़ने लगी। ‘भौतिक शक्ति निष्ठुर ही नहीं है, बल्कि यह भलाई भी कर सकती है’, जब इस धारणाका जन्म हुआ, तब असभ्य मनुष्यके प्रेततत्त्वपर सभ्यताकी मुहर पड़ी। प्रेत-तत्त्व असभ्य मनुष्यका है, देवता-तत्त्व इसके ऊपरकी सीढ़ी है—जो सभ्य मनुष्यका है। आदिम असभ्य मनुष्यके लिये प्रकृति निष्ठुर भयावह है। प्रकृतिके रहस्यका भेद जानकर सभ्य मनुष्य कहने लगा—‘मंगलमयी विश्वजननी।’ यह परिवर्तन अकस्मात् एक दिनमें नहीं हो गया। आदिम भूत-प्रेतोंने सभ्य होकर यह रूप ग्रहण किया है। आदिम मनुष्यका प्रेत-तत्त्व सभ्यताकी सीढ़ीपर चढ़कर सूक्ष्म बन गया है। प्रकृति-जगत्को चलानेवाली है असंख्य निष्ठुर प्रेतोंकी शक्ति; और इसी प्राथमिक कल्पनाका संशोधितरूप है देवताओंकी कल्पना। ये सब देवता प्रकृति-जगत्के एक-एक हिस्सेके मालिक हैं। ये भलाई भी करते हैं और बुराई भी कर सकते हैं। जल, अग्नि, वायु—सभी प्राकृतिक शक्तियाँ किसी-न-किसी देवताके अधीन हैं। देव-समाज भी मनुष्यसमाजके साँचेपर ढला हुआ है। ये असंख्य देवता घटते-घटते एक ईश्वरतक पहुँचे। सभ्यताकी सीढ़ीपर चढ़कर वस्तु-जगत्के विषयमें मनुष्यका ज्ञान ज्यों-ज्यों बढ़ने लगा, त्यों-त्यों देवताओंकी संख्या घटने लगी। मनुष्य ज्यों अगणित पदार्थोंमें एक मेल देखने लगा, त्यों देवताओंका बहुत्व भी एकत्वमें परिणत हो गया।’
‘पहले भूत या चैतन्य? इस प्रश्नका आदिम असभ्य जातियोंके प्रेत-तत्त्वसे बहुत निकट सम्बन्ध है। इस बातको स्मरण रखना चाहिये कि आदिम असभ्य मनुष्यको जीवनकी प्राथमिक बातें सोचनी पड़ी थीं। अनुमानके ऊपर प्रतिष्ठित मन्त्र-तन्त्रोंके द्वारा उसको जीवन-धारणका कौशल सीखना पड़ा था। उसकी यह कोशिश चाहे जितने बचपनकी हो, उसका मूल है जीवन-धारणकी अभिलाषा। इसलिये जीवन-मरणके रहस्यने आदिम मनुष्यको काफी चिन्तित कर डाला था। मनुष्यका शरीर जीवित-अवस्थामें एक प्रकारका और मरनेपर दूसरे प्रकारका क्यों होता है, जागरण, निद्रा, स्वप्न, रोग और व्याधि—ये सब क्यों होती हैं, स्वप्नमें जो मनुष्य-मूर्तियाँ दिखायी देती हैं, वे सब क्या हैं, स्वप्नमें मनुष्योंकी जो छाया-मूर्तियाँ दिखायी देती हैं, वही शायद जीवनकी कुंजी है, शायद इस छायामूर्तिका शरीर छोड़ना ही मृत्यु है—असभ्य मनुष्यकी प्रेतात्माकी धारणा इसी प्रकार बनी है। यहाँ इस धारणाकी ऐतिहासिक आलोचना करनेकी आवश्यकता नहीं, लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि यही प्रेतात्मा सभ्यताके साबुनमें धुलकर चैतन्य परमात्मा आदि बन गयी है। मानव आत्माके विषयमें असभ्य जातियोंकी धारणा है कि यह सूक्ष्म भापकी तरह है। इसके शरीर त्याग देनेसे मृत्यु हो जाती है।’
‘मनुष्य तथा अन्य उन्नत प्राणियोंके शरीर-धारणके लिये श्वासक्रिया बहुत ही आवश्यक है। मरते समय श्वासक्रिया क्षीण होते-होते बन्द हो जाती है। आदिम असभ्य जातियोंने भी इसको देखा था। इसीलिये श्वासक्रियाको ही उन्होंने आत्मा मान लिया था। आस्ट्रेलियाके आदिम निवासियोंकी भाषामें ‘श्वास’ और ‘आत्मा’ इन सबके लिये एक ही शब्द है। हिब्रू तथा सभी आर्य भाषाओंके भाषा-विज्ञानमें श्वास और आत्मबोधक शब्दोंका निकट सम्बन्ध है। यूनानी ‘साइक’ और ‘न्यूमा’, लैटिन ‘एनिमस’, ‘एनिमा’, ‘स्पिरीट्स’, इनका रूप-परिवर्तन इसी प्रकारसे हुआ है।’
इसपर कहना यह है कि यद्यपि मस्तिष्क अतिभौतिक प्रतीत न हो, तथापि यह तो नहीं कहा जा सकता कि जिससे जो निश्चित हो, वह उसका स्वरूप ही होता है। यदि ऐसी ही बात हो, तब तो ज्ञानसे ही सब ज्ञेय निश्चित किया जाता है, यहाँ तक कि मस्तिष्क भी ज्ञानसे ही निश्चित किया जाता है, फिर क्या भौतिकवादी सबको ही ज्ञानस्वरूप माननेको तैयार हैं? यदि नहीं, तब तो भले ही भौतिक मस्तिष्कसे ही ईश्वर विदित हो, परंतु वह भौतिक नहीं कहा जा सकता। स्वयं इन्द्रियाँ नीरूप एवं सूक्ष्म हैं, परंतु उनसे रूपादिमान् स्थूल प्रपंच विदित होता ही है। इसी तरह मस्तिष्क आदिद्वारा अभौतिक आत्मा, ब्रह्म आदिका बोध होता ही है। परिवर्तनशील भौतिकवादियोंका भूत ही नयी-नयी पोशाकोंमें भले उपस्थित हो, उपनिषदोंका ब्रह्म तो सदासे ही औपाधिकरूपमें अनेक रस और निरुपाधिकरूपसे एकरस ही रहा है और वैसे ही रहेगा। जिसको भौतिकवादी वस्तु कहते हैं, वही अवस्तु है। जिसे वे अवस्तु समझते हैं, विचारकी दृष्टिसे वही वस्तु है। स्थूलदर्शी कार्यको ही वस्तु समझता है। एक स्थूलदर्शी पटको सत्य मानता है, परंतु एक सूक्ष्मदर्शी तन्तुभिन्न पटको ही असत् कहता है। इसी तरह कारणपरम्पराका विचार करते हुए तन्तु भी अंशुसे भिन्न असत् है। अंशु भी बिनौलामात्र है, बिनौला भी पृथ्वीमात्र है, पृथ्वी भी जलमात्र ही है, जल तेजसे भिन्न होकर कुछ नहीं ठहरता। तेज वायुमात्र है, वायु आकाशमात्र ठहरता है; किंतु स्थूलदर्शीको यह सब ढोंग ही जँचता है।
अन्तिम सत्यका विचार सर्वदा ही उपयुक्त है, चाहे श्रेणीविभाजित जीवन हो, चाहे समष्टिवादी जीवन। सभीके लिये विक्षेपशून्य, निष्प्रपंच, सत्य, स्वप्रकाश ब्रह्म अपेक्षित है। इन्द्र भी अनन्त आनन्दसामग्री भुलाकर निष्प्रपंच सौषुप्त सुखकी ओर प्रवृत्त होता है। कोई कितना भी निर्द्वन्द्व, शान्त एवं सुखी क्यों न हो, सुषुप्तिकी निष्प्रपंचताके बिना उसे विश्राम नहीं मिलता। ‘ईश्वरको न युक्तिसे जाना जा सकता है, न उसे प्रकाशित किया जा सकता है’ यह काण्टका कथन तथा ‘ईश्वर वाङ्मनसगोचर नहीं है’ यह हिन्दूदर्शनोंका कथन, यह सिद्ध नहीं करते कि ईश्वर अवास्तव एवं असत् है। किंतु उनका अभिप्राय यही है कि श्रद्धा, समाधान तथा एकाग्रताके बिना ईश्वरका साक्षात्कार नहीं हो सकता। ईश्वरके अस्तित्वमें अनुमान, आगमादि अनेकों प्रमाण हैं। श्रुति ब्रह्म या आत्माको साक्षात् अपरोक्ष ही बतलाती है—‘यदेव साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म।’ (बृहदा० उप० ३।५।१) विज्ञाता प्रमाता प्रमाणानपेक्षरूपसे ही स्वत:सिद्ध होता है। संशय, विपर्यय एवं अज्ञान मिटानेके लिये ही प्रमाण अपेक्षित होते हैं। आत्मा अन्यत्र संदिहान होता हुआ भी स्वयं असंदिग्ध है, अन्यत्र विपर्ययज्ञानवान् होता हुआ भी स्वयं अविपर्यस्त रहता है। अन्यत्र अनुमिमान होता हुआ भी (अनुमान करता हुआ भी) स्वयं अपरोक्ष रहता है। फिर प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय आदि सभी जिस अखण्ड बोधके अनुग्रहसे भासित होते हैं, उसे किससे सिद्ध किया जाय? यही बात ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्’ इत्यादि श्रुतियोंद्वारा कही गयी है। अतएव प्रमाणसिद्ध एवं स्वत:सिद्ध ईश्वर या ब्रह्म परमकल्याणकारी होनेसे ग्राह्य, उपास्य एवं ज्ञेय है। अनादि स्वत:सिद्ध वस्तुको बुद्धॺारूढ करनेके लिये युक्ति, श्रुति आदि अपेक्षित होती है। इतिहास घटनाओंका ही होता है, फिर भी औपचारिकरूपसे ‘तर्ह्यव्याकृतमासीत्’, ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीत्’ इत्यादि श्रौत इतिहासके आधारपर सर्वकारण-स्वप्रकाश ब्रह्मका अस्तित्व सिद्ध होता ही है। तदनुगुण युक्ति भी श्रुतिने ही दी है। जैसे अन्न (पृथ्वी)-रूप अंकुरसे जलरूपी बीजका पता लगता है, जलरूपी अंकुरसे तेजरूपी मूलका पता लगता है, वैसे ही तेजरूपी अंकुरसे सद्रूपी मूलका पता लगता है—‘तेजसा सौम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ।’ दार्शनिक पण्डितोंके इन तत्त्वविचारोंको गलत कहना बुद्धिकी अजीर्णताका ही द्योतक है। वास्तविक अभिज्ञता और व्यावहारिक ज्ञानसे तो भौतिकवादियोंने ही शत्रुता कर रखी है। विश्वके उपादानकारणरूपसे, विश्वके निमित्तकारणरूपसे, विश्वके आधार या अधिष्ठानरूपसे, विश्वके प्रकाशक तथा व्यवस्थापकरूपसे, कर्मफलदातारूपसे, सर्वशासकरूपसे ईश्वरकी सिद्धि होती ही है। जैसे दर्पणके अन्दर प्रतिबिम्ब भासित होता है, वैसे ही अनन्त चिद्रूप दर्पणमें मनुष्य, पश्वादि, जंगम-स्थावरादि सभी प्रपंच भासित होते हैं। काष्ठपर व्यक्त अग्निको काष्ठसे भिन्न समझना ही पड़ेगा, ज्ञान या चेतनाको मनुष्यादि देहोंसे भिन्न समझना ही पड़ेगा।
आदिम जंगली मनुष्योंके वस्तु और चेतनासम्बन्धी विचारोंको इतिहासके बलसे सिद्ध करनेकी दुश्चेष्टा निराधार है। यह इतिहास कपोलकल्पित, मिथ्या एवं पूरा मनगढ़न्त है। जड़वादियोंका इतिहास-सम्बन्धी मनोराज्य केवल विनोदका विषय है। कोई प्रमाणचक्षु पुरुष इसे केवल भौतिकवादियोंका दिमागी फितूर ही कहेगा। प्रामाणिक आस्तिकोंके इतिहासोंके अनुसार तो विश्वकारण ईश्वरकी संतानें ईश्वरीय ज्ञानरूप वेदादि शास्त्रोंद्वारा पूर्णरूपसे शिक्षित ही होती हैं। उत्तरोत्तर जहाँ-कहीं सच्छिक्षा एवं सत्संगमें विच्छेद हुआ, वहीं असभ्यता, अज्ञता एवं मिथ्या धारणाएँ बनती हैं। भौतिकवादियोंकी यह धारणा नितान्त असत्य है कि ‘अध्यात्मवादियोंकी अतिभौतिक देवता, ईश्वर या ब्रह्म इत्यादि कल्पनाएँ हैं और इनका मूल असभ्यों, जंगलियोंकी तन्त्र-मन्त्र, भूत-प्रेतकी कल्पनाएँ हैं।’ जिन्होंने सच्चे इतिहासोंका अध्ययन किया है, रामायण, महाभारत, पुराणों, उपपुराणों, तन्त्रों, आगमों एवं मन्त्र-ब्राह्मणात्मक वेदों एवं उनके आरण्यक, उपनिषदोंका मनन किया है और जिन्होंने व्यास, वसिष्ठ एवं श्रीकृष्णभगवान्के दिव्य दर्शनोंका अध्ययन किया है, उनको यह समझनेमें कठिनाई न होगी। भौतिकवादी जिन बाह्य भौतिक वस्तुओंको सत्य मानते हैं, देवता, ईश्वर, ब्रह्मकी बात तो पृथक् रहे, भूत-प्रेतकी कल्पना भी उनसे अधिक सत्य है। इसीलिये उपनिषद् या गीताके जिस निर्गुण ब्रह्मको भौतिकवादी अन्तिम कल्पना मानते हैं, उस कल्पनाके साथ भी भूत-प्रेत एवं देवताओंकी कल्पनाएँ हैं। यह समझना नितान्त भ्रम है कि विकासक्रमसे भिन्न-भिन्न कालोंकी ही यह कल्पनाएँ हैं। एक उच्चकोटिका ब्रह्मदर्शन परमार्थ-दृष्टिमें सजातीय-विजातीय-स्वगतभेदशून्य ब्रह्मतत्त्व बतलाता है, परंतु वही अन्य अधिकारियोंके लिये ईश्वरकी उपासना बतलाता है। कुछ और ढंगके अधिकारियोंके लिये सगुण ईश्वरकी आराधना, अन्य लोगोंके लिये विभिन्न देवताओंकी आराधना बतलाता है। अन्य ढंगके लोगोंके लिये प्रेत-पिशाचकी आराधना भी उचित मानता है। ‘बृहदारण्यक’ आदि उपनिषदोंमें भी निर्गुण ब्रह्म, ईश्वर और साथ-ही-साथ अनेक देवताओंका भी वर्णन है। भारत, रामायण, गीता आदिमें तो सबका वर्णन है ही। यदि पिछली-पिछली कल्पनाएँ उत्तरोत्तर कल्पनाओंकी दृष्टिसे असत्य हैं, तब तो उनको मिथ्या ही कहना चाहिये। किसीके लिये भी उनकी ग्राह्यता एवं उपासनाका उपदेश कैसे हो सकता है? इसलिये व्यावहारिक दृष्टिसे प्रेत, पिशाच आदि सभी तत्त्वोंका अस्तित्व है।
प्रेतादि केवल कल्पना नहीं, उनकी देवयोनिमें गणना है। परलोकविद्यावालोंकी दृष्टिसे प्रेत-तत्त्वकी सिद्धि होती है। भूतावेश, प्रेतावेश आज भी वैसी ही सत्य वस्तु है, जैसी पुराने कालमें। इसके अतिरिक्त भौतिकवादियोंकी प्रेतकल्पनाका युग कितना पुराना है? जब मानवका इतिहास ही लाखों नहीं हजारों ही वर्षोंका है, तब उनके प्रेतकल्पनाका युग भी उनकी दृष्टिमें हजारों वर्षका ही पुराना है, परंतु आर्ष इतिहासके अनुसार निर्गुण ब्रह्मकी कल्पना तो लाखों वर्ष पुरानी है। द्वापरके कृष्ण, त्रेताके राम और सृष्टिके मूल कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं महेशकी अतिप्राचीन दृष्टिमें भी निर्गुण ब्रह्मकी सत्ता स्वत:सिद्ध है। भौतिकवादियोंके तथाकथित मनगढ़न्त मिथ्या इतिहासोंकी अपेक्षा आर्ष इतिहासोंकी तथ्यता कहीं अधिक श्रेष्ठ है। अतएव जागरण, निद्रा तथा स्वप्नके आधारपर देह-भिन्न आत्माका निर्णय करना, प्राणधारणसे जीवन, प्राणराहित्यसे मरण आदिकी धारणा जंगली असभ्योंकी नहीं, किंतु सभ्यशिरोमणि महादार्शनिकोंकी भी यही धारणा थी और आज भी है। श्रीशंकराचार्यका कहना है कि जो स्वप्न, जागर एवं सुषुप्तिको जानता है, वही आत्मा है, भूतसंघ नहीं—‘यत्स्वप्नजागरसुषुप्तमवैति नित्यं तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसङ्घ:।’ भागवतमें कहा गया है कि स्वप्न, सुषुप्ति बुद्धिकी वृत्तियाँ हैं, जिस द्रष्टासे इनका बोध या प्रकाश होता है, वही अध्यक्ष पर पुरुष है—‘बुद्धेर्जागरणं स्वप्न: सुषुप्तिरिति वृत्तय:। ता येनैवानुभूयन्ते सोऽध्यक्ष: पुरुष: पर:॥’ (श्रीमद्भा० ७।७।२५)।
इस शरीरकी विभिन्न अवस्थाओंमें उसके भीतर अन्तरसे भी अन्तरतमरूपसे आत्माको देखनेकी पद्धति लाखों वर्ष पुरानी है। जैसे मुंजमेंसे बुद्धिमानीसे इषीका (सींक) निकाली जाती है, वैसे ही शरीरसे, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार या आनन्दमयसे, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिसे अन्वयव्यतिरेकादि युक्तियोंद्वारा समझकर पृथक् रूपसे आत्मा समझा जाता है। शरीरके भीतर ही अतत्को त्याग करते हुए भगवत्तत्त्वको समझा जा सकता है—‘अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्त:।’ (श्रीमद्भा० १०।१४।२८) ‘गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्’, ‘यो वेद निहितं गुहायाम्।’ शरीरके भीतर बुद्धिरूपा गुहामें अभिव्यक्ति अनन्त चित्-स्वरूप आत्माका उपलम्भ होता है। प्राणधारणके आधारपर जीवशब्दकी प्रवृत्ति भी अति प्राचीन ही है। यह हजार दो हजार वर्षके जंगली मनुष्योंकी कल्पना नहीं, बल्कि यह कहना चाहिये कि अतिप्राचीन वास्तविक आर्षज्ञानका विकृतरूप अवशेष है। उपनिषदोंने मरनेके सम्बन्धमें बड़ी गम्भीरतासे विचार किया है। नचिकेताका प्रश्न ही मुख्य यही था—‘येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।’ (कठोप० १।१।२०) अर्थात् मरनेके बाद जो यह सन्देह होता है, कुछ लोग कहते हैं कि देह-भिन्न आत्मा बचा रहता है, कुछ कहते हैं कि कुछ भी बाकी नहीं बचता, इसमें तथ्य क्या है? इसीपर यमराजने वरप्रदानके रूपमें अनन्त, सर्वाधिष्ठान, सर्वद्रष्टा आत्माका निरूपण किया है।
देवताओंके सम्बन्धमें तो भगवान् व्यासकी उत्तरमीमांसा (१।३।९) शाङ्करभाष्यद्वारा स्पष्ट ही बतलाया गया है कि ‘इन्द्रो ह वै देवानामभि प्रवव्राज’ इत्यादि आख्यायिकाओंद्वारा ऐश्वर्यशील देवतातत्त्वका स्पष्ट बोध होता है। महादार्शनिक विद्यारण्य स्वामीने सर्वाधिष्ठान ब्रह्मको अनिर्वचनीय तथा प्रकृतिविशिष्ट रूपको ईश्वर बतलाया है। प्रकृतिके सूक्ष्म कार्य समष्टि सप्तदशतत्त्वात्मक लिंगशरीरसे विशिष्ट उसी ईश्वरको हिरण्यगर्भ बतलाया है और समष्टि स्थूलशरीर एवं स्थूलप्रपंचविशिष्ट उसी हिरण्यगर्भको विराट् कहा है। ईश्वर, हिरण्यगर्भ, विराट्—तीनों ही ईश्वरके ही रूप हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरोंसे विशिष्ट ब्रह्म ही तीनों रूपमें व्यक्त होता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों प्रपंच और उसका प्रत्येक अंश ईश्वर ही है। ईश्वररूपसे आराधना करनेपर इसीलिये निम्ब, पिप्पल, पाषाणादि भी फलप्रद होते हैं। अस्ति, भाति, प्रिय, नाम, रूप यह पाँच रूप सर्वत्र उपलब्ध होते हैं। नाम, रूप मायाके अंश हैं और शेष—अस्ति, भाति, प्रिय—तीनों ब्रह्मके ही रूप हैं।
जंगली लोगोंकी विचारधाराओंका यह निष्कर्ष नहीं कि ‘प्रेततत्त्व, जादूविद्या, अनेकेश्वरवाद, ऐकेश्वरवाद मनुष्यकी चिन्ताधाराके विभागकी सीढ़ियाँ हैं और अध्यात्मवादका मूल भीरुतामय प्रेतकल्पना ही है।’ उसका निष्कर्ष तो यह है कि ईश्वरसे निहित ऋषियों, महर्षियोंके उच्च स्तरका ब्रह्मविज्ञान, आत्मविज्ञानका ही विकृत अवशेष जंगलियोंमें मिलता है। उच्चकोटिका ब्रह्मविज्ञान, आत्मविज्ञान कालक्रमसे लुप्त हो गया। सच्छिक्षा, सत्संग लुप्त हो जानेसे उदात्त विचार नष्ट हो गये। निम्नश्रेणीकी प्रेतविद्या, जादूगरी आदिके भाव रह गये। अत: उस आधारपर चलनेसे भ्रम ही बढ़ेगा।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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