11.2 आदर्शवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.2 आदर्शवाद

‘काल्पनिक धारणाओंका प्रयोग किसी-न-किसी प्रकारकी वस्तुओं अथवा विचारपद्धतियोंकी सुव्यस्थित दृष्टियोंके निरूपणमें ही किया जाता है। ये दृष्टियाँ या विचारपद्धतियाँ समाज-विकासकी विभिन्न अवस्थाओंमें विभिन्न सामाजिक वर्गोंद्वारा आविष्कृत होती हैं। आदर्शविषयक विकास समाजके भौतिक जीवनके विकासपर अवलम्बित है तथा आदर्शादि वर्गविशेषकी रुचियों या स्वार्थोंकी पूर्ति करते हैं, परंतु इसके साथ-ही-साथ यह भी आवश्यक है कि आदर्शवाद ऐसा बनाया जाय कि वह बौद्धिक आवश्यकताओंकी भी पूर्ति कर सके। इसीके परिणामस्वरूप आदर्शवादोंके विकास तथा उनकी आलोचनामें निरन्तर वदतोव्याघात या विरुद्धताएँ रहा करती हैं और इसीलिये उसकी आलोचना भी की जाती है। इसीलिये आदर्शवादोंमें सत्य एवं कल्पना-मृगमरीचिका दोनोंके तत्त्व साथ-साथ रहते हैं।’
वस्तुत: सूक्ष्मबोधतक बुद्धिके न पहुँचनेके कारण ही भौतिकवादियोंको बहुत-से निगूढ़ तत्त्वोंमें केवल कल्पना ही दृष्टिगोचर होती है। व्यवहारमें उच्च आदर्शोंके अनुसार देह-इन्द्रियादिकी प्रवृत्ति बनानेकी चेष्टा होती है, पर कभी-कभी बाह्य प्रवृत्तियाँ वहाँतक नहीं पहुँच पातीं। उन्हीं उच्च आदर्शोंको भौतिकवादी मृगमरीचिकातुल्य समझने लगते हैं।
‘आदर्शवादी मृगमरीचिकाओं; स्वप्नोंका उद‍्गम है समाजके उत्पादनसम्बन्धोंसे, परंतु वे इस उद‍्गम या स्रोतसे विदितरूपमें उद‍्भूत नहीं होतीं, परंतु अविदित या अप्रतिभातरूपमें अनजाने या सहजरूपमें ही उद‍्गत हो आती हैं। आदर्शवादियोंको यह ज्ञात (पता) तो रहता नहीं कि उनकी इन भ्रान्त स्वाप्निक धारणाओंका वास्तविक मूलस्रोत क्या है; वे सोचते हैं कि ‘हमने शुद्ध विचारकी पद्धतिसे इन्हें जन्म दिया’ और इसलिये आदर्शवादमें प्रतीपन (उलट देने)-की प्रक्रियाका आगमन होता है, जिसके द्वारा वास्तविक सामाजिक सम्बन्धोंको काल्पनिक धारणाओंके प्रतिनिधिरूपमें दिखलाया जाता है। अन्तमें, आदर्शवादी स्वप्न एक वर्गविशेषलक्षित प्रवंचनापद्धति (धोखेकी पद्धति)-का निर्माण करते हैं।’
यह भी ‘अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते’ का ही उदाहरण है। सदा ही आत्मचालित स्थूल-सूक्ष्म देहके समान ही सम्पूर्ण जड-जगत‍्की चेष्टाएँ अध्यात्मनियन्त्रित होती हैं—यही तथ्य है। सुतरां इनकी प्रवृत्तिका निर्धारण भी ज्ञान-विज्ञानके आधारपर ही होता है।
‘आदर्शवादी मृगमरीचिकाओंके ठीक विपरीत, लोग अपने व्यावहारिक प्रत्यक्ष क्रियाकलापों या प्रवृत्तियोंकी शृंखलामें सत्यकी खोज करते हैं। ऐसी खोजका प्रथम मूलस्रोत सामाजिक उत्पादनमें निहित है। उत्पादन-विषयकी प्रक्रियासे आविष्कृत धारणाओंसे प्राकृतिक विज्ञान (नेचुरल साइंस) उत्पन्न होते हैं, जो कि उत्पादनसे पृथक्‍कृत, विशिष्ट गवेषणाका रूप ग्रहण करते हैं। यह कार्य कुछ विशिष्ट वर्गोंद्वारा किया जाता है और ये वर्ग अपने वर्ग-विशेषके आदर्शोंको विज्ञानोंमें घुसेड़ देते हैं। इसीके साथ सामाजिक विज्ञानोंका विकास होता है, जिसका मूल वर्ग-संघर्षमें प्राप्त अनुभवोंमें होता है और जो सामाजिक मामलोंके सामान्य व्यवस्थापन एवं नियन्त्रणके अन्तका काम देते हैं, परंतु शोषक-वर्गोंके हाथोंमें रहकर सामाजिक विज्ञान कभी भी प्राकृतिक विज्ञानोंके वैज्ञानिक स्तरको नहीं प्राप्त कर सकते।’
मार्क्सवादी सत्यकी खोजमें भी अपने वर्ग-संघर्षको ही घुसेड़नेका प्रयत्न करते हैं। वस्तुत: सत्यकी खोज प्रमाणोंपर ही निर्भर होती है। प्रत्यक्ष प्रमाण नेत्र-श्रोत्रादि एवं उनके सहायक सूक्ष्म-दूरवीक्षणयन्त्र काच आदिके द्वारा जैसे सत्यका पता लगता है, वैसा वर्णन करना विज्ञानका काम है। वस्तुस्थिति किसी आवश्यक क्रिया एवं संघर्ष-विशेषसे सम्बन्ध रखनेके लिये बाध्य नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त जैसे नेत्रगम्य रूपकी खोज कानसे करनी व्यर्थ है, वैसे अनुमान या आगमगम्य बातोंकी खोज आँख-कानसे करनी व्यर्थ है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *