11.4 सत्य
‘सत्य का अर्थ होता है धारणाओं एवं वस्तुगत सचाई की समन्विति। ऐसी समन्विति बहुधा केवल आंशिक एवं प्रायिक (लगभग) ही होती है। हम जिस सत्यताको स्थापित कर सकते हैं, वह सर्वदा सत्यके अन्वेषण एवं अभिव्यंजनके हमारे साधनोंपर अवलम्बित रहती है; परंतु इसीके साथ धारणाओंकी सत्यता, यहाँके अर्थमें आपेक्षिक ही सही, उन वस्तुगत तथ्योंपर आधारित रहती है, जिनके साथ धारणाओंकी समन्विति है। हम कभी भी सम्पूर्ण, समग्र विशुद्ध सत्यताको प्राप्त कर ही नहीं सकते, परंतु सदा उस ओर बढ़ते जा रहे हैं।’
ठीक है, जिसके मतमें मनुष्य एवं उसका ज्ञान-विज्ञान सब जडभूतका ही परिणाम है और अभी विकास ही हो रहा है, वह परम सत्यके सम्बन्धमें इससे अधिक कह ही क्या सकता है? परंतु अध्यात्मवादी इससे सहमत नहीं होता; क्योंकि वह तो सर्वदा सर्वशक्तिमान् परमेश्वरसे विश्वका निर्माण मानता है। उसीके द्वारा विश्वका निर्धारण एवं संचालन होता है। उस दृष्टिसे सत्य त्रिकालाबाध्य है, पर मार्क्सवादी किसी भी सर्वसम्मत तर्क या सिद्धान्त तथा सत्यको नहीं मानते; इसलिये सब सत्योंको भी अपूर्ण ही कहते हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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