(२६) यहाँ ‘दीयतां, भुज्यताम्’ इसी यज्ञ में कही जाने वाली वाणी का बोध होता है, इसमें लिङ्ग है ‘इहे यज्ञे दक्षिणायै-दक्षिणाया दातुः’ (षष्ठ्यर्थे चतुर्थी)। भाव यह है कि ऋषि लोग बड़े-बड़े यज्ञ किया करते थे. उनमें सबको खूब दिल खोलकर भोजन कराया जाता था; चाहे वे ब्राह्मण हों, वा शूद्रादि । उन सबको इष्ट वस्तुएँ… Continue reading “यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ६
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“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ४
(१४) इसके अतिरिक्त उक्त मन्त्र का यदि स्वामी दयानन्द-प्रोक्त अर्थ माना जाए, तो इससे स्वामी दयानन्द सरस्वती से अभिमत गुणकर्म कृत वर्णव्यवस्था भी खण्डित हो जाती है। देखिये – १. यहाँ पर प्रष्टव्य है कि – ब्राह्मणादि वर्ण इस मन्त्र में परमात्मा को जन्म से अभिमत हैं, वा गुणकर्म से ? यदि जन्म से, तब… Continue reading “यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ४
“यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ३
(६) स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को ही स्त्री-शूद्रादि के वेदाधिकार का इस मन्त्र में भ्रम क्यों हुआ, इस पर भी विचार कर लेना चाहिये । उस में कारण यह है कि उक्त मन्त्र में उत्तम पुरुष की क्रिया ‘आवदानि’ का प्रयोग है और इस मन्त्र का देवता ‘ईश्वर’ है। परन्तु ऐसा करने पर उक्त मन्त्र… Continue reading “यथेमां वाचं कल्याणीम्” ~ श्रीसनातनधर्मलोक भाग – ३ ~ लेखक – पं. दीनानाथशर्मी शास्त्री सारस्वतः, विधावाचपत्ति; । ~ भाग ३