आगे माई एहन उमत बर लाइल हिमगिरि देखि-देखि लगइछ रंग।
एहन बर घोड़बो न चढ़इक जो घोड़ रंग-रंग जंग॥
बाधक छाल जे बसहा पलानल साँपक भीरल तंग।
डिमक-डिमक जे डमरू बजाइन खटर-खटर करु अंग॥
भकर-भकर जे भांग भकोसथि छटर-पटर करू गाल।
चानन सों अनुराग न थिकइन भसम चढ़ावथि भाल॥
भूत पिशाच अनेक दल साजल, सिर सों बहि गेल गंग।
भनइ विद्यापति सुन ए मनाइन थिकाह दिगंबर अंग॥
व्याख्यान :
हे प्रिय सखी! हिमालय (पार्वती के लिए) ऐसा अस्त-व्यस्त उन्मत्त वर खोज कर लाए हैं कि जिसे देख-देख कर हँसी आती है। प्रायः दूल्हे सुसज्जित अश्व पर आरूढ़ होकर आते हैं लेकिन यह तो ऐसा बावला वर है कि घोड़े पर भी नहीं चढ़ सकता। यह दूल्हा तो एक ऐसे बैल पर चढ़ा है, जिस पर जीन न होकर बाघांबर बिछा हुआ है, और जो चमड़े की रस्सी से न कसा होकर सर्पों से कसा हुआ है। वे शिव डिमक-डिमक ध्वनि के साथ अपने डमरू को बजा रहे हैं। यह दूल्हा मुंडमाला धारण किए है, जो बैल चलने से हिलती है और उसके अंगों से लग कर खटर-खटर की कर्ण कटु एवं वीभत्स ध्वनि उत्पन्न करती है। यह बार-बार मुँह भर-भर कर भाँग भकोस रहा है जिसके कारण उसके गाल छटर-पटर की ध्वनि करते हैं। यह दूल्हा है कि अवधूत! चंदन की जगह यह अपने मस्तक को भस्मावृत किए हुए है। इनकी बारात में भूत और पिशाचों के दल सुसज्जित हैं, इनके शीश से गंगा प्रवहमान है। विद्यापति कहते हैं कि सखी कहती है कि हे मैना! सुनो, यह असामान्य वर है, क्योंकि सामान्य वर तो परिधानित होते हैं लेकिन यह वर परिधान-रहित है। इसका व्यंजना के द्वारा यह अर्थ भी हो सकता है कि शिव अलौकिक वर हैं जिनकी व्याप्ति अखिल ब्रह्मांड है और जिनके वस्त्र केवल दिशाएँ ही हैं।
स्रोत :
पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 132) रचनाकार : विद्यापति प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली संस्करण : 1965
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