ए हरि, बंदओं तुअ पद नाए ~ विद्यापति

जतने जतेक धन पाएँ बटोरल मिलि-मिलि परिजन खाए।

मरनक बेरि हरि केओ नहि पूछए एक करम सँग जाए॥

ए हरि, बंदओं तुअ पद नाए।

तुअ पद परिहरि पाप-पयोनिधि पारक कओन उपाए॥

जनम अवधि नति तुअ पद सेवल जुबती रति-रंग मेंलि।

अमिअ तेजि हालाहल पिउल सम्पद आपदहि भेलि॥

भनइ विद्यापति लेह मनहि गुनि कहलें कि होएत काज।

साँझक बेरि सेवकाई सँगइते हेरते तुअ पद लाज॥

व्याख्यान :

हे हरि, मैं विनम्र होकर तुम्हारे चरणों की वंदना करता हूँ। बड़ी मुश्किलों से मैंने पाप की कमाई बटोरी। घरवाले मिल-जुलकर उस धन का उपभोग करते रहे। मरने के समय कोई नहीं पूछता है। अपना ही कर्म साथ जाएगा। हे हरि, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। तुम्हारे चरणों को छोड़कर पाप-सागर से पार होने का और कौन उपाय है? जीवन में मैंने कभी तुम्हारे चरणों की सेवा नहीं की। मैं युवतियों के साथ काम-केलि में दीवाना बना रहा। अमृत छोड़कर मैंने जीवन-भर विष ही पिया है। संपदा मेरे लिए मुसीबत हो गई। विद्यापति ने कहा—“ख़ुद ही मन में सोच लो! कहने से क्या होगा? संध्या की बेला में अब हरि के पास शरण माँगने आए। भगवान के चरणों की और देखते हो, इसमें भी लाज लगती है।”

स्रोत :

पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 144) रचनाकार : विद्यापति प्रकाशन : वाणी प्रकाशन संस्करण : 2011

निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर लेखक तथा प्रकाशक की सहायता करें

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