(“एक विद्यालङ्कार”)
(५) (क) हमारे ‘यथेमां वाचं’ के अर्थ पर “एक विद्यालङ्कार” जी ‘सार्वदेशिक (सितम्बर १९४६ के अंक) में लिखते हैं- ‘यथेमां वाचं’ का ईश्वरपरक अर्थ मानने से स्वामी दयानन्द सरस्वती के मतानुसार अनेक दोष आते हैं-ऐसा शास्त्रीजी ने बड़े गर्जन-तर्जन पूर्वक फरमाया है, किन्तु उनके सम्पूर्ण दोषों का इतने से ही समाधान हो जाता है कि परमात्मा भक्तों से कहता है-मैं तुम्हारे द्वारा अपनी वेदवाणी को सब तक पहुंचाऊं- यही मेरी कामना है’ ।
यहाँ विद्यालङ्कारजी वेद में प्रक्षेप कर रहे हैं। ‘यथेमां वाचं’ में कहीं ‘भक्त’ का नाम है ही नहीं। उक्त अंक के २९३ पृष्ठ में आपने लिखा है-‘परमात्मा निराकार होने के कारण स्वयं बोल नहीं सकता, इसलिए भक्तों-द्वारा बुलवाता है।’ केवल दो-तीन पत्रों में ही वादी ने परमात्मा में स्मृति-विकार सिद्ध कर दिया। जब परमात्मा स्वयं बोल नहीं सकता; तब फिर भक्तों से कैसे कहता है ? जब वह बोल नहीं सकता, तब उसकी वाणी क्या ? जब उसकी वाणी नहीं, तब ‘यथेमां वाचं’ का अर्थ ‘परमात्मा की वाणी या ‘वेदवाणी’ न हुआ। वादी ने यहाँ जहाँ ‘देखो परमेश्वर स्वयं कहता है’ इस अपने आचार्य स्वामी दयानन्द सरस्वती के वाक्य का खण्डन कर दिया, वहां ‘यावज्जीवमहं मौनी’ की तरह अपना भी खण्डन साथ ही कर दिया। इस से आप दोनों गुरु-चेलों का ही पक्ष परस्पर-विरुद्ध होने से खण्डित हो गया । स्वामी दयानन्द सरस्वती परमात्मा का ‘स्वयं कहना’ मानते हैं, ‘स्वयं’ शब्द मैंने नहीं डाला, स्वामी दयानन्द सरस्वती का है। पर वादी लिखता है- ‘परमात्मा निराकार होने के कारण स्वयं बोल नहीं सकता। यह परस्पर-विरोध है। आप दोनों ही ने ‘स्वयं’ शब्द परस्पर विरुद्ध डाला है।
जब ऐसा है; और ‘यथेमां वाचं’ मन्त्र का ‘ईश्वर देवता’ है, और देवता प्रतिपाद्य को कहते हैं-यह पहले सिद्ध किया जा चुका है, तब यहाँ ईश्वर प्रतिपाद्य है- यह हमारा ही पक्ष वादी ने सिद्ध कर दिया। निराकार होने से बोल न सकने के कारण वह वादी के मत में भी ‘प्रतिपादक’ नहीं हो सकता । तब यहाँ वाणी यज्ञ करने वाले भक्त की ‘दीयतां भुज्यताम् आदि ही सिद्ध हुई, ‘वेदवाणी’ नहीं। क्योंकि वैसा होता, तो यह बात वेद के आदि वा अन्त में कही जाती। तब इस मन्त्र से स्त्री-शूद्रादि को वेदाधिकार सिद्ध न हुआ । ‘प्रियो देवानां भूयासम्, दक्षिणाया दातुश्च प्रियो भूयासम्’ का ‘हे भक्त ! ऐसा उद्योग कर जिससे देवों में मेरा प्रेम बढ़े, यज्ञ करने वालों तथा दक्षिणा देने वालों में मेरा प्रेम बढ़े, ‘अयं मे कामः समृध्यताम्’ का हे भक्त ! तेरे उद्योग से मेरी यह कामना पूर्ण हो’ यह अर्थ करके वादी ने परमात्मा को जहाँ अशक्त सिद्ध कर दिया, वहाँ ‘अपूर्ण कहने वाला’ भी सिद्ध कर दिया, इसलिए वादी बीच-बीच में उसकी न्यूनता को पूर्ण करने के लिए ‘ऐसा उद्योग कर’ ‘तेरे उद्योग’ आदि शब्द उसके वाक्य में प्रक्षिप्त भी करता गया है। साथ ही साथ परमात्मा को वादी ने ‘यावज्जीवमहं मौनी ब्रह्मचारी तु मे पिता। माता तु मम वन्ध्यासीद् अपुत्रश्च पितामहः’ का उदाहरण भी बना दिया। इधर वह अपने आपको निराकार कहकर अपने को बोलने में असमर्थ बताता है, इधर भक्त से बोलता भी जाता है। इस प्रकार वादी के पक्ष का तो समूलोन्मूलन ही हो गया। वेद उसके मत में ‘भक्त की वाणी’ सिद्ध हो गये, परमात्मा की नहीं, क्योंकि वादी के मत में निराकार की वाणी नहीं होती ।
(ख) हमने लिखा था कि- ‘वेद के विद्वान् श्रीशंकराचार्य आदि क्या वेद नहीं जानते थे, या उन्होंने ‘यथेमां वाचं’ मन्त्र को नहीं देखा और वेदान्तसूत्रों में शूद्र को वेदानधिकार लिख गये, इस पर विद्यालङ्कारजी का स्वामी शंकराचार्य के लिए ‘सार्वदेशिक’ (२२।७ पृष्ठ २९५) में यह कहना कि-“शंकराचार्यजी ने वेदान्तसूत्र (श्रवणाध्ययन-प्रतिषेधात्) का अर्थ ही नहीं समझा। दूसरे वे सदा उपनिषत् पढ़ने में लगे रहे, वेद का उन्होंने स्वाध्याय ही नहीं किया, तो ‘यथेमां वाचं’ [मन्त्र] उनकी दृष्टि में कहाँ से आता ?”
ऐसा धृष्ट लिखते हुए वादी को लज्जा आनी चाहिए। समय होता है आप लोग ‘भारती’ को वेदज्ञ सिद्ध करने के लिए यही उक्ति दिया करते हैं कि- ‘भला श्रीशङ्कराचार्य जैसे के साथ बिना वेद पढ़े शास्त्रार्थ कैसे हो सकता था?’ तब फिर आचार्य शंकर को वादी वेद का स्वाध्याय न करने वाला कैसे कहता है ? वादी के बाबा स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वामी श्रीशंकराचार्य के लिए कहते हैं कि-‘शंकराचार्यजी उज्जैन में आकर वेद का उपदेश करने लगे, उनमें शंकराचार्य का वेदमत था, अर्थात् उनका पक्ष वेदमत का स्थापन था’ (सत्यार्थ प्रकाश ११ समुल्लास १८१ पृष्ठ) तो क्या स्वामी दयानन्द सरस्वती जी उपनिषदों को वेद मानते थे, जो उन्होंने स्वामी शंकराचार्य के लिए ऐसा लिख दिया ? क्या बिना वेद का स्वाध्याय किए वेद का उपदेश हो सकता है ? आपके आर्यसमाजी विद्वान् श्रीनरदेवजी शास्त्री ‘आर्यसमाज का इतिहास’ प्रथम भाग में लिखते हैं ‘शंकर भगवान् चारों वेद पढ़े थे, सब शास्त्र देख चुके थे, वर्णाश्रमधर्म-मर्यादा के पक्षपाती थे, संन्यासी थे, तत्त्ववेत्ता थे, वैदिकधर्म के प्रबल रक्षक थे’ (पृष्ठ १४८) । अन्य आर्यसमाजी विद्वान् भी ऐसा ही मानते हैं, तब क्या वादी अन्य सभी विद्वानों को झूठा मानेगा ?
स्वामी शंकराचार्य ने १।१।२२-२३-२४, २६, १।३।२९, १।४।२७ आदि वेदान्तसूत्रों में तथा अन्यत्र भी ऋग्वेद संहिता के बहुत प्रमाण दिए हैं। अन्यत्र यजुर्वेदसंहिता (माध्यंदिना शाखा) तथा वाजसनेयक (शतपथ ब्राह्मण) का प्रमाण आदि भी दिया करते हैं, ‘वाजसनेयिनश्च एनमधीयते’ (१।२।२६) । तैत्तिरीयारण्यक, ऐतरेयारण्यक, षड्विंश ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ताण्ड्य-ब्राह्मण आदि को उदाहृत करते है। ईशोपनिषत् को उन्होंने बहुत उदाहृत किया है, वह यजुर्वेद ही तो है। १।३।३४ में ‘तस्मात् शूद्रो यज्ञेऽनवक्लृप्तः’ (७।१।१।६) यह कृष्णयजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता) का प्रमाण दिया है। ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति, वेदाहमेतं पुरुषम्, ३।३,५६ में ‘छागस्य वपाया मेदसोनुब्रूहि’ इत्यादि याजुष मन्त्रों को वे उदाहृत करते हैं। ३।३।१ के भाष्य में ‘तैत्तिरीय-कम्, वाजसनेयकम्, कौथुमकम्, शाठ्यायनकम्- इन संहिताओं को उन ने स्मरण किया है। ३।३।५५ में वेदों के शाखाभेदों को स्मरण किया है, तब ‘वे वेद नहीं जानते थे’ यह विद्यालङ्कार का कहना केवल ‘यथेमां’ के स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के किए अर्थ की रक्षार्थ ही है। उक्त आरोप उनका सर्वथा असत्य ही है।
वेदान्त-सूत्र का आशय भी आचार्य शङ्कर का लिखा ठीक ही है। स्वामी रामानुजाचार्य, स्वामी मध्वाचार्य, गोस्वामी वल्लभाचार्य, यतिपण्डित भगवदाचार्य, श्रीनिम्बार्काचार्य, वैयासिक न्यायमालाकार आदि सभी ने उस सूत्र का वही अर्थ लिखा है जो स्वामी शंकराचार्य ने । हमारा इस विषय में ‘ब्रह्मसूत्रका अपशुद्राधिकरण’ निबन्ध ‘दैनिक सन्मार्ग’ देहली (६।५२४-५३३) में प्रकाशित हो चुका है। इस प्रकार विद्यालङ्कार जी के आक्षेप भी परिहृत हो गए। हम उनके प्रत्युत्तर में विस्तीर्ण निबन्ध ‘सिद्धान्त’ काशी (८-४७।४८।४९) में प्रकाशित कर चुके हैं।
इस प्रकार वादियों के पक्ष के निराकृत होने से हमारा पक्ष पुष्ट हो गया कि-‘यथेमां वाचं कल्याणीं मन्त्र शुद्रादि को वेदाधिकार नहीं देता, किन्तु यज्ञ में ब्राह्मण-शुद्रादि सभी को ‘दीयताम्, भुज्यताम्’ वाली कल्याणी वाणी सुनवा रहा है। इसमें अन्य मन्त्र की साक्षी भी है-‘ऊर्जादः उत यज्ञियासः पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम्’ (ऋग्वेद १०।५।४) यहाँ पर ब्राह्मणादि-निषादान्त पञ्चजनों को यज्ञांत का अन्न खाकर यज्ञ को सफल बनाने वाला कहकर उनका आह्वान किया गया है कि- ‘हे अन्नादः अतएव यज्ञ, सम्पन्नता कर्तारः पञ्चजनाः ! मम होत्रं-हवम् ‘दीयतां भुज्यताम्’ इत्यादिकमाह्वानं शृणुत । इसकी स्पष्टता आगे की जावेगी । इस मन्त्र से भी यही सिद्ध हो रहा है कि ‘दीयतां, भुज्यताम्’ आदि वाणी के विषय चार वर्ण और पञ्चम निषाद हैं, वेदवाणी के नहीं। अपना पक्ष सिद्ध हो जाने से यह निबन्ध उपसंहृत किया जाता है। तभी ‘मीमांसा-न्यायप्रकाश’ पूर्वार्ध में ‘न स्त्री-शूद्रौ वेदमधीयाताम्’ यह प्राचीन वचन उद्धृत किया गया है, जिससे स्त्री एवं शूद्रों के वेदाध्ययन का निषेध आया है।
अब ‘ब्रह्मचर्येण कन्या, प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम्’ आदि से स्त्री-शूद्रों का जो उपनयन वा वेदाधिकार सिद्ध किया जाता है, उन पर विचार प्रदर्शित किया जाता है। विद्वान् पाठक आदि से अन्त तक इन निबन्धों को देखते चलें, और मनन करते चलें। इनके अशुद्ध अर्थ करके वादी आज जनता को शास्त्रविरुद्ध-मार्ग प्रदर्शित किया करते हैं, यह इस निबन्ध से जनता को मालूम हो जायगा ।
‘वेद का अधिकार स्त्री-शूद्रादि सभी को है’ इस विषय में ‘यथेमां वाचं कल्याणीम्’ यह जो वादियों की ओर से मुख्य वेदमन्त्र दिया जाता है; इसका तो हम समाधान कर ही चुके हैं। इसी विषय में ‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’ (अथर्ववेद संहिता) वेद को ऋषिकाएं, हारीतः-द्विविधा हि स्त्रियः, ब्रह्मवादिन्यः, सद्योवध्वश्च’ (हारीत धर्मसूत्र) ‘प्रावृतां यज्ञोपवीति-नोम्’ (गोभिल गृह्यसूत्र) ‘मीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता’ (ऋग्वेद संहिता) स्त्रिय उपनीता अनुपनीताश्च, ‘यज्ञोपवीतमार्गेण छिन्ना तेन तपस्विनी’ (वाल्मीकि रामायण) ‘अथ य इच्छेद् दुहिता मे पण्डिता जायेत’ (शतपथ ब्राह्मण) महामहोपाध्याय पंडित शिवदत्तजी के एतद्विषयक विचार, रामायण के प्रमाण, तथा पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम् (ऋग्वेद) । जातिपक्ष, श्रमन्त्रिका तु कार्येयं, वैवाहिको विधिः स्त्रीणां’ (२।६६-६७) इन मनु-वचनों की प्रक्षिप्तता; विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम्’ (निरुक्त) पति की अन्त्येष्टि आदि विषय के कई प्रश्न, ‘वेदं पत्न्यै प्रदाय वाचयेत् (आश्वलायन श्रौतसूत्र) यवनों का वेद पढ़ना (भविष्य-पुराण) इत्यादि प्रमाण वादियों की ओर से दिए जाते हैं, इस विषय का यही बल उनके पास है। इन प्रमाणों का समाधान करने से उनका पक्ष स्वयं निर्बल होकर विच्छिन्न हो जायगा एतदर्थ यह प्रयत्न है। ‘श्रीसनातनधर्मालोक’ के पाठकगण इधर अवहित हों।